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दुख हैं, तो दुख हरने वाले भी हैं
By फ़ुरसतिया on March 18, 2007
अभी पिछ्ले दिनों जब खुशी ने हमसे सवाल-जवाब किये तो उनमें से एक सवाल यह भी था कि अगर अब यात्रा पर जाने को कहा जाये तो कहां जायेंगे?
हमारा जवाब था -पहले तो घर से बाहर जायेंगे।
अपना देश और विदेश भी घूमने का मेरा मन और इरादा भी है। लेकिन अब साइकिल से नहीं। मोटर साइकिल से या कार से। ट्रेन, बस, हवाई जहाज से घूमने में वह मजा आ ही नहीं सकता जो अपने साधन से घूमने में है, जिसका नियंत्रण आपके अपने हाथ में हो, जब मन किय चल पड़े। जहां दिल लगा, ठहर गये।
अपनी पिछली यात्रा में हमने बालासोर के किस्से सुनाये थे। बालासोर से हम १६ जुलाई, १९८३ को लगभग ८० किमी दूर भद्रक पहुंचे। भद्रक में रहने का कोई ठीक जुगाड़ न होने के कारण हम रात में ही वहां से कटक के लिये निकल लिये। कटक पहुंचे सबेरे साढ़े नौ बजे। १७ जुलाई को ही हम कटक से भुवनेश्वर और भुवनेश्वर से पुरी पहुंचे। उसी दिन। भुवनेश्वर में हम ज्यादा देर रुके नहीं। शायद इसलिये कि एक तो हमें वहां के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी दूसरे हमारा कोई दोस्त वहां रहता नहीं था।
कटक हम रुके बहुत थो़ड़ी देर लेकिन उतने में ही हम वहां के समाचार पत्र में अपने कटक आगमन की खबर दे आये थे। सन १९८९ से १९९२ के दौरान उड़ीसा में रहने के दौरान मैं ऊड़िया पढ़ना सीखी था लेकिन अब अभ्यास के कारण छूट गया वर्ना उड़िया के इस अखबार के समाचार को हिंदी में लिखकर बताता। यह समाचार शायद उड़िया दैनिक समाज में छपा था।
कटक उड़ीसा के सबसे पुराने शहरों में से एक है। कटक मूलत: संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है छावनी। १००० वर्ष से अधिक पुराना यह शहर लगभग ९ शताब्दियों तक उड़ीसा की राजधानी रहा। बाद में भुवनेश्वर उड़ीसा की राजधानी बना। कटक चांदी, तांबे और हाथीदांत पर तारों के काम के लिये प्रसिद्ध है। इसे ‘ताराकसी‘ कहते हैं। चांदी के पतले तारों बने (ताराकसी) गहने बहुत आकर्षक लगते हैं।
उड़ीसा में यात्रा के दौरान गर्मी अपने चरम पर थी। रास्ते सूनसान। दूर-दूर तक कोई दिखता नहीं था। एक दोपहर हमने एक जानवर चराने वाले का फोटो खींचा। उसकी हड्डियां चमक रहीं थीं। भयंकर चिलचिलाती गर्मी में नंगे बदन तन पर सिर्फ लंगोटी। सर पर धूप से बचने के लिये शायद नारियल के पत्तों से बना छाता भी साथ में था।
भुवनेश्वर बोले तो संसार का ईश्वर १९८४८ में उड़ीसा की राजधानी बना। इसके पहले यह कलिंग की राजधानी रह चुका था। दस लाख से अधिक की आबादी वाला यह शहर मंदिरों का शहर के रूप में भी जाना जाता है। लिंगराज मंदिर, परसुरामेश्वर मंदिर और मुक्तेश्वर मंदिर यहां के प्रसिद्ध मंदिरों में हैं। प्रसिद्ध कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक द्वार बनवाया गया शांतिस्तूप भी शहर के दर्शनीय स्थलों में है।
भुवनेश्वर से हम उसी दिन मतलब १७ जुलाई को ही पुरी पहुंच गये। पुरी भारत का प्रमुख तीर्थ स्थल है। यह शहर ग्याहरवीं शताब्दी में बनवाये गये जगन्नाथ मंदिर के कारण प्रसिद्ध है। पुरी की प्रसिद्धि के अन्य कारणों में यहां का समुद्र तट, इसकी स्वर्ग के द्वार के रूप में मान्यता, आदि शंकराचार्य की पीठ होने के कारण, यहां की रथयात्रा, कोणार्क के सूर्य मंदिर के प्रवेश द्वार के रूप में तथा शिव शम्भू के अनुयायियों के लिये सरकारी दुकानों में उपलब्ध मारीजुआना और अफीम हैं।
पुरी के मंदिर में अछूतों का प्रवेश वर्जित है। अछूते मतलब गैर हिंदू और गैर सवर्ण। जब इंदिरा गांधी ने पारसी फिरोज गांधी से विवाह किया तो उनके मंदिर में प्रवेश की बात को लेकर बहुत बवाल मचा था। पुरी के रेलवे स्टेशन के बाहर एक बोर्ड लिखा है- यहां १९३१ में महात्मा गांधी आये थे, लेकिन उन्होंने मंदिर में जगन्नाथ जी के दर्शन नहीं किये थे, क्योंकि वहां अछूतों का प्रवेश वर्जित था। उन्होंने कस्तूरबा गांधी और महादेव देसाई को फटकारा था कि उन्होंने क्यों ऐसे देवता के दर्शन किये जिसका दर्शन अछूतों के लिये निषिद्ध था।
पुरी का मंदिर इस अर्थ में अपने ढंग का अनूठा है कि यहां हर बारह वर्ष में नयी मूर्तियां बनती हैं। सामान्यतया मंदिरों का जीर्णोद्धार होता रहता है। लेकिन पुरी का मंदिर इस मामले में अलग ही परम्परा है कि यहां बारह वर्ष के बाद देव मूर्तियां बदल दी जाती हैं। मूर्ति के निर्माण में नीम की लकड़ियों का प्रयोग होता है।
पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा भी बड़ी धूमधाम से निकलती है। बड़ा तामझाम, लाखों की भीड़। कॄष्ण, बलराम सुभद्रा की रथयात्रा। रथायात्रा का उद्देश्य यह बताया जाता है कि जो लोग मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते उनको दर्शन देने के लिये ही भगवान रथ में बाहर निकलते हैं। फिर वे गुंडीचा देवी के मंदिर में रहते हैं और वापस लौट आते हैं।
पुरी , कोणार्क, भुवनेश्वर मिलकर एक त्रिभुज बनाते हैं। तीनों उड़ीसा के प्रसिद्ध पर्यटक स्थल हैं। अगले दिन हम पुरी से कोणार्क गये। वहां का सूर्य मंदिर देखने। उसकी कहानी अगली पोस्ट में।
उनके तमाम प्रसिद्ध गीतों में से एक की शुरुआती पंक्ति- जो सिफारिश से सुलभ हो, है नहीं वह प्राप्य मेरा से उनके मिजाज का पता चलता है। कल उपेंन्द्र जी का शहर में दैनिक जागरण समूह की तरफ़ से सारस्वत सम्मान किया गया। मैं वहां मौजूद था। कवि विनोद श्रीवास्तव ने मुझे उपेंन्द्र और उनका रचनालोक पुस्तक उपलब्ध करा दी। इसमें उपेंन्द्र जी बारे में तमाम लोंगों के संस्मरण/पत्रों के अलावा उनके कुछ गीत भी संग्रहीत हैं। उपेन्द्र जी मूलत: प्यार के गीतकार हैं। उनके गीत पढ़ते हुये मुझे राकेश खंडेलवाल के गीत याद आ रहे थे।
अपने गले की तकलीफ के बावजूद उपेंन्द्रजी ने एक गीत वहां किंचित हिचकिचाहट के साथ पढ़ना शुरू किया। जैसे-जैसे गीत आगे बढ़ता गया , उनके चेहरे पर चमक और आवाज में उत्साह और मुस्कराहट आती गयी। कुछ लाइनों को सुनते हुये मैं अपनी कविता पंक्तियां आऒ बैठें कुछ देर पास में याद करने लगा। यहां प्रस्तुत है उपेंन्द्रजी गीत जिसका शीर्षक है-कोई प्यारा सा गीत गुनगुनायें।
साथी आओ कुछ देर ठहर जायें,
इस घने पेड़ के नीचे, सांझ ढले,
कोई प्यारा सा गीत गुनगुनायें
सन्नाटा कुछ टूटे कुछ मन बहले।
गीतों की ये स्वर-ताल मयी लड़ियां,
जुड़ती हैं जिनसे हृदयों की कड़ियां,
कोसों की वे दूरियां सिमटती हैं,
हंसते-गाते कटती दुख की घड़ियां।
भीतर का सोया वृंदावन जागे,
वंशी से ऐसा वेधक स्वर निकले।
माना जीवन में बहुत-बहुत तम है,
पर उससे ज्यादा तम का मातम है,
दुख हैं, तो दुख हरने वाले भी हैं,
चोटें हैं, तो चोटों का मरहम है,
काली-काली रातों में अक्सर,
देखे जग ने सपने उजले-उजले।
इस उपवन में बहार तब आती है,
पीड़ा ही जब गायन बन जाती है,
कविता अभाव के काटों में खिलती,
सुविधा की सेजों पर मुरझाती है;
हमसे पहले भी कितने लोग हुये,
जो अंधियारों के बनकर दीप जले।
आओ युग के संत्रासों से उबरें,
मन की अभिशप्त उसासों से उबरें,
रागों की मीठी छुवनों से शीतल
सुधियों की लहरों में डूबे-उछरें;
फिर चाहें प्राणों में बिजली कौंधे,
फिर चाहे नयनों में सावन मचले।
-उपेंद्र, कानपुर।
हमारा जवाब था -पहले तो घर से बाहर जायेंगे।
अपना देश और विदेश भी घूमने का मेरा मन और इरादा भी है। लेकिन अब साइकिल से नहीं। मोटर साइकिल से या कार से। ट्रेन, बस, हवाई जहाज से घूमने में वह मजा आ ही नहीं सकता जो अपने साधन से घूमने में है, जिसका नियंत्रण आपके अपने हाथ में हो, जब मन किय चल पड़े। जहां दिल लगा, ठहर गये।
अपनी पिछली यात्रा में हमने बालासोर के किस्से सुनाये थे। बालासोर से हम १६ जुलाई, १९८३ को लगभग ८० किमी दूर भद्रक पहुंचे। भद्रक में रहने का कोई ठीक जुगाड़ न होने के कारण हम रात में ही वहां से कटक के लिये निकल लिये। कटक पहुंचे सबेरे साढ़े नौ बजे। १७ जुलाई को ही हम कटक से भुवनेश्वर और भुवनेश्वर से पुरी पहुंचे। उसी दिन। भुवनेश्वर में हम ज्यादा देर रुके नहीं। शायद इसलिये कि एक तो हमें वहां के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी दूसरे हमारा कोई दोस्त वहां रहता नहीं था।
कटक हम रुके बहुत थो़ड़ी देर लेकिन उतने में ही हम वहां के समाचार पत्र में अपने कटक आगमन की खबर दे आये थे। सन १९८९ से १९९२ के दौरान उड़ीसा में रहने के दौरान मैं ऊड़िया पढ़ना सीखी था लेकिन अब अभ्यास के कारण छूट गया वर्ना उड़िया के इस अखबार के समाचार को हिंदी में लिखकर बताता। यह समाचार शायद उड़िया दैनिक समाज में छपा था।
कटक उड़ीसा के सबसे पुराने शहरों में से एक है। कटक मूलत: संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है छावनी। १००० वर्ष से अधिक पुराना यह शहर लगभग ९ शताब्दियों तक उड़ीसा की राजधानी रहा। बाद में भुवनेश्वर उड़ीसा की राजधानी बना। कटक चांदी, तांबे और हाथीदांत पर तारों के काम के लिये प्रसिद्ध है। इसे ‘ताराकसी‘ कहते हैं। चांदी के पतले तारों बने (ताराकसी) गहने बहुत आकर्षक लगते हैं।
उड़ीसा में यात्रा के दौरान गर्मी अपने चरम पर थी। रास्ते सूनसान। दूर-दूर तक कोई दिखता नहीं था। एक दोपहर हमने एक जानवर चराने वाले का फोटो खींचा। उसकी हड्डियां चमक रहीं थीं। भयंकर चिलचिलाती गर्मी में नंगे बदन तन पर सिर्फ लंगोटी। सर पर धूप से बचने के लिये शायद नारियल के पत्तों से बना छाता भी साथ में था।
भुवनेश्वर बोले तो संसार का ईश्वर १९८४८ में उड़ीसा की राजधानी बना। इसके पहले यह कलिंग की राजधानी रह चुका था। दस लाख से अधिक की आबादी वाला यह शहर मंदिरों का शहर के रूप में भी जाना जाता है। लिंगराज मंदिर, परसुरामेश्वर मंदिर और मुक्तेश्वर मंदिर यहां के प्रसिद्ध मंदिरों में हैं। प्रसिद्ध कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक द्वार बनवाया गया शांतिस्तूप भी शहर के दर्शनीय स्थलों में है।
भुवनेश्वर से हम उसी दिन मतलब १७ जुलाई को ही पुरी पहुंच गये। पुरी भारत का प्रमुख तीर्थ स्थल है। यह शहर ग्याहरवीं शताब्दी में बनवाये गये जगन्नाथ मंदिर के कारण प्रसिद्ध है। पुरी की प्रसिद्धि के अन्य कारणों में यहां का समुद्र तट, इसकी स्वर्ग के द्वार के रूप में मान्यता, आदि शंकराचार्य की पीठ होने के कारण, यहां की रथयात्रा, कोणार्क के सूर्य मंदिर के प्रवेश द्वार के रूप में तथा शिव शम्भू के अनुयायियों के लिये सरकारी दुकानों में उपलब्ध मारीजुआना और अफीम हैं।
पुरी के मंदिर में अछूतों का प्रवेश वर्जित है। अछूते मतलब गैर हिंदू और गैर सवर्ण। जब इंदिरा गांधी ने पारसी फिरोज गांधी से विवाह किया तो उनके मंदिर में प्रवेश की बात को लेकर बहुत बवाल मचा था। पुरी के रेलवे स्टेशन के बाहर एक बोर्ड लिखा है- यहां १९३१ में महात्मा गांधी आये थे, लेकिन उन्होंने मंदिर में जगन्नाथ जी के दर्शन नहीं किये थे, क्योंकि वहां अछूतों का प्रवेश वर्जित था। उन्होंने कस्तूरबा गांधी और महादेव देसाई को फटकारा था कि उन्होंने क्यों ऐसे देवता के दर्शन किये जिसका दर्शन अछूतों के लिये निषिद्ध था।
पुरी का मंदिर इस अर्थ में अपने ढंग का अनूठा है कि यहां हर बारह वर्ष में नयी मूर्तियां बनती हैं। सामान्यतया मंदिरों का जीर्णोद्धार होता रहता है। लेकिन पुरी का मंदिर इस मामले में अलग ही परम्परा है कि यहां बारह वर्ष के बाद देव मूर्तियां बदल दी जाती हैं। मूर्ति के निर्माण में नीम की लकड़ियों का प्रयोग होता है।
पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा भी बड़ी धूमधाम से निकलती है। बड़ा तामझाम, लाखों की भीड़। कॄष्ण, बलराम सुभद्रा की रथयात्रा। रथायात्रा का उद्देश्य यह बताया जाता है कि जो लोग मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते उनको दर्शन देने के लिये ही भगवान रथ में बाहर निकलते हैं। फिर वे गुंडीचा देवी के मंदिर में रहते हैं और वापस लौट आते हैं।
पुरी , कोणार्क, भुवनेश्वर मिलकर एक त्रिभुज बनाते हैं। तीनों उड़ीसा के प्रसिद्ध पर्यटक स्थल हैं। अगले दिन हम पुरी से कोणार्क गये। वहां का सूर्य मंदिर देखने। उसकी कहानी अगली पोस्ट में।
मेरी पसंद
मेरी पसंद में आज कानपुर के प्रख्यात गीतकार उपेंन्द्र जी का एक गीत दे रहा हूं। उपेंन्द्रजी ने तमाम गीत लिखे हैं जो उनके श्रोता गुनगुनाते रहते हैं। उनके गीतकंठ से प्रभावित होकर एक बार बच्चन जी ने उनसे कहा -उपेंन्द्र मैं तुम्हारा गला काट के ले जाउंगा।उनके तमाम प्रसिद्ध गीतों में से एक की शुरुआती पंक्ति- जो सिफारिश से सुलभ हो, है नहीं वह प्राप्य मेरा से उनके मिजाज का पता चलता है। कल उपेंन्द्र जी का शहर में दैनिक जागरण समूह की तरफ़ से सारस्वत सम्मान किया गया। मैं वहां मौजूद था। कवि विनोद श्रीवास्तव ने मुझे उपेंन्द्र और उनका रचनालोक पुस्तक उपलब्ध करा दी। इसमें उपेंन्द्र जी बारे में तमाम लोंगों के संस्मरण/पत्रों के अलावा उनके कुछ गीत भी संग्रहीत हैं। उपेन्द्र जी मूलत: प्यार के गीतकार हैं। उनके गीत पढ़ते हुये मुझे राकेश खंडेलवाल के गीत याद आ रहे थे।
अपने गले की तकलीफ के बावजूद उपेंन्द्रजी ने एक गीत वहां किंचित हिचकिचाहट के साथ पढ़ना शुरू किया। जैसे-जैसे गीत आगे बढ़ता गया , उनके चेहरे पर चमक और आवाज में उत्साह और मुस्कराहट आती गयी। कुछ लाइनों को सुनते हुये मैं अपनी कविता पंक्तियां आऒ बैठें कुछ देर पास में याद करने लगा। यहां प्रस्तुत है उपेंन्द्रजी गीत जिसका शीर्षक है-कोई प्यारा सा गीत गुनगुनायें।
साथी आओ कुछ देर ठहर जायें,
इस घने पेड़ के नीचे, सांझ ढले,
कोई प्यारा सा गीत गुनगुनायें
सन्नाटा कुछ टूटे कुछ मन बहले।
गीतों की ये स्वर-ताल मयी लड़ियां,
जुड़ती हैं जिनसे हृदयों की कड़ियां,
कोसों की वे दूरियां सिमटती हैं,
हंसते-गाते कटती दुख की घड़ियां।
भीतर का सोया वृंदावन जागे,
वंशी से ऐसा वेधक स्वर निकले।
माना जीवन में बहुत-बहुत तम है,
पर उससे ज्यादा तम का मातम है,
दुख हैं, तो दुख हरने वाले भी हैं,
चोटें हैं, तो चोटों का मरहम है,
काली-काली रातों में अक्सर,
देखे जग ने सपने उजले-उजले।
इस उपवन में बहार तब आती है,
पीड़ा ही जब गायन बन जाती है,
कविता अभाव के काटों में खिलती,
सुविधा की सेजों पर मुरझाती है;
हमसे पहले भी कितने लोग हुये,
जो अंधियारों के बनकर दीप जले।
आओ युग के संत्रासों से उबरें,
मन की अभिशप्त उसासों से उबरें,
रागों की मीठी छुवनों से शीतल
सुधियों की लहरों में डूबे-उछरें;
फिर चाहें प्राणों में बिजली कौंधे,
फिर चाहे नयनों में सावन मचले।
-उपेंद्र, कानपुर।
Posted in जिज्ञासु यायावर, संस्मरण | 14 Responses
-उपेन्द्र जी का गीत बहुत पसंद आया और लगे हाथ आप की कविता का भी फिर लुत्फ उठा लिया.
और वहीं पर मैने उनकेमधुर रागमय गीत सुने थी
आज याद जीवंत हो उठीं, फिर से सुधियाँ लगीं महकने
सन्ध्या ने अभिनन्दन उबका करते करते रंग चुने थे
आशा है इस बार यात्रा में उनसे हो भेंट दुबारा
और पढूँ उनके गीतों का मै फिर से विभोर हो होकर
तब तक ऐसे ही ले आयें अद्भुत रचनायें चिट्ठे पर
यही आपसे मेरा निवेदन,सविनय करता गदगद होकर
इतने दिनों के बाद फ़िर से आपकी यायावरी के किस्से सुनकर बडा अच्छा लगा । ऐसे ही लिखते रहें ।
वैसे आज पाकिस्तान के क्रिकेट कोच बाव वूलर की असमय मृत्यु की खबर पढकर मन बडा क्षुब्ध है । मीडिया ने एक खेल को जिस तरह जीवन और मृत्यु का प्रश्न बनाकर रख दिया है, उस कारण आज मृत्यु ने एक जीवन छीन लिया ।
मजा नही आया !
Aisaa bhaarat ke kuch aur mandiron ke baare mein bhi sahii hai.
Kaashi-Vishvnaath mandir ke baahar bhi aisa hee board laga hai. vahan gandhi parivaar ke kayi log nahin jaa paye hain. Soniya gandhi bhi vanchit rahii hain. uss mandir kee kahani kabhi likh kar bhejeinge.
Shesh shubh hai.
Ripudaman Pachauri
प्रणाम.