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भारतीय आयुध निर्माणियाँ सबसे पुरानी एवं सबसे बड़ा औद्योगिक ढांचा हैं
जो रक्षा मंत्रालय के रक्षा उत्पादन विभाग के अंतर्गत कार्य करती हैं। आयुध
निर्माणियां रक्षा हार्डवेयर ( यंत्र सामग्री ) सामान एवं उपस्कर के
स्वदेशी उत्पादन के लिए सशस्त्र सेनाओं को आधुनिकतम युध्दभूमि उपस्करों से
सज्जित करने के प्रारंभिक उद्वेश्यों के साथ एकनिष्ठ आधार की संरचना करती
हैं।
आयुध निर्माणियां, जिनका ध्येय वाक्य है- विनाशाय च दुष्कृताम ,मुख्यत: देश की रक्षा सेनाऒं की जरूरत के अनुसार सामान मुहैया कराने का काम करती हैं। सेनाऒं की इन जरूरतों में तोप, टैंक, राकेट, बम, गोला-बारूद से लेकर कपड़े, जूते, मोजे, सुई-धागा रखने की डिबिया तक शामिल हैं। सैनिकों की आवश्यकता का ऐसा कोई सामान नहीं जिसकी आपूर्ति आयुध निर्माणियां न करती हों। कुछ सालों पहले तक आगरा के पास की हजरतपुर स्थित फैक्ट्री से सियाचिन जैसी ऊंचाई पर मांस की सप्लाई भी होती थी।
मूलत: रक्षा सेनाऒं की जरूरतें पूरा करने के कारण ही आयुध निर्माणियों को जल, थल, नभ सेनाओं के साथ रक्षा सेनाऒं का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। आज देश में कुल मिलाकर चालीस आयुध निर्माणियां हैं। ये निर्माणियां देश के विभिन्न हिस्सों में हैं। इनमें से महाराष्ट्र में सबसे अधिक दस निर्माणियां हैं। उत्तर प्रदेश में कुल आठ आयुध निर्माणियां हैं जिनमें से पांच अकेले कानपुर में हैं।
इन आयुध निर्माणियों में देश की पहली आयुध निर्माणी की स्थापना १८ मार्च सन १८०२ को कलकत्ता में हुयी। गन एन्ड शेल फैक्ट्री, काशीपुर देश की सबसे पुरानी फैक्ट्री है। बाद में देश के विभिन्न हिस्सों में आयुध निर्माणियां स्थापित होती गयीं। काशीपुर फैक्ट्री के बारे में बताते हैं द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जब कलकत्ते पर हमले का खतरा हुआ तो वहां से उठाकर फैक्ट्री कानपुर में लगा दी गयीं। ये फैक्ट्रियां TP-1, TP-2 (ट्रांसप्लांटेशन प्रोजेक्ट) के नाम से स्थापित हैं। बाद में इनको आयुध निर्माणी कानपुर और लघु शस्त्र निर्माणी का नाम दिया गया। इक्विपमेंट फैक्ट्री जो उन दिनों किले के नाम से जाती थी की स्थापना १८५९ में पहले चमड़े के सामान बनाने के लिये हुयी। पैरासूट फ़ैक्ट्री भी १९४१ में बनी। फील्डगन फ़ैक्ट्री कानपुर की सबसे नयी फ़ैक्ट्री है।
आजादी के बाद पंचशील सिद्धान्त और देश के अहिंसा की तरफ़ झुकाव के कारण के चलते आयुध निर्माणियों की महत्ता कुछ कम हुयी। कुछ लोगों ने यह भी विचार जाहिर किया कि इन निर्माणियों को बन्द कर दिया जाना चाहिये। फैक्टियों कप-प्लेट बनाने वाली फैक्ट्रियों के रूप में जानी जाने लगीं।
लेकिन जब चीन से लड़ाई में मात खाये तो देश को अपनी रक्षा सेनाओं के लिये हथियारों और दूसरे सामानों की आपूर्ति के लिये आयुध निर्माणियों के महत्व का अहसास हुआ। एक के बाद एक तमाम फैक्ट्रियां खोली गयीं।
देश का सबसे पुराना संस्थान होने के कारण आयुध निर्माणियों में तमाम काम ऐसे हुये जो देश में पहली बार हुये थे। कम्प्यूटराजेशन की शुरुआत सबसे पहले यहां ही हुयी। सन १९६३-६४ में। सन १९८८ में जब मैं आयुध निर्माणी, कानपुर में आया था तब देखा था कि यहां कम्प्यूटर पर काफ़ी कुछ काम होता है। तमाम मैनेजमेंट तकनीकें यहां देश में यहां सबसे पहले लागू हुयीं। मेरे देखते-देखते क्वालिटी सर्कल, 5-S, टी.क्यू.एम, बेंच मार्किंग, सिक्स सिगमा, आइ.एस.ओ., टी.पी.एम. की हवायें आयुध निर्माणियों की फिजाओं में तैरती रहीं। फिलहाल आज देश की हर फैक्ट्री को आई.एस.ओ. प्रमाणपत्र प्राप्त है। कुछ अस्पताल और प्रशिक्षण संस्थान भी आई.एस.ओ.प्रमाणपत्र पा चुके हैं।
भारतीय आयुध निर्माणियों की खासियत यह है कि यहां देश की आधुनिकतम से आधुनिकतम तकनीक से लेकर प्राचीनतम तकनीकों का प्रयोग होता है। तमाम मशीनें/ सुविधायें यहां ऐसी हैं जो देश में केवल यहीं पर हैं।
उत्पादों की बात करें तो यहां हजारों तरह के उत्पाद बनते हैं। शाहजहांपुर स्थित फैक्ट्री में बनने वाले उत्पाद शून्य से चालीस डिग्री नीचे के तापमान में सैनिकों के काम आते हैं। पता नहीं कितना सच है लेकिन शाहजहांपुर के लोग बताते हैं कि शेरपा तेनसिंह और एडमण्ड हिलेरी जो ग्लेशियर सूट पहन कर एवरेस्ट पर चढे़ थे वह शाहजहांपुर फैक्ट्री में बना था। शाहजहांपुर फैकट्री सन १९१४ में स्थापित हुयी थी। लोग बताते हैं कि शुरुआत में टेलर लोग अपनी-अपनी मशीनें अपने साथ लेकर आते थे और उनको कपड़े सिलने का काम दिया गया था।
आमतौर पर सरकारी उपक्रम अपनी काहिली के लिये बदनाम हैं। लेकिन कुछ आयुध निर्माणियों में ,खासकर कपड़ा बनाने वाली फैक्ट्रियों में मैंने देखा कि कामगार लगातार काम पर लगे रहते हैं। शाहजहांपुर में मैंने देखा कि लोग खाने-पीने के समय के अलावा काम पर लगे रहते।
वहीं तस्वीर का दूसरा पहलू भी है कि जिन जगहों पर नयी मशीनें लगीं, उत्पादकता बढ़ी वहां कीमतों में उतनी कमी नहीं हुई जितनी मशीनों की क्षमता के अनुसार होनी चाहिये। लेकिन धीरे-धीरे इस दिशा में प्रयास हो रहे हैं। रेलवे में तो अभी दो-तीन सालों में किराये में बढ़ोत्तरी नहीं हुयी है लेकिन आयुध निर्माणियों में ऐसा पिछले कई वर्षों से हो रहा है कि तमाम उत्पादों की कीमतें लगभग स्थिर हैं। अब यह अलग बात है कि इसके लिये हम लोगों को मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट नहीं बुलाता।
आयुध निर्माणियां लाभ कमाने के लिये नहीं हैं। रक्षा सेनाऒं की आपूर्ति का काम वे बिना किसी लाभ के करती हैं। अक्सर यह हल्ला होता है कि देश के रक्षा उत्पादन का काम प्राइवेट फैक्ट्रियां करने लगेंगीं लेकिन अभी तक यह सम्भव हो नहीं पाया है। इसका मुख्य कारण यह है कि जितने विविध प्रकार के उत्पाद आयुध निर्माणियां बनाने में सक्षम हैं उतने विविध उत्पाद बनाने के लिये क्षमतायें प्राइवेट कम्पनियां रखें और आर्डर न मिले तो उनका पैसा डूब जाये।
जब-जब शांतिकाल आता है तब-तब आयुध निर्माणियों के कारपोरेशन बनने और प्राइवेट हाथों में जाने की बात होती है। लेकिन पिछले कारगिल युद्ध में जब देश को कम समय के लिये ही सही लड़ाई लड़नी पड़ी तब एक बार फिर यह अहसास हुआ कि अगर प्राइवेट कम्पनियां होतीं तो शायद वे युद्ध सामग्री सप्लाई करने में पीछे हट जातीं या मुंहमांगी कीमत मांगती। लेकिन आयुध निर्माणियों ने उस संकट के समय अपनी क्षमताओं से अधिक आपूर्ति की।
हमारे लेखा विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी मजाक करते हुये कहते थे- वार से शुड बि अवर मोटो। हमारा ध्येय युद्ध होना चाहिये। युद्ध होता रहेगा तो हमारी आवश्यकता महसूस की जाती रहेगी।
मजे की बात मैंने यह देखी पिछले सालों में कि देश की सेना अपनी जरूरत के लिये कुछ सामान आयात करती है। फिर उसका उत्पादन आयुध निर्माणियों में शुरू होता है। जैसे ही यहां धुआंधार उत्पादन शुरू होता है, सेना की मांग बदल जाती है। उनकी मांग अब दूसरे आइटम की हो जाती है। कभी-कभी एकदम पुराने पड़ चुके आइटम की मांग आ जाती है जिसका उत्पादन सालों पहले बंद हो चुका होता है, मशीनें उखड़ चुकी होती हैं। मांग आने पर फिर से नये सिरे से टंडीला बांधा जाता है।
डिजाइन में भले हम लोग दक्ष न हों लेकिन जुगाड़ तकनीक में हमारी क्षमता अद्भुत है। जो मशीने सालों पहले १०५मिमी तोप के गोले बनाने के लिये आयीं थीं उनमें जरूरत के हिसाब से बदलाव करके १३० मिमी की तोप के गोले धड़ल्ले से लाखों बना डाले गये। १३० मिमी की तोप में ही बदलाव करके १५५ मिमी की तोप बना ली गयी जो इजराइल से आयात की जाने वाली तोपों से बेहतर पायीं गयीं।
अक्सर आयुध निर्माणियों और दूसरे सरकारी उत्पादन संस्थानों की आलोचना इसलिये होती है कि उनके यहां बनाये गये उत्पादों की कीमत प्राइवेट कम्पनियों के मुकाबले अधिक होती है। इसका कारण इन संस्थानों का कल्याणकारी स्वरूप होना है। फैक्ट्री है तो स्कूल हैं, रहने के लिये कालोनी है, बिजली,पानी की व्यवस्था है। न्यूननतम वेतनमान हैं और हर छह माह बाद बढ़ने वाले डी.ए. हैं। जबकि प्राइवेट संस्थायें इन सब कानूनों को धता बताते हुये, न्यूनतम वेतनमान को अगूंठा दिखाती हुयी देश की बेरोजगारी का लाभ उठाते हुये सस्ते दाम पर सामान दे देने का दावा करती हैं। जिनकी गुणवत्ता के बारे में अक्सर भगवान ही मालिक होता है।
देश में उत्पादन से सम्बन्धित जितनी तकनीकें और नियम कानून बने उनका उत्स कहीं न कहीं आयुध निर्माणियों में है। सन १९०० तक के रिकार्ड यहां सुलभ हो सकते हैं। अपने मित्र नीरज केला के पास मैंने गन कैरेज, फैक्ट्री जबलपुर( जहां महर्षि महेश योगी नौकरी कर चुके हैं) के सन १९१८ के रिकार्ड देखे जिसमें पुराने सर्कुलरों में बिजली की बरबादी रोकने, ऊर्जा की खपत कम करने से सम्बन्धित निर्देश हैं। शाहजहांपुर में मैंने १९४४ के लिखे पत्र देखे। आज जिन आई.एस.ऒ. स्टैंडर्ड की हवा चल रही है वो हमारी निर्माणियों में बहुत पहले से लागू थे। सच तो यह है कि इन नये स्टैंडर्डों के लागू होने से तमाम जरूरी नियम हम लोगों ने त्याग दिये और तमाम गैरजरूरी अपना लिये। न खुदा मिला न विसाले सनम की तर्ज पर। कारण शायद यह भी है कि नियम-कानून हम लोग अपनाने के लिये अपना लेते हैं। उसकी भावना का पालन नहीं करते।
मैंने सन १९८८ में उप्र राज्य विद्युत आयोग की एक साल की नौकरी छोड़कर कानपुर में आयुध निर्माणी में ज्वाइन किया था। पिछ्ले अठारह वर्षों के अपने कार्यकाल में मैंने अपने संस्थान में तमाम उतार चढ़ाव देखे। अन्य तमाम संस्थाऒं की तरह यहां भी बदलाव की हवायें चलती रहीं। अधिकारियों का चयन यहां भारत सरकार के संघ लोक सेवा आयोग द्वारा होता है। पहले यहां कोई विरला ही ऐसा होता था इंजीनियरिंग बी.टेक. किये हुये लड़के प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी से नीचे की पोस्ट पर ज्वाइन करें। अब देश में बढ़ते इंजीनियरिंग कालेजों की मेहरबानी कि आज चार्जमैन (स्टाफ) की पोस्ट पर भी बी.टेक., एम.टेक. किये हुये लड़के आते हैं। इनमें से कुछ तो प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग संस्थानों से एम.टेक. किये हुये बच्चे होते हैं। इससे देश के इंजीनियरों की हालत का अंदाजा लगता है कि उनको क्या अवसर सुलभ हैं। कितने रोजगार उपलब्ध हैं।
स्टाफ की पोस्ट पर भरती का मतलब है कि जब तक वे सामान्य क्रम उस जगह पर पहुंचेंगे जहां से हमने नौकरी शुरू की तब तक वे पंद्रह साल की नौकरी कर चुके होंगे।
मैंने तमाम सरकारी विभाग देखे हैं। मैंने पाया है कि आयुध निर्माणियों में जो लोग काम करते हैं वे बारह-बारह घंटे तक लगे रहते हैं। काम करने की तकनीकें अभी काफ़ी पुरानी भी हैं। सबसे अच्छे मैंनेजर वे पाये गये जो सबसे अच्छे ‘चेजर’ थे।
देश की आधुनिकतम उपलब्धियां हासिल करने में भी आयुध निर्माणियों का योगदान है। यहां अग्नि, पृथ्वी मिसाइल के कुछ भाग बनते रहे। अब ‘पिनाका’ राकेट के उत्पादन में भी सहयोग हमारी निर्माणियां दे रही हैं।
यह मजेदार बात है कि आयुध निर्माणियों के बारे में लोग कम जानते हैं। लोग पते में अक्सर आर्डनेन्स (तोपखाना) की जगह आर्डिनेन्स( अध्यादेश) शब्द का प्रयोग करते हैं। इसका कारण यह भी है कि आयुध निर्माणियों के लोग अपने प्रचार के प्रति नितान्त उदासीन रहते हैं।
सन १९४७ में आयुध निर्माणियों का कुल उत्पादन १५ करोड़ था। यह आजकल ७५०० करोड़ है। जबकि पिछले वर्षों में यहां कर्मचारियों की संख्या में कमी आती गयी है जिनकी जगह नयी भर्तियां बन्द हैं। लगभग हर निर्माणी अपने कार्य करने के तरीके और खर्चे कम करके उत्पादन लागत कम करके और उत्पादन बढ़ाने के लिये प्रयास रत है।
अक्सर आयुध निर्माणियों की आलोचना यहां की खराब आपूर्ति के नाम पर होती है। खासकर यूनीफार्म से सम्बन्धित आपूर्ति के कारण। इसका कारण यह है कि सेनाओं के जवान को तो यह पता है कि उसे आपूर्ति आयुध निर्माणियों से होती है। लेकिन सच यह है कि आयुध निर्माणियों के कामगारों की घटती संख्या के चलते यूनीफार्म से सम्बंधित सेना की आवश्यकता की मांग आयुध निर्माणियां पूरी नहीं कर पातीं। यूनीफार्म से संबंधित उत्पादन श्रमिकों की संख्या पर निर्भर करता है। लिहाजा सेनायें इसे प्राइवेट पार्टियों से खरीदती हैं जो कि घटिया सामान सेनाऒं को टिका देती हैं। कम कीमत पर। कभी -कभी क्या अक्सर इनकी सप्लाई की कीमत इतनी कम होती है जितने में यूनीफ़ार्म का कपड़ा नहीं आता। ऐसे में सामान में गुणवत्ता कहां से आयेगी।
इस गलतफ़हमी को दूर करने के लिये अब हमारे अधिकारी सेना की यूनिटों का दौरा करते हैं। लेह, लद्दाख तक जाते हैं ताकि सेना के जवानों की तकलीफ़ें समझकर उनका निदान कर सकें।
यूनीफ़ार्म फिट न होने का एक और कारण यह भी है कि जब जवान भर्ती होता है तो उसका जो साइज होता है वही ताजिंदगी बना रहता है। उसमें बदलाव नहीं करते सेना के लोग सामान मांगते समय। लेकिन इस बीच जवान का शरीर तो बदल चुका होता है, लिहाजा समस्या होती है।
परसों अठारह मार्च को रविवार होने के कारण हमारे यहां कल स्थापना दिवस मनाया गया। सबेरे आयुध निर्माणी का झंडा फहराया गया और आयुध निर्माणियों का समूह गीत गाया गया- हम हैं आयुध निर्माणी के कर्णधार!
यहां उपलब्ध साइट जिसका कि हिंदीकरण करने में मृणाल त्रिपाठी का भी सक्रिय योगदान रहा है, में आप देखिये कि देश की सेनाओं को किस तरह के उत्पाद हम सप्लाई करते हैं। हम राष्ट्र की सेवा में सदैव तत्पर हैं।
आयुध निर्माणियां- विनाशाय च दुष्कृताम
हमारे कई साथी जानते हैं कि मैं आयुध निर्माणी में कार्यरत हूं। यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि आयुध निर्माणियां
देश के सबसे पुराने संस्थानों में से है। परसों यानि १८ मार्च को आयुध
निर्माणियों की स्थापना के २०५ वर्ष पूरे हुये। आइये इस स्थापना दिवस के
अवसर पर आपको आयुध निर्माणियों की कुछ जानकारी दी जाये।
आयुध निर्माणियां, जिनका ध्येय वाक्य है- विनाशाय च दुष्कृताम ,मुख्यत: देश की रक्षा सेनाऒं की जरूरत के अनुसार सामान मुहैया कराने का काम करती हैं। सेनाऒं की इन जरूरतों में तोप, टैंक, राकेट, बम, गोला-बारूद से लेकर कपड़े, जूते, मोजे, सुई-धागा रखने की डिबिया तक शामिल हैं। सैनिकों की आवश्यकता का ऐसा कोई सामान नहीं जिसकी आपूर्ति आयुध निर्माणियां न करती हों। कुछ सालों पहले तक आगरा के पास की हजरतपुर स्थित फैक्ट्री से सियाचिन जैसी ऊंचाई पर मांस की सप्लाई भी होती थी।
मूलत: रक्षा सेनाऒं की जरूरतें पूरा करने के कारण ही आयुध निर्माणियों को जल, थल, नभ सेनाओं के साथ रक्षा सेनाऒं का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। आज देश में कुल मिलाकर चालीस आयुध निर्माणियां हैं। ये निर्माणियां देश के विभिन्न हिस्सों में हैं। इनमें से महाराष्ट्र में सबसे अधिक दस निर्माणियां हैं। उत्तर प्रदेश में कुल आठ आयुध निर्माणियां हैं जिनमें से पांच अकेले कानपुर में हैं।
इन आयुध निर्माणियों में देश की पहली आयुध निर्माणी की स्थापना १८ मार्च सन १८०२ को कलकत्ता में हुयी। गन एन्ड शेल फैक्ट्री, काशीपुर देश की सबसे पुरानी फैक्ट्री है। बाद में देश के विभिन्न हिस्सों में आयुध निर्माणियां स्थापित होती गयीं। काशीपुर फैक्ट्री के बारे में बताते हैं द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जब कलकत्ते पर हमले का खतरा हुआ तो वहां से उठाकर फैक्ट्री कानपुर में लगा दी गयीं। ये फैक्ट्रियां TP-1, TP-2 (ट्रांसप्लांटेशन प्रोजेक्ट) के नाम से स्थापित हैं। बाद में इनको आयुध निर्माणी कानपुर और लघु शस्त्र निर्माणी का नाम दिया गया। इक्विपमेंट फैक्ट्री जो उन दिनों किले के नाम से जाती थी की स्थापना १८५९ में पहले चमड़े के सामान बनाने के लिये हुयी। पैरासूट फ़ैक्ट्री भी १९४१ में बनी। फील्डगन फ़ैक्ट्री कानपुर की सबसे नयी फ़ैक्ट्री है।
आजादी के बाद पंचशील सिद्धान्त और देश के अहिंसा की तरफ़ झुकाव के कारण के चलते आयुध निर्माणियों की महत्ता कुछ कम हुयी। कुछ लोगों ने यह भी विचार जाहिर किया कि इन निर्माणियों को बन्द कर दिया जाना चाहिये। फैक्टियों कप-प्लेट बनाने वाली फैक्ट्रियों के रूप में जानी जाने लगीं।
लेकिन जब चीन से लड़ाई में मात खाये तो देश को अपनी रक्षा सेनाओं के लिये हथियारों और दूसरे सामानों की आपूर्ति के लिये आयुध निर्माणियों के महत्व का अहसास हुआ। एक के बाद एक तमाम फैक्ट्रियां खोली गयीं।
देश का सबसे पुराना संस्थान होने के कारण आयुध निर्माणियों में तमाम काम ऐसे हुये जो देश में पहली बार हुये थे। कम्प्यूटराजेशन की शुरुआत सबसे पहले यहां ही हुयी। सन १९६३-६४ में। सन १९८८ में जब मैं आयुध निर्माणी, कानपुर में आया था तब देखा था कि यहां कम्प्यूटर पर काफ़ी कुछ काम होता है। तमाम मैनेजमेंट तकनीकें यहां देश में यहां सबसे पहले लागू हुयीं। मेरे देखते-देखते क्वालिटी सर्कल, 5-S, टी.क्यू.एम, बेंच मार्किंग, सिक्स सिगमा, आइ.एस.ओ., टी.पी.एम. की हवायें आयुध निर्माणियों की फिजाओं में तैरती रहीं। फिलहाल आज देश की हर फैक्ट्री को आई.एस.ओ. प्रमाणपत्र प्राप्त है। कुछ अस्पताल और प्रशिक्षण संस्थान भी आई.एस.ओ.प्रमाणपत्र पा चुके हैं।
भारतीय आयुध निर्माणियों की खासियत यह है कि यहां देश की आधुनिकतम से आधुनिकतम तकनीक से लेकर प्राचीनतम तकनीकों का प्रयोग होता है। तमाम मशीनें/ सुविधायें यहां ऐसी हैं जो देश में केवल यहीं पर हैं।
उत्पादों की बात करें तो यहां हजारों तरह के उत्पाद बनते हैं। शाहजहांपुर स्थित फैक्ट्री में बनने वाले उत्पाद शून्य से चालीस डिग्री नीचे के तापमान में सैनिकों के काम आते हैं। पता नहीं कितना सच है लेकिन शाहजहांपुर के लोग बताते हैं कि शेरपा तेनसिंह और एडमण्ड हिलेरी जो ग्लेशियर सूट पहन कर एवरेस्ट पर चढे़ थे वह शाहजहांपुर फैक्ट्री में बना था। शाहजहांपुर फैकट्री सन १९१४ में स्थापित हुयी थी। लोग बताते हैं कि शुरुआत में टेलर लोग अपनी-अपनी मशीनें अपने साथ लेकर आते थे और उनको कपड़े सिलने का काम दिया गया था।
आमतौर पर सरकारी उपक्रम अपनी काहिली के लिये बदनाम हैं। लेकिन कुछ आयुध निर्माणियों में ,खासकर कपड़ा बनाने वाली फैक्ट्रियों में मैंने देखा कि कामगार लगातार काम पर लगे रहते हैं। शाहजहांपुर में मैंने देखा कि लोग खाने-पीने के समय के अलावा काम पर लगे रहते।
वहीं तस्वीर का दूसरा पहलू भी है कि जिन जगहों पर नयी मशीनें लगीं, उत्पादकता बढ़ी वहां कीमतों में उतनी कमी नहीं हुई जितनी मशीनों की क्षमता के अनुसार होनी चाहिये। लेकिन धीरे-धीरे इस दिशा में प्रयास हो रहे हैं। रेलवे में तो अभी दो-तीन सालों में किराये में बढ़ोत्तरी नहीं हुयी है लेकिन आयुध निर्माणियों में ऐसा पिछले कई वर्षों से हो रहा है कि तमाम उत्पादों की कीमतें लगभग स्थिर हैं। अब यह अलग बात है कि इसके लिये हम लोगों को मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट नहीं बुलाता।
आयुध निर्माणियां लाभ कमाने के लिये नहीं हैं। रक्षा सेनाऒं की आपूर्ति का काम वे बिना किसी लाभ के करती हैं। अक्सर यह हल्ला होता है कि देश के रक्षा उत्पादन का काम प्राइवेट फैक्ट्रियां करने लगेंगीं लेकिन अभी तक यह सम्भव हो नहीं पाया है। इसका मुख्य कारण यह है कि जितने विविध प्रकार के उत्पाद आयुध निर्माणियां बनाने में सक्षम हैं उतने विविध उत्पाद बनाने के लिये क्षमतायें प्राइवेट कम्पनियां रखें और आर्डर न मिले तो उनका पैसा डूब जाये।
जब-जब शांतिकाल आता है तब-तब आयुध निर्माणियों के कारपोरेशन बनने और प्राइवेट हाथों में जाने की बात होती है। लेकिन पिछले कारगिल युद्ध में जब देश को कम समय के लिये ही सही लड़ाई लड़नी पड़ी तब एक बार फिर यह अहसास हुआ कि अगर प्राइवेट कम्पनियां होतीं तो शायद वे युद्ध सामग्री सप्लाई करने में पीछे हट जातीं या मुंहमांगी कीमत मांगती। लेकिन आयुध निर्माणियों ने उस संकट के समय अपनी क्षमताओं से अधिक आपूर्ति की।
हमारे लेखा विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी मजाक करते हुये कहते थे- वार से शुड बि अवर मोटो। हमारा ध्येय युद्ध होना चाहिये। युद्ध होता रहेगा तो हमारी आवश्यकता महसूस की जाती रहेगी।
मजे की बात मैंने यह देखी पिछले सालों में कि देश की सेना अपनी जरूरत के लिये कुछ सामान आयात करती है। फिर उसका उत्पादन आयुध निर्माणियों में शुरू होता है। जैसे ही यहां धुआंधार उत्पादन शुरू होता है, सेना की मांग बदल जाती है। उनकी मांग अब दूसरे आइटम की हो जाती है। कभी-कभी एकदम पुराने पड़ चुके आइटम की मांग आ जाती है जिसका उत्पादन सालों पहले बंद हो चुका होता है, मशीनें उखड़ चुकी होती हैं। मांग आने पर फिर से नये सिरे से टंडीला बांधा जाता है।
डिजाइन में भले हम लोग दक्ष न हों लेकिन जुगाड़ तकनीक में हमारी क्षमता अद्भुत है। जो मशीने सालों पहले १०५मिमी तोप के गोले बनाने के लिये आयीं थीं उनमें जरूरत के हिसाब से बदलाव करके १३० मिमी की तोप के गोले धड़ल्ले से लाखों बना डाले गये। १३० मिमी की तोप में ही बदलाव करके १५५ मिमी की तोप बना ली गयी जो इजराइल से आयात की जाने वाली तोपों से बेहतर पायीं गयीं।
अक्सर आयुध निर्माणियों और दूसरे सरकारी उत्पादन संस्थानों की आलोचना इसलिये होती है कि उनके यहां बनाये गये उत्पादों की कीमत प्राइवेट कम्पनियों के मुकाबले अधिक होती है। इसका कारण इन संस्थानों का कल्याणकारी स्वरूप होना है। फैक्ट्री है तो स्कूल हैं, रहने के लिये कालोनी है, बिजली,पानी की व्यवस्था है। न्यूननतम वेतनमान हैं और हर छह माह बाद बढ़ने वाले डी.ए. हैं। जबकि प्राइवेट संस्थायें इन सब कानूनों को धता बताते हुये, न्यूनतम वेतनमान को अगूंठा दिखाती हुयी देश की बेरोजगारी का लाभ उठाते हुये सस्ते दाम पर सामान दे देने का दावा करती हैं। जिनकी गुणवत्ता के बारे में अक्सर भगवान ही मालिक होता है।
देश में उत्पादन से सम्बन्धित जितनी तकनीकें और नियम कानून बने उनका उत्स कहीं न कहीं आयुध निर्माणियों में है। सन १९०० तक के रिकार्ड यहां सुलभ हो सकते हैं। अपने मित्र नीरज केला के पास मैंने गन कैरेज, फैक्ट्री जबलपुर( जहां महर्षि महेश योगी नौकरी कर चुके हैं) के सन १९१८ के रिकार्ड देखे जिसमें पुराने सर्कुलरों में बिजली की बरबादी रोकने, ऊर्जा की खपत कम करने से सम्बन्धित निर्देश हैं। शाहजहांपुर में मैंने १९४४ के लिखे पत्र देखे। आज जिन आई.एस.ऒ. स्टैंडर्ड की हवा चल रही है वो हमारी निर्माणियों में बहुत पहले से लागू थे। सच तो यह है कि इन नये स्टैंडर्डों के लागू होने से तमाम जरूरी नियम हम लोगों ने त्याग दिये और तमाम गैरजरूरी अपना लिये। न खुदा मिला न विसाले सनम की तर्ज पर। कारण शायद यह भी है कि नियम-कानून हम लोग अपनाने के लिये अपना लेते हैं। उसकी भावना का पालन नहीं करते।
मैंने सन १९८८ में उप्र राज्य विद्युत आयोग की एक साल की नौकरी छोड़कर कानपुर में आयुध निर्माणी में ज्वाइन किया था। पिछ्ले अठारह वर्षों के अपने कार्यकाल में मैंने अपने संस्थान में तमाम उतार चढ़ाव देखे। अन्य तमाम संस्थाऒं की तरह यहां भी बदलाव की हवायें चलती रहीं। अधिकारियों का चयन यहां भारत सरकार के संघ लोक सेवा आयोग द्वारा होता है। पहले यहां कोई विरला ही ऐसा होता था इंजीनियरिंग बी.टेक. किये हुये लड़के प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी से नीचे की पोस्ट पर ज्वाइन करें। अब देश में बढ़ते इंजीनियरिंग कालेजों की मेहरबानी कि आज चार्जमैन (स्टाफ) की पोस्ट पर भी बी.टेक., एम.टेक. किये हुये लड़के आते हैं। इनमें से कुछ तो प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग संस्थानों से एम.टेक. किये हुये बच्चे होते हैं। इससे देश के इंजीनियरों की हालत का अंदाजा लगता है कि उनको क्या अवसर सुलभ हैं। कितने रोजगार उपलब्ध हैं।
स्टाफ की पोस्ट पर भरती का मतलब है कि जब तक वे सामान्य क्रम उस जगह पर पहुंचेंगे जहां से हमने नौकरी शुरू की तब तक वे पंद्रह साल की नौकरी कर चुके होंगे।
मैंने तमाम सरकारी विभाग देखे हैं। मैंने पाया है कि आयुध निर्माणियों में जो लोग काम करते हैं वे बारह-बारह घंटे तक लगे रहते हैं। काम करने की तकनीकें अभी काफ़ी पुरानी भी हैं। सबसे अच्छे मैंनेजर वे पाये गये जो सबसे अच्छे ‘चेजर’ थे।
देश की आधुनिकतम उपलब्धियां हासिल करने में भी आयुध निर्माणियों का योगदान है। यहां अग्नि, पृथ्वी मिसाइल के कुछ भाग बनते रहे। अब ‘पिनाका’ राकेट के उत्पादन में भी सहयोग हमारी निर्माणियां दे रही हैं।
यह मजेदार बात है कि आयुध निर्माणियों के बारे में लोग कम जानते हैं। लोग पते में अक्सर आर्डनेन्स (तोपखाना) की जगह आर्डिनेन्स( अध्यादेश) शब्द का प्रयोग करते हैं। इसका कारण यह भी है कि आयुध निर्माणियों के लोग अपने प्रचार के प्रति नितान्त उदासीन रहते हैं।
सन १९४७ में आयुध निर्माणियों का कुल उत्पादन १५ करोड़ था। यह आजकल ७५०० करोड़ है। जबकि पिछले वर्षों में यहां कर्मचारियों की संख्या में कमी आती गयी है जिनकी जगह नयी भर्तियां बन्द हैं। लगभग हर निर्माणी अपने कार्य करने के तरीके और खर्चे कम करके उत्पादन लागत कम करके और उत्पादन बढ़ाने के लिये प्रयास रत है।
अक्सर आयुध निर्माणियों की आलोचना यहां की खराब आपूर्ति के नाम पर होती है। खासकर यूनीफार्म से सम्बन्धित आपूर्ति के कारण। इसका कारण यह है कि सेनाओं के जवान को तो यह पता है कि उसे आपूर्ति आयुध निर्माणियों से होती है। लेकिन सच यह है कि आयुध निर्माणियों के कामगारों की घटती संख्या के चलते यूनीफार्म से सम्बंधित सेना की आवश्यकता की मांग आयुध निर्माणियां पूरी नहीं कर पातीं। यूनीफार्म से संबंधित उत्पादन श्रमिकों की संख्या पर निर्भर करता है। लिहाजा सेनायें इसे प्राइवेट पार्टियों से खरीदती हैं जो कि घटिया सामान सेनाऒं को टिका देती हैं। कम कीमत पर। कभी -कभी क्या अक्सर इनकी सप्लाई की कीमत इतनी कम होती है जितने में यूनीफ़ार्म का कपड़ा नहीं आता। ऐसे में सामान में गुणवत्ता कहां से आयेगी।
इस गलतफ़हमी को दूर करने के लिये अब हमारे अधिकारी सेना की यूनिटों का दौरा करते हैं। लेह, लद्दाख तक जाते हैं ताकि सेना के जवानों की तकलीफ़ें समझकर उनका निदान कर सकें।
यूनीफ़ार्म फिट न होने का एक और कारण यह भी है कि जब जवान भर्ती होता है तो उसका जो साइज होता है वही ताजिंदगी बना रहता है। उसमें बदलाव नहीं करते सेना के लोग सामान मांगते समय। लेकिन इस बीच जवान का शरीर तो बदल चुका होता है, लिहाजा समस्या होती है।
परसों अठारह मार्च को रविवार होने के कारण हमारे यहां कल स्थापना दिवस मनाया गया। सबेरे आयुध निर्माणी का झंडा फहराया गया और आयुध निर्माणियों का समूह गीत गाया गया- हम हैं आयुध निर्माणी के कर्णधार!
यहां उपलब्ध साइट जिसका कि हिंदीकरण करने में मृणाल त्रिपाठी का भी सक्रिय योगदान रहा है, में आप देखिये कि देश की सेनाओं को किस तरह के उत्पाद हम सप्लाई करते हैं। हम राष्ट्र की सेवा में सदैव तत्पर हैं।
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क्या ये संभव है कि आयुध निर्माणीयो के भी कुछ प्रकार होते हो और ये तीन आयुध निर्माणी उस प्रकार मे नही आती हो ?
बहुत सही जानकारी दी आपने. मुझे पता नही था कि भारत मे 40 आयुध निर्माणीयाँ हैं… धन्यवाद.
काफ़ी अच्छी जानकारी थी
शुऐब यह हमारे लिये खुशकिस्मती है कि हमारा लेख प्रिंट आउट लेकर पढ़ा जाने लायक समझते हो।
आशीष , नक्शा एकदम सही है। लगता है अब तुम्हारा किसी काम में मन नहीं लगता। मैंने आयुध निर्माणियों की जो लिंक दी था उसे देखते तो चांदा और नागपुर वाली फैक्ट्री के बारे में पता चल जाता। चांदा वाली फ़ैक्ट्री (OFCH)आयुध निर्माणी चंद्रपुर के नाम से जाती है। वापी के पास वाली जो फ़ैक्ट्री है नागपुर में उसे आयुध निर्माणी अम्बाझरी ,नागपुर(OFAJ) के नाम से जाना जाता है। जवाहर नगर के बारे में मुझे पता नहीं लेकिन महाराष्ट्र में इसके अलावा जो आठ फ़ैक्ट्रियां हैं वे हैं-
१. मशीन टूल प्रोटोटाइप फैक्ट्री, अम्बरनाथ, मुंबई।(MPTF)
२.आयुध निर्माणी, अम्बरनाथ, मुम्बई।(OFA)
३.एम्युनिशन फैक्ट्री , किरकी(खड़की) पूना। (AFK)
4.हाई एक्स्प्लोसिव फैक्ट्री, किरकी, पूना।(HEF)
५.आयुध निर्माणी, देहूरोड,पूना। (OFDR)
६.आयुध निर्माणी भंडारा,नागपुर। (OFB)
७.आयुध निर्माणी, भुसावल| (OFBH)
८.आयुध निर्माणी, वरुणगांव।(OFV)
रवि रतलामीजी, जहां आदमी होगा वहां कुछ कलह/कमियां तो होंगी ही। मैं पिछले अठारह सालों से इसे देख रहा हूं। आम आदमी/अधिकारी यहां का ईमानदार है। लोग काम करते हैं। आप समझ लीजिये आज मैं एक उत्पादन शाप में था वहां १६० मशीनों में से केवल तीन ब्रेकडाउन में थीं।कल एक प्लांट को बनाने में लोग रात भर लगे रहे। लोग मेहनत करते हैं। खासकर हमारे तमाम साथी अधिकारी १०-१२ घंटे लगातार जुटे रहते हैं। तमाम दूसरी संस्थाऒं के मुकाबले यहां राजनैतिक दबाव कम है। भ्रष्टाचार संस्थागत नहीं है। व्यक्तिगत है। सबसे बड़ी बात है कि अगर व्यक्ति चाहे तो ईमानदार बना रह सकता है। यह कम बड़ी सुविधा नहीं है आजकल के समाज में। एक और सुविधा है कि अगर आप काम करना चाहते हैं तो आपको अपनी मनमर्जी से काम करने/गलती करने, सीखने के अनेक अवसर हैं। सीनियर्स से लड़ने पर बहुत अधिक नुकसान होगा तो सेक्सन से या फैक्ट्री से तबादला। वैसे एक बात और है कि हमारा विभाग तबादलों को लेकर काफी ध्यान रखता है कि पति-पत्नी का जहां तक हो सके एक साथ ही तबादला किया जाये। हमारे विभाग के जितने भी दम्पति हैं लगभग वे सभी एक ही जगह हैं। बाकी समय के साथ अपने समाज में जो नकारात्मक प्रभाव आ रहे हैं उनका असर हमारी निर्माणियों पर भी आना स्वाभाविक है। बहुत जगह ऐसा है जहां कम काम के घंटे काम पूरे किये जा सकते हैं लेकिन तमाम श्रमिक संगठनों के कारण ऐसा होना बहुत धीरे-धीरे सम्भव हो पा रहा है। इन सब के बावजूद मुझे अपना विभाग बहुत अच्छा लगता है। बाकी अगर आदमी रोना चाहे तो बहाना खोज ही लेता है।
मेरा भी एक दोस्त आयुध निर्माणी में कार्यरत है. पूरी तरह ईमानदार है. काम में भी, और बात-व्यवहार में भी. कोलकाता में नियुक्त है, इसलिए आपसे नहीं मिल पाया है… लेकिन आपको आपकी ईमानदारी की वज़ह से जानता है.
बहुत सही जानकारी है। युद्ध से संबंधित संस्थाओ से विज्ञान और इनोवेशन मे काफी विकास हुआ है। इंटरनेट भी तो DARPA की देन है। भारतीय आयुध निर्माणियाँ पर हमे फ्रक है, इसके बारे मे हम अब दुसरो को भी बताएँगे, वेबसाईट भी काफी अच्छी है। देहूरोड और खड़्की की निर्माणियाँ के पास से काफी बार गुजरा हूँ, यह निर्माणियाँ हमेशा से आकर्षित करती रही। लेकिन कभी किसी ने इतने अच्छे से जानकारी नही दी। आभार।
Sena ko lekar main bahut hee sanvendansheel vyaktee hoon. NIC aur bharat rakshak dwaraa uplabdh, senaa se judey kaafi puraane dastaavez chaan chukaa hun. par ve adhiktar senaa kee pichli ladaaiyon kee ek-ek-din kee byorey hain. aapke laikh se bhi kai acchii baatein pataa chaleein.
abb ek icchaa yah hai kee main shop floor ko dhekhnaa chaahtaa hun.
to kyaa main samjhoon kee main ‘saadar aamantrit hoon’ ?
saadar pranaam
Ripudaman Pachauri
दो प्रश्न हैं-
निर्माणी याने क्या?- फैक्ट्री?
और नक्शे के साथ MPF, OFA, AFK, HEF….. ये क्या है? फैक्ट्री के नाम?
//डिजाइन में भले हम लोग दक्ष न हों लेकिन जुगाड़ तकनीक में हमारी क्षमता अद्भुत है। जो मशीने सालों पहले १०५मिमी तोप के गोले बनाने के लिये आयीं थीं उनमें जरूरत के हिसाब से बदलाव करके १३० मिमी की तोप के गोले धड़ल्ले से लाखों बना डाले गये। १३० मिमी की तोप में ही बदलाव करके १५५ मिमी की तोप बना ली गयी जो इजराइल से आयात की जाने वाली तोपों से बेहतर पायीं गयीं//
आपने ” जुगाड तकनीक” ( इस पर मैने एक पोस्ट “JUGAD” (A method of finishing any task by slightly deviating from the norms) eng. blog ‘fLYING HOPES’ लिखी थी ) की बात की है तो काफी पहले TOI मे पढे एक लेख की याद आ गयी, जिसमे कहा गया था कि भारत के पहले राकेट लान्च मे भी ” भारतीय जुगाड विधा” का इस्तेमाल किया गया था.. लेख के अंश इस तरह हैं-
…..
The rocket itself was a Nike-Apache imported from the US. The payload was French. Mismatch was entirely possible. On Nov 21, the day fixed for the space launch, tension broke out. To begin with, the payload arrived late. And when it finally did arrive, nobody knew how to transport the damn thing to the launch site. It’s said a bullock cart was used. The rest of the parts, like the rocket cone, were transported on whatever was available-such as bicycles. And when the parts reached where they had to, the payload wouldn’t mate with the American rocket.
This is where the Indian genius for “jugad” stepped in. Prof Pd Bhavsar, a former physics teacher at the University of Minnesota before he joined Sarabhai’s team, came up with the idea of scraping the payload at its edges with a small tool until it fitted the rocket
……
मितुल, पसंद के लिये शुक्रिया।
सृजनशिल्पी, पसंद का शुक्रिया।
रिपुदमन पचौरीजी,आप आयें हम आपको अपने यहां अनुमति दिलाकर अपनी निर्माणी दिखाने की कोशिश करेंगे।
रचनाजी, हां निर्माणी माने फैक्ट्री ही होता है।
MPF,OFA,AFK,HEF.. ये निर्माणियों के संक्षेप में नाम हैं। (MPF)मशीन प्रोटोटाइप फ़ैक्ट्री, (OFA)आर्ड्नेन्स फैक्ट्री अम्बरनाथ, (AFK)एम्युनिशन फ़ैक्ट्री, किरकी, (HEF)हाई एक्स्प्लोसिव फ़ैक्ट्री आदि। जुगाड़ के बारे में अच्छी जानकारी दी आपने। वैसे सच तो यह है कि मौलिक खोज के अलावा सारी चीजें जुगाड़ ही हैं। जुगाड़ के लिये अपने देश में कहा जाता है ‘स्क्रू ड्राइवर टेक्नालाजी।’ जुगाड़ के लिये भी चीजों की मौलिक समझ जरूरी होती है।
अब तो यकिन है कि नक्शा पक्के से गड़बड़ है ये जो लाल निशान लगे हुये है वे विदर्भ की आयुध निर्माणीयो को मराठवाडा मे दिखा रहे है !
इन संस्थानों की एक विशेष बात (कम से कम अब तक तो) अपने कर्मचारिशें का विशेष ध्यान रखना है, मुझे याद है कि जब एपीजे अब्दुल कलाम साईंटिक एडवाइजर हुआ करते थे तो मात्र एक पत्र के जबाव में उन्होंने पिताजी के छोटे से कार्य के लिए आदेश जारी किया था।
आप अपने कार्य में इसी प्रकार जारी रहें और हमारा अभिवादन स्वीकार करें।
amit kr srivastava की हालिया प्रविष्टी.." रात का एक पहर ,आँखों में ………"
सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..अब तो ऐसे लोग भी होते नहीं -सतीश सक्सेना