Monday, December 06, 2021

आजकल बहुत मंदी है। कोई काम नहीं मिल रहा।

 सड़क पर आते ही लोग आते-जाते दिखने लगे। नाश्ते की दुकाने गुलज़ार हो हुईं। चाय, समोसा, पकौड़ा, पराठा घराने का सामान बिकने लगा था। एक ठेलिया के पीछे राजकीय इंटर कालेज दिखा। पीले उदास जैसे रंग में पता स्कूल। अनगिनत होनहार बच्चे पढ़कर निकले होंगे यहाँ से। कभी जलवा रहा होगा जी आईसी का। एडमिशन के लिए मारा- मारी होती होगी। अब क्या पता बच्चे ही न पूरे होते हों क्लासों में। सारे राजकीय इंटर कालेजों के यही हाल हैं।

स्कूल के सामने की नास्ते की दुकान में बिकने वाला सामान बनने लगा था। मिर्च वाली पकौड़ी बनने के लिए जवान मिर्चे पास रखे थे। दुकान वाला पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठा समोसे का मसाला बना रहा था। पास ही रहता है।
घर और दुकान दोनों अक्सर प्रशासन के लोग हटवा देते हैं। कभी-कभी प्रिंसिपल ही दुकान हटवा देते हैं। लड़कों को मनाही है यहाँ से सामान खरीदने की। गेट बंद हो जाता है। इन सभी प्रतिबंधों को धता बताते हुए बच्चे खरीद करते हैं। सामान बिकता है। पेट और बाजार अपने रास्ते में आने वाली हर दीवार में छेद करके रास्ता बनाना जानते हैं।
उदास से खड़े जीआईसी के एक हिस्से को सौंदर्यीकरण अभियान के तहत खूबसूरत सजाया गया है। कृत्तिम घास और ऊंची दीवार। खूबसूरत नजारा। पीछे खड़ा बदरंग स्कूल अपने एक हिस्से को चमकता देखता होगा। अपने पूरे हिस्से को सौंदर्यीकरण होने के दिन गिनता होगा।
खिरनी बाग में एक जगह सीता रसोई की सूचना लगी दिखी। पता चला कोरोना काल में शुरू हुआ काम अब भी जारी है। इतवार को दोपहर को खिचड़ी बनती है। मुफ्त बंटती है। जब तक खत्म नहीं होती तब तक।
इस काम में कभी-कभी कोई अन्य लोग भी सहयोग कर देते हैं। कभी कोई पनीर के पैसे दे देता है, कभी कढ़ी जुड़ जाती है। लोगों की श्रद्धा पर निर्भर है। नियमित खिंचड़ी है, बाकी सब अनियमित।
रसोई के काम में मुख्य भूमिका जिनकी है वो एक स्कूल में अध्यापक हैं। खाना बनाने वाले को 300-400 दिए जाते हैं। दस किलो करीब चावल, दाल के साथ चलती है सीता की रसोई।
जिस जगह सीता की रसोई चलती है वहां चबूतरे पर मंदिर है। उसके आसपास के पार्क में आसपास के लोगों ने अपने-अपने घरों का मलवा फेंक रखा है। जिसके पास जो है वही तो देगा । कोई खाना खिला रहा है, कोई कूड़ा डाल रहा है। पार्क कूड़ा घर जैसा बन गया है।
सदर बाजार में दुकानें खुलने लगी हैं। दूधिये दूध का लेन-देन कर रहे हैं। एक जगह जलेबी छन रही थीं। जलेबी जिस ट्रे में रखी थी वह थोड़ी तिरछी थी। ताजी निकली जलेबियों से बहता हुआ सीरा एक डब्बे में जमा हो रहा था। ताजी , गर्म , सीरे को डब्बे के लिए विदा करती जलेबियों का सौंदर्य वर्णन करना मुश्किल काम है। गूंगे का गुड़ है। जो देखे और खाये , वही उसको देख, समझ सकता है।
आगे एक चबूतरे के पास तीन कूड़ा बीनने वाली महिलाएं और एक बच्चा बैठे थे। बच्चा नाली के ऊपर , चबूतरे पर बैठा पैर हिलाते हुए सीटी बजा रहा था। उसकी सीटी सुनने के बहाने हम वहां रुककर बतियाने लगे।
कूड़ा बीनने वालीं सुबह से निकली थीं। अब कूड़ा बीनकर वापस जाने वाली थीं। अलग-अलग तरह का कूड़ा, अलग-अलग भाव जाता है। दो रुपये किलो से लेकर दस रुपये किलो के भाव। सौ-दो सौ रुपये मिल जाते हैं रोज के।
बात करते हुए देखा पैर हिलाते बच्चे का संतुलन बिगड़ गया। पैर नाली के पानी में डूब गया। सब हंसे। बच्चा भी। इसके बाद उसने पास के हैण्डपम्प से पैर धोए। इस बीच महिला ने रिक्शा मंगा लिया और कूड़ा लदवा कर बैठ गयी। पचास रुपये तय हुए।
कूड़ा लदवाते हुए महिला रिक्शे वाले से बोली -'ठीक से लादना, कल फाड़ दिया था बोरा।'
बोरा लदने के बाद महिला भी बैठ गयी। साथ में बच्चा भी। चल दी कूड़े को कबाड़ी को बेंचने के लिए। बाकी दो के पास कम था कूड़ा। बोली -'हम ऐसे ही ले जाएंगे।'
रिक्शे में जाते हुए महिला को एक जगह पैकिंग का डब्बा दिखा। उसने रिक्शा रुकवाकर बच्चे को भेजकर डब्बा उठवाया। कूड़े में शामिल किया। यह भी बिकेगा। आगे बढ़ी। चलते हुए बताया कि उसका आदमी भी यही काम करता है। केवल सुबह के समय कूड़ा बीनती है। बाकी दिन घर का काम। रोज के सौ-दो सौ मिल जाते हैं।
बच्चे को स्कूल भेजने की बात पर हंस दी वह। आगे बढ़ गई।
आगे बाजार में दिहाडी मजदूर अपने लिए ग्राहक का इंतजार कर रहे थे। ग्राहक नदारद थे। हर तरफ मजदूर ही मजदूर दिखे। एक ने बताया -'आजकल बहुत मंदी है। कोई काम नहीं मिल रहा।'
एक दुकान पर एक आदमी पेंटिंग कर रहा था। सीढ़ी लगाए। उसका पेंट का सामान नीचे रखा था। अक्षर मिलाते हुए दुकान का नाम लिखते देखते रहे कुछ देर। लगा कि इस काम को, जिसको हम बड़ा आसान मानते हैं, में भी कितने घुमाव हैं।
आगे चाय की दुकान पर पंकज मिले। बहुत दिन बाद मिले। बोले -'आपकी जयपुर की पोस्ट पढ़ी थी। जंगल में चाय पीने वाली।'
हमको तमाम लोग बताते हैं कि आपकी पोस्ट पढ़ते हैं। लाइक और कमेंट देखकर लगता है कि कम लोग पढ़ते हैं। लेकिन बताते हैं लोग तो लगता है कि हमारी पोस्टों के 'गुप्त पाठक' भी हैं जो चुपचाप पढ़ते हैं, बिना अपनी प्रतिक्रिया दिए।
पंकज का गाना छूट गया है। दुकान, रोजी, रोटी के चक्कर में शौक दुबक गया। जिस लड़के को गाने का इतना शौक हो कि उसके लिए घर से पैसा लगाकर बैंड बनाये, वह काम में इतना मशगूल हो जाये कि गाना ही भूल जाये, यह भी अपने में एक विडम्बना है।
आगे रजाई में भरने वाली रुई धुनने, भरने की दुकानें खुल गयी हैं। लोग जमा होने लगे हैं रुई धुनवाने, बनवाने के लिए।
जाड़ा दस्तक देने लगा है।
बस स्टैंड के पास रेलवे क्रासिंग बन्द है। लोग सर झुकाकर या बगलिया कर निकल रहे हैं। क्रासिंग पर ही मांगने वाले भी बैठ गए हैं। एक मांगने वाले के हाथ कुष्ठ रोग के कारण खराब हो गए हैं। आंखें भी खराब हैं। वह जोर-जोर से आवाज लगाकर मांग रहा है। अधिकतर लोग उसको अनदेखा/अनसुना करके निकलते जा रहे हैं।
शहर जाग रहा है। इतवार की गुनगुनी धूप में अंगड़ाई लेते हुए उठ रहा है।

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