बिस्मिल मैनपुरी केस में फरार रहे। उनका वह समय बहुत कठिनाई भरा रहा। इस मामले में नेता गेंदालाल जी का उन्होंने अपनी आत्मरचना में विस्तार से जिक्र किया है। मैनपुरी के इस मुकदमे में सरकार का बहुत रुपया व्यय हो गया था। कोई बड़ा लीडर हाथ भी न आया, सो सरकार ने सबूत की कमजोरी के चलते आम माफी की घोषणा कर दी।
राजकीय घोषणा के पश्चात बिस्मिल शाहजहांपुर आये। उस समय तक एक क्रांतिकारी के रूप में लोग उनका नाम जानने लगे थे। यहां शहर में वे आये तब उनके लिए सब कुछ बदला हुआ था। उन्होंने लिखा है-"कोई पास तक खड़े होने का साहस न करता था। जिसके पास मैं जाकर खड़ा हो जाता था , वह नमस्ते कर चल देता था। पुलिस का बड़ा प्रकोप था। प्रत्येक समय वह छाया की भांति पीछे-पीछे फिरा करती थी। इस प्रकार का जीवन कब तक व्यतीत किया जाए। मैंने कपड़ा बुनने का काम सीखना आरम्भ किया। जुलाहे बड़ा कष्ट देते थे। कोई काम सिखाना नहीं चाहता था। बड़ी कठिनाई से मैने कुछ काम सीखा। उसी समय एक कारखाने में मैनेजरी का स्थान खाली हुआ। मैंने उसी स्थान के लिए प्रयत्न किया। मुझसे पांच सौ रुपये की जमानत मांगी गई। मेरी दशा बड़ी सोचनीय थी। तीन-तीन दिवस तक भोजन प्राप्त नहीं होता था, क्योंकि मैंने प्रतिज्ञा की थी कि किसी से कुछ सहायता न लूंगा। पिताजी से बिना कुछ कहे मैं चला आया था। मैं पांच सौ रुपये कहां से लाता। मैंने एक दो मित्रों से केवल दो सौ रुपये की जमानत देने की प्रार्थना की। उन्होंने साफ इंकार कर दिया। मेरे हृदय पर वज्रपात हुआ। संसार अंधकारमय दिखाई देता था। पर बाद को एक मित्र की कृपा से नौकरी मिल गयी। अब अवस्था कुछ सुधरी। मैं भी सभ्य पुरुषों की तरह जीवन व्यतीत करने लगा। मेरे पास भी चार पैसे हो गए। वे ही मित्र, जिनसे मैंने दो सौ रुपये जमानत देने की प्रार्थना की थी, अब मेरे पास चार-चार हजार रुपयों की थैली, अपनी बन्दूक , लाइसेंस सब डाल जाते थे कि मेरे यहाँ उनकी वस्तुएं सुरक्षित रहेंगी। समय के इस फेर को देखकर मुझे हंसी आती थी।"
सुधीर विद्यार्थी की किताब -'मेरे हिस्से का शहर' से।
प्रकाशक -प्रतिमान प्रकाशन, सदर बाजार, शाहजहाँपुर -242001
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