पिछले शनिवार को अभिव्यक्ति नाट्य मंच द्वारा काकोरी एक्शन के महानायकों की याद में सातवां रंग महोत्सव आयोजित किया गया। कोरोना के चलते तीन दिन का कार्यक्रम एक दिन में सिमट गया। सांस्कृतिक कार्यक्रम, विचार गोष्ठी और नाटक होना था। विचार गोष्ठी में शाहजहांपुर के रंगमंच और क्रांतिकारी आंदोलन पर बातचीत होनी थी। डॉ सुरेश मिश्र शाहजहांपुर के सदाबहार संचालक हैं। उन्होंने शाहजहांपुर के रंगमंच पर रोचक व्याख्यान दिया। डॉ प्रशान्त अग्निहोत्री साझी शहादत-साझी विरासत पर अच्छी बात की। पत्रकार कुलदीप दीपक जी ने क्रांतिकारी आन्दोलन और काकोरी काण्ड पर अपने विचार रखे। इसके बाद सुधीर विद्यार्थी जी ने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में क्रांतिकारी आन्दोलन की भूमिका पर विस्तार से बात की।
सुधीर विद्यार्थी जी के नाम और काम से तो परिचय बहुत पुराना है। लेकिन मुलाकात पहली बार हुई। आजादी की लड़ाई में योगदान देने वाले क्रांतिकारियों के बारे जितना विपुल लेखन सुधीर विद्यार्थी जी ने किया उतना शायद किसी अन्य लेखक ने अकेले नहीं किया होगा। अब तक लगभग ३५ किताबें लिख चुके हैं विभिन्न क्रांतिकारियों के नाम। बहुत बड़ा काम है। विपुल काम। नौकरी करते, कर्मचारी-मजदूर आन्दोलन में सक्रिय भागेदारी करते, कई मुकदमें और यातनायें झेलते, व्यक्तिगत जीवन में पहले कम उम्र के बेटे और फ़िर पत्नी को खो देने के बावजूद निरन्तर इतना लेखन बिना अद्भुत जिजीविषा और जुनून के संभव नहीं। सुधीर विद्यार्थी जी को सुनने का लालच ही था कि ,शनिवार के दोपहर के बाद की नींद, जो कि मेरी सबसे प्यारी नींद है, को त्याग कर गोष्ठी में पहुंचा। उनको सुनकर लगा सौदा घाटे का नहीं रहा।
सुधीर विद्यार्थी जी ने लगभग घंटे भर की बातचीत में भारतीय क्रांतिकारी आन्दोलन पर बातचीत की। काकोरी के शहीदों पर बातचीत करते हुये उन्होंने कहा –’इतिहास बनता है समझदारी से, इतिहास बनता है बड़े लक्ष्य से और इतिहास बनता है कुर्बानी के जज्बे से।’ अशफ़ाक उल्ला , बिस्मिल , चन्द्रशेखर आजाद, मैनपुरी काण्ड, भगतसिंह आदि अनेक व्यक्तियों , घटनाओं का उल्लेख करते हुये अपनी बात कही विद्यार्थी जी ने। मैनपुरी काण्ड के क्रान्तिकारी भारतीय जी का उल्लेख करते हुये उन्होंने बताया –’देशबन्धु चितरंजन दास,जो कि उनके भारतीय जी के वकील थे जब उनसे पूछा इस समय तुम कितनी शक्ति और सामर्थ्य रखते हो? इस पर भारतीय जी ने कहा –’ सिर्फ़ इतना ही कह सकता हूं कि अगर आप कहें तो आज रात मैनपुरी जेल उड़ा दें और बताइये तो मैनपुरी शहर उड़ा दें।’
शहरों में भले ही क्रान्तिकारियों की मूर्तियां बढ़ रही हैं लेकिन क्रांतिचेतना दिन पर दिन कम होती जा रही है। शहीद होने पर उनकी जयकार करने वाले समाज में उनको जिन्दा रहते सहयोग न करने की बात का बिस्मिल की आत्मकथा के हवाले से जिक्र करते हुये विद्यार्थी जी ने बताया-’ मैनपुरी काण्ड के बाद आम माफ़ी मिलने पर लोग बिस्मिल को देखकर मुंह फ़ेर लेते थे कि कहीं कोई उनसे बात करते न देख ले।’
क्रांतिकारी चेतना के प्रसार के लिए सुधीर विद्यार्थी शहरों में जगह-जगह मूर्तियां लगवाने की बजाय क्रांतिकारियों की जीवनी और उनका लिखा विचार साहित्य छपवाना और वितरित करवाना बेहतर मानते हैं।
रामप्रसाद बिस्मिल से प्रभावित तुर्की के शासक कमाल पाशा ने तुर्की में बिस्मिल शहर बसाया इसका भी जिक्र विस्तार से किया सुधीर जी ने।
रामप्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक उल्ला की क्रांति चेतना पर बात करते हुये उन्होंने बताया-’दोनों अपने व्यक्तिगत जीवन में अपने धर्म के कट्टर अनुयायी थे लेकिन अपने धर्मों की बन्दिशों का अतिक्रमण किया दोनों ने। क्रांति चेतना रूढियों को तोड़ती है।
इसी रूढि को सुधीर जी ने अपने नाम के मामले में तोड़ा। उनकी अम्मा ने एक छोटी कहानी में ’सुधीर’ नामक आज्ञाकारी , शिक्षा में तेज और सुशील लड़के के बारे में वही नाम रख दिया। लेकिन सुधीर जी उसका उल्टा साबित हुये ( जैसा उन्होंने बताया) न पढ़ने में मन लगा, न ही मां-बाप की आज्ञा मानी और लेखन जैसे निकृष्ट (?) काम में जा लगे।
क्रांतिकारियों के नाम का मनगढंत किस्सों के जरिये शातिराना उपयोग के भी किस्से सुनाये विद्यार्थी जी ने। इंकलाब विरोधी लोग इंकलाब जिन्दाबाद का नारा लगा रहे हैं। भगतसिंह के हैट को बिस्मिल से मिला बताया जा रहा है। भगतसिंह को सरदार बनाया जा रहा है। क्रांतिकारियों से जुड़ी हुई चीजों का अपहरण करते हुये उनको नष्ट करने की कोशिशे हो रहे हैं। भगतसिंह को सिखों तक सीमित करने की कोशिश हो रही है। ऐसे ही किसी समारोह में विद्यार्थी जी ने कहा था-“ भगतसिंह का कद इतना ऊंचा है कि दुनिया की कोई पगड़ी उनके सर पर फ़िट नहीं होगी( भगतसिंह को किसी मजहब ,देश तक सीमित नहीं किया जा सकता)।
क्रांतिकारियों के बारे में मनगढंत बातें जोड़तोड़ कर प्रचारित करने के पीछे की मंशा यह है कि क्रांतिकारी चेतना को नखदंत हीन करके नष्ट किया जा सके।
देश की आजादी और क्रान्तिचेतना बनाये रखने के लिये अपने इतिहास का अध्ययन जरूरी है। अपने समाज का इतिहास जाने बगैर आगे का रास्ता नहीं तय किया जा सकता।
सुधीर विद्यार्थी जी ने हालांकि अनमने मन से बोलने की बात कही लेकिन उनको सुनते हुये ऐसा कहीं नहीं लगा। एक घंटा कब बीत गया , पता नहीं चला।
शाहजहांपुर कर्मभूमि रही है सुधीर जी की। यहां से चले भले गये लेकिन शहर उनके खून में धड़कता है। इसका जिक्र करते हुये बताया उन्होंने कि बरेली से लखनऊ जाते हुये तिलहर से ट्रेन गुजरती तो लगता कि अब शाहजहांपुर आने वाला है, उतरना है। इसीतरह लखनऊ से बरेली लौटते हुये ट्रेन के रोजा पहुंचते ही उतरने को हो जाते।
विपुल लेखन वाले सुधीर जी जीवन में विकट अनुभव रहे। अकेले जिस तरह तमाम परेशानियों से जूझते हुये इतना बिना विक्षिप्त हुये इतना सृजन कर पाना अद्भुत है। धुन के पक्के विद्यार्थी जी ने कुछ दिन पहले ही बरेली में वीरेन डंगवाल की प्रतिमा स्थापित करवायी। उसका जिक्र करते हुये उन्होंने कुछ लोगों के बौनेपन के किस्से भी सुनाये। उन लोगों की उदासीनता के बारे में भी जिन पर वीरेन जी ने कवितायें भी लिखी थीं।
क्रांतिकारी लेखन की शुरुआत कैसे हुई इसका जिक्र करते हुये उन्होंने बताया –’अम्मा के लिये पान तम्बाकू जिस पुडिया में लाये थे वह अखबार का कागज था। उसमें बम और क्रांतिकारियों का जिक्र था। कौतूहल हुआ कि ये क्रांतिकारी कैसे होते हैं। उनके मिलने की इच्छा हुई। मिले और फ़िर सिलसिला चल निकला।’
क्रांतिकारी लेखन के अलावा व्यंग्य लेखन भी अद्भुत है सुधीर जी का। शुरुआत खर्चे के लिये पैसे की जरूरत हुई थी। फ़िर खूब लिखा। ’हाशिया’ व्यंग्य संग्रह आया भी। अब व्यंग्य लिखना बन्द कर दिया। व्यंग्य लेखन को जिस तरह नख-दंत-हीन करके छापा जा रहा है उससे अच्छा तो न लिखना ही सही।
कल मुलाकात के दौरान अपनी सुधीर जी ने अपनी किताब ’लौटना कठिन है’ दी मुझे। इसमें एक नवोदय विद्यालय में बच्चों के बीच रचनात्मक लेखन कार्यशाला के दौरान खुद के और बच्चों के डायरी लेखन के अंश हैं। निष्कपट बच्चों ने सुधीर जी के बारे में जो लिखा और जैसे उनके आपसी सम्बन्ध बन गये उससे उनका स्कूल से लौटना कठिन हो गया। आंसू आ गये उनके। एक बच्ची ने लिखा –“मैने पहले दिन आपकी वेशभूषा और आदतों को ध्यान से देखा। आप मुझे काफ़ी संवेदनशील और वास्तविक लेखक लगे। लेकिन आपकी एक आदत बहुत अजीब सी लगी कि आप अपने कन्धे उचकाते हुये बात करते हैं। क्या आपने इसे सुधारने की कोशिश नहीं की। लेकिन फ़िर भी कोशिश कीजियेगा कि इसे सुधार लें।“
कक्षा 9 की छात्रा अपराजिता मिश्रा ने लिखा-“मुझे इसका भी ज्ञान नहीं कि आपकी उपमा किस चांद-तारे, फ़ूलों से करूं। अगर मैं यह मान लूं कि आप कोई फ़ूल हो तो आप कोई साधारण फ़ूल नहीं बल्कि वो फ़ूल हैं जिससे लिपटने के लिये हर भंवरा राजी होगा। हर किसी के लिये आपके लिये अलग-अलग रसधार प्रवाहित होगी। लेकिन मेरी ये धार निष्छल, निष्कपट और स्वतंत्र भावों से आपको अर्पण। यदि मेरी कोई बात आपको बुरी लगे आपको व्यर्थ लगे तो अपनी पुत्री समझकर मुझे क्षमा करें।’
इसी बच्ची ने ’मेरा राजहंस’ पढने के बाद प्रतिक्रिया देते हुये लिखा-’ स्मृतियां तो वस्तु नहीं जिसे किसी कमरे में बन्द कर दिया जाये। परन्तु आपको बुरा न लगे तो एक बात कहना चाहती हूं। कभी-कभी इंसान को वर्तमान में जी रहे लोगों के लिये एक प्रेरणा बनकर जीना पड़ता है, उन्हें अपने अतीत से हटाना पड़ता है। आप विशाल हृदय वाले हैं जो इतना कष्ट सहकर भी गम की सलवटों को कभी अपने चेहरे पर नहीं आने देते।’
अपने लेखन के बारे में अपनी बात कहते हुये सुधीर जी कहते हैं-“आत्मकथा लिखने का अभी मेरा कोई इरादा नहीं है। मेरे एजेण्डे पर बहुत काम है इनदिनों । वैसे अब तक जो कुछ लिखा है, वह सब आत्मकथ्य ही तो है मेरा। यद्यपि मेरी जिन्दगी बहुत घटना बहुल और औपन्यासिक ढंग की है, जिसे पिरोया जा सकता है। पर उसके लिये जिस धैर्य की आवश्यकता होती है वह शायद मेरे भीतर अनुपस्थित है। मैंने अब तक जितना लिखा वह बहुत अव्यवस्थित है, लेकिन उत्तेजना भरा है। मैं ठहरकर और सन्तुलित होकर नहीं लिख पाता। जाने क्यों बहुत बेचैन रहता हूं, कलम चलाते वक्त मैं। लेखक से ज्यादा एक्टिविस्ट हूं। वही मुझे अच्छा लगता है।“
सुधीर जी से मुलाकात करना एक सुखद अनुभव रहा। इस साल की उपलब्धि। तमाम बाते हुईं। उनको अपने वक्तव्य/बातचीत रिकार्ड करके यू ट्यूब पर अपलोड करके के लिये उकसाया गया जिसे उन्होंने अपनी तकनीकी अज्ञानता के सहारे टालने की कोशिश की। लेकिन बहुत दिन तक शायद टाल न पायें।
सुधीर विद्यार्थी जैसे लोग हमारे समाज की धरोहर हैं। बहुत काम किया है इन्होंने। अभी और न जाने कितना करना है। कर भी रहे हैं। करेंगे भी।
सुधीर विद्यार्थी जी के लिये मन में जितना सम्मान है उससे कई गुना प्यार है। तरल मन के बीहड़ एक्टिवट (सक्रिय लेखक) को बहुत प्यार करने जरूरत है।
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