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काहे जिया डोले हो कहा नहीं जाये
By फ़ुरसतिया on December 4, 2007
मुंबई ब्लागर मिलन में अनिल रघुराज का गीत सुनकर
अद्भुत आनंद आया। इस गीत के संदर्भ में अपने मामा डा.कन्हैयालाल नंदन का
आत्मपरक लेख याद आ गया। इस लेख में उन्होंने अपने उन दिनों की याद की थी जब
उनकी संवेदना को उनके गुरू डा.ब्रजलाल वर्मा संवार रहे थे। उन्होंने लिखा था-
इस किस्से का जिक्र मामाजी कई बार कर चुके हैं। लेकिन इसे पहली बार सुनने का सौभाग्य अनिल की आवाज में मिला। अद्भुत अनुभव।
मैं सोच रहा हूं कि मामाजी ने यह सोहर जब पहली बार सुना होगा तब सन १९५० के आसपास की बात रही होगी। हमने इसे दो साल पहले पहली बार पढ़कर जाना। और अब अनिल रघुराज की आवाज में इसे सुनने का सौभाग्य मिला। डा.ब्रजलाल वर्माजी ने भी न जाने कब किससे सुना होगा। अनिल ने न जाने किससे सुनकर याद किया होगा। ये गीत ऐसे ही यात्रा करते हैं। कोटि-कोटि कंठों से यात्रा करते हुये अजर-अमर रहते हैं। कभी-कभी कुछ रूप बदल भले हो जाये लेकिन आत्मा सुरक्षित रहती है।
ऐसे ही देखा कि मैंने अपने ब्लाग पर जो लवकुश दीक्षित का गीत निहुरे-निहुरे कैसे बहारौं अंगनवा पोस्ट किया वह न जाने किन-किन हस्तियों ने गाया है। लवकुश जी को पता भी न होगा और न जाने किन-किन लोगों ने इसे गाकर मंच लूट लिया होगा।
पिछले दिनों जब नीलिमा जी अपने ब्लाग -शोध से संबंधित लेख पोस्ट कर रहीं थीं तो हमने उनको अपनी दो स्थापनायें बतायीं थीं।
१. हिंदी ब्लाग-जगत की सबसे बेहतरीन पोस्टों में से ज्यादातर में लिखने वालों की अपनी स्मृतियों का जिक्र है। स्मृतियों के अलावा विवाद वाली पोस्टों पर तात्कालिक हिट्स भले मिलें हों लेकिन उनको दुबारा शायद उनके लिखने वाले भी पढ़ना चाहें।
२. हिदी ब्लाग-जगत में दोस्ती भले स्थायी हो लेकिन दुश्मनी बेहद अस्थाई है। यह मेरे अपने अनुभव पर आधारित है। हो सकता है आपके अनुभव अलग हों।
कुछ साथियों ने मेरी माताजी के कुछ और गीत सुनने चाहे हैं। अपनी माताजी की एक और गीत मैंने रिकार्ड किया था। उसे आपके लिये पोस्ट कर रहा हूं। कुछ लोग मेरे अनाड़ीपन की मेहरवानी के चलते इसे पहले भी सुन चुके हैं।
सूचना:दो साल पहले इसे रिकार्ड किया था। इस बीच जिस सेवा से यह रिकार्ड किया था वह कामर्शियल हो गयी और यह वीडियो दिखना बंद हो गया। तब आज 22.11.09 को फ़िर इसे रिकार्ड किया और यू ट्यूब पर अपलोड किया।
रचनाकार अज्ञात
मैं हाई स्कूल का विद्यार्थी हो गया। वहीं मुझे मिले डा.ब्रजलाल वर्मा जो मेरे क्लास टीचर भी थे और हिंदी,उर्दू, अंग्रेजी और फारसी तथा संस्कृत के खासे विद्वान थे। उन्होंने शब्दों की लरजन,उसकी ऊष्माउस सदमें से उबरने के क्रम में मैं नौकरी से छुट्टी लिये रहा और फिर नर्वल के भाष्करानंद विद्यालय के अपने अध्यापक पंडित प्यारेलाल त्रिपाठी के सहयोग से मैं फिर नर्वल में जा दाखिल हुआ। उन्होंने मेरी संगीत दक्षता को आधार बनाकर प्रिंसिपल पंडित शिवशंकर लाल शुक्ल से मेरी फीस ही नहीं माफ करायी,मेरी किताबों की भी व्यवस्था स्कूल से ही करायी और मैं हाई स्कूल का विद्यार्थी हो गया। वहीं मुझे मिले डा.ब्रजलाल वर्मा जो मेरे क्लास टीचर भी थे और हिंदी,उर्दू,अंग्रेजी और फारसी तथा संस्कृत के खासे विद्वान थे। उन्होंने शब्दों की लरजन,उसकी ऊष्मा और उसकी संगति की ऐसी पहचान मेरे मन में बिठा दी कि मुझे साहित्य जीवन जीने की कुंजी जैसा लगने लगा। वे हिन्दी की किसी कविता की पंक्ति को समझाने के लिये उर्दू और संस्कृत के काव्यांशों के उदाहरण देते थे और इस तरह साहित्य की बारीकियों पर मेरा ध्यान केंद्रित करते थे। लोकजीवन से संवेदना के तमाम तार झनझना देते थे:- छापक पेड़ छिउलिया तपत वन गह्वर हो,
तेहि तर ठाढ़ी हिरनिया हिरन का बिसूरइ हो।
यह सोहर मैंने पहली बार डाक्टर ब्रजलाल वर्मा के मुख से सुना था और पहली बार उस दर्द को गहराई से महसूस किया था कि एक हिरनी कैसे अपने हिरन को मार दिये जाने पर उसे याद करने के लिये कौशल्या मां से कहती है-” जब उसकी खाल से बनी डपली पर तुम्हारा लाड़ला थाप देता है तो मेरा हिया काँप जाता है,माँ वह डफली मुझे दे दो।मुझे उस आवाज में हिरना की सांस बजती हुई मालूम होती है और मैं बिसूर कर रह जाती हूँ।”
संवेदना की इन गहराइयों में उतरने का अभ्यास मेरे उन्हीं प्रारंभिक अध्यापकों ने कराया था जो शब्द की सिहरन को दिल की धड़कन के इशारों की तरह बारीकी से पढ़ना सिखा देना चाहते थे।
इस किस्से का जिक्र मामाजी कई बार कर चुके हैं। लेकिन इसे पहली बार सुनने का सौभाग्य अनिल की आवाज में मिला। अद्भुत अनुभव।
मैं सोच रहा हूं कि मामाजी ने यह सोहर जब पहली बार सुना होगा तब सन १९५० के आसपास की बात रही होगी। हमने इसे दो साल पहले पहली बार पढ़कर जाना। और अब अनिल रघुराज की आवाज में इसे सुनने का सौभाग्य मिला। डा.ब्रजलाल वर्माजी ने भी न जाने कब किससे सुना होगा। अनिल ने न जाने किससे सुनकर याद किया होगा। ये गीत ऐसे ही यात्रा करते हैं। कोटि-कोटि कंठों से यात्रा करते हुये अजर-अमर रहते हैं। कभी-कभी कुछ रूप बदल भले हो जाये लेकिन आत्मा सुरक्षित रहती है।
ऐसे ही देखा कि मैंने अपने ब्लाग पर जो लवकुश दीक्षित का गीत निहुरे-निहुरे कैसे बहारौं अंगनवा पोस्ट किया वह न जाने किन-किन हस्तियों ने गाया है। लवकुश जी को पता भी न होगा और न जाने किन-किन लोगों ने इसे गाकर मंच लूट लिया होगा।
पिछले दिनों जब नीलिमा जी अपने ब्लाग -शोध से संबंधित लेख पोस्ट कर रहीं थीं तो हमने उनको अपनी दो स्थापनायें बतायीं थीं।
१. हिंदी ब्लाग-जगत की सबसे बेहतरीन पोस्टों में से ज्यादातर में लिखने वालों की अपनी स्मृतियों का जिक्र है। स्मृतियों के अलावा विवाद वाली पोस्टों पर तात्कालिक हिट्स भले मिलें हों लेकिन उनको दुबारा शायद उनके लिखने वाले भी पढ़ना चाहें।
२. हिदी ब्लाग-जगत में दोस्ती भले स्थायी हो लेकिन दुश्मनी बेहद अस्थाई है। यह मेरे अपने अनुभव पर आधारित है। हो सकता है आपके अनुभव अलग हों।
कुछ साथियों ने मेरी माताजी के कुछ और गीत सुनने चाहे हैं। अपनी माताजी की एक और गीत मैंने रिकार्ड किया था। उसे आपके लिये पोस्ट कर रहा हूं। कुछ लोग मेरे अनाड़ीपन की मेहरवानी के चलते इसे पहले भी सुन चुके हैं।
सूचना:दो साल पहले इसे रिकार्ड किया था। इस बीच जिस सेवा से यह रिकार्ड किया था वह कामर्शियल हो गयी और यह वीडियो दिखना बंद हो गया। तब आज 22.11.09 को फ़िर इसे रिकार्ड किया और यू ट्यूब पर अपलोड किया।
काहे जिया डोले हो कहा नहीं जाये
कहे जिया डोले हो कहा नहीं जाये
कहा नहीं जाये ऒ रहा नहीं जाये।
जीवन को भावे मोरे बचपन को संगना,
पापी पपिहा बोले जब मेरे अंगना।
बोल मोसे बैरी का सहा न जाये,
सहा नहीं जाये हो रहा नहीं जाये।
काहे जिया डोले हो कहा नहीं जाये।
सागर में डोल रही हृदय् की नैया,
जी रूम-झूम कहे आ जा खेवैया।
उंचि-नीचि लहरों में बहा नहीं जाये,
बहा नहीं जाये हो सहा नहीं जाये।
काहे जिया डोले हो कहा नहीं जाये।
जमुना किनारे मेरे पी की नगरिया
कैसे बिताऊं हाय बाली उमरिया।
हूक उठे मन में रहा नहीं जाये,
रहा नहीं जाये हो कहा नहीं जाये।
काहे जिया डोले हो कहा नहीं जाये।
रचनाकार अज्ञात
Posted in पाडकास्टिंग, बस यूं ही, मेरी पसंद | 12 Responses
आरंभ
जब-जब बाजै खझड़िया सबद सुनि अनकइ हो।
हिरनी ठाढ़ि छिउलिया के नीच हरिन के बिसूरइ हो।।
माता जी को प्रणाम!! उनकी आवाज़ में गीत सुनना एक अच्छा अनुभव है!!
संस्मरण वाली पोस्ट पर कहना चाहूंगा कि संस्मरण ही तो ज़िंदा रहते हैं आदमी के जीते तक भी और उसके चले जाने के बाद भी!! इसलिए ब्लॉग्स पर सफ़ल पोस्टें संस्मरणात्मक ही होंगी!!
आदमी ट्रांसपेरेण्ट होना जरूरी है। चाहे दोस्त हो या दुश्मन।
बाकी ब्लॉगजगत में दुश्मनी की क्या दरकार!
आपने हम सबको रस्ता दिखाया है ।
जय हो
माताजी की मधुर आवाज में इस विरह की गीत को सुनकर मन प्रसन्न हो गया । वैसे हम इसे पहले भी सुन चुके थे आपके चिट्ठे पर लेकिन इस बार पढते हुये सुनना बहुत अच्छा लगा ।