गोल्डन गेट पुल पर पहुंचकर हम लोग वेलकम सेंटर पहुंचे। वेलकम सेंटर पर गोल्डन गेट से सम्बंधित तमाम सामान बिक रहा था। फोटो एलबम, किताबें, स्मृति चिन्ह आदि। हमने उन सामानों को देखा। ललचाये भी कुछ को देखकर। लेकिन उनकी कीमतों ने हमको खरीद से बचा लिया।
वेलकम सेंटर से कुछ दूरी पर ही गोल्डन गेट पुल है। हम लोग पुल की तरफ बढ़े। रास्ते में तमाम लोग जगह-जगह पुल को साथ में लेकर फोटो खिंचाने में लगे हुए थे। जबसे पुल बना होगा तब से करोड़ों अरबों लोग पुल को देख चुके होंगे, इसके साथ फोटो खिंचा चुके होंगे। पुल बिना किसी भेदभाव के सबके साथ फोटो खिंचवा चुका होगा।
पिछली बार, तीन साल पहले, जब आये थे पुल देखने तो पुल कुछ शरमाया हुआ सा था। काफी देर तक कोहरे की चादर में मुंह छिपाए रहा। दिखा ही नहीं। जब सूरज भाई को पता चला तो आये और कोहरे की चादर को हटाया। पुल का मुखड़ा दिखा।
इस बार ऐसा कुछ नहीं था। पुल परिचित था। खिली हुई धूप में खुलकर मिला।
पुल पर टहलते हुए लोग फोटोबाजी में व्यस्त थे। पिछली बार छुट्टी का दिन था शायद । सुबह का समय भी। लोग पुल के पास साइकिलिंग और जॉगिंग करते हुए दिखे थे। कुछ लोग किसी दौड़ में भाग भी ले रहे थे। इस बार शाम का समय होने के कारण लोग आराम मुद्रा में टहल रहे थे।
तीन महिलाएं आपस में बतियाती हुई फोटोबाजी कर रहीं थीं। बुजुर्ग थीं लेकिन मस्ती कालेज में पढ़ती सहेलियों वाले अंदाज में कर रहीं थीं। भाषा समझ नहीं आ रही थी लेकिन भाव बिंदास घराने के ही थे।
पुल पर गाड़ियां धड़-धड़ करती हुई निकल रहीं थीं। दुष्यंत कुमार जी का शेर याद आया:
तू किसी रेल सी गुजरती है,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ।
यहां पुल पर रेल नहीं गाड़ियां गुजर रहीं थी। पुल भी थरथरा नहीं रहा था। धड़-धड़ कर रहा था। जिस हिस्से से गाड़ी गुजरती वह हिस्सा धड़ से बोलता और गाड़ी आगे निकल जाती। मानों पुल गाड़ी के निकल जाने की मोहर लगाकर गाड़ियों को आगे धकेल रहा हो।
हवा तेज चल रही थी। धूप बढिया खिली हुई थी। दूर एक तरफ आर्कताज जेल और दूसरी तरफ सैन फ्रांसिस्को की इमारतें दिख रहीं थीं। उनको देखकर लगा कि ये इमारतें भी एक तरह की खुली हुई जेल सरीखी ही हैं जहां लोग अपने को अपनी मर्जी से बन्द करके रहते हैं। काम करते हैं, जीते हैं, खुश रहते हैं, दुखी होते हैं। छटपटाते हैं लेकिन यहां से निकलने की सोचते ही कांप जाते हैं। सुख-सुविधा का जाल ऐसा ही होता है। विनोद श्रीवास्तव जी की कविता सरीखा:
पिंजरे जैसी इस दुनिया में
पंछी जैसा ही रहना है,
भरपेट मिले दाना-पानी
फिर भी मन ही मन दहना है।
इमारतों में सबसे ऊंचा पैंसठ मंजिला सेल्सफोर्स टावर था। उसके आसपास की इमारतें उसके सामने चिल्लर जैसी लग रहीं थीं। सेल्सफोर्स आमतौर पर कर्मचारियों का हित देखने वाली और पारिवारिक माहौल कंपनी मानी जाती थी। यहां इस बार कई हजार लोग निकाले गये। निकले हुए लोगों को कैसा महसूस होता होगा अब इस टावर को देखकर, कहना मुश्किल है।
पुल की रेलिंग ऊंचाई तक जाली से ढंकी थी। लोग पुल से कूदकर आत्महत्या की कोशिश करते हैं। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए ही रेलिंग ऊंची और जाली से ढंक दी गयी है।
नीचे पानी में कुछ लोग तैर रहे थे। ऊंचाई के कारण उनको देखकर ऐसा लग रहा था कि पानी में मछलियां तैर रही हैं।
पुल पर टहलते हुए, लोगों और नजारे को देखते हुए हम लोग पुल के बीच तक गए। वहां पुल के बारे में जानकारियां और उदघाटन के विवरण लिखे हुए हैं। उनको देखते हुए हम वापस लौटे।
पुल देखकर लपकते हुये रेस्टरूम गए। रेस्टरूम साफ-सुथरा था। मुफ्तिया सार्वजनिक रेस्टरूम पर ऐसी साफ-सफाई हमारे लिए भले ताज्जुब का कारण हो लेकिन यहां के लिए सामान्य बात है।
इसके बाद एक बार फिर फोटोबाजी का दौर चला। अकेले, साथ में और अलग-अलग पोज में फोटो खींचे गए।
फोटोबाजी के बाद मन किया कुछ खाया-पिया जाए। खाने-पीने की बात चलने के बाद वहां मौजूद एक रेस्तरां की तरफ देखा। रेस्तरां की तरफ बढ़ते हुए जेब में हाथ डाला तो बटुआ , जिसमें फॉरेक्स कार्ड, क्रेडिट कार्ड और नकद रुपये थे, नदारद मिला। पहले तो लगा किसी ने मार दिया। ऐसा तो अपने यहाँ भीड़ में होता है। यहां खुले में हो गया। लेकिन फिर याद आया चलते समय पर्स रखना भूल गए थे। साथ में आये लोगों सारी निगाहें हमको लापरवाह बता रहीं थीं।
हमको याद आया हमारे फोन में गूगल पे एप है। हमने रेस्तरां में जाकर पूछा -'यहां गूगल पे से भुगतान होता है?' उसने माफी मांगते हुए बताया -'गूगल पे यहां नहीं चलता।' हमको लगा क्या अजीब बात है। जहां गूगल का मुख्यालय है वहीं गूगल का एप गूगल पे नहीं चलता है। मायूसी और खुशी के कॉकटेल वाले भाव के साथ वापस आ गए। मायूसी एप के न चलने की थी, खुशी एप के न चलने से पैसे बचने की थी। पैसा बचाया मतलब पैसा कमाया। कितना कमाया यह पता नहीं।
तब तक शाम हो गई थी। सूरज भाई विदा ले रहे थे। विदा होने से पहले वो पानी में नहा रहे थे। हम भी लौटने का मन बना लिए।
लौटने के लिए टैक्सी बुलाई। फौरन आ गयी। इस बार ड्राइवर साहब तुर्की के थे।नाम था हसन। पढ़ाई के साथ काम करनेवाले। एक दिन पहले तुर्की के क्रांतिकारी जनकवि नाजिम हिकमत का जन्मदिन था। हमने बातचीत शुरू करने के लिए लिहाज से नाजिम हिकमत का नाम लिया-' नाजिम हिकमत तुर्की के थे।' ड्राइवर ने थोड़ा चहकते हुए कहा -'ओह नाजिम द ग्रेट , रिवोल्यूशनरी पोयट्। एस्टरडे वाज हिज बर्थडे।' कुछ और भी बातें हुईं क्रांतिकारी कवि के बारे में। उसकी बातों से ऐसा नहीं लगा कि उसको साहित्य में कोई खास रुचि होगी। लेकिन नाजिम हिकमत और उनके जन्मदिन के बारे में पता था उनको।
हमको लगा कि परदेश में रहने वाले अपने देश के किसी आम आदमी को अपने देश के किसी कवि के जन्मदिन के बारे में क्या इतनी सहज जानकारी होगी? शायद नहीं। क्या पता शायद हो भी।
तुर्की के कमाल पाशा के बारे में भी उसने कुछ सम्मानजनक बातें कहीं। कमाल पाशा अपने देश के क्रांतिकारी स्व.रामप्रसाद बिस्मिल से इतना प्रभावित थे कि तुर्की के एक शहर का नाम 'बिस्मिल' रखा। जबकि अपने यहां शाहजहांपुर में जहाँ बिस्मिल/उनका परिवार रहता था वह जगह जस की तस है। खाली उनके घर की तरफ जाने वाली सड़क के द्वार पर उनका नाम लिखा बोर्ड लगा है। शहर में अलबत्ता उनकी मूर्ति जरूर लगी है उनके साथी शहीदों अशफाक उल्ला खां और ठाकुर रोशन सिंह के साथ। अपने शहीदों को याद करने का यही तरीका है अपना।
इस बीच ड्राइवर का फोन आया। उसने हमसे पूछकर बात की।
लौटते हुए शाम हो गई थी। सड़क पर ट्राफिक ज्यादा था लेकिन जाम कहीं नहीं। सिर्फ रफ्तार कम हो गयी थी गाड़ियों की। चल वो अपनी लेन में ही रहीं थीं। लोग घरों को लौट रहे थे। महिलाएं और पुरुष दोनों थे लौटने वालों में। हमको वसीम बरेलवी साहब का शेर याद आ रहा था जिसमें उन्होंने घरवालियों को समझाया था:
थके हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें
सलीकामंद शाखों का लचक जाना जरूरी है।
यहाँ शाखें और परिंदे दोनों घर लौट रहे थे। कौन लचकेगा। शायद वो जो पहले लौटे। तब शायद शेर इस तरह पढा जाए:
थके हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें,
जो पहले लौट आये, उसका लचक जाना जरूरी है।
बहरहाल हम गाड़ी पर थे। थके नहीं थे। घण्टे भर में करीब घर पहुंच गए। गोल्डन गेट ब्रिज की तीन साल बाद यह हमारी दूसरी यात्रा थी। इस बीच पुल भले ही 3 साल और पुराना हो गया था लेकिन उसकी खूबसूरती और बढ़ गयी थी।
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