होली की शुरुआत लफ़ड़े से हुई। बरामदे में बैठे चाय पी रहे थे। अन्दर लैंडलाइन फ़ोन बजा। उठाने गये तब तक कट गया। शायद किसी ने ’हैप्पी होली’ बोलने के लिये फ़ोनियाया होगा। वापस लौटे तब तक बन्दरों की ’सर्जिकल स्ट्राइक’ हो गयी थी। चाय का कप, पानी का ग्लास, बिस्कुट का पैकेट उलट, पुलट और लुट गये। ताजे अखबार के हाल अमेरिकन बमबारी में छतविक्षत अफ़गानिस्तान सरीखे हो गये।
हमने एक बार फ़िर खुद को बरामदा खुला छोड़ने के लिये कोसा। बन्दरों की कड़ी निन्दा करने का निर्णय लिया। इसके बाद ’सर्जिकल बर्बादी’ का फ़ोटो लेने के लिये मोबाइल निकालने के लिये घुटन्ने की जेब में हाथ डाला। मोबाइल नदारद। दूसरी जेब टटोली। वहां से भी गोल। फ़िर पहले तो हमारे हाथों के तोते और उसके बाद होश भी उड़ गये। इसके बाद जल्दी-जल्दी , बारी-बारी अपनी दोनों जेबों में कई बार हाथ डाले। तेजी के चक्कर में हथेली गर्मा गयी लेकिन मोबाइल मिलकर न दिया।
इस बीच लगा शायद मोबाइल अन्दर ले गये हों। इस ख्याल से सुकून मिलने के पहले ही सामने पड़ा मोबाइल कवर दिख गया। लुटा-पिटा कवर मोबाइल के अपहरण की कहानी बयान कर रहा था। मासूम मोबाइल बन्दर के हाथ लग गया था। हमारे अलावा किसी पराये हाथ की छुअन का भी उसको अनुभव नहीं था। बेचारा मोबाइल न कहीं आया था, न कहीं गया था। हाथ से जेब, जेब से मेज, मेज से हाथ तक ही आना-जाना था। इसके अलावा चार्जिंग के लिये बिजली के स्विच तक जाने का ही अनुभव था बच्चे का। सर्विस सेन्टर तक का मुंह नहीं देखा था अब तक। ऐसे कुंआरे मोबाइल को बन्दर उठा ले गये। न जाने क्या बदसलूकी की हो बेचारे के साथ।
इस बीच अपन का उड़ा हुआ होश वापस आ गया। हमने अपहृत मोबाइल को वापस हासिल करने की कोशिश शुरु की। बन्दर छत पर से होते हुये दीवार फ़ांद कर बगल के मैदान में शायद हमारे मोबाइल का अपहरण सेलिब्रेट कर रहे थे। क्या पता अपने टीवी चैनलों पर दिखा भी रहे हों –’ये देखो, जिन्दा मोबाइल बन्दरों की सीमा में घुसपैठ करते पकड़ा गया।’
हम मैदान तक पहुंचने के लिये सड़क की ओर भागे। भागते समय सांसो ने उखड़ते हुये सीने से समर्थन वापसी की धमकी दी। हम धीमे हो गये। भागने की जगह लपकने लगे। रास्ते के कुत्ते भी हमारे साथ हो लिये। कुछ पीछे से भौंक-भौंककर हमारी गति बढाने की कोशिश कर रहे थे। कुछ हमारे आगे भौंकते हुये ’पायलट कुत्ते’ बन गये। एक बुजुर्ग कुत्ता दीवार के साथ सटा खड़ा सांसों को अन्दर-बाहर करते हुये कपालभाती जैसा कुछ कर रहा था। सामने से एक कुत्ता मुंह में मरा हुआ चूहा मुंह में दबाये किसी मध्यकाल के वीर सरीखा चला आ रहा था। उसके साथ के कुत्ते उसकी वीरता के गुणगान जैसे करते चले आ रहे थे। मन किया कुत्तों से पूछे , ’भाई साहब क्या आपने किसी बन्दर को हमारा मोबाइल ले जाते देखा?’ लेकिन भाषाई अड़चन के चलते पूछ नहीं पाये।
हम मैदान के गेट तक पहुंच गये। सोचा अन्दर ’बंदरबाटिका’ में मोबाइल खोजेंगे। लेकिन गेट पर बड़ा सा ताला लगा था। मैदान खुला नहीं था। हम उल्टेपांव वापस लौटे। दूसरे रास्ते मैदान जाने की सोची।
लौटते हुये जितनी तेजी से पैर चल रहे थे उससे कई गुना तेजी से दिमाग भाग रहा था। सोचने लगे कि जिस बन्दर के हाथ मोबाइल पड़ा वह मेरा मोबाइल देख रहा होगा। क्या पता किसी को फ़ोन मिलाकर खौखियाते हुये बतिया रहा हो और उधर से हमारा दोस्त/सहेली हमारा नाम लेकर हड़का रहा हो कि यह क्या बंदरों जैसी हरकतें कर रहे हो। इस पर वह और बन्दरपने पर उतर आया हो। और जोर से खौखियाने लगा हो। किसी को अपनी सेल्फ़ी भेज दी हो। मेरे सारे संदेशे पढ़ लिये हों। एक के संदेश दूसरे को फ़ार्वड कर दिये हो।
हमने मन को बहुत समझाने की कोशिश की। मोबाइल बन्दर ले गया है कोई आदमी थोड़ी ले गया जो इतना हलकान हो रहे हो। लेकिन मन माना नहीं। उसने दिल से गठबन्धन कर लिया। दोनों मिलकर तेज-तेज धड़कने लगे। देखा-देखी टांगे भी तेज चलने लगीं।
हम स्कूल की दीवार फ़ांदते हुये मैदान के पास पहुंचे। वहां बंदर आम सभा टाइप करते हुये धूप सेंक रहे थे। कुछ बंदरियां एक-दूसरे के जुंये बीन रहीं थीं। कुछ अपने सीने से बच्चों को सटाये दुलरा रहीं थीं। कुछ बंदर लोग आसपास से उठाकर लाई हुई चीजें कुतर-कुतरकर फ़ेंकते जा रहे थे। बंदर और बंदरिया बंदरजात दिगम्बर बैठे थे। लेकिन मजाल कोई किसी को छेड़ता दिखा हो। न ही कोई बन्दर किसी बंदरिया को घूरता दिखा। एक बारगी हम अपने मोबाइल के बारे में भूल कर सोचने लगे कि काश आदमी और औरत भी साथ में इतनी तसल्ली से रह पाते।
इस बीच अपन एक दूसरे मोबाइल से अपने मोबाइल पर घंटी बजाते जा रहे थे। यह सोचते हुये कि जैसे ही कोई बन्दर-’ हल्लो, हू इज स्पीकिंग ?’ बोलेगा हम उससे फ़ौरन कहेंगे – ’भाई साहब, हमारा मोबाइल वापस कर दो। एकलौता मोबाइल है मेरा। जो कहोगे फ़िरौती देने के लिये हम तैयार हैं।’
हमको यह भी लगा कि क्या पता मोबाइल बजने से हाथ झनझना जाये बन्दर का और वह मोबाइल छोड़ दे। लेकिन यह भी लगा छोड़ते समय किसी ऊंची जगह न हो जिससे नीचे आने तक मोबाइल की हड्डी-पसली बराबर हो जाये।
मैदान पहुंचकर हमने घास, झाड़ियां, नालियां सब देख डालीं। कहीं मोबाइल न दिखा। हमने सोचा अब अंतत: निराश होने का समय हो गया। तब तक सूरज भाई दिख गये। उन्होंने हमारे चेहरे की पसीने की बूंदों पर किरणें गुलाल की तरह पोत दीं। इसके बाद हम कुछ कहें तब तक बगल के नाली की तरफ़ किरणों की सर्चलाइट फ़ेंकी। देखा कि वहां हमारा मोबाइल किसी शराबी सरीखा कीचड़ में धुत्त पड़ा था। हमने लपककर अपने मोबाइल को उठाया। प्यार के अतिरेक में मोबाइल को चूमने के लिये मुंह आगे बढाया लेकिन स्क्रीन पर कीचड़ लिपटा देखकर ठिठक गये। पहले कीचड़ मैदान की घास में पोछा, फ़िर कागज से । इसके बाद बरमूडा की जेब से रगड़कर साफ़ किया। इस बीच मोबाइल चूमने का ख्याल हवा हो गया।
मोबाइल वापस लेकर विजयदर्प में चूर घर लौटे। लौटते हुये अपनी अकल की दाद देने की बेवकूफ़ी करते रहे। बन्दरों ने सुबह-सुबह हलकान कर दिया था। हमको उन पर बहुत तेज गुस्सा आ रहा था। उसी समय यह भी लगा कि क्या पता मोबाइल ले जाने वाला बन्दर न होकर कोई बंदरिया रही हो। सोचते ही हमारा गुस्सा कुछ कम हो गया। हम उनके खिलाफ़ एक्शन लेने की सोच ही रहे थे तब तक सामने टीन की छतपर धमाचौकड़ी करते हुये बन्दर दिखे। हमने मारे गुस्से के उन पर ढेले की मिसाइल फ़ेकने के लिये हाथ में ले ली। तब तक एक बन्दर ने दांत चियारते हुये हमको वापस घुड़क दिया। शायद कह रहा था- ’बुरा न मानो होली है।’
लाउडस्पीकर पर गाना बज रहा है-’रंग बरसे भीगे चुनर वाली
अनूप शुक्ल, कानपुर।
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