Sunday, February 19, 2023

किराया तक नहीं निकला



कल शाम निकले। एक मोबाइल दिखाना था। उसका कैमरा बोल गया है। फोटो नहीं खींचता। न ही वीडियो बातचीत में शक्ल दिखाता है। बहुत दिन से बकाया था काम। हर बार सोचते शनिवार को दिखाएंगे। कई शनिवार निकल गए। मोबाइल बिना कैमरे के ही चलता रहा। हर बार लगता कि बिना कैमरे के मोबाइल किस काम का।
सर्विस सेंटर पास ही था तो पैदल ही निकले थे। गाड़ी से जाने में यह बवाल कि गाड़ी खड़ी कहाँ करेंगे। घर से निकलने पर लगा कहीं सर्विस सेंटर बन्द न हो जाये। यह लगते ही बगल से गुजरते ई रिक्शा को हाथ दिए। हाथ देते ही वह रुक गया। बैठ गए आगे ही। ड्राइवर के बगल वाली सीट ही खाली भी थी। बाकी फुल थी।
बैठते हुए लगा कि यह सुविधा अमेरिका में नहीं है कि सड़क चलते गाड़ी को हाथ दो और बैठ जाओ। वहाँ सब कुछ एप्प भरोसे है।
बैठने के बाद ड्राइवर ने पूछा -'जाना किधर है?' हम बताए कि नोरोना चौराहे जाना है। जहां तक जाओ चले चलेंगे। वो बोला -'सिविल लाइंस जा रहे हैं। अगले चौराहे पर उतार देंगे। वहां से मुड़ना है हमको।'
हमने कहा -'ठीक।'
पैदल चलते तो चौराहा पहुंचने में पांच मिनट लगता। 200-300 मीटर दूर होगा। लेकिन अब जब बैठ गए तो बैठ गए।
ई-रिक्शा के हैंडल पर लगे मीटर में 65-70 लुपलुपा रहा था। शायद करेंट का नाप होगा। दूसरे मीटर में बैटरी का हिसाब था। कितनी बची यह बता रहा था मीटर।
बतियाने लगे तो ड्राइवर ने बताया कि 12 बजे निकला था। साढ़े चार घण्टे हो गए चलाते हुए। अभी तक किराया नहीं निकला है। साढ़े चार सौ रुपया किराया है ई रिक्शा का। दो घण्टे की बैटरी बची है। इसके बाद खड़ा हो जाएगा रिक्शा। सिविल लाइंस से वापस आकर खड़ा कर देंगे चार्जिंग के लिए। अगर न चार्ज किया और कहीं बैटरी खत्म हो गयी तो अकेले धकियांना पड़ेगा रिक्शा।
हमने पूछा -'चार-पांच घण्टे में ही चार्जिंग खत्म हो गई?'
वो बोला -'कुछ पूछो न, सब ऐसे ही है।'
इतना बतियाते हुये हुए चौराहा आ गया। ई रिक्शा वाले ने हमको उतार दिया। हमने पहले से निकाल कर रखा दस रुपये का सिक्का थमा दिया उसको। हमको लगा फुर्ती से वो पांच रुपये वापस करेंगे। पांच रुपये ही दिए हैं पहले इस इलाके की सवारी के।
लेकिन हमको उतार कर अगले ने सिक्का जेब में डाला और कहा -'ठीक।' हमने सोचा पूछें कि पांच रुपये पड़ते थे। अब दस हो गए क्या ? लेकिन हमको उसकी बात याद आ गयी-'किराया तक नहीं निकला अभी तक।'
हम ' ठीक' कहकर आगे बढ़ गए।
काफी देर तक सोचते रहे कि इस तरह अनगिनत लोग रोज छोटे-मोटे काम करते हुए, मेहनत मजदूरी करते हुए जिनमें कई बार उनकी लागत तक नहीं निकलती समाज में जी रहे हैं। बिना किसी शिकवे-शिकायत के। अपना संतुलन बनाये हुए हैं।
और भी बहुत कुछ सोचते रहे। फिर सोचते-सोचते सो गए। अभी लिखते हुए बहुत पुरानी तुकबंदी याद आ गयी:
नर्म बिस्तर,
ऊंची सोचें
फिर उनींदापन।

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