कल हमनें एक फोटो साझा की। 'बेवकूफी का सौंदर्य' के नाम से। मित्रों से पूछा कि अंदाज बताएं कैसे बनी होगी। शीर्षक भी बताने को उकसाया था।
मित्रगणों ने अनुमान लगाए। कुछ मित्रों के अनुमान बहुत नजदीकी रहे। कुछ शीर्षक भी बताए। Abhishek ने कई किस्से लिखे इस फोटो के बारे में। वो सब पिछली पोस्ट में देख सकते हैं।
अब बताएं कि तस्वीर कैसे बनी। हुआ यह कि कल जूते पॉलिश करने की सोची। दो पॉलिश में से कम मेहनत वाली पॉलिश इस्तेमाल करने की सोची। दो पॉलिश मतलब एक लिक्विड पॉलिश और दूसरी डिबिया वाली पॉलिश। डिबिया वाली पॉलिश रगड़कर चमकानी पड़ती है। लिक्विड वाली में कम मेहनत में काम बन जाता है।
लिक्विड पॉलिश में ऊपर एक स्पंजी टुकड़ा होता है। जो पॉलिश को बराबर करता है जूते पर। वह स्पंज का टुकड़ा निकल गया था। कभी रगड़ गया होगा ज्यादा तो उखड़ गया। गठबंधन टूट गया पॉलिश के साथ।
अब जब जमीन पर पॉलिश गिर गयी तो हमने पहले उसको ब्रश से समेट कर जूते पर लगाई। फिर कपड़े से पोंछी। पोंछने के पहले जो चित्र बना वह कल पोस्ट किया था। उस पर मित्रों ने अपनी कल्पना की छौंक लगाकर टिप्पणियां कीं।
तो यह रहा लापरवाही में बनी एक फोटो का किस्सा । अब वह चित्र फर्श से साफ हो गया है। लेकिन फेसबुक पर स्थायी हो गया। तब तक रहेगा जब तक हमारा खाता नहीं हटता या फिर फेसबुक नहीं हटता। हमारी जिंदगी में भी ऐसा होता है। लोग आते- जाते हैं लेकिन उनके किये कामों की यादें बनी रहती हैं।
जूते पर पॉलिश के किस्से से मुझे धूमिल की कविता मोचीराम की याद आ गयी। कविता का लिंक नीचे दिया है। इस कविता का एक अंश है:
"और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है"
१. धूमिल की कविता मोचीराम http://kavitakosh.org/.../_%E0%A4%A7%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0...
२. कल की पोस्ट https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10216722713673684&set=a.1767071770056&type=3&theater
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10216729206155992
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