इतवार की सुबह कुछ जल्दी ही हो गयी। हम राजा बाबू बनकर निकल लिये। इस बार गेट पर दरबान ने भी नहीं रोका। हमको थोड़ा खराब लगा -दरबान ने हमारे विश्वास की रक्षा नहीं की। हम खुद ही रुक गये। हाल-चाल पूछा गेट पर तैनात जवानों से। रात भर ड्यूटी करने के बावजूद चेहरा चमक रहा था।
गेट के बाहर सूरज भाई एकदम चमकायमान थे। शपथ ग्रहण के समय सुबह तो लाल कपड़े पहने थे वो बदलकर अब वर्किंग ड्रेस में आ गये थे। सुबह की मुलायमियत गोल हो गयी थी। पीली, गर्म किरणों की बौछार से पूरी धरती को गुनगुना बना रहे थे।
इस बार केरुगंज होते हुए गौशाला तक जाने का प्रोग्राम था। आर्मी गेट से गौशाला जाना और वापस आना मतलब लगभग 20 किलोमीटर।
रास्ता साफ़ था| सुबह सब लोग शांत मोड में थे। पूरी कायनात आहिस्ते-आहिस्ते जगने का मूड बना रही थी। बन्दर लोग अपने कुनबे के साथ अलसाए से बैठे थे। सिपाही अपनी ड्यूटी बजा रहे थे| मंदिर के बाहर भिखारी भी लाइन से जमे हुए थे| शायद सुबह ही आ गए होंगे।
रोड के किनारे नाली में कीचड़ काली बर्फी जैसा जमा था। ऐसा लगा कि चाकू से काटकर कहीं परोसे जाने के इंतज़ार में हो। कीचड़ के परोसे जाने की बात लिखते हुए तनिक अटपटा सा लगा। लेकिन फिर लगा ऐसा होना असंभव भी नहीं। पूरी दुनिया में गुंडे-बदमाश माने जाने लोग जब अपने समाजों के कर्णधार बन रहे हैं तो जमे हुए कीचड़ के बर्फी की तरह बिकने की बात भी संभव हो सकती है। कुछ भी असंभव नहीं। नेपिलियन जी कहे भी हैं –‘असंभव शब्द मूर्खों के शब्दकोष में पाया जाता है।’
किसी बात को असंभव कहकर इंकार करके कौन बेवकूफ अपना नाम बेवकूफों में शामिल करवाना चाहेगा।
सदर, बहादुरगंज होते हुए घंटाघर पार हुए। घंटाघर चौराहे पर पुलिस वाले जीप में तैनात थे। अनजान चौकी के बाहर दो आदमी रोड की सफाई कर रहे थे। बाकी जगहों पर कचरा तसल्ली से आरामफर्मा था|किसकी हिम्मत जो उसको डिस्टर्ब करे।
आगे जली कोठी दिखी। ऐतिहासिक महत्त्व की इस कोठी का सम्बन्ध आजादी के पहले आन्दोलन से है। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में शाहजहांपुर के अहमद उल्लाह शाह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसके कारण अंग्रेजों ने उनका सर काटकर शहर के बीचो-बीच कोतवाली पर बहुत उंचाई पर इसलिए टांग दिया गया था ताकि कोई बगावत करने की हिम्मत न कर सके। इसके बावजूद क्रांतिकारियों ने अग्रेजों का कत्लेआम जारी रखा। कुछ अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों के इस रूप के कारण डरकर घंटाघर रोड पर स्थित एक नबाब की कोठी में शरण ली थी। परन्तु अपने साथी की मौत के कारण उग्र क्रांतिकारियों ने उस कोठी में आग लगा दी जिसमें इस कोठी में छिपे सभी अग्रेजों की मौत हो गयी थी। वह कोठी आज भी जली कोठी के नाम से मशहूर है।
जली कोठी में अंग्रेजों के जलाए जाने की बात सोचकर लगा कि सामूहिक संहार में तमाम मासूम लोग भी कुर्बान हो जाते हैं। जो लोग जल गए होंगे जली कोठी में उनमें से कुछ बिलकुल निर्दोष रहे होंगे। कुछ भले भी होंगे। लेकिन सामूहिक हत्याएं दोषी और निर्दोष देखकर नहीं होती।
आगे का चौक में सुनहरी मस्जिद मिली। पता चला कि नेहरू जी यहां आये थे। भाषण दिया था। सुनहरी मस्जिद के गुम्बद में कंटीले तार लगे हुए थे। शायद गुम्बद में सोना लगा हो। मंहगी इमारतों की यह भी एक त्रासदी होती है। पहले उनको कीमती बनाओ। इसके बाद उनकी सुरक्षा की चिंता करो।
चौक में एक जगह दिहाड़ी मजदूर अपने ग्राहकों का इंतज़ार कर रहे थे। एक चबूतरे पर कुछ वरिष्ठ नागरिक गप्पाष्टक कर रहे थे। शायद अपने बीते समय को याद करते हुए वर्त्तमान को खारिज कर रहे हों।
केरुगंज के आगे एक मोहल्ले होते हुए गौशाला की तरफ चले। पुराने मोहल्ले की गलियां फिसलपट्टी सरीखी थी। ढाल नीचे की तरफ। साइकिल उनपर ब्रेक के सहारे सरपट चली गईं। मोहल्ला पार करके खेत ही खेत दिखे। इधर-उधर गोबर के ढेर। गोबर के कंडे दीवारों पर तसल्ली से सुख रहे थे। खेतों में गन्ने बकैतों की तरह खड़े थे।
आगे गौशाला का गेट का बंद था। गेट पर बोर्ड लगा था – ‘बिना आज्ञा गौशाला में प्रवेश करना सख्त मना है।’ शहर में इधर-उधर रास्तों पर घूमती हुई गायें शायद इसीलिये गौशाला के अन्दर नहीं आ पाती होती होंगी। बोर्ड की सूचना ही देखकर लौट जाती होंगी। आज्ञा के इंतज़ार में शहर की गलियां गुलज़ार करती रहीं।
गौशाला से ज़रा दूर पर हाइवे है। हम राजपथ तक गए| वहां एक बुजुर्ग झाड़ू लगा रहे थे। एक झोले में मशाला के पाउच धरे थे। बताया –‘मशाला बेचते हैं। दो दिन से दूकान लगा रहे हैं। पास के गांव में रहते हैं। कमाई के लिए मशाला बेचना आम बात है। हर अगली दूकान पर मशाला बिकता है। मुंह के कैंसर का बड़ा कारण है मशाला| लेकिन बिक रहा है धक्काड़े से देश भर में। कानपुर से शुरू हुई यह बीमारी देश भर में फ़ैल गयी है।
लौटते हुए एक झोपड़ी के बाहर कुछ बुजुर्ग बैठे थे।धूप सेंकते। बतियाने लगे। मोहल्ले का नाम पूछा तो बताया –‘यह मंगतों का मोहल्ला है। यहां मंगते रहते हैं।’
मंगतो के मोहल्ले की बात से उत्सुकता हुई। बात करने लगे बुजुर्ग से। मोहल्ले के नाम के बारे में पता किया तो बताया –‘ गर्रा नदी यहां से बहती थी। एक दिन राजा साहब नाव पर जा रहे थे। मल्लाह ने बीच नदी में नाव रोक ली। कुछ मांगा। राजा साहब ने गर्रा से खन्नौत तक की जमीन उन मल्लाहों को दे दी। मांग कर बसी जमीन पर बसे होने के कारण मोहल्ला मंगतो का मोहल्ला के नाम से मशहूर हुआ। वैसे मोहल्ले का नाम मंघई टोला लिखा था। क्या पता मांग कर बसे होने के कारण मंगाई टोला नाम पड़ा हो जो बिगड़कर मंघई टोला हो गया हो। क्या पता मांगने वाले मल्लाह का नाम मंघई रहा हो। उनके नाम पर ही मोहल्ले का नाम मंघई टोला पड़ा हो।
बुजुर्गवार बड़े मजे से मजे लेकर किस्से सूना रहे थे। उनका नाम पूछा तो बताया –घुरहू। घुरहू नाम क्यों पड़ा ? यह पूछने पर बताया –‘ पैदा हुए थे तो घूरे में फेंक दिए गए थे। वहीं नाल कटी। इसलिए नाम पड़ा –घुरहू। घूरे पर फेंके जाने का कारण यह कि इसके पहले बच्चे बचते नहीं थे। किसी ने बताया कि घूरे पर फेंक दिया जाए बच्चा तो बच जायगा।'
बिंदास बतियाते बुजुर्ग से जब यही बात कैमरे पर बोलने को कहा तो सकुचा गए। सकुचाते हुए बोले –‘अब तो नाम राजाराम है।’
कैमरा इंसान को असहज बनाता है।
मंघई टोला से निकलकर हम केरुगंज आये| केरुगंज का नाम अब अग्रसेन चौक हो गया है लेकिन लोग कहते इसे केरुगंज ही है| यादों में बसे हुए नाम आसानी से मिटते नहीं| केरुगंज से हम वापस लौट लिए|
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