इधर लिखना कम हुआ। कभी-कभी कोई मित्र कहता भी -'क्या बात है। आजकल पोस्ट नहीं आ रही! लिख क्यों नहीं रहे?'
हम कहते -'लिखना है। लिखेंगे। जल्द ही।'
रवि रतलामी जी हमारे ब्लागिंग की शुरुआत के कारक हैं। अभिव्यक्ति पत्रिका में ब्लॉग के बारे में छपा उनका लेख पढ़कर ही हमने ब्लागिंग की शुरुआत की थी। विंडोज़ 98 में तख्ती डाउनलोड करके बड़ी मुश्किल से कुल जमा 9 शब्द लिख पाए थे पहली पोस्ट में-'अब कब तक ई होगा ई कौन जानता है।'
संयोग से इस बात को हुए आज पूरे 19 साल हुए। 19 साल पहले आज के ही दिन रविरतलामी जी की पोस्ट पढ़कर पूरे दिन भर मेहनत करके 20 अगस्त 2004 को ब्लॉग शुरू किया था। नाम रखा था फुरसतिया। इन 19 सालों में तमाम उटपटांग लिखा। उसी में कुछ छंटनी करके 6 किताबें आ गईं। दो-तीन आने की गुंजाइश है। यह सब ब्लागिंग और उसके बाद फेसबुकिया लेखन के चलते हुआ।
रवि रतलामी जी को फोन करके बताया कि लिखना जल्द ही शुरू होगा। इधर लिखना कम होने का कारण घूमने में कमी रही। इधर लगता है लिखना , घुमने पर आश्रित हो गया। घुमाई नहीं तो लिखाई बंद।
यह बात याद आते ही हम घूमने निकल लिये। दिल्ली आए थे आज। शाम को निकले। याद आया कि आज विश्व फोटो दिवस भी है। कुछ फोटो भी खींच ली जाएंगी।
गेस्ट हाउस से निकलते ही चौराहे पर बहते नल में लोग नहाते दिखे। इतनी सुविधा कहाँ मिलती है आजकल। लोग तसल्ली से साबुन मलते हुए सड़क पर पानी बहाते नहा रहे थे।
सड़क पार करते लोग सड़क से गुजरती गाड़ियों और ट्रॉफिक लाइट देख रहे थे। कब लाल हो बत्ती, गाड़ियां रुके और सड़क पार की जाए।
सड़क पर गुजरती गाड़ियों को देखते हुए सड़क पर निगाह गयी। चिटकी हुई सड़क देखकर लगा, सड़क की छाती अपने पर गुजरती गाड़ियों के बोझ से दरक गई हो।
आगे दिल्ली कैंट के बाहर फुटपाथ पर दो ड्राइवर बैठे मोबाइल देख रहे थे। पता चला वे ट्रक पर हरियाणा से सामान लेकर दिल्ली कैंट आये थे। सामान खाली करके वापस जाना है। नो एंट्री जोन रात को खुलेगी। तब जाएंगे आगे। तब तक मोबाइल दर्शन ही सही।
कुछ दूर पर एक बेंच पर तीन लोग बैठे बतिया रहे थे। हम भी बतियाने लगे। पता चला कि बिहार के गया जिले के हैं भाई लोग। यहां मजदूरी करते हैं। ऊंची जाति के हैं। खेती बटाई पर उठाकर दिल्ली कमाई के लिए चले आये हैं। बिहार सरकार से बेहद नाराजगी है। सरकार की अनाज योजना से खुश हैं। राजनीति, जाति और पार्टीबाजी के बारे में इतने रोचक डायलाग मारे कि सुनकर लगा कि बिहार के लोग सही में राजनीतिक रूप से बहुत जागरूक हैं।
आगे एक खम्भा सीधे खड़ा था। दूसरा उसको प्रणाम जैसा कुछ कर रहा था। इसी चक्कर में जड़ से उखड़ गया था। देखकर लगा किसी के भी सामने बहुत ज्यादा झुकने का परिणाम क्या होता है।
टहलते हुए बाजार दिखा। तमाम दुकानें जगर-मगर करती दिखीं। एक फास्ट फूड कार्नर पर लोग तसल्ली से खड़े खाना खा रहे थे। एक लड़का लड़की एक दूसरे से बतियाते हुए एक-दूसरे की आंखों में घुसे जैसे जा रहे थे। लड़की ने लड़के का चश्मा भी उतरवाकर देखा और खुद लगा लिया। इस बीच उनका आर्डर किया हुआ सामान आ गया और वे एक-दूसरे की आंखों में घुसे-घुसे खाने में मशगूल हो गए।
हमको एटीएम से पैसे निकालने थे। एक एटीएम से कोशिश की तो उसने बताया -' कार्ड खराब है।' दूसरे पर गए, उसने पैसे निकाल के थमा दिए। कोई-कोई एटीएम भी झूठ बोलते हैं।
लौटते में पैदल आ रहे थे। अचानक एक ई रिक्शा दिखा। पूछा -'चौराहे तक कित्ते पैसे लोगे?'
'बीस रुपये '- बुजुर्ग ने सर झुकाए हुए पैसे गिनते हुए कहा।
हमने कहा -'दस रुपये लेना।'
'अच्छा बैठो'- कहते हुए बुजुर्ग ने ई रिक्शा स्टार्ट कर दिया।
हम रास्ते भर सोचते आये कि बीस रुपये दे देंगे। इसी बहाने दोनों दस के सिक्के खप जाएंगे जो हर बार पर्स खुलते ही बाहर निकल भागते हैं। लेकिन चौराहे पर पहुचकर शायद हमारी नियत बदल गयी या सिक्के के प्रति प्रेम उमड़ आया। हमने दस रुपये ही दिए।
कमरे में लौटकर खाना खाया। कल सुबह कश्मीर निकलना है। साल भर पहले अकेले गए थे तब कम से कम सौ लोगों ने टोंका था -'अकेले क्यों आये?'
इस बार पत्नी और बेटा भी साथ में हैं। मित्रगण भी। मेरे बेटे Anany Shukla ने अपनी कम्पनी firguntravels.com की तरफ से पहली बार 40 से अधिक उम्र के लोगों के लिए यह ट्रिप प्लान की है। कुल जमा 22 लोग हैं साथ में अगले हफ्ते भर कश्मीर घूमेंगे। आप भी साथ में रहना। मजा आएगा।
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