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नमक का दारोगा हमने बचपन में पढी थी। उसके बाद कई बार फ़िर पढी। इसमें नायक अपनी ईमानदारी के कारण नौकरी से निकाला जाता है, घर में उलाहना सुनता है फ़िर बाद में जिस व्यापारी के कारण उसकी नौकरी जाती है वही वंशीधर को अपने यहां नौकरी पर रख लेता है, उसकी ईमानदारी की तारीफ़ करके कि उसको ऐसे ही ईमानदार मुलाजिम चाहिये।
प्रेमचंद जी अद्भुत रचनाकार थे। उनकी यह कहानी मैं बार-बार याद करता हूं। जितनी बार याद करता हूं उतनी बार सोचता हूं कि क्या वंशीधर का उसी सेठ के यहां नौकरी करना जायज था जिसके कारण उनकी नौकरी गयी। वह भी तब जब कि वे अपना कर्तव्य निर्वाह कर रहे थे और सेठजी भ्रष्टाचार के रास्ते पर थे। क्या यह सच में ईमानदारी की जीत थी!
प्रेमचंदजी आदर्शवादी रचनाकार थे। इस कहानी के माध्यम से भी उन्होंने एक भ्रष्टाचारी के हृदय परिवर्तन का आदर्श पेश किया कि एक ईमानदार अफ़सर की ईमानदारी ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि वे उसके दरवाजे आये और साग्रह , ससम्मान उसको अपना नौकर बनाने के लिये ले गये।
इस कहानी को ईमानदारी की विजय के रूप में प्रचारित किया जाता है लेकिन मुझे लगता है कि इसमें ईमानदारी की विजय जैसी कोई चीज नहीं है। यह कहानी यह संदेश देती है कि ईमानदारी को अगर खरीद न सको तो उसे ’मैनेज’ कर लो। आज से सत्तर-अस्सी साल पहले लिखी गयी यह कहानी बाजार की ताकत के चरित्र का चित्रण करती है। शायद इसका सरलीकरण करके इसे ईमानदारी की विजय के रूप में ग्रहण किया गया। जबकि ईमानदारी को यहां पहले खरीदने की कोशिश की गयी और जब कोशिश सफ़ल नहीं हुयी तो उसे झांसे में डालकर नौकरी पर रख लिया गया।
मेरा मन कहता है कि इस कहानी में वंशीधर को सेठ की नौकरी स्वीकार नहीं करनी चाहिये थी। सारा तामझाम और नाटक दिखाने के बाद प्रेमचंद अपने नायक भूतपूर्व नमक का दारोगा से कहलाते – “सेठ जी, आपकी सदाशयता और जर्रानवाजी का शुक्रिया। लेकिन मैं आपके यहां नौकरी न कर पाउंगा। हमारा जमीर इसको गवारा नहीं करता। ” तो लगता कि कहानी में ईमानदारी की जीत है।
जनमानस चीजों को बड़े सरल रूप में ग्रहण करता है। वंशीधर ने जब सेठ के यहां नौकरी स्वीकार की तो कोई मुंहफ़ट तो कहता होगा- ऐसी ईमानदारी कौन काम की? काहे के ईमानदार? नौकरी तो ससुरे बेइमन्टे के यहां ही कर रहे हैं।
शायद ऐसी ही मनोवृत्ति के लिये हरिशंकर परसाईजी ने लिखा है- वे शेर हैं लेकिन सियारों के शादी में बैंड बजाते हैं।
इस समय ही मुझे एक कविता की पंक्तियां याद आ रही हैं-
लेकिन मुंशी जी शायद ज्यादा बड़ा यथार्थ दिखाना चाहते रहे हों जिसे लोग देखने से अभी तक मना करते रहे हैं। यह कहानी ईमानदारी की जीत के रूप में प्रचलित है जबकि मुझे तो लगता है कि यहां पैसे ने ईमानदारी को घुमा के जोत लिया।
आपको क्या लगता है?
ये भी पढिये न:
1. हैरी का जादू बनाम हामिद का चिमटा
2. ईदगाह अपराधबोध की नहीं जीवनबोध की कहानी है
3.हामिद का चिमटा बनाम हैरी की झाड़ू
4.हैरीपॉटरीय ब्लॉग की चाहत
उस तट पर प्यास बुझाने से प्यासा मर जाना बेहतर है।
जब आंधी, नाव डुबा देने की
अपनी जिद पर अड़ जाये,
हर एक लहर जब नागिन बनकर
डसने को फ़न फ़ैलाये।
ऐसे में भीख किनारों की मांगना धार से ठीक नहीं,
पागल तूफ़ानों को बढ़कर आवाज लगाना बेहतर है।
कांटे तो अपनी आदत के
अनुसार, नुकीले होते हैं,
कुछ फ़ूल मगर कांटों से भी
ज्यादा जहरीले होते हैं।
जिसको माली आंखे मींचे मधु के बदले विष से सींचे
ऐसे डाली पर खिलने से पहले मुरझाना बेहतर है।
जो दिया उजाला दे न सके,
तम के चरणों का दास रहे
अंधियारी रातों में सोये
दिन में सूरज के पास रहे।
जो केवल धुंआ उगलता हो, सूरज पर कालिख मलता हो,
ऐसे दीपक का जलने से पहले, बुझ जाना बेहतर है॥
बुद्धिसेन शर्मा
ईमानदारी – खरीद न सको तो मैनेज कर लो
By फ़ुरसतिया on August 3, 2008
ईमानदारी
ईमानदारी आपका जीवन बनायेगी अगर आप सत्य से भयभीत नहीं हैं।
तीन दिन पहले मुंशी प्रेमचंद जी का जन्मदिन था। उसी दिन सुरेशजी के ब्लाग पर प्रेमचंद जी की कहानी नमक का दारोगा का जिक्र किया गया था।नमक का दारोगा हमने बचपन में पढी थी। उसके बाद कई बार फ़िर पढी। इसमें नायक अपनी ईमानदारी के कारण नौकरी से निकाला जाता है, घर में उलाहना सुनता है फ़िर बाद में जिस व्यापारी के कारण उसकी नौकरी जाती है वही वंशीधर को अपने यहां नौकरी पर रख लेता है, उसकी ईमानदारी की तारीफ़ करके कि उसको ऐसे ही ईमानदार मुलाजिम चाहिये।
प्रेमचंद जी अद्भुत रचनाकार थे। उनकी यह कहानी मैं बार-बार याद करता हूं। जितनी बार याद करता हूं उतनी बार सोचता हूं कि क्या वंशीधर का उसी सेठ के यहां नौकरी करना जायज था जिसके कारण उनकी नौकरी गयी। वह भी तब जब कि वे अपना कर्तव्य निर्वाह कर रहे थे और सेठजी भ्रष्टाचार के रास्ते पर थे। क्या यह सच में ईमानदारी की जीत थी!
प्रेमचंदजी आदर्शवादी रचनाकार थे। इस कहानी के माध्यम से भी उन्होंने एक भ्रष्टाचारी के हृदय परिवर्तन का आदर्श पेश किया कि एक ईमानदार अफ़सर की ईमानदारी ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि वे उसके दरवाजे आये और साग्रह , ससम्मान उसको अपना नौकर बनाने के लिये ले गये।
इस कहानी को ईमानदारी की विजय के रूप में प्रचारित किया जाता है लेकिन मुझे लगता है कि इसमें ईमानदारी की विजय जैसी कोई चीज नहीं है। यह कहानी यह संदेश देती है कि ईमानदारी को अगर खरीद न सको तो उसे ’मैनेज’ कर लो। आज से सत्तर-अस्सी साल पहले लिखी गयी यह कहानी बाजार की ताकत के चरित्र का चित्रण करती है। शायद इसका सरलीकरण करके इसे ईमानदारी की विजय के रूप में ग्रहण किया गया। जबकि ईमानदारी को यहां पहले खरीदने की कोशिश की गयी और जब कोशिश सफ़ल नहीं हुयी तो उसे झांसे में डालकर नौकरी पर रख लिया गया।
मेरा मन कहता है कि इस कहानी में वंशीधर को सेठ की नौकरी स्वीकार नहीं करनी चाहिये थी। सारा तामझाम और नाटक दिखाने के बाद प्रेमचंद अपने नायक भूतपूर्व नमक का दारोगा से कहलाते – “सेठ जी, आपकी सदाशयता और जर्रानवाजी का शुक्रिया। लेकिन मैं आपके यहां नौकरी न कर पाउंगा। हमारा जमीर इसको गवारा नहीं करता। ” तो लगता कि कहानी में ईमानदारी की जीत है।
मुंशी प्रेमचंद
शायद प्रेमचंद जी इस कहानी के माध्यम से यही विद्रूप दिखाना चाहते रहे
हों कि बाजार की ताकत के आगे सारे व्यक्तिगत आदर्श धरे के धरे रह जाते हैं।
पैसा सबको अपने अनुरूप ढाल लेता है। लेकिन शायद इस कहानी का सरलीकरण हो
गया और इसे सदुगुण से प्रभावित होकर हृदयपरिवर्तन की कहानी के रूप में
प्रसिद्धि मिली।जनमानस चीजों को बड़े सरल रूप में ग्रहण करता है। वंशीधर ने जब सेठ के यहां नौकरी स्वीकार की तो कोई मुंहफ़ट तो कहता होगा- ऐसी ईमानदारी कौन काम की? काहे के ईमानदार? नौकरी तो ससुरे बेइमन्टे के यहां ही कर रहे हैं।
शायद ऐसी ही मनोवृत्ति के लिये हरिशंकर परसाईजी ने लिखा है- वे शेर हैं लेकिन सियारों के शादी में बैंड बजाते हैं।
इस समय ही मुझे एक कविता की पंक्तियां याद आ रही हैं-
जिस तट पर प्यास बुझाने सेमुझे बार-बार लगता है कि मुंशीजी को वंशीधर से सेठ के यहां नौकरी नहीं करवानी चाहिये। सेठ को बाइज्जत मनाकर के कहानी खतम कर देनी चाहिये।
अपमान प्यास का होता हो
उस तट पर प्यास बुझाने से
प्यासा मर जाना बेहतर है।
लेकिन मुंशी जी शायद ज्यादा बड़ा यथार्थ दिखाना चाहते रहे हों जिसे लोग देखने से अभी तक मना करते रहे हैं। यह कहानी ईमानदारी की जीत के रूप में प्रचलित है जबकि मुझे तो लगता है कि यहां पैसे ने ईमानदारी को घुमा के जोत लिया।
आपको क्या लगता है?
ये भी पढिये न:
1. हैरी का जादू बनाम हामिद का चिमटा
2. ईदगाह अपराधबोध की नहीं जीवनबोध की कहानी है
3.हामिद का चिमटा बनाम हैरी की झाड़ू
4.हैरीपॉटरीय ब्लॉग की चाहत
मेरी पसंद
जिस तट पर प्यास बुझाने से अपमान प्यास का होता होउस तट पर प्यास बुझाने से प्यासा मर जाना बेहतर है।
जब आंधी, नाव डुबा देने की
अपनी जिद पर अड़ जाये,
हर एक लहर जब नागिन बनकर
डसने को फ़न फ़ैलाये।
ऐसे में भीख किनारों की मांगना धार से ठीक नहीं,
पागल तूफ़ानों को बढ़कर आवाज लगाना बेहतर है।
कांटे तो अपनी आदत के
अनुसार, नुकीले होते हैं,
कुछ फ़ूल मगर कांटों से भी
ज्यादा जहरीले होते हैं।
जिसको माली आंखे मींचे मधु के बदले विष से सींचे
ऐसे डाली पर खिलने से पहले मुरझाना बेहतर है।
जो दिया उजाला दे न सके,
तम के चरणों का दास रहे
अंधियारी रातों में सोये
दिन में सूरज के पास रहे।
जो केवल धुंआ उगलता हो, सूरज पर कालिख मलता हो,
ऐसे दीपक का जलने से पहले, बुझ जाना बेहतर है॥
बुद्धिसेन शर्मा
Posted in बस यूं ही | Tagged Add new tag, ईमानदारी, नमक का दारोगा, मुंशी प्रेमचंद, features, honesty, munshi premchand | 29 Responses
aur achcha lekhn
सोचना आपका भी सही ही है.
सुदर विश्लेषण.
घुघूती बासूती
और यह बात तो आपने लाख टके की कह दी है – ‘ ऐसी ईमानदारी कौन काम की? काहे के ईमानदार? नौकरी तो ससुरे बेइमन्टे के यहां ही कर रहे हैं। ‘
कविता बहुत सुंदर है
जिस तट पर प्यास बुझाने से
अपमान प्यास का होता हो
उस तट पर प्यास बुझाने से
प्यासा मर जाना बेहतर है।
जिस तट पर प्यास बुझाने से
अपमान प्यास का होता हो
उस तट पर प्यास बुझाने से
प्यासा मर जाना बेहतर है।
प्रेमचंद की कहानियों के नायक किसी बड़े आदर्श को ढोने के बजाय समाज में फैली विसंगतियों, कुप्रथाओं, भेदभाव की विडम्बनाओं मे जीने वाले वास्तविक पात्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके भीतर वे तमाम कमजोरियाँ भी विद्यमान हैं जो मनुष्य को देवत्व से अलग करती हैं।
सत्य की राह पर चलना, तलवार की नुकीली धार पर,
रक्त बहाते हुए, आह भी ना निकले इतना कठिन होता है –
आपका मनोमँथन स्वस्थ है
-प्रेमचँदजी की कला यहीँ जीत जाती है
जब ऐसे मनोमँथन को जन्म देती है -
कविता वीररस से भरी, उत्कृष्ट है -
- लावण्या
यह तो टाइम टाइम की बात है, गुरु
प्रेमचंद इस ज़माने में लिखते होते तो शायद कहानी ऎसी न बनती ।
बल्कि मुझे तो शक़ है, कि वो ऎसी कोई कहानी लिखने की सोचते भी या नहीं ?
उन्हें तो हमेशा खटका ही लगा रहता कि, अलग अलग कोर्स में लगी उनकी किताबें कहीं सरका न दी जायें ।
बेचारे कहानियों के संशोधित संस्करण निकालने में ही खप जाते, क्योंकि आज का लिखा ‘ प्रो ‘ एक चुनाव के बाद तो ‘ एन्टी ‘ घोषित हो जाता ! बेचारे दफ़्तरों में ज़ेड सेक्यूरिटी के लिये अर्ज़ी पकड़े घूमा करते, उर्दू लिपि में लिखी कहानी को बजरंगी और संघी हिंदी में टपने ही न देते, साथ में उनके ख़ुद के ही टपका दिये जाने का ख़ौफ़ उनसे इंगलैंड के किसी बंगले में अतुकांत कवितायें लिखवा रहा होता ।
ख़ैर इतनी टिप्पणी तो डकार गये, अब काहे परेसान हो गुरु ? अपना मन मत खराब करो, जरा समझा करो,
जाओ, हाथ मुँह धोके ख़ाना खाओ, अउर तनिक काम वाम लगा के चुप्पे सो जाओ,
आजकल दफ़्तर रोज़ही देर से पहुँच रहे हो ।
काहे परेशान हो गुरु ?