कानपुर में हमारे एक साथी थे –होदा जी। बातचीत के दरम्यान वे उर्दू शब्दों का इस्तेमाल करते। बाकी शब्द तो और लोग भी इस्तेमाल करते थे। उन पर ध्यान नहीं जाता। लेकिन वे ‘अलग’ की जगह ‘अलहदा’ कहते तो ध्यान जाता उस पर। ‘ये अलहदा है, इसको अलहदा रखना होगा’- इसी तरह से अलहदा आता उनकी बातचीत में। बीस साल पहले प्रयोग किए एक शब्द के जरिए उनके साथ की तमाम बातें अनायास याद आ जाती हैं। उनकी शक्ल, उनका हुलिया,उनकी दाढ़ी। एक शब्द ‘अलहदा’ के जरिए ‘होदा जी’ की यादों की पूरी फ़ाइल यादों की स्क्रीन में भक्क से खुल जाती है।
बोलचाल के दरम्यान हम जिन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं उनमें से ही कुछ हमारे व्यक्तित्व का एक्सरे होते हैं। हमारे द्वारा बोला गया कोई एक वाक्य हमारी पूरी समझ, सोच और नजरिए का श्वेतपत्र होता है। हो सकता है हम उसे अनजाने में, लोगों की देखा-देखी प्रयोग करते हों, लेकिन सुनने वाला अपनी समझ से उससे हमारे बारे में एक समझ बनाता है। हमारे द्वारा बोले शब्द हमारे राजदूत होते हैं।
आजकल अक्सर बातचीत में सुनते हैं –‘देखना पड़ेगा।‘ कोई सूचना मांगने पर अक्सर जबाब मिलता है –‘देखना पड़ेगा साहब।‘ तीन शब्द का यह जबाब एकसाथ अनेक सूचनाएं देता है जबाब देने वाले के बारे में –‘जानकारी नहीं है’, ‘इसका अंदाज नहीं है’,’ देखने का मूड नहीं है’, ‘कहोगे तो देखेंगे’ और भी कई कोण हो सकते हैं इस जबाब के। कुल मिलाकर एक अनुत्साह की मुद्रा में दिया जबाब है यह।
इसी के बरक्स कोई अगर यह जबाब मिलता है – ‘अभी बताते हैं ’, ‘दो मिनट/थोड़ी देर का समय दीजिए बताते’ – इसी तरह का कोई भी जबाब सुनकर लगता है अगला कितना धनात्मक है। हो सकता है ‘देखना पड़ेगा’ जबाब देने वाला ‘अभी बताते हैं’ की तुलना में ज्यादा कर्मठ, समर्पित और कुशल हो लेकिन उसका जबाब पहली नजर में उतना अच्छा नहीं लगेगा जितना कि ‘अभी बताते हैं।
‘
बातचीत, लिखा-पढ़ी के दरम्यान कुछ शब्द ऐसे होते हैं जिनको सुनते ही मन खुश हो जाता है। कई बार उनका सही-सही मतलब भी नहीं पता होता लेकिन उनके सुनते, बोलते, लिखते, पढ़ते मन अनायास गदगद हो जाता है, गुलगुल, प्रफुल्लित, प्रमुदित, किलकित और भी न जाने क्या-क्या।
ऐसे ही एक शब्द है- कायनात। कायनात का मतलब Universe, ब्रह्मांड। लेकिन Universe, ब्रह्मांड के मुकाबले मुझे कायनात कई गुना ज्यादा प्यारा शब्द लगता है। ज्यादा क्यूट, ज्यादा खूबसूरत। शायद ऐसा ‘कायनात’ के Universe, ब्रह्मांड के मुकाबले स्त्रीलिंगी ध्वनि के चलते हो लेकिन सम्पूर्ण ब्रह्मांड, whole Universe के मुकाबले ‘समूची कायनात’ मुझे इतना आकर्षक लगता है कि बार-बार इसे प्रयोग करने का, पढ़ने का, मन करता है।
इसी तरह के अनेक शब्द युग्म अनायास आकर्षक लगते हैं। ‘रोशनी की मीनार’, ‘रोशनी की कंदील’, ‘घाटियों में फूल’। अपन को पता नहीं कि घाटियों में फूल खिले हुए कैसे लगते हैं लेकिन अनजाने जेहन में यह ख्याल गहरे धंसा है कि घाटियों में खिले फूल बहुत खूबसूरत लगते होते होंगे। Anurag Aryaअनुराग आर्य की न जाने कब की एक पोस्ट ‘उम्मीद की साढ़े पाँच फुटी लौ ’ ( http://anuragarya.blogspot.com/2009/04/blog-post_28.html ) के चलते याद है। विनीत Vineet Kumar से जब भी बात होती है तो उनकी ‘दियाबरनी ’ (http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post.html )का जिक्र जरूर होता है।
कोई शब्द, कोई शब्द युग्म किसी को पसंद आने के अनेक कारण होते होंगे। हम अपने सोच के हिसाब से शब्दों को पसंद करते हैं। जबलपुर रहने के दौरान सीखा शब्द ‘अपन’ मुझे जबलपुर प्रवास की तमाम उपलब्धियों में से एक लगता है। मैं, हम में थोड़ा अहं का भाव सा लगता है । 'अपन' में समरस और मिलजुल का भाव है।
‘उजास’ शब्द भी बहुत प्यारा लगता है मुझे। जैसे घर का बड़ा होता बच्चा। इसी को प्रयोग करने के लिए हमने एक कविता भी लिख मारी –तुम मेरे जीवन का उजास हो। इंसान अपने प्यार का इजहार करने के तरीके भी खोज ही लेता है।
दयानंद पाण्डेय जी Dayanand Pandey द्वारा अक्सर प्रयोग किया जाने वाला शब्द ‘बादबाकी’ मुझे इतना आकर्षक लगता है कि उनकी उनकी तमाम सोच, तेवर, बातों, धारणाओं से असहमत और 'अलहदा' विचार होने के बावजूद उनके लेख पढ़ने का मन करता है।
बातें तो बहुत हैं कहने को। लेकिन दीगर काम भी बहुत सारे हैं लिहाज फिलहाल इतना ही। ‘बादबाकी’ एक पुरानी कविता यहां पेश है जिसमें कायनात भी है, रोशनी भी है, सूरज भाई भी हैं, मुस्कान भी है मतलब वह तमाम कुछ जिनका प्रयोग मुझे अच्छा लगता है। कविता मेरे आवाज में सुनने का मन हो तो लिंक टिप्पणी बक्से में है।
बताते चलें कि कल से इस लेख का शीर्षक तय कर रखा था -अलहदा, कायनात और बादबाकी। लेकिन अभी कविता दिख गई तो शीर्षक बदलकर हो गया -मुस्कराओ, खिली रहो हमेशा। यह होता प्रभाव पसंदीदा शब्दों का।
तुमको मुस्कराते देखा
तो मन किया
स्टेच्यू बोल दूँ तुमको
ताकि मुस्कान बनी रहे
तुम्हारे चेहरे पर हरदम।
पर फिर सोचा
फिर तो तुम बनकर
रह जाओगी मैनिक्वीन
जिसमे चस्पा रहती है
हमेशा एक सी मुस्कान।
अब यह चाहता हूँ
कि हमेशा मुस्कराओ
नए नए अंदाज में
हर अंदाज पहले से अलग।
मुस्कराओ
खिली रहो हमेशा
जैसे खिलते हैं घाटियों में फूल
बगीचे में फूलों पर इतराती हैं तितलियाँ
और मुस्कराती है कायनात सूरज की किरणों के साथ।
-अनूप शुक्ल
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