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प्रेम गली अति सांकरी
By फ़ुरसतिया on August 24, 2008
डा.अनुराग आर्य और अभिषेक ओझा के कालेजियट प्रेम के किस्से पढ़कर कर हमें भी अपने कालेज के किस्से याद आ गये। हम पहले भी इनको पेश कर चुके
हैं। लेकिन साढ़े तीन साल पहले के किस्से दुबारा ठेलने में कोई हर्जा तो
नहीं है न जी! जब किताबों के संस्करण साल में दो आ जाते हैं तो ब्लाग पोस्ट
इतने समय बाद तो दुबारा पेश किये ही जा सकते हैं। फ़िर नये पाठकों ने कोई
पाप तो किया नहीं है न जो उनको इससे वंचित रखा जाये।
बताते चलें कि उन दिनों लेखक और पाठक दोनों बहुत कम थे। कुल एक सौ से भी कम ब्लाग थे शायद उस समय। सबको उत्साहित करने के लिये अनुगूंज का आयोजन किया जाता। शुरुआती दिनों के तमाम बेहतरीन लेख अनुगूंज के बहाने लिखे गये। पांचवी अनुगूंज का आयोजन जीतेंन्द्र चौधरी के जिम्मे था। उन्होंने विषय दिया- पहला प्यार। असल में उनको अपना किस्सा सुनाना था !
जीतेंन्द्र ने उस अनुगूंज की रपट आप यहां देख सकते हैं। देखिये इसमें तमाम नामचीन लोगों ने अपने प्यार का खुलासा किया है। इसी कड़ी में यह लेख मैंने लिखा था। बहरहाल आप घुसिये प्रेम की गली में। हम यहीं खड़े हैं। यामें दो न समायें।
सच यह है कि जब आदमी के पास कुछ करने को नहीं होता तो प्यार करने लगता है। इसका उल्टा भी सही है-जब आदमी प्यार करने लगता है तो कुछ और करने लायक नहीं रहता।
प्यार एक आग है। इस आग का त्रिभुज तीन भुजाओं से मुकम्मल होता है। जलने के लिये पदार्थ (प्रेमीजीव), जलने के लिये न्यूनतम तापमान(उमर,अहमकपना) तथा आक्सीजन(वातावरण,मौका,साथ) किसी भी एक तत्व के हट जाने पर यह आग बुझ जाती है। धुआं सुलगता रहता है। कुछ लोग इस पवित्र ‘प्रेमयज्ञधूम’ को ताजिंदगी सहेज के रखते हैं । बहुतों को धुआं उठते ही खांसी आने लगती है जिससे बचने के लिये वे दूसरी आग जलाने के प्रयास करते हैं। इनके लिये कहा है नंदनजी ने:-
अभी मुझसे फिर उससे फिर किसी और से
मियां यह मोहब्बत है या कोई कारखाना.
बहुतों से प्यार किया हमनें जिंदगी में। बहुतों का साथ चाहा। बेकरारी से इंतजार किया। संयोग कुछ ऐसा कि ये सारे ‘बहुत’ नरपुंगव रहे। मादा प्राणियों में दूर-दूर तक ऐसा कोई नहीं याद आता जिस पर हम बहुत देर तक लटपटाये हो। ‘चुगदावस्था’ने हमारे ऊपर स्पर्शरेखा तक नहीं डाली।
किसी का साथ अच्छा लगना और किसी के बिना जीवन की कल्पना न कर पाना दो अलग बातें है। हमारी आंख से आजतक इस बात के लिये एक भी आसूं नहीं निकला कि हाय अबके बिछुड़े जाने कब मिलें। किताबों में फूल और खत नहीं रखते थे कभी काहे से कि जिंदगी भर जूनियर इम्तहान होते ही किताबें अपनी बपौती समझ के ले जाते रहे। कोई तिरछी निगाह याद नहीं आती जो हमारे दिल में आजतक धंसी हो:-
तिरछी नजर का तीर है मुश्किल से निकलेगा
गर दिल से निकलेगा तो दिल के साथ निकलेगा.
हम उस जमाने की पैदाइश हैं जब लगभग सारे प्रेम संबंध भाई-बहन के पवित्र रिश्ते से शुरु होते थे। बहुत कम लोग राखी के धागे को जीवन डोर में बदल पाते। ज्यादातर प्रेमी अपनी प्रेमिका के बच्चों के मामा की स्थिति को प्राप्त होते। आजकल भाई-बहन के संबंध बरास्ता कजिन होते हुये दोस्ती के मुकाम से शुरु होना शुरु हुये है। पर एक नया लफड़ा भी आया है सामने। अच्छाभला “हम बने तुम बने एक दूजे के लिये“गाना परवान चढ़ते-चढ़ते “बहना ने भाई की कलाई पर प्यार बांधा है“का राग अलापने लगता है।
बहलहाल इंटरमीडियेट के बाद हम पहुंचे कालेज। कालेज वो भी इंजीनियरिंग कालेज-हास्टल समेत। करेला वो भी नीम चढ़ा। ऐसे में लड़को की हालत घर से खूंटा तुड़ाकर भागे बछड़े की होती है जो मैदान में पहुंचते ही कुलांचे मारने लगता है।
हास्टल में उन दिनों समय और लहकटई इफरात में पसरी रहती थी। फेल होने में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। जिंदगी में पहली बार हमारी कक्षाओं में कुर्सी, मेज, किताब,कापी, हवा, बिजली के अलावा स्त्रीलिंग के रूप में सहपाठिनें मिलीं।
हमारे बैच में तीन सौ लोग थे। लड़कियां कुल जमा छह थी। तो हमारे हिस्से में आयी 1/50 । हम संतोषी जीव । संतोष कर गये। पर कुछ दिन में ही हमें तगड़ा झटका लगा। हमारे सीनियर बैच में लड़कियां कम थीं। तो तय किया गया लड़कियों का समान वितरण होगा। तो कालेज की 10 लड़कियां 1200 लड़कों में बंट गयीं। बराबर-बराबर। हमारे हिस्से आयी 1/120 लड़की .इतने में कोई कैसे प्यार कर सकता है? बकौल राजेश-नंगा क्या नहाये क्या निचोड़े।
हमारी ब्रांच में जो कन्या राशि थी उसमें उन गुणों का प्रकट रूप में अभाव था जिनके लिये कन्यायें जानी जाती हैं। नजाकत, लजाना, शरम से गाल लाल हो जाना, नैन-बैन-सैन रहित। बालिका बहादुर, बिंदास तथा थोड़ा मुंहफट थी। उंची आवाज तथा ठहाके 100 मीटर के दायरे में उसके होने की सूचना देते। अभी कुछ दिन पहले बात की फोन पर तो ठहाका और ऊंची आवाज में कोई कमी नहीं आयी है। कुछ बालकगणों ने घबराकर उसे लड़की मानने से ही इंकार कर दिया। हाय,कहीं ऐसी होती हैं लड़कियां। न अल्हड़ता, न बेवकूफी, न पढ़ने में कमजोर। उस सहपाठिन ने जब कानपुर में नौकरी ज्वाइन की तो मोटर साइकिल से आती-जाती। कानपुर में 20 साल पहले मोटर साइकिल से लड़की का चलना कौतूहल का विषय था। लड़के दूर तक स्वयं सेवको की तरह एस्कार्ट करते|
परोपकाराय सतां विभूतय: की भावना वाले लोग हर जगह पाये जाते है। शादी.काम तो आज की बात है। उन दिनों प्रेमी.काम का जमाना था। लोग रुचि, गुण, स्वभाव, समझ में 36 के आंकडे वाले लड़के-लड़की में प्रेम करा देते। फेंक देते प्रेम सरोवर में। कहते तुम्हें पता नहीं पर तुम एक दूसरे को बहुत चाहते हो। मरता क्या न करता-लोग भी जन भावना का आदर करके मजबूरी में प्यार करते।
इसी जनअदालत में फंस गया हमारा एक सिंधी दोस्त। बेचारा लटका रहा प्रेम की सूली पर तीन साल। आखिर में उसे उबारा उसी के एक दोस्त ने। जिस लड़की को वह भाभी माने बैठा था उसको पत्नी का दर्जा देकर उसने अपने मित्र की जान बचाई। एक दोस्त और कितनी बड़ी कुर्बानी कर सकता है दोस्त के लिये।
हमारे ऊपर कम मेहरबान नहीं रहे हमारे मित्र। हमें हमारे प्रेम का अहसास कराया। पर हमने जब भी देखना चाहा प्यार के आग के त्रिभुज की कोई न कोई भुजा या तो मिली नहीं या छोटी पड़ गयी। गैर मुकम्मल त्रिभुज की भुजायें हमारा मुंह चिढ़ाती रहीं।
इक गीत तुम्हारे मिलने का
इक गीत तुम्हारे खोने का
सड़कों-सड़कों, शहरों-शहरों
नदियों-नदियों, लहरों-लहरों
विश्वास किये जो टूट गये
कितने ही साथी छूट गये
पर्वत रोये-सागर रोये
नयनों ने भी मोती खोये
सौगन्ध गुंथी-सी अलकों में
गंगा-जमुना सी पलकों में
केवल दो स्वप्न बुने मैंने
इक स्वप्न तुम्हारे जगने का
इक स्वप्न तुम्हारे सोने का
बचपन-बचपन, यौवन-यौवन
बन्धन-बन्धन, क्रन्दन-क्रन्दन
नीला अम्बर,श्यामल मेघा
किसने धरती का मन देखा
सबकी अपनी मजबूरी है
चाहत के भाग्य लिखी दूरी
मरुथल-मरुथल,जीवन-जीवन
पतझर-पतझर, सावन-सावन
केवल दो रंग चुने मैंने
इक रंग तुम्हारे हंसने का
एक रंग तुम्हारे रोने का
केवल दो गीत लिखे मैंने
इक गीत तुम्हारे मिलने का
इक गीत तुम्हारे खोने का।
राजेन्द्र राजन
सहारनपुर
बताते चलें कि उन दिनों लेखक और पाठक दोनों बहुत कम थे। कुल एक सौ से भी कम ब्लाग थे शायद उस समय। सबको उत्साहित करने के लिये अनुगूंज का आयोजन किया जाता। शुरुआती दिनों के तमाम बेहतरीन लेख अनुगूंज के बहाने लिखे गये। पांचवी अनुगूंज का आयोजन जीतेंन्द्र चौधरी के जिम्मे था। उन्होंने विषय दिया- पहला प्यार। असल में उनको अपना किस्सा सुनाना था !
जीतेंन्द्र ने उस अनुगूंज की रपट आप यहां देख सकते हैं। देखिये इसमें तमाम नामचीन लोगों ने अपने प्यार का खुलासा किया है। इसी कड़ी में यह लेख मैंने लिखा था। बहरहाल आप घुसिये प्रेम की गली में। हम यहीं खड़े हैं। यामें दो न समायें।
प्रेम गली अति सांकरी
किसी विषय पर लिखने के पहले उसकी परिभाषा देने का रिवाज है। हम लिखने जा रहे हैं -प्यार पर। कुछ लोग कहते हैं-प्यार एक सुखद अहसास है। पर यह ठीक नहीं है। प्यार के ब्रांड अम्बेडर लैला मजनू ,शीरी -फरहाद मर गये रोते-रोते। यह सुखद अहसास कैसे हो सकता है?सच यह है कि जब आदमी के पास कुछ करने को नहीं होता तो प्यार करने लगता है। इसका उल्टा भी सही है-जब आदमी प्यार करने लगता है तो कुछ और करने लायक नहीं रहता।
प्यार एक आग है। इस आग का त्रिभुज तीन भुजाओं से मुकम्मल होता है। जलने के लिये पदार्थ (प्रेमीजीव), जलने के लिये न्यूनतम तापमान(उमर,अहमकपना) तथा आक्सीजन(वातावरण,मौका,साथ) किसी भी एक तत्व के हट जाने पर यह आग बुझ जाती है। धुआं सुलगता रहता है। कुछ लोग इस पवित्र ‘प्रेमयज्ञधूम’ को ताजिंदगी सहेज के रखते हैं । बहुतों को धुआं उठते ही खांसी आने लगती है जिससे बचने के लिये वे दूसरी आग जलाने के प्रयास करते हैं। इनके लिये कहा है नंदनजी ने:-
अभी मुझसे फिर उससे फिर किसी और से
मियां यह मोहब्बत है या कोई कारखाना.
सबसे बड़ा चुगद वह होता है जो प्यार का इजहार नहीं कर पाता। प्रेमपीड़ित रहता है। पर न कर पाता है ,न कह पाता है।
इजहारे मोहब्बत बहुत अहम भूमिका अदा करता है प्रेमकहानी की शुरुआत में।
वैसे हमारे कुछ मित्रों का कहना है कि आदमी सबसे बड़ा चुगद लगता है जब वह
कहता है-मैं तुम्हें प्यार करता हूं। लोग माने नहीं तो बहुमत के दबाव में
संशोधन जारी हुआ-सबसे बड़ा चुगद वह होता है जो प्यार का इजहार नहीं कर
पाता। प्रेमपीड़ित रहता है। पर न कर पाता है ,न कह पाता है।बहुतों से प्यार किया हमनें जिंदगी में। बहुतों का साथ चाहा। बेकरारी से इंतजार किया। संयोग कुछ ऐसा कि ये सारे ‘बहुत’ नरपुंगव रहे। मादा प्राणियों में दूर-दूर तक ऐसा कोई नहीं याद आता जिस पर हम बहुत देर तक लटपटाये हो। ‘चुगदावस्था’ने हमारे ऊपर स्पर्शरेखा तक नहीं डाली।
किसी का साथ अच्छा लगना और किसी के बिना जीवन की कल्पना न कर पाना दो अलग बातें है। हमारी आंख से आजतक इस बात के लिये एक भी आसूं नहीं निकला कि हाय अबके बिछुड़े जाने कब मिलें। किताबों में फूल और खत नहीं रखते थे कभी काहे से कि जिंदगी भर जूनियर इम्तहान होते ही किताबें अपनी बपौती समझ के ले जाते रहे। कोई तिरछी निगाह याद नहीं आती जो हमारे दिल में आजतक धंसी हो:-
तिरछी नजर का तीर है मुश्किल से निकलेगा
गर दिल से निकलेगा तो दिल के साथ निकलेगा.
उन
दिनों समय और लहकटई इफरात में पसरी रहती थी। फेल होने में बहुत मेहनत करनी
पड़ती थी। जिंदगी में पहली बार हमारी कक्षाओं में कुर्सी, मेज,
किताब,कापी, हवा, बिजली के अलावा स्त्रीलिंग के रूप में सहपाठिनें मिलीं।
जैसा कि हर ब्लागर होता है हम भी अच्छे माने जाते थे पढ़ने में तथा एक
अच्छे लड़के के रूप में बदनाम थे। ज्यादा अच्छाई का बुरा पहलू यह होता है
कि फिर और सुधार की संभावनायें कम होती जाती हैं। यथास्थिति बनाये रखने में
ही फिचकुर निकल जाता है। जबकि खुराफाती में हमेशा सुधार की गुंजाइश रहती
है। तो हमसे भी दोस्त तथा कन्यायें पूछा-पुछौव्वल करती थे। दोस्त सीधे तथा
कन्याराशि द्वारा उचित माध्यम (भाई,सहेली जो कि हमारे दोस्त की बहन होती
थीं)हम भी ज्ञान बांटते रहे -बिना छत,तखत तथा टीन शेड के। कभी-कभी उचित माध्यम की दीवार तोड़ने की कोशिश की भी तो पर टूटी नहीं । शायद अम्बुजा सीमेंट की बनी थी।हम उस जमाने की पैदाइश हैं जब लगभग सारे प्रेम संबंध भाई-बहन के पवित्र रिश्ते से शुरु होते थे। बहुत कम लोग राखी के धागे को जीवन डोर में बदल पाते। ज्यादातर प्रेमी अपनी प्रेमिका के बच्चों के मामा की स्थिति को प्राप्त होते। आजकल भाई-बहन के संबंध बरास्ता कजिन होते हुये दोस्ती के मुकाम से शुरु होना शुरु हुये है। पर एक नया लफड़ा भी आया है सामने। अच्छाभला “हम बने तुम बने एक दूजे के लिये“गाना परवान चढ़ते-चढ़ते “बहना ने भाई की कलाई पर प्यार बांधा है“का राग अलापने लगता है।
बहलहाल इंटरमीडियेट के बाद हम पहुंचे कालेज। कालेज वो भी इंजीनियरिंग कालेज-हास्टल समेत। करेला वो भी नीम चढ़ा। ऐसे में लड़को की हालत घर से खूंटा तुड़ाकर भागे बछड़े की होती है जो मैदान में पहुंचते ही कुलांचे मारने लगता है।
हास्टल में उन दिनों समय और लहकटई इफरात में पसरी रहती थी। फेल होने में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। जिंदगी में पहली बार हमारी कक्षाओं में कुर्सी, मेज, किताब,कापी, हवा, बिजली के अलावा स्त्रीलिंग के रूप में सहपाठिनें मिलीं।
हमारे बैच में तीन सौ लोग थे। लड़कियां कुल जमा छह थी। तो हमारे हिस्से में आयी 1/50 । हम संतोषी जीव । संतोष कर गये। पर कुछ दिन में ही हमें तगड़ा झटका लगा। हमारे सीनियर बैच में लड़कियां कम थीं। तो तय किया गया लड़कियों का समान वितरण होगा। तो कालेज की 10 लड़कियां 1200 लड़कों में बंट गयीं। बराबर-बराबर। हमारे हिस्से आयी 1/120 लड़की .इतने में कोई कैसे प्यार कर सकता है? बकौल राजेश-नंगा क्या नहाये क्या निचोड़े।
अब कोई भी बालक किसी भी कन्या का चुनाव करके अपनी कहानी लिखा सकता था। ब्लागस्पाट का टेम्पलेट हो गयीं कन्यायें।
संसाधनो की कमी का रोना रोकर काम रोका जा सकता था। पर कुछ कर्मठ लोग
थे। हिम्मत हारने के बजाये संभावनायें तलाशी गयीं। तय हुआ कि किसी लड़की से
टुकड़ों-टुकड़ों में (किस्तों में)तो प्यार किया जा सकता है पर
टुकड़ा-टुकड़ा हो चुकी लड़की से नहीं। सो सारी लड़कियों के टुकड़ों को
जोड़कर उन्हें फिर से पूरी लड़की में तब्दील किया गया। छोड़ दिया गया
उन्हें स्वतंत्र। अब कोई भी बालक किसी भी कन्या का चुनाव करके अपनी कहानी
लिखा सकता था। ब्लागस्पाट का टेम्पलेट हो गयीं कन्यायें।हमारी ब्रांच में जो कन्या राशि थी उसमें उन गुणों का प्रकट रूप में अभाव था जिनके लिये कन्यायें जानी जाती हैं। नजाकत, लजाना, शरम से गाल लाल हो जाना, नैन-बैन-सैन रहित। बालिका बहादुर, बिंदास तथा थोड़ा मुंहफट थी। उंची आवाज तथा ठहाके 100 मीटर के दायरे में उसके होने की सूचना देते। अभी कुछ दिन पहले बात की फोन पर तो ठहाका और ऊंची आवाज में कोई कमी नहीं आयी है। कुछ बालकगणों ने घबराकर उसे लड़की मानने से ही इंकार कर दिया। हाय,कहीं ऐसी होती हैं लड़कियां। न अल्हड़ता, न बेवकूफी, न पढ़ने में कमजोर। उस सहपाठिन ने जब कानपुर में नौकरी ज्वाइन की तो मोटर साइकिल से आती-जाती। कानपुर में 20 साल पहले मोटर साइकिल से लड़की का चलना कौतूहल का विषय था। लड़के दूर तक स्वयं सेवको की तरह एस्कार्ट करते|
एक
समस्या अक्सर आती। साल-छह माह में कोई बालक-बालिका प्रेम की गली में समा
जाते। चूंकि प्रेम की गली बहुत संकरी होती है। दो लोग एक साथ समा नहीं
सकते लिहाजा एक हो जाते। प्रति बालक-बालिका औसत और नीचे गिर जाता।
कालेज में एक समस्या अक्सर आती। साल-छह माह में कोई बालक-बालिका प्रेम
की गली में समा जाते। चूंकि प्रेम की गली बहुत संकरी होती है। दो लोग एक
साथ समा नहीं सकते लिहाजा एक हो जाते। प्रति बालक-बालिका औसत और नीचे गिर
जाता। बाद के दिनों में कन्यायें कुछ इफरात में आयीं लिहाजा बालक-बालिका
औसत कुछ बेहतर हुआ।परोपकाराय सतां विभूतय: की भावना वाले लोग हर जगह पाये जाते है। शादी.काम तो आज की बात है। उन दिनों प्रेमी.काम का जमाना था। लोग रुचि, गुण, स्वभाव, समझ में 36 के आंकडे वाले लड़के-लड़की में प्रेम करा देते। फेंक देते प्रेम सरोवर में। कहते तुम्हें पता नहीं पर तुम एक दूसरे को बहुत चाहते हो। मरता क्या न करता-लोग भी जन भावना का आदर करके मजबूरी में प्यार करते।
इसी जनअदालत में फंस गया हमारा एक सिंधी दोस्त। बेचारा लटका रहा प्रेम की सूली पर तीन साल। आखिर में उसे उबारा उसी के एक दोस्त ने। जिस लड़की को वह भाभी माने बैठा था उसको पत्नी का दर्जा देकर उसने अपने मित्र की जान बचाई। एक दोस्त और कितनी बड़ी कुर्बानी कर सकता है दोस्त के लिये।
हमारे ऊपर कम मेहरबान नहीं रहे हमारे मित्र। हमें हमारे प्रेम का अहसास कराया। पर हमने जब भी देखना चाहा प्यार के आग के त्रिभुज की कोई न कोई भुजा या तो मिली नहीं या छोटी पड़ गयी। गैर मुकम्मल त्रिभुज की भुजायें हमारा मुंह चिढ़ाती रहीं।
मेरी पसन्द
केवल दो गीत लिखे मैंनेइक गीत तुम्हारे मिलने का
इक गीत तुम्हारे खोने का
सड़कों-सड़कों, शहरों-शहरों
नदियों-नदियों, लहरों-लहरों
विश्वास किये जो टूट गये
कितने ही साथी छूट गये
पर्वत रोये-सागर रोये
नयनों ने भी मोती खोये
सौगन्ध गुंथी-सी अलकों में
गंगा-जमुना सी पलकों में
केवल दो स्वप्न बुने मैंने
इक स्वप्न तुम्हारे जगने का
इक स्वप्न तुम्हारे सोने का
बचपन-बचपन, यौवन-यौवन
बन्धन-बन्धन, क्रन्दन-क्रन्दन
नीला अम्बर,श्यामल मेघा
किसने धरती का मन देखा
सबकी अपनी मजबूरी है
चाहत के भाग्य लिखी दूरी
मरुथल-मरुथल,जीवन-जीवन
पतझर-पतझर, सावन-सावन
केवल दो रंग चुने मैंने
इक रंग तुम्हारे हंसने का
एक रंग तुम्हारे रोने का
केवल दो गीत लिखे मैंने
इक गीत तुम्हारे मिलने का
इक गीत तुम्हारे खोने का।
राजेन्द्र राजन
सहारनपुर
जय हो.
ये लाइने भूलने में थोड़ा समय लगेगा.
- प्यार की त्रिभुज रूपी परिभाषा और चुगद… अपनी बात थी तो अच्छी लगेगी ही
- सारे प्रेम संबंध भाई-बहन के पवित्र रिश्ते से शुरु होते.
- खूंटा तुड़ाकर भागे बछड़े की होती है जो मैदान में पहुंचते ही कुलांचे मारने लगता है
- हमारे हिस्से आयी 1/120 लड़की
क्लासिक पोस्ट, अच्छा किया आपने जो फिर से ठेल दिया.
मेरे ब्लोग पे भी इसका जिक्र किया है आज ..
अभिषेक भाईसे बात हुई और लगा जैसे पुराने परिचित हैँ
जय हो हिन्दी ब्लोग जगत ! साथवाली कविता भी अच्छी लगी
– लावण्या
उस दुखद समय की क्या याद करें!
ha ha..bahut shaandar…kitna badhiya ganit tha aapka. hamne to pahlei baar ye post padhi…maza aa gaya.
बहतरीन री-ठेल… धन्यवाद।
अनुराग नहीं दिख रहे इस बहार में
आपकी पोस्ट तो सालिड स्टम्प है, डा.अनुराग की टिप्पणी आये तो आये मज़ा बैटिंग का..
अनुराग मानों कामदेव हों ( कोई शक ? ) आग लगायी, पोस्ट ठेलवायी औ’ खेत रहे
ज्ञानदत्त जी पर क्या बैटिंग करें, गा रहे हैं, ” ये दुःखद समय मुझे कब छोड़ेगा ”
गुरु हैं ( माना है, मैंने ) सो मैं यह भी नहीं कह सकता कि,
” दुःखी गुरु मेरे.. सुन मेरा कहना… जहाँ नहीं चैना.. वहाँ क्यों रहना, दुःखी गुरु मेरे..
आप भी कितने महीन तरीके से इश्क की झलक तो दिखाय दिये, अउर मुश्क छुपा ले गये
सो जाय रहे हैं.. मसल है ’ लाख यहाँ झोली फैला ले.. कुछ ना देंगे ये ब्लाग वाले.. ’
इक गीत तुम्हारे मिलने का
इक गीत तुम्हारे खोने का।
waah .. sher yaad aa gaya
Jindagi me do hi ghadiya.n guzari hai ham par kathin
ek tere aane ke pahale ek tere jaane ke baad
डाउनलोड कराने के लिए यहाँ जायें
प्रेम की दमदार प्रस्तुति.
बधाई
वाह!
……:)…..हमारे आस पास कोई हिंदी का प्रकाशक नहीं मिल रहा… नहीं तो हम भी ब्लॉग पोस्ट ही किताबें बनवा कर [छपवा -छपवा कर] अपने /अपने बच्चों के जन्मदिन पर मित्रों में अडोस -पड़ोस में बाँट चुके होते ! सोच रहे हैं ..फोटोकॉपी कर के खुद ही किताबे बना लें … !
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..मेरा नया ब्लॉगThoughts of a Lensसतीश पंचम
shikha varshney की हालिया प्रविष्टी..पुरानी कमीज
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Puja Upadhyay की हालिया प्रविष्टी..मुझे/तुम्हें वहीं ठहर जाना था
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..प्यार, इश्क, मोहब्बत और लफड़े…
मृगांक