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पत्रकार ब्लागिंग काहे न करें, जम के करें!
By फ़ुरसतिया on March 24, 2007
पिछले कुछ दिन से हिंदी चिट्ठाजगत में ब्लागर बनाम पत्रकार पर
लिखत-पढ़त हो रही है। बेजीजी ने अपने पोस्ट के माध्यम से जिज्ञासा की
पत्रकार भाइयों के ब्लागिंग के मैदान में उतरने का कारण क्या हो सकता है।
बेजीजी की पोस्ट के बाद प्रमोद सिंहजी और फिर अभय तिवारी के विचार आये। इसके बाद काकेश की सारगर्भित मौजिया पोस्ट आई और आज अनामदास ने अपनी पोस्ट में पत्रकारों का पक्ष रखने का सार्थक प्रयास किया।
जब से कुछ मीडिया के पत्रकार साथियों ने लिखना शुरू किया , यह सुगबुगाहट शुरू हुयी कि पत्रकार आये हैं, पत्रकार आये हैं। कुछ लोगों ने यह भी सवाल उछाला इनका एजेंडा क्या है, ये चाहते क्या हैं!
पत्रकार साथी यह बताने का प्रयास समय-समय पर करते रहे कि वे सार्थक ह्स्तक्षेप करने आये हैं। प्रमोद सिंह जी सवाल भी करते हैं- चिट्ठाकारी और ब्लॉगिंग क्या है. ऑन लाईन डायरी गुलज़ार की किताब को पा लेने के सुख, पास्ता का वर्णण और लिट्टी-चोखा का आस्वाद, अपनी कविताओं को सजा-छपा देखने की खुशी, किसी देखी गई फिल्म और उतारे गए फोटो पर हमारी-आपकी राय, मन की उधेड़-बुन और यार-दोस्तों की गपास्टक, इंटरनेट व हिंदी ब्लॉगिंग की तकनीक व नई जानकारियों को जानने-बांटने का उल्लास- के दायरों में ही रहे ऐसा हम क्यों चाहते हैं? क्या यह कक्षा में किसी नये छात्र के चले आने पर पैदा हुई बेचैनी है जिसका व्यवहार, रंग-ढंग ठीक-ठीक वैसा ही नहीं है जैसा सामुदायिक तौर पर हम देखते रहे थे? अपने बारे में आपकी राय मैं नहीं जानता मगर समुदाय में रवीश कुमार और अनामदास को पाकर आप प्रसन्न नहीं हैं? भाषा और विचारों की प्रस्तुति का उनका अंदाज़ आपको लुभावना नहीं लगता?
यह सवाल यह बताने की कोशिश अधिक है कि ब्लागिंग से अभी तक जुड़े लोगों को अब इन पत्रकार साथियों के आने के बाद बेहतर सामग्री पढ़ने को मिल रही है इसके लिये उनको खुश हो जाना चाहिये।
सबसे पहली बात तो यह कि मैं पत्रकारों के ब्लागिंग करने में कोई खराब बात नहीं देखता। बल्कि यह सवाल मेरे जेहन में उठता है कि इन साथियों की देखादेखी और तमाम पत्रकार साथी इस माध्यम में अभी तक क्यों नहीं आये। किस बात का इंतजार है उनको। क्या अभिव्यक्त्ति के इस माध्यम की खबर अभी नहीं पहुंची उन तक? क्या रवीशजी, अविनाश जी ने उनको ब्लाग लेखन के गुर नहीं सिखाये? मुझे तो लगता है कुछ दिन में हर पढ़ने-लिखने के शौकीन पत्रकार का अपना ब्लाग होगा बशर्ते वह इस मन से इस उम्र में अब क्या खाक मुसलमां होंगे…की स्थिति को न प्राप्त हो गया हो।
मैं इस बात में भी सर नहीं खपाना चाहता हूं कि पत्रकारों की एजेंडा क्या है। क्या हो सकता है एजेंडा किसी ब्लागर का? अधिक से अधिक यह कि वह कुछ विज्ञापन लगायेगा अपने ब्लाग में। कुछ साथियों को साथ लेकर अपनी साइट बनालेगा। कुछ विज्ञापन वहां लगा लेगा। कभी उत्साहित होकर शायद यह भी सोचे कि कामधाम छोड़कर यही किया जाये। लेकिन ऐसे शेखचिल्ली ख्याल मेरी समझ में कोई ब्लागर नहीं पालेगा कि हिंदी ब्लाग या साइट से कोई इतना समर्थ हो जायेगा कि घर चल सके।
सो ऐसा कोई एजेंडा मैं अपने पत्रकार ब्लागर साथियों में नहीं देखता सिवाय अपने लिखो को सामने लाने के और यह सुकून पाने के कि लोग हमारा लिखा पढ़ रहे हैं। कुछ टिप्पणियां पाकर अच्छा लगता होगा निश्चित उनको।
मुझे आशा है कि रवीशजी, प्रमोदसिंहजी आदि साथियों का नियमित लेखन और अविनाशजी की एंकरिंग चलती रहेगी। अपने साथ और लोग जोड़ेंगे ये साथी लोग।
अक्सर नारद की बात भी उठती है। नारद के संचालक की बात चलती है। संचालक की तानशाही की बात चलती है, संचालक की तथाकथित मनमानी पर लोग मनमानी टिप्पणियां करते हैं। कुछ बेसिर-पैर की कुछ अष्टावक्री।
यहां साफ कर दूं कि नारद पर आम ब्लागर के सिवाय किसी का आधिपत्य नहीं है। इसके संचालन का काम फिलहाल जीतेंन्द्र देखते हैं लेकिन वह सबके प्रतिनिधि के रूप में देखते हैं- किसी स्वयंभू के हैसियत से नहीं। लोगों को शायद पता न हो कि पहले अक्षरग्राम, जो कि हमारे बीच चौपाल के रूप में मशहूर थी, पर विचार विमर्श हुआ करते थे। साइट पंकज नरूला की थी लेकिन नवीनीकरण में नाम अक्षरग्राम ही रखा जाये या कुछ और यह हम लोग तय करते थे। फिर पंकज नरुला यानि मिर्ची सेठ ने नारद शुरू किया। बाद में उसे जीतेंन्द्र को सौप दिया। फिर ब्लाग बढ़ने के साथ नारद के संचालन में बाधा आयी। इसके बाद तमाम ब्लागर साथियों ने चंदा (करीब पचास हजार रुपये) करके अक्षरग्राम, नारद आदि के लिये नयी व्यवस्था की। हमने पैसे अभी तक नहीं दिये लेकिन हम अपना उतना ही अधिकार नारद पर समझते हैं जितना चंदा दे चुके साथी यह मानते हुये कि पैसा तो हाथ का मैल है कभी भी दे देंगे।
ऐसा नहीं कि जीतेंन्द्र सब ब्लाग का रजिस्ट्रेशन आंख मूंदकर कर देते हैं। गत दो दिन में अश्लील भाषा प्रयोग करने वाले दो ब्लाग्स का रजिस्ट्रेशन का आवेदन खारिज भी किया गया।
पत्रकार साथियों को यह भी लगता होगा है कि उनको प्रतिक्रियायें उनके लेखन के स्तर के अनुरूप नहीं मिल रहीं। प्रमोद सिंह जी ने इस तरफ़ इशारा भी किया अभय अच्छा लिखते हैं मगर वह भी पचास पाठक पाकर सुखी हो लेते हैं. या फिर अनामदास कहते हैं जिन रवीश कुमार को भारत के लाखों लोग स्पेशल प्रोग्राम करते हुए प्राइम टाइम पर देखते हैं उनके ब्लॉग सिर्फ़ 30-35 लोग पढ़ रहे हैं । प्रमोद सिंह जी ने लोगों के टिप्पणी करने से बचने की बात कहते हुये लिखा -मगर पत्रकार बिरादरी से वे अपने संबंध बिगाड़ना नहीं चाहते? वजह जो भी हो कुल जमा यही रहा कि बेजी ने एक चिंता को स्वर दिया जिसमें ढेरों लोग हिस्सेदार हैं, लेकिन सार्वजनिक तौर पर नतीजे तक आने से कतरा रहे हैं. इम्तहान देकर टेंशन सबने पाल लिया है मगर रिज़ल्ट को पेंडिंग कर रहे हैं.
आगे ब्लागिंग का स्वरूप क्या होगा यह समय और आने वाले ब्लागर तय करेंगे लेकिन अभी तक की ब्लागिंग का जो रुख रहा है वह अनौपचारिक सा रहा है। काफ़ी कुछ एक-दूसरे से ढीला-ढीला सा ही सही लेकिन जुड़ाव सा बना रहा। प्रतिक्रियायें उनके ब्लाग्स पर सबसे ज्यादा आती रहीं जो दूसरे ब्लागर्स साथियों से अनौपचारिक रूप से जुड़े रहे। जीतेंन्द्र की पोस्ट की क्वालिटी से अधिक वहां टिप्पणी करने की सहज इच्छा इसलिये भी होती है कि वहां मैं कुछ भी लिख सकता हूं मौज लेते हुये, खिंचाई करते हुये, तारीफ़ करते हुये, बुराई करते हुये। मुझे यह नहीं सोचना पड़ता है कि अगला क्या सोचेगा। इसी तरह और भी तमाम साथी हैं जो आपस में एक दूसरे पर टिपियाते रहते हैं। वहां मुद्दा पोस्ट का स्तर कम यह अधिक होता है कि ये नयी पोस्ट लिखी गयी है। नये-नये लोग आते गये और इस परिवार का हिस्सा बनते गये।
फिर ऐसा कौन सा बिंदु है कि हमारे मीडिया से जुड़े पत्रकार साथियों ,जो इतना बेहतरीन लिखते हैं कि दूसरों के लिये नजीर बन सकते हैं, के लिये प्रमोद सिंहजी यह महसूस करें कि वे इस चिट्ठाकार समाज में विरोधी कैंप बन गए।
यह सच है कि जिस स्तर के लेख रवीश कुमारजी नियमित और मोहल्ले में तमाम लोग लिखते हैं वे काफ़ी ऊंचे पाये के लेख होते हैं। प्रमोदसिंहजी के ,रवीशकुमार जी के बीस वर्ष बाद, वाले लेख तो इतने ऊंचे दर्जे के होते हैं कि कुछ लोगों को शायद बीस वर्ष बाद पूरी तरह समझ में आयें। इसके बावजूद प्रतिक्रिया के रूप में इन लेखों के उतना गर्मजोश स्वागत नहीं होता है जैसा कि होना चाहिये- इसका क्या कारण है!
अनामदासजी की पोस्ट पर प्रियंकरजी की टिप्पणी इसका कारण काफ़ी कुछ बयान करती है-हां! पत्रकार ब्लॉग की इस जन-यात्रा में सहयात्री बन कर आएं,तारनहार बन कर नहीं . मुगालता किसी भी काम में अच्छा नहीं होता |
यह मेरी अभी तक की सोच है कि जो हमारे साथी पत्रकारों ने लिखना शुरू किया है वह अपने को खास मानते हुये ही। अभी तक वे उन ब्लागर्स से जुड़ नहीं पाये हैं जो खाली पिज्जा, फिल्म, पढ़ी हुयी किताबों और देखी हुयी फिल्मों के बारे में ही बात करते हैं, लिखते हैं। जिनमें बहस का माद्दा नहीं न करने का न समझने का। और तो और मनीषा पांडेय जी तो ब्लाग को ही इस काबिल नहीं मानतीं कि यहां कोई गम्भीर बहस की जाये। वे अपने पत्र पर टिप्पणियों के जवाब में कहती हैं हमारे देश में अभी ब्लॉग जैसी चीजें किसी सार्थक बहस का मंच नहीं बन सकतीं। वे मानती हैं कि ब्लॉग की दुनिया को सत्य की तलाश नहीं है। बात अभी की ही नहीं है आगे भी ऐसा ही बना रहेगा क्योंकि वे ब्लाग को बंजर जमीन की तरह मानतीं हैं तथा कहती हैं हम इससे भी ज्यादा तगड़ी बहसें करेंगे, किताबें पढ़ेंगे, उस पर बतियाते हुए कई-कई रातें गुजार देंगे, लेकिन वहां और उन लोगों के बीच, जिन्हें हमारी भाषा समझ में आती है, जिन्हें सत्य जानने की सही तड़प है, जहां विचारों का अंकुर उग सके, ऐसी गीली मिट्टी है, ब्लॉग की बंजर धरती पर नहीं।
मतलब उस पत्रकार साथी ने , जिन्होंने कुल जमा चार-पांच लेख लिखे, पढे़ होंगे कई, उन्होंने यह सत्य घोषित कर दिया कि ब्लाग बहस का मंच नहीं हो सकता, ब्लाग सत्य की तलाश नहीं करता और सबसे बड़ा सच यह है कि ब्लाग की धरती बंजर धरती है।
जिस माध्यम के प्रति आपके मन में ऐसे विचार हैं उस माध्यम से मन से जुड़े लोग आपसे कैसे जुड़ने का मन बना पायेंगे? ब्लाग तो केवल आपके लिखे को प्रकाशित करता है। एक माध्यम है जो आपकी बात को लोगों के सामने तुरंत ले आता है। बिना किसी संपादकीय, निर्देशकीय काट-छांट के। जस का तस। अगर यह एक बंजर माध्यम है तो कौन सा ऐसा माध्यम है जो उर्वर है? अखबार, टेलीविजन, रेडियो ? या फिर किसी चाय-काफी की दुकान पर अकेले में की गयीं बहसें जिनकी याद करते हुये कभी आप दुहरा सकें, जैसा कभी परसाईजी ने श्रीकांत वर्मा को याद करते हुये दोहराया-
सच तो यह है कि मोहल्ले के लेखों पर बहुत अच्छे लेखों की तारीफ़ करते हुये भी मुझे डर लगता है। इसलिये कि कहीं कुछ ऊंच-नीच हो गयी तो भैया अपनी खैर नहीं। प्रियंकरजी के शब्दों में- हमारा सारा अभिजात्य छिया-छार हो जायेगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का झंडा फहराते हुये मोहल्ले पर कुछ बहसें इतनी तीखी हुयीं कि जी दहल गया। अभिसार वर्मा जी ने अमिताभ बच्चन के बारे में कुछ लिखा उसका प्रतिवाद प्रमोद सिंहजी ने और रवीश कुमारजी ने किया। जबाब में अभिसारजी ने ऐसा आदर सहित उनको जबाब दिये कि हम कांपने लगे। तर्क की सारी कमीं उन्होंने इन दोनों कीश्रद्धापूर्वकऐसी-तैसी करके पूरी कर ली।
बहसें पहले भी होती रहीं हैं। हैरी पाटर बनाम हामिद और अमेरिकी जीवन पर तमाम ब्लागर्स ने इसके पहले तमाम गर्मागर्म बहसें कीं लेकिन इतनी श्रद्धापूर्वक नहीं। हिंदी ब्लागिंग के कुछ बेहतरीन लेख अनुगूंज में मिल सकते हैं।
यह पत्रकारिता की भाषा की ताकत और कमाल है कि एक नौजवान सा दिखने वाला लेखक एक उम्रदराज लेखक की पूरे आदर के साथ लानत-मलानत करता है, सब कुछ कहते हुये भी कुछ नहीं कहता। यह हुनर सीखने में हिंदी ब्लागर को न जाने कितना समय लग जाये, एक आम हिंदी ब्लागर को। हो सकता है यह मीडिया जगत की आम बोलचाल, सम्प्रेषण की भाषा हो लेकिन दोनों के उम्र को देखते हुये मुझे अभिसारजी की टिप्पणी बहुत अशालीन, दम्भपूर्ण लगी।
यह भाषा का ही कौशल है कि बोल्ड अक्षरों में मेरे आरोप को नजर अंदाज करके अविनाशजी तमाम दूसरी बातों पर तर्क पूर्वक अपनी सोच को सही साबित करते हुये टहल लेते हैं।
यहां मोहल्ले के बारे में ज्यादा जिक्र इस लिये हो गया कि आम तौर पर ज्यादातर लेख मोहल्ले पर ही पोस्ट हुये।
मैं यहां अविनाशजी, रवीशजी, प्रमोदसिंहजी की कमी निकालने के लिये यह सब बातें नहीं लिख रहा हूं। उनके लेख बहुत अच्छे हैं। लेकिन इतने अच्छे लेखन के बावजूद अगर आप इस माध्यम से अभी तक आम लोगों से नहीं जुड़ पाये तो कहीं न कहीं कुछ बात जरूर है कि लोग आपके लेखों से लाभान्वित नहीं हो रहे।
ब्लाग ऐसा माध्यम है जहां ज्यादातर जो पाठक है वहीं लेखक भी है। अगर आप दूसरे का लिखा नहीं पढ़ेंगे तो दूसरे आपका पढ़ भले लें बतायेंगे नहीं कि हां पढ़ लिया। इसके अलावा अगर आप दूसरों की टिप्पणियों को गुरुगम्भीर अंदाज में जटिल शब्दावली में इधर-उधर कर देंगे तो लोग आगे टिपियाने से कतरायेंगे।
यह समझने की बात है जगदीश भाटिया की कक्षा आठ में पढ़ने वाली बिटिया मानोसी जब कुल जमा सात लाइन की लिखती है तब भी उसके ब्लाग पर लोग तमाम कमेंट करते हैं, अभय तिवारी की माताजी की पोस्ट पर लोग टिप्पणी करते हैं फिर इतने अच्छी पोस्टों के बावजूद पत्रकार साथियों के ब्लाग पर पत्रकारों के सिवाय दूसरे लोग टिप्पणी क्यों नहीं करते। इसका जबाब मेरी समझ में सिर्फ यह है कि अभी तक न आप ब्लाग जगत से पूरी तरह से जुड़ पाये हैं न ही लोग आपसे जुड़ पाये हैं।
अभी तक की मेरी समझ के अनुसार के ब्लागिंग से जुड़ना मतलब अपने घर-परिवार जैसे माहौल से जुड़कर लिखना होता है। जैसे घर परिवार के बीच गप्पाष्टक करते-करते लोग अपनी बात कहते जायें और अच्छी हो तो लोग कहें शाबास। और अगर कम प्रभावी लिखा है तो कहें अच्छा है लिखते रहें। बिना लोगों से जुड़े अकेले में बैठकर ज्ञान की बात करने का मतलब है कि कुछ न कुछ सम्प्रेषण दोष है।
मैंने यह लेख जिन बातों के कारण लिखना शुरू किया था वे पता नहीं कह पाया कि नहीं लेकिन मेरा मन यही लिखने का था कि-
१.पत्रकार साथियों की ब्लागिंग पर सवाल उठाना फिजूल की बात है। फिलहाल अपनी सोच और विचार को प्रकट करने के अलावा उनका कोई एजेंडा नहीं है।
२. नारद पर किसी एक का अधिकार नहीं है। जो भी व्यक्ति चिट्ठाजगत से जुड़ा है और इसे अपना समझता है ,नारद पर उसका अधिकार है।
३.अपने बेहतरीन लेखन के बावजूद पत्रकार साथी अगर अभी तक हिंदी ब्लागजगत से अपनापा महसूस नहीं कर पाये और सहज नहीं हो पाये तो इसमें कहीं न कहीं उनके ज्ञान का आतंक और उनकी अपने आप को खास समझने की भावना है भी मूल में है।
४. जिस माध्यम में आप अपने को अभिव्यक्त कर रहे हैं उसे झूठा, बंजर और बहस के लिये अक्षम बताना कैसे उचित है?
लेख खतम करने के पहले से कभी पत्रकारिता से जुड़े रहे भाईनीरज दीवान का जिक्र जरूरी है। नीरज दीवान हमारे दिमाग से गायब ही हो जाते हैं, जब हम पत्रकारों की बातें करते हैं। हमें लगता है कि वे तो हमारे ब्लागर भाई हैं, पत्रकार कहां रहे। जबकि नीरज इस मसले पर हुयी अनावश्यक बहसों से बहुत दुखी हैं।यह लेख मैंने उनके कहने पर ही लिखा। इसमें पत्रकार ब्लागर साथियों के ऊपर कुछ टिप्पणियां ज्यादा हो हैं क्योंकि पत्रकारों की बातें ज्यादातर अनामदासजी ने अपनी पोस्ट में दे दी हैं इसलिये हमने उनको दोहराना नहीं चाहते।
हमें आशा है कि आने वाले समय में समाज के हर वर्ग से, हर उम्र के लोगों की अपना लिखा हुआ पोस्ट करने वालों की लाइन लग जायेगी। इतना कि अपनी पसंद के ब्लाग को पढ़ने को छोड़कर तमाम दूसरे ब्लाग को पढ़ने के लिये न समय होगा न मजबूरी न जरूरत!
जब से कुछ मीडिया के पत्रकार साथियों ने लिखना शुरू किया , यह सुगबुगाहट शुरू हुयी कि पत्रकार आये हैं, पत्रकार आये हैं। कुछ लोगों ने यह भी सवाल उछाला इनका एजेंडा क्या है, ये चाहते क्या हैं!
पत्रकार साथी यह बताने का प्रयास समय-समय पर करते रहे कि वे सार्थक ह्स्तक्षेप करने आये हैं। प्रमोद सिंह जी सवाल भी करते हैं- चिट्ठाकारी और ब्लॉगिंग क्या है. ऑन लाईन डायरी गुलज़ार की किताब को पा लेने के सुख, पास्ता का वर्णण और लिट्टी-चोखा का आस्वाद, अपनी कविताओं को सजा-छपा देखने की खुशी, किसी देखी गई फिल्म और उतारे गए फोटो पर हमारी-आपकी राय, मन की उधेड़-बुन और यार-दोस्तों की गपास्टक, इंटरनेट व हिंदी ब्लॉगिंग की तकनीक व नई जानकारियों को जानने-बांटने का उल्लास- के दायरों में ही रहे ऐसा हम क्यों चाहते हैं? क्या यह कक्षा में किसी नये छात्र के चले आने पर पैदा हुई बेचैनी है जिसका व्यवहार, रंग-ढंग ठीक-ठीक वैसा ही नहीं है जैसा सामुदायिक तौर पर हम देखते रहे थे? अपने बारे में आपकी राय मैं नहीं जानता मगर समुदाय में रवीश कुमार और अनामदास को पाकर आप प्रसन्न नहीं हैं? भाषा और विचारों की प्रस्तुति का उनका अंदाज़ आपको लुभावना नहीं लगता?
यह सवाल यह बताने की कोशिश अधिक है कि ब्लागिंग से अभी तक जुड़े लोगों को अब इन पत्रकार साथियों के आने के बाद बेहतर सामग्री पढ़ने को मिल रही है इसके लिये उनको खुश हो जाना चाहिये।
सबसे पहली बात तो यह कि मैं पत्रकारों के ब्लागिंग करने में कोई खराब बात नहीं देखता। बल्कि यह सवाल मेरे जेहन में उठता है कि इन साथियों की देखादेखी और तमाम पत्रकार साथी इस माध्यम में अभी तक क्यों नहीं आये। किस बात का इंतजार है उनको। क्या अभिव्यक्त्ति के इस माध्यम की खबर अभी नहीं पहुंची उन तक? क्या रवीशजी, अविनाश जी ने उनको ब्लाग लेखन के गुर नहीं सिखाये? मुझे तो लगता है कुछ दिन में हर पढ़ने-लिखने के शौकीन पत्रकार का अपना ब्लाग होगा बशर्ते वह इस मन से इस उम्र में अब क्या खाक मुसलमां होंगे…की स्थिति को न प्राप्त हो गया हो।
मैं इस बात में भी सर नहीं खपाना चाहता हूं कि पत्रकारों की एजेंडा क्या है। क्या हो सकता है एजेंडा किसी ब्लागर का? अधिक से अधिक यह कि वह कुछ विज्ञापन लगायेगा अपने ब्लाग में। कुछ साथियों को साथ लेकर अपनी साइट बनालेगा। कुछ विज्ञापन वहां लगा लेगा। कभी उत्साहित होकर शायद यह भी सोचे कि कामधाम छोड़कर यही किया जाये। लेकिन ऐसे शेखचिल्ली ख्याल मेरी समझ में कोई ब्लागर नहीं पालेगा कि हिंदी ब्लाग या साइट से कोई इतना समर्थ हो जायेगा कि घर चल सके।
सो ऐसा कोई एजेंडा मैं अपने पत्रकार ब्लागर साथियों में नहीं देखता सिवाय अपने लिखो को सामने लाने के और यह सुकून पाने के कि लोग हमारा लिखा पढ़ रहे हैं। कुछ टिप्पणियां पाकर अच्छा लगता होगा निश्चित उनको।
मुझे आशा है कि रवीशजी, प्रमोदसिंहजी आदि साथियों का नियमित लेखन और अविनाशजी की एंकरिंग चलती रहेगी। अपने साथ और लोग जोड़ेंगे ये साथी लोग।
अक्सर नारद की बात भी उठती है। नारद के संचालक की बात चलती है। संचालक की तानशाही की बात चलती है, संचालक की तथाकथित मनमानी पर लोग मनमानी टिप्पणियां करते हैं। कुछ बेसिर-पैर की कुछ अष्टावक्री।
यहां साफ कर दूं कि नारद पर आम ब्लागर के सिवाय किसी का आधिपत्य नहीं है। इसके संचालन का काम फिलहाल जीतेंन्द्र देखते हैं लेकिन वह सबके प्रतिनिधि के रूप में देखते हैं- किसी स्वयंभू के हैसियत से नहीं। लोगों को शायद पता न हो कि पहले अक्षरग्राम, जो कि हमारे बीच चौपाल के रूप में मशहूर थी, पर विचार विमर्श हुआ करते थे। साइट पंकज नरूला की थी लेकिन नवीनीकरण में नाम अक्षरग्राम ही रखा जाये या कुछ और यह हम लोग तय करते थे। फिर पंकज नरुला यानि मिर्ची सेठ ने नारद शुरू किया। बाद में उसे जीतेंन्द्र को सौप दिया। फिर ब्लाग बढ़ने के साथ नारद के संचालन में बाधा आयी। इसके बाद तमाम ब्लागर साथियों ने चंदा (करीब पचास हजार रुपये) करके अक्षरग्राम, नारद आदि के लिये नयी व्यवस्था की। हमने पैसे अभी तक नहीं दिये लेकिन हम अपना उतना ही अधिकार नारद पर समझते हैं जितना चंदा दे चुके साथी यह मानते हुये कि पैसा तो हाथ का मैल है कभी भी दे देंगे।
ऐसा नहीं कि जीतेंन्द्र सब ब्लाग का रजिस्ट्रेशन आंख मूंदकर कर देते हैं। गत दो दिन में अश्लील भाषा प्रयोग करने वाले दो ब्लाग्स का रजिस्ट्रेशन का आवेदन खारिज भी किया गया।
पत्रकार साथियों को यह भी लगता होगा है कि उनको प्रतिक्रियायें उनके लेखन के स्तर के अनुरूप नहीं मिल रहीं। प्रमोद सिंह जी ने इस तरफ़ इशारा भी किया अभय अच्छा लिखते हैं मगर वह भी पचास पाठक पाकर सुखी हो लेते हैं. या फिर अनामदास कहते हैं जिन रवीश कुमार को भारत के लाखों लोग स्पेशल प्रोग्राम करते हुए प्राइम टाइम पर देखते हैं उनके ब्लॉग सिर्फ़ 30-35 लोग पढ़ रहे हैं । प्रमोद सिंह जी ने लोगों के टिप्पणी करने से बचने की बात कहते हुये लिखा -मगर पत्रकार बिरादरी से वे अपने संबंध बिगाड़ना नहीं चाहते? वजह जो भी हो कुल जमा यही रहा कि बेजी ने एक चिंता को स्वर दिया जिसमें ढेरों लोग हिस्सेदार हैं, लेकिन सार्वजनिक तौर पर नतीजे तक आने से कतरा रहे हैं. इम्तहान देकर टेंशन सबने पाल लिया है मगर रिज़ल्ट को पेंडिंग कर रहे हैं.
आगे ब्लागिंग का स्वरूप क्या होगा यह समय और आने वाले ब्लागर तय करेंगे लेकिन अभी तक की ब्लागिंग का जो रुख रहा है वह अनौपचारिक सा रहा है। काफ़ी कुछ एक-दूसरे से ढीला-ढीला सा ही सही लेकिन जुड़ाव सा बना रहा। प्रतिक्रियायें उनके ब्लाग्स पर सबसे ज्यादा आती रहीं जो दूसरे ब्लागर्स साथियों से अनौपचारिक रूप से जुड़े रहे। जीतेंन्द्र की पोस्ट की क्वालिटी से अधिक वहां टिप्पणी करने की सहज इच्छा इसलिये भी होती है कि वहां मैं कुछ भी लिख सकता हूं मौज लेते हुये, खिंचाई करते हुये, तारीफ़ करते हुये, बुराई करते हुये। मुझे यह नहीं सोचना पड़ता है कि अगला क्या सोचेगा। इसी तरह और भी तमाम साथी हैं जो आपस में एक दूसरे पर टिपियाते रहते हैं। वहां मुद्दा पोस्ट का स्तर कम यह अधिक होता है कि ये नयी पोस्ट लिखी गयी है। नये-नये लोग आते गये और इस परिवार का हिस्सा बनते गये।
फिर ऐसा कौन सा बिंदु है कि हमारे मीडिया से जुड़े पत्रकार साथियों ,जो इतना बेहतरीन लिखते हैं कि दूसरों के लिये नजीर बन सकते हैं, के लिये प्रमोद सिंहजी यह महसूस करें कि वे इस चिट्ठाकार समाज में विरोधी कैंप बन गए।
यह सच है कि जिस स्तर के लेख रवीश कुमारजी नियमित और मोहल्ले में तमाम लोग लिखते हैं वे काफ़ी ऊंचे पाये के लेख होते हैं। प्रमोदसिंहजी के ,रवीशकुमार जी के बीस वर्ष बाद, वाले लेख तो इतने ऊंचे दर्जे के होते हैं कि कुछ लोगों को शायद बीस वर्ष बाद पूरी तरह समझ में आयें। इसके बावजूद प्रतिक्रिया के रूप में इन लेखों के उतना गर्मजोश स्वागत नहीं होता है जैसा कि होना चाहिये- इसका क्या कारण है!
अनामदासजी की पोस्ट पर प्रियंकरजी की टिप्पणी इसका कारण काफ़ी कुछ बयान करती है-हां! पत्रकार ब्लॉग की इस जन-यात्रा में सहयात्री बन कर आएं,तारनहार बन कर नहीं . मुगालता किसी भी काम में अच्छा नहीं होता |
यह मेरी अभी तक की सोच है कि जो हमारे साथी पत्रकारों ने लिखना शुरू किया है वह अपने को खास मानते हुये ही। अभी तक वे उन ब्लागर्स से जुड़ नहीं पाये हैं जो खाली पिज्जा, फिल्म, पढ़ी हुयी किताबों और देखी हुयी फिल्मों के बारे में ही बात करते हैं, लिखते हैं। जिनमें बहस का माद्दा नहीं न करने का न समझने का। और तो और मनीषा पांडेय जी तो ब्लाग को ही इस काबिल नहीं मानतीं कि यहां कोई गम्भीर बहस की जाये। वे अपने पत्र पर टिप्पणियों के जवाब में कहती हैं हमारे देश में अभी ब्लॉग जैसी चीजें किसी सार्थक बहस का मंच नहीं बन सकतीं। वे मानती हैं कि ब्लॉग की दुनिया को सत्य की तलाश नहीं है। बात अभी की ही नहीं है आगे भी ऐसा ही बना रहेगा क्योंकि वे ब्लाग को बंजर जमीन की तरह मानतीं हैं तथा कहती हैं हम इससे भी ज्यादा तगड़ी बहसें करेंगे, किताबें पढ़ेंगे, उस पर बतियाते हुए कई-कई रातें गुजार देंगे, लेकिन वहां और उन लोगों के बीच, जिन्हें हमारी भाषा समझ में आती है, जिन्हें सत्य जानने की सही तड़प है, जहां विचारों का अंकुर उग सके, ऐसी गीली मिट्टी है, ब्लॉग की बंजर धरती पर नहीं।
मतलब उस पत्रकार साथी ने , जिन्होंने कुल जमा चार-पांच लेख लिखे, पढे़ होंगे कई, उन्होंने यह सत्य घोषित कर दिया कि ब्लाग बहस का मंच नहीं हो सकता, ब्लाग सत्य की तलाश नहीं करता और सबसे बड़ा सच यह है कि ब्लाग की धरती बंजर धरती है।
जिस माध्यम के प्रति आपके मन में ऐसे विचार हैं उस माध्यम से मन से जुड़े लोग आपसे कैसे जुड़ने का मन बना पायेंगे? ब्लाग तो केवल आपके लिखे को प्रकाशित करता है। एक माध्यम है जो आपकी बात को लोगों के सामने तुरंत ले आता है। बिना किसी संपादकीय, निर्देशकीय काट-छांट के। जस का तस। अगर यह एक बंजर माध्यम है तो कौन सा ऐसा माध्यम है जो उर्वर है? अखबार, टेलीविजन, रेडियो ? या फिर किसी चाय-काफी की दुकान पर अकेले में की गयीं बहसें जिनकी याद करते हुये कभी आप दुहरा सकें, जैसा कभी परसाईजी ने श्रीकांत वर्मा को याद करते हुये दोहराया-
रात-रात भर बातें की हैंइस बारे में अविनाश सोचें और बतायें कि अपने बंजर मोहल्ले में किसलिये इतने सारगर्भित लेखों की कलमें रोप रहे हैं, जो ब्लाग बहस का माध्यम हो ही नहीं सकता वहां काहे इतनी बहस आयोजित करवा रहे हैं, क्यों असत्य की तलाश कर रहे हैं।
बात-बात पर रातें की हैं।
सच तो यह है कि मोहल्ले के लेखों पर बहुत अच्छे लेखों की तारीफ़ करते हुये भी मुझे डर लगता है। इसलिये कि कहीं कुछ ऊंच-नीच हो गयी तो भैया अपनी खैर नहीं। प्रियंकरजी के शब्दों में- हमारा सारा अभिजात्य छिया-छार हो जायेगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का झंडा फहराते हुये मोहल्ले पर कुछ बहसें इतनी तीखी हुयीं कि जी दहल गया। अभिसार वर्मा जी ने अमिताभ बच्चन के बारे में कुछ लिखा उसका प्रतिवाद प्रमोद सिंहजी ने और रवीश कुमारजी ने किया। जबाब में अभिसारजी ने ऐसा आदर सहित उनको जबाब दिये कि हम कांपने लगे। तर्क की सारी कमीं उन्होंने इन दोनों कीश्रद्धापूर्वकऐसी-तैसी करके पूरी कर ली।
बहसें पहले भी होती रहीं हैं। हैरी पाटर बनाम हामिद और अमेरिकी जीवन पर तमाम ब्लागर्स ने इसके पहले तमाम गर्मागर्म बहसें कीं लेकिन इतनी श्रद्धापूर्वक नहीं। हिंदी ब्लागिंग के कुछ बेहतरीन लेख अनुगूंज में मिल सकते हैं।
यह पत्रकारिता की भाषा की ताकत और कमाल है कि एक नौजवान सा दिखने वाला लेखक एक उम्रदराज लेखक की पूरे आदर के साथ लानत-मलानत करता है, सब कुछ कहते हुये भी कुछ नहीं कहता। यह हुनर सीखने में हिंदी ब्लागर को न जाने कितना समय लग जाये, एक आम हिंदी ब्लागर को। हो सकता है यह मीडिया जगत की आम बोलचाल, सम्प्रेषण की भाषा हो लेकिन दोनों के उम्र को देखते हुये मुझे अभिसारजी की टिप्पणी बहुत अशालीन, दम्भपूर्ण लगी।
यह भाषा का ही कौशल है कि बोल्ड अक्षरों में मेरे आरोप को नजर अंदाज करके अविनाशजी तमाम दूसरी बातों पर तर्क पूर्वक अपनी सोच को सही साबित करते हुये टहल लेते हैं।
यहां मोहल्ले के बारे में ज्यादा जिक्र इस लिये हो गया कि आम तौर पर ज्यादातर लेख मोहल्ले पर ही पोस्ट हुये।
मैं यहां अविनाशजी, रवीशजी, प्रमोदसिंहजी की कमी निकालने के लिये यह सब बातें नहीं लिख रहा हूं। उनके लेख बहुत अच्छे हैं। लेकिन इतने अच्छे लेखन के बावजूद अगर आप इस माध्यम से अभी तक आम लोगों से नहीं जुड़ पाये तो कहीं न कहीं कुछ बात जरूर है कि लोग आपके लेखों से लाभान्वित नहीं हो रहे।
ब्लाग ऐसा माध्यम है जहां ज्यादातर जो पाठक है वहीं लेखक भी है। अगर आप दूसरे का लिखा नहीं पढ़ेंगे तो दूसरे आपका पढ़ भले लें बतायेंगे नहीं कि हां पढ़ लिया। इसके अलावा अगर आप दूसरों की टिप्पणियों को गुरुगम्भीर अंदाज में जटिल शब्दावली में इधर-उधर कर देंगे तो लोग आगे टिपियाने से कतरायेंगे।
यह समझने की बात है जगदीश भाटिया की कक्षा आठ में पढ़ने वाली बिटिया मानोसी जब कुल जमा सात लाइन की लिखती है तब भी उसके ब्लाग पर लोग तमाम कमेंट करते हैं, अभय तिवारी की माताजी की पोस्ट पर लोग टिप्पणी करते हैं फिर इतने अच्छी पोस्टों के बावजूद पत्रकार साथियों के ब्लाग पर पत्रकारों के सिवाय दूसरे लोग टिप्पणी क्यों नहीं करते। इसका जबाब मेरी समझ में सिर्फ यह है कि अभी तक न आप ब्लाग जगत से पूरी तरह से जुड़ पाये हैं न ही लोग आपसे जुड़ पाये हैं।
अभी तक की मेरी समझ के अनुसार के ब्लागिंग से जुड़ना मतलब अपने घर-परिवार जैसे माहौल से जुड़कर लिखना होता है। जैसे घर परिवार के बीच गप्पाष्टक करते-करते लोग अपनी बात कहते जायें और अच्छी हो तो लोग कहें शाबास। और अगर कम प्रभावी लिखा है तो कहें अच्छा है लिखते रहें। बिना लोगों से जुड़े अकेले में बैठकर ज्ञान की बात करने का मतलब है कि कुछ न कुछ सम्प्रेषण दोष है।
मैंने यह लेख जिन बातों के कारण लिखना शुरू किया था वे पता नहीं कह पाया कि नहीं लेकिन मेरा मन यही लिखने का था कि-
१.पत्रकार साथियों की ब्लागिंग पर सवाल उठाना फिजूल की बात है। फिलहाल अपनी सोच और विचार को प्रकट करने के अलावा उनका कोई एजेंडा नहीं है।
२. नारद पर किसी एक का अधिकार नहीं है। जो भी व्यक्ति चिट्ठाजगत से जुड़ा है और इसे अपना समझता है ,नारद पर उसका अधिकार है।
३.अपने बेहतरीन लेखन के बावजूद पत्रकार साथी अगर अभी तक हिंदी ब्लागजगत से अपनापा महसूस नहीं कर पाये और सहज नहीं हो पाये तो इसमें कहीं न कहीं उनके ज्ञान का आतंक और उनकी अपने आप को खास समझने की भावना है भी मूल में है।
४. जिस माध्यम में आप अपने को अभिव्यक्त कर रहे हैं उसे झूठा, बंजर और बहस के लिये अक्षम बताना कैसे उचित है?
लेख खतम करने के पहले से कभी पत्रकारिता से जुड़े रहे भाईनीरज दीवान का जिक्र जरूरी है। नीरज दीवान हमारे दिमाग से गायब ही हो जाते हैं, जब हम पत्रकारों की बातें करते हैं। हमें लगता है कि वे तो हमारे ब्लागर भाई हैं, पत्रकार कहां रहे। जबकि नीरज इस मसले पर हुयी अनावश्यक बहसों से बहुत दुखी हैं।यह लेख मैंने उनके कहने पर ही लिखा। इसमें पत्रकार ब्लागर साथियों के ऊपर कुछ टिप्पणियां ज्यादा हो हैं क्योंकि पत्रकारों की बातें ज्यादातर अनामदासजी ने अपनी पोस्ट में दे दी हैं इसलिये हमने उनको दोहराना नहीं चाहते।
हमें आशा है कि आने वाले समय में समाज के हर वर्ग से, हर उम्र के लोगों की अपना लिखा हुआ पोस्ट करने वालों की लाइन लग जायेगी। इतना कि अपनी पसंद के ब्लाग को पढ़ने को छोड़कर तमाम दूसरे ब्लाग को पढ़ने के लिये न समय होगा न मजबूरी न जरूरत!
Posted in बस यूं ही | 30 Responses
अभी तक की मेरी समझ के अनुसार के ब्लागिंग से जुड़ना मतलब अपने घर-परिवार जैसे माहौल से जुड़कर लिखना होता है। जैसे घर परिवार के बीच गप्पाष्टक करते-करते लोग अपनी बात कहते जायें और अच्छी हो तो लोग कहें शाबास। और अगर कम प्रभावी लिखा है तो कहें अच्छा है लिखते रहें।
अकेले में बैठकर ज्ञान की बात करने का मतलब है कि कुछ न कुछ सम्प्रेषण दोष है।
जहां तक टिप्पणी आने की बात है। यह तो पता ही नहीं चलता कि कब टिप्पणी आ जायगी और कब नहीं। टिप्पणियों से यह तय कर लेना कि आपको लोग पसन्द नहीं करते हैं गलत होगा।
हो सकता है अविनाश ने पूरी तरह से निहायत स्वार्थी रवैया अपनाते हुये सब को भुला कर सिर्फ़ अपना प्रचार किया..(अविनाश.. आप मुझे माफ़ करें.. मैं सिर्फ़ एक संभावना व्यक्त कर रहा हूँ) .. अपना नाम अखबार में पढ़ने और मशहूर हो जाने का अरमान हम सब दिल में संजोते हैं.. और उस पर आरोप लगाने के पीछे भी कहीं यही अरमान है.. अपने या अपनी रचना(ब्लॉग या एग्रीगेटर)के लिये..तो अगर अविनाश ने नारद की बात न करके सिर्फ़ अपने ब्लॉग की बात की .. तो क्या नारद का योगदान भुला कर महज अपनी बात करना इतना बड़ा अपराध है कि उसे बार बार कट्घरे में खड़ा करके जवाब देने पर मजबूर किया जाय.. हो सकता है मैं कई सूचनाओं से अपरिचित हूँ.. रिश्तों में उम्मीदें भी होती हैं.. सब माना.. मगर एक बात और सोचनी चाहिये.. अगर कोई पत्रकार हिन्दी मे ब्लॉग की बढ़ती लोकप्रियता पर एक आम रपट की तरह लिखेगा .. तो वह सिर्फ़ कुछ खास खास ब्लॉग की ही चर्चा करेगा.. ये दिखाने के लिये कि किस तरह के लोग किस तरह का लेखन कर रहे हैं.. लेकिन अगर उसकी रपट की विषय वस्तु.. हिन्दी चिट्ठा का इतिहास है.. जब कोई ब्लॉगर नहीं.. लिखने के लिये कोई सुभीता नहीं.. ऐसे में एक ज़मीन तैयार करना.. ये सच में एक अलग कहानी है.. पूरी रपट का चरित्र बदल जायेगा.. और वो बात नारद के इर्द गिर्द घूमेगी.. उसमें अगर कोई अविनाश या रवीश … किसी व्यक्तिगत ‘खुन्दक’ के चलते नारद को काटने की कोशिश भी करेंगे तो भी नहीं काट पायेंगे.. मैं नहीं जानता कि व्यक्तिगत तौर पर अविनाश कैसे इन्सान हैं.. इस पूरी बहस में .. और जिस तरह से वो अपना मोहल्ला चलाते हैं.. उस से ये तो कतई नहीं लगता कि वो किसी को गिरा कर आगे बढ़ने पर यकीन रखने वाले इन्सान हैं.. लगता तो कुछ युँ है कि साथ साथ हाथ से हाथ मिलाकर चलने में उनका भरोसा है..
आखिर में बस इतना ही.. मुल्जिम बेकसूर है..माई लॉर्ड.. उसे बाइज़्ज़त बरी किया जाय..आई रेस्ट माई केस..
अरे भई, ब्लागमंडल में पेशेवर डॉक्टर्स, गणित के प्रोफ़ेसर, पीएचडी धारियों और देश विदेश में बसे धुरंधरों से ले कर प्यारे बच्चों तक की पूरी रेंज शामिल है! बडे जतन से लोग जुडते हैं और पाठकों, चिट्ठाकारों के प्रति परस्पर सम्मान ले कर चलने का माहौल बनता है – कोई आ कर स्मार्टनेस दिखाएगा और फ़ोकट अटेंशन पाने या छाने की कोशिश करेगा तो ये बताना मजबूर जरूरी हो जाएगा की बेटा तेज़ मत चलो हम यहां तम्बाकू मलने के लिये नहीं बैठे हैं! लेकिन पढे-लिखे पत्रकारों से जैसी समझदारी की उम्मीद थी शुरुआत उसकी तुलना में खिन्नकारी और खराब ही की गई है!
अच्छा हो कि हम सब घुलमिल कर रहें. आप सही कह रहे हैं, और मै लालाजी की उपरोक्त टिप्पणी से पुर्णतः सहमत हुँ.
नारद में तो कोरस गाना ही बजेगा, खुद का सोलो एल्बम निकाल कर हीट होने की चाह है तो जै राम जी की!
पत्रकारों से कोई एलर्जि नहीं हैं, निरज दिवान और खास कर बिहारी बाबू का तो गर्मजोशी से स्वागत हुआ था.
मामला अपने आपको सर्वज्ञ व दुसरे ब्लोगरो को तुछ समने के कारण बिगड़ा. साथ ही लेखो कि भाषा व शैलि ऐसी है की दिमाग पर जोर देकर समझना पड़ता है. अब हर कोई इतना विद्वान तो होगा नहीं ना
अच्छी बात सरलता से लिखना सुनिल दीपक से सीखो. आप लिखते है, रविजी है, समीरलालजी है. सूची लम्बी है.
रही बात पत्रकारों के ब्लॉगिंग मे आने की, तो भैया, हमने तो सभी को इनकरेज ही किया है। अविनाश कभी एक बार भी कह दें कि हमने उनके सम्मान मे कमी रखी हो। कोई भी तकनीकी दिक्कत हो, आनलाइन बैठकर सुलझाया है। (इसके बारे मे बहुत से पत्रकार भाई स्वयं बताएंगे।) हम पत्रकारों के ब्लॉगिंग मे आने से बहुत उत्साहित है, लेकिन वे यहाँ पर एक नए ब्लॉगर ही माने जाएंगे, स्थापित पत्रकार नही। पत्रकार भाईयों के लिए सिर्फ़ एक विनम्र सलाह है, अभी आए हो, थोड़ा विश्राम करो, हमारे साथ चलो, हमे समझो, हम आपको समझे। कुछ आप सीखो, कुछ हम सीखें।मंजिले मिल जाएंगी। यहाँ पर जो टिक गया, समझो हमेशा के लिए यहाँ का हो गया। हमारी हार्दिक इच्छा है कि आप यहाँ पर टिकिए ही नही, बल्कि यहाँ की नीव का पत्थर बनिए।
एक पत्रकार रवीश भाई है, उन्होने ब्लॉगिंग की नब्ज बहुत जल्द ही पकड़ ली है, मौज मे लिखते है और मौज मे जवाब देते है। क्या उनको पाठकों की कमी है?
अच्छा लिखने वाला हमेशा पाठकों और टिप्पणीकारों से घिरा रहेगा, आशा है रवीश इसी तरह से लिखते रहें। अनामदास जी बहुत अच्छा लिखते है, उन्होने मुद्दे ही इतने अच्छे उठाए कि लोग जवाब दिए बिना नही रहते। मुझे तो इन दोनो दोनो पत्रकार साथियों का लेखन बहुत अच्छा लगता है।
रही बात नारद की, तो भैया मै तो सिर्फ़ एक सेवक का धर्म निभा रहा हूँ, ना तो कभी मैने नारद को मनमाने तरीके से चलाने की बात की और ना ही कभी मैने किसी पर अनुशासन थोपा है। सारे निर्णय सामूहिक तौर पर लिए जाते है, अलबत्ता जूते खाने के लिए मै सामने खड़ा जरुर होता हूँ। नारद हम सबका है, जैसा सभी लोग चाहेंगे वैसा ही होगा।
अभी विभिन्न विचारधाराओं से लोग आएंगे और हिन्दी ब्लॉगिगं की ज्ञान गंगा को आगे बढाने के लिए, सभी का स्वागत है। हो सकता है किसी की विचारधारा से हम सहमत हो अथवा नही, लेकिन सभी को अपनी बात कहने का हक था, है और रहेगा। आखिर ब्लॉगिंग अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का ही दूसरा नाम है।
आमीन !!!
@समीरलालजी, धन्यवाद।
@तरुण,संबंध बन तो रहे हैं। अब देखो प्रमोदसिंहजी के यहां योगिताबाली प्रमोदजी को कोहिनियाते हुये हमारी पोस्ट पढ़ा रहीं हैं। मुस्करा रहीं हैं। अब इससे और अधिक संबंध की क्या आशा करते हो भाई! होली भी हो ली
@उन्मुक्तजी, आपकी बात सही है कि टिप्पणियां पसंदगी का एकमात्र पैमाना नहीं है। जैसे सुनील दीपकजी और आपको भी हम सभी लोग पढ़ते हैं लेकिन टिप्पणियां उतनी मात्रा में नहीं आती। आप लोग आदरणीय, बुजुर्ग ब्लागर की कैटेगरी में आ गये हैं न! अदब से टिप्पणी करना होता है।
@अभय तिवारीजी, लेख पसंद करने के लिये शुक्रिया। जहां तक अखबार में छपी रपट पर अविनाशजी जबाबदेही वाली बात तो मैं इसको चर्चा के लायक नहीं समझता। अविनाशजी ने जैसा बताया वैसा हमने मान लिया। किसी अखबार में एक दिन की रपट ,वह भी जब दूसरे के हवाले छपी हो,पर किसी को कटघरे में खड़ा करना मुझे समझ में आता है। ऐसा कोई गुनाह नहीं किया अविनाशजी ने जो उनका मुकदमा पेश किया जाये। बाइज्जत बरी करने की बात तो तब आती है जब उनके खिलाफ मुकदमा चलाया जाये, यहां तो मुकदमें को खारिज किया जाता है। वैसे आपको बता दें इस तरह की बातें सहज स्वाभाविक हैं। कुछ महीने पहले रविरतलामीजी का सहारा टीवी में इंटरव्यू हुआ , वे कई मुद्दे छोड़ गये। कई बार ऐसे किस्से हुये। अभी शायद लोकमंच की बात हुयी तो उसमें भी काफी कुछ छूट गया था। मौज-मजे की बात अलग है जब सामने होंगे अविनाश तो खिंचाई की जायेगी लेकिन मुझे यह सब सहज स्वाभाविक बातें लगती हैं। मैं अविनाशजी से मिला नहीं लेकिन यह उनके बारे में जो आपकी धारणा है वहीं मेरी है कि -साथ साथ हाथ से हाथ मिलाकर चलने में अविनाशजी का भरोसा है। वैसे आपकी तारीफ़ इसलिये भी कि आपने अविनाश की पैरवी की। जीतू में दिल की विनम्रता और विशालता देखकर आपने अपने अच्छी नजरों का परिचय दिया है। शुक्रिया।:)
@ईस्वामी, प्रतिक्रिया के लिये शुक्रिया। कभी-कभी तम्बाकू भी मल लिया करो।
@प्रमोदसिंहजी, आपकी प्रतिक्रिया का शुक्रिया।अब देखिये ये गलती हो न गयी कि हमने आपके लिखे लेखों को रवीशकुमार का लिखा बता दिया। वैसे अब गलती सुधार ली।
@पंकजबेंगाणी, सही है सोलो किसी का हिट नहीं होता देर तक।
@संजय बेंगाणी, नीरज दीवान और बिहारीबाबू से जैसे हम लोग घुलमिल गये हैं ऐसे ही इस पत्रकार साथियों से होगा। ऐसा मेरा सोचना है, विश्वास है।
@श्रीश(ठीक लिखा न!) पसंदगी और प्रतिक्रिया का शुक्रिया।
@जीतू, …अलबत्ता जूते खाने के लिए मै सामने खड़ा जरुर होता हूँ। क्या सेंटीमेंटल बाउंसर मारे हो!:) क्या अदा है। कोई सदके तो जाये।:) वैसे ये जूते खाने की आदत बुरी है इसे बदल डालो। अब ये लोग जम गये-रम गये। तुम अपना कोई काम टिका देने वाला प्रोजेक्ट चलाओ न। थमा दो अविनाश और रवीशकुमार को कोई काम। बस ये लगे रहेंगे। वैसे यह सच है कि रवीशकुमारजी के लेख बहुत अच्छे होते हैं। कोई बड़ी नहीं कि कुछ दिन में कस्बा शरदजोशीजी के प्रतिदिन की तरह लोकप्रिय हो जाये।लेख पसंद करने का शुक्रिया। वैसे ये लेख तुम मढ़ा के रख लो। इसमें हमने बताया है कि नारद सबकी मर्जी से चलता है। जब कहीं फंसो जल्दबाजी के चक्कर में तो ये लेख दिखा देना कि हम तो सेवक हैं-जैसी आम सहमति हुयी वैसा कम किया।
@नितिन बागला,शुक्रिया।
@अविनाश भाई,माफ़ी-वाफ़ी जैसी किसी बात की कोई जरूरत नहीं है। भूल-चूल गिनाने की भी मेरी मंशा नहीं है। ब्लागजगत के अपने साथियों को छोटा साबित करके मैं कोई बड़ा नहीं हो जाउंगा। यह मेरा छोटापन ही होगा। न आपके किसी काम में मैं कोई छिपा एजेंडा देखता हूं। ब्लाग स्पेस को पत्रिका की शक्ल देना सर्वज्ञ होने की लकीर भी नहीं है। प्रयोगों का स्वागत है। अब जाने की बातें तो भूल जाओ। ये जाने-वाने की बातें करना सागर चंद नाहर का विशेषाधिकार है, आप कैसे इस तरह की बातें कर सकते हो! एक बात और आपको समझनी चाहिये जो कि मैं लिखना भूल गया। आप मोहल्ला पर संयोजक की हैसियत से भूमिका निभाते हो। इसलिये वहां जो भी लेख पोस्ट होते हैं उनकी कामयाबी का सेहरा तो लेखक के सिर बंधता है लेकिन जो कुछ चूक हो जाती है उसका काफ़ी अंश आपके पल्ले आता है। मनीषाजी, ब्लाग को जैसा समझती हैं वैसा उन्होंने लिखा। लेकिन मेरी समझ में सच वैसा नहीं है। अब मनीषा जी मेरी इस पोस्ट पर जवाब देने तो आयेंगी नहीं सो यह कोसना आपके ही पल्ले जायेगा। अभिसारजी ने जिस तीखी भाषा में प्रमोदसिंहजी और रवीशकुमार के सवालों के जवाब लिखे उनके तेवर बहुत तीखे हैं। इसके बाद वहां टिप्पणी करने के पहले कोई भी पाठक पचास बार सोचेगा। आप पता नहीं कैसे ब्लागिंग को देखते हैं लेकिन मुझे लगता है कि आप लोग इसमें बहुत बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। यही आशा है मुझको आप लोगों से। जहां तक इस पोस्ट और इसके पहले की भी एक पोस्ट में मैंने मोहल्ले के बारे में सवाल उठाये उसके पीछे कहीं भी आपको को बुरा साबित करने की मंशा नहीं थी। मैं सिर्फ आपको यही संकेत करना चाहता था कि आप लोग इतने बढ़िया लेखन के बावजूद अभी तक लोगों से क्यों नहीं जुड़ पाये! ब्लागर लोग क्यों इतने खुलकर आपके लेखों से उतना क्यों नहीं जुड़ पाते जितना जुड़ सकते हैं। हमारी शुभकामनायें कि आप अपनी क्षमताऒं का उपयोग अपनी अच्छी मंशायें पूरी कर सकें। और हां घर वापसी की बातें करनी छोड़ दें, इसे अनुशासनहीनता माना जायेगा। सख्त सजा हो सकती है- आजीवन ब्लागिंग की।
सबसे पते की बात रही लेख के अन्तिम पैरा मे-
//इतना कि अपनी पसंद के ब्लाग को पढ़ने को छोड़कर तमाम दूसरे ब्लाग को पढ़ने के लिये न समय होगा न मजबूरी न जरूरत…//
आशा है मेरे जैसे ‘अलेखक’ किस्म के चिट्ठाकार को भी पत्रकारों से सीखने को बहुत कुछ मिलेगा…
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पर जाहिर है हम इतनी नफासत से नहीं कह पाए थे जिससे आपने कहा। और व्यक्तिगत संपर्क का जितना(सा) भी अवसर मिला है कह सकता हूँ कि वे सुनने स्वीकार करने और खुद और दूसरों को बदलने का माद्दा रखते हैं।
खैर चिठेरी का मंच फ्री फण्ड का है. सब जबरिया लिखिहीं – के का करे!
तनवीर अहमद राणा,दिल्ली