सड़क पर झगड़ते जोड़े को वहां के जमावड़े के हवाले छोड़कर हम आगे बढ़े। चौराहे पर दिहाड़ी मजदूर जमा थे। अपने खरीददार के इंतजार में। समय के साथ दिहाड़ी मजदूरों की संख्या बढ़ी है। कोरोना काल में काम और भी कम हुआ है। तमाम लोगों के काम छूट गए हैं। लोगों के पास काम नहीं है। कभी लोगों को काम देने वाले खुद अपने लिए काम की तलाश में हैं।
दिहाड़ी मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी भले ही तय हो लेकिन उनको मिलने वाले पैसे दिन पर दिन कम होते जा रहे हैं। लोग झख मारकर कम पैसे में ही काम करने पर मजबूर हैं। अंसार कम्बरी जी कहते हैं:
अब तो बाजार में आ गए हैं कम्बरी,
अपनी कीमत को हम और कम क्या करें?
चौराहे के आगे पंकज की दुकान थी। सोचा देखा जाए। देखा तो दुकान नदारद। शंकर बैंड का बोर्ड भी नदारद था। बाद में सड़क पार एक चाय का खोखा दिखा। एस बैंक का स्टिकर लगा था। लेकिन कोई था नहीं दुकान पर। सुबह के समय चाय की दुकान पर कोई न दिखे तो अटपटा लगता है।
कुछ देर बाद लपकते हुए पंकज आये। मफलर को मुरैठा की तरह बांधे। बोले -'हम याद कर रहे थे आपको। कई इतवार आये नहीं आप। सोचा, शायद न आएं।'
हमने पूछा -'ऐसा क्यों सोचा कि नहीं आएंगे?'
'ऐसे ही।'-पंकज बोले।
थोड़ा इधर-उधर बतियाने के बाद हम बोले -'अब चलते हैं।'
'चाय पीकर जाइये।बढ़िया चाय पिलाते आपको।'- कहते हुए पंकज ने चाय चढ़ा दी।
हम 'अच्छी चाय' के इंतजार में रुक गए। पंकज की अम्मा आ गईं। अपने हाल-चाल सुनाने लगीं। दो दांत बचे हैं। हमने दांत निकलवाकर बत्तीसी लगवाने का सुझाव दिया था पिछली बार तो बोली थीं -'क्या करना दांत का? रोटी दाल मिलती रहे वही बहुत। बस बेटों की शादी हो जाये इसके बाद हमको क्या करना है ?'
बड़े बेटे के चोट लग गयी थी। बताया ठीक हो गई। हमने पूछा -'पंकज के क्या हाल हैं?'
बोली -'आप बताओ। हमारा तो बेटा है। हमारी नजर में अच्छा ही है।'
मां की नजर में उसका बेटा अच्छा ही होता है। हर मां अपने बेटे को चांद समझती है। गीतकार रमेश यादव जी कहते हैं:
राजा का जन्म हुआ था तो
उसकी माता ने चांद कहा
एक भिखमंगे की मां ने भी
अपने बेटे को चांद कहा
दुनिया भर की माताओं से
आशीषें लेकर जिया चांद
ए पीला वासन्तिया चांद।
चाय बनाते पंकज चुपचाप हमारी बात सुनते रहे। इस बीच पंकज की मां ने अपनी समस्या बताते हुए सलाह मांगी।समस्या यह कि उनकी बिटिया के खाते में ढाई लाख रुपये आये हैं आवास योजना से मकान बनवाने के लिए। बैंक वाले रोज तकादा करते हैं कि जमीन के कागजात लाओ, पैसा ले जाओ। अब उनकी बिटिया के नाम जमीन तो है नहीं। पैसा कैसे मिले?
इस समस्या का हमारे पास कोई हल नहीं था। न शायद आगे मिले। लेकिन हमने कहा-'पूछकर बताएंगे।'
बताइए कोई हल है इसका आपके पास। सुझाइये हल -पाइए शुक्रिया के साथ आभार मुफ्त में।
इस बीच चाय बन गयी। सामने पचास कदम की दूरी पर शुक्ला जी फुटपाथ पर खड़े थे। शुक्ला जी फैक्ट्री से रिटायर हैं। बताते हैं कि खुद नहीं पीते थे लेकिन लोगों को तीन पैकेट सिगरेट रोज पिलाते थे। बोलने-सुनने में असमर्थ हैं। लेकिन चुस्त-दुरुस्त।
हमको देखकर शुक्ला जी ने पचास फीट दूर से ही हाथ जोड़कर नमस्ते मारा। हमने भी किया नमस्ते। वे हमसे मिलने आगे बढ़े। फुटपाथ से पैर नीचे रखा। पंजा मुड़ गया। पैर भी। गिरने को हुए लेकिन वहीं बैठकर बच गए। फिर सम्भलकर उठे।
उठने के बाद शुक्ला जी अपने भतीजे को लेकर सड़क पारकर हमसे मिलने आए। भतीजा भयंकर सर्दी में पटरे का जांघिया पहने चाचा की ज्यादती का शिकार हो आया। बोला -'कपड़े धो रहे थे। चाचा पकड़ लाये। हम जा रहे हैं कपड़े धोने। आप बतियाओ।'
बोलने से दिव्यांग शुक्ला जी हां-हूँ करते हुए बतियाये। मुस्कराये। इस बीच एक और रिटायर साथी चले आये।
नए साथी सीताराम जी थे। 2016 में रिटायर हुए। कम्बल सेक्शन से। बेटे दिल्ली में प्राइवेट काम करते हैं। गुजर हो रही है। किसी की नौकरी के बारे में पूछा उन्होंने। बताया 55 नम्बर थे उनके पिछले साल। नौकरी मिल सकती है ? कुछ हो सकता है?
हमने जानकारी दी इस साल 81 नम्बर वाले मृतक आश्रित की नौकरी मिली है। 55 वाले का कोई नम्बर नहीं लगता। आगे कुछ हो तो कह नहीं सकते।
चाय पीकर पैसे देने पर पंकज ने मना किया। हमने जिद की। उसने फिर मना किया। लेकिन फिर पिता के कहने पर ले लिया।
चाय कुल्हड़ में थी। बताया 125 रुपये के सौ कुल्हड़ मिलते हैं। मतलब 1रुपये 25 पैसे का एक। टूट-फूट मिलकर डेढ़ रुपया में पड़ जाता है। कुल्हड़ की चाय दस रुपये में। अच्छी लगी।
गाना सुनाने के लिए कहने पर बताया -'आज गला ठीक नहीं। अगली बार सुनाएंगे। '
हम आगे बढ़ गए।
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