पूना से सुबह निकले। फ्लाइट सबेरे की थी। होटल छोड़ते समय काउंटर पर आए तो देखा स्टॉफ किसी से फोन पर बात कर रहा था। फोन के दूसरी तरफ वाला उसको हड़का रहा था। उसके कमरे की कोई समस्या थी शायद।
किसी के द्वारा डांटने पर मनोबल गिरने की बात तो सही है लेकिन डांटे जाने पर यह तर्क यह देते हुए किसी को पहली बार सुना।
अगले ने काउंटर क्लर्क की शिकायत करने की धमकी की। इस पर उसने भी कहा -'आप बेशक करिये शिकायत। हम भी आपकी कम्पनी को आपके व्यवहार के बारे में लिखेंगे।'
पता चला दूसरी तरफ किसी विमान कम्पनी का कोई कर्मचारी था। कनेक्टिंग फ्लाइट के समय तक इंतजार करने के लिए होटल में रुकने आया होगा। मनमाफिक सुविधा न मिलने पर झल्ला रहा था।
उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि कहीं इसी गुस्से में जहाज चलाते हुए कहीं जहाज न भिड़ा दे। गुस्से में आदमी नमूना हो जाता है। यह अलग बात कि उसको अपना नमूमापन दिखता नहीं और वह गुस्से में किये व्यवहार को अपना आभूषण समझता है।
होटल से निकलकर एयरपोर्ट आये। सड़क साफ थी। जल्द ही पहुंच गए एयरपोर्ट पर। लाइन में लग गए अंदर आने के लिए। आगे एक लड़का लगा था। उसकी पहली हवाई यात्रा थी। पूछ रहा था -'अंदर जाने के लिए यहीं लगना होता है।'
पता चला बच्चा पूना में काम करता है। उसके पिता की नागपुर में अचानक मृत्यु हो गयी थी। घर जा रहा था। बड़ा लड़का है घर का। चेहरे पर चिंता और बड़े होने की जिम्मेदारी दोनों के भाव थे। लाइन में लगे-लगे बात करते रहे उससे।
पूना से दिल्ली और दिल्ली से लखनऊ आये। लखनऊ से कानपुर आते हुए बनी के पास ढाबे में चाय पी। समोसा साथ में।
बनी के पास का यह ढाबा बहुत चलता है। कानपुर से लखनऊ आते-जाते लोग यहाँ चाय-पानी-नाश्ता करते हैं। बैठने की व्यवस्था सड़क किनारे। धूल-धक्कड़ के बीच लगी मेज़ कुर्सियाँ। ग्राहकों की भीड़। इधर-उधर की गन्दगी को अनदेखा करके , खाते -पीते आते जाते लोग।
दुकान के बाहर ही गाजर का हलवा बिक रहा था। बड़ी सी परात में मुक्त अर्थव्यवस्था की तरह खुले में रखा हलवा। चार ठो अगरबत्ती भी ठूँसी हुई थी हलवे में। अगरबत्ती की राख अलबत्ता बाहर की तरफ़ गिर रही थी। चारो तरफ़ से उड़ती धूल भी आराम करने के लिए हलवे की परत के रूप में जमती जा रही थी।
चाय पीते हुए टहलते हुए ऊपर की तरफ़ गये जहां खाने का सामान बन रहा था। वहाँ तो विकट माहौल। बीस-पच्चीस लोग समोसा , रसगुल्ला , कचौड़ी बनाने में जुटे थे। वहीं दूध फाड़कर छेना बनाया जा रहा था। सब ज़मीन पर सिलेंडर रखे। बीच-बीच में पानी भी जमा था। उसी पानी के बग़ल में बैठे लोग सब खाने का सामान बनाने में जुटे थे। पानी छत से चूता दिखा। हमने वहाँ काम करते हुए लोगों से पूछा -‘इतनी गंदगी में कैसे काम करते हो तुम लोग ? सब तरफ़ पानी जमा है। फिसलन है। इसे साफ़ क्यों नहीं करते?’
अधिकतर लोगों ने मेरे अहमक सवाल को नजरंदाज करते हुए अपना काम जारी रखा। एक ने मेरी तरफ़ बिना देखे संत मुद्रा में जवाब दिया -‘ऐसे ही चलता है काम। सब एडजस्ट करना पड़ता है।’
हम कुछ कह नहीं पाए। हमारी चाय ख़त्म हो गई थी। हम चुपचाप नीचे उतर आए। हमारे देखते-देखते ऊपर काम कर रहे लोगों ने ढेर सारा गन्दा पानी सीधे नीचे फेंका। कुछ छींटे हमारे ऊपर भी पड़े। लेकिन हम कुछ बोले नहीं यह सोचकर कि जब सब लोग एडजस्ट कर रहे हैं तो थोड़ा हम भी एडजस्ट कर लेंगे तो क्या बिगड़ जाएगा।
दुनिया में तमाम घपले-घोटाले, अराजकता और दुर्व्यवस्था फैली हुई है। लेकिन कोई कुछ कर नहीं पा रहा है। सबको एडजस्ट करने का अभ्यास हो गया है। एडजस्ट करना पड़ता है।
आपको भी अगर कुछ बुरा लगा हो तो नजरअंदाज करके एडजस्ट करिये। थोड़ा तो एडजस्ट करना पड़ता है।
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