Saturday, October 05, 2019

बर्फ़ सड़क खा जाती है

भारत के आखिरी गांव थांग से लौटते हुये शाम हो गयी थी। तसल्ली से आराम किये। गेस्ट हाउस में खान-पान का चौकस इंतजामा। मौसम खुशनुमा।

हुंडर में फ़ोन बन्द था। घर में सबको पहले ही बता दिया था - फ़ोन नहीं मिलेगा। जब कभी बहुत जरूरत हुई तो ड्राइवर के फ़ोन से बात कर ली।
हमारे एक अजीज दोस्त से लेह में फ़ोन बात हुई थी। उसने कहा -’सुना है पहाडों पर आसमान में तारे नहीं दिखते। देखकर बताना ऐसा है क्या?’
रात में निकले देखने आसमान। तारे नदारद। कोना-कोना देख लिया। कोई तारा नहीं दिखा। शायद यह उसी दिन की बात हो। लेकिन यह बात पक्के तौर पर कहना मुश्किल कि पहाड़ों पर आसमान में तारे नहीं दिखते।



सुबह पैंगोंग लेक जाना तय था। ड्राइवर ने जल्दी निकल लेने की बात कही। देर होने पर सूरज की रोशनी में बर्फ़ पिघलकर सड़क खा जाती है। रास्ता रुक सकता है। पानी के बहाव से सडक कट जाने की बात तो सुनी थी। लेकिन पिघली हुई बर्फ़ द्वारा सड़क खा जाने की बात पहली बार सुनी। रास्ते में कई जगह देखा भी। पिघली हुई बर्फ़ सड़क खा गई थी। बगल के रास्ते से पत्थरों के बीच से आगे निकले।
रास्ते में कई जगह झरने, नदियां मिलीं। पहाड़ से निकलती नदियां पहाड़ का सहारा लेते हुये धड़ल्ले से बह रही थीं। पहाड़ की दीवार के सहारे नीचे उतरती नदी ऐसी लग रही थी मानों वह कायनात से छुपन-छुपाई खेल रही हो।
जगह-जगह बाइकर्स मिले। हेलमेट धारी बाइकर्स की टोली सड़क पर धड़धड़ाती हुई चलती। जहां सड़क कट गयी थी वहां जैसे पत्थरों के खेत से गुजरते हुये आगे बढे। गिट्टियों के ऊपर गाड़ी हिचकियां जैसी लेती हुई चल रही थी।

रास्ते में कई जगह ढाबे मिले। चयास लगी। लेकिन ड्राइवर जल्दी से जल्दी सारी सड़क नाप लेना चाहता था। किसी अवरोध के आने के पहले वह पैंगोंग पहुंच जाना चाहता था। इसलिये चाय कि इच्छा दुरबुक तक दबानी पड़ी।
दुरबुक पैंगोंग के पहले का बड़ा कस्बा है। चौड़ी सड़क के दोनों ओर ढाबे। मैगी और चाय का सेवन किया गया। इस इलाके में खास तरह की नमकीन चाय मिलती है। उल्टी वगैरह में फ़ायदेमन्द। दुकान महिलायें चलाती हैं। स्मार्ट फ़ोन धारी स्मार्ट महिलायें। सेवा प्रदान करते के बाद मोबाइल में व्यस्त हो जातीं। फ़टाफ़ट सेवा। खुशनुमा एहसास। पहुंचते ही ड्राइवर उनसे स्थानीय बोली में गपियाने लगा। उसकी चाय-नाश्ते के पैसे लेने से मना कर दिया दुकानदारों ने।
दुरबुक से आगे बढने पर याक दिखने लगे। कहीं-कहीं खच्चर-गधे भी दिखे। अकेले चरते हुये गधे अपने में मस्त दिखे। वैसे भी गधे अपने में ही मस्त रहते हैं।
एक जगह गाड़ियां रुकीं थी। हम भी रुक गये। सड़क से थोड़ी दूर मिट्टी के टीलों में बने खोह में नेवले टाइप के जीव दिख रहे थे। लोग उनकी फ़ोटो ले रहे थे। वीडियो बना रहा थे। हम भी जुट गये। मुरमुथ नाम बताया इस जीव का। ये जीव अपने खोह के बाहर ऐसे बैठे हुये थे जैसे कोई अपने घर के बाहर सड़क पर चारपइया डालकर धूप सेंक रहा हो।

मुरमुथ दर्शन के बाद हम लोग पैंगोंग झील की तरफ़ बढे। कुछ देर में पहुंच भी गये वहां। भारत, तिब्बत और चीन के बीच पसरी हुई लेक झील लगभग 134 किमी लम्बी है। जाड़े में झील जम जाती है। झील का पानी एकदम साफ़ । सर्फ़ एक्सेल से धुला हुआ सा। अपनी खूबसूरती का एहसास था शायद पानी को। इसीलिये वह इठलाते हुये झील में लहरा रहा था।
पैंगोंग झील को पहले शायद लेह-लद्दाख को कम लोग जानते थे। थ्री ईडियट फ़िल्म के आखिरी दृश्य इस झील के किनारे फ़िल्माये जाने के बाद झील धुंआधार पापुलर हो गयी। पर्यटकों की संख्या बढ गयी। आसपास के गावों के लोगों का रोजगार बढा । एक लोकप्रिय किताब, एक पापुलर फ़िल्म लोगों की रोजी-रोटी का अवसर भी पैदा कर सकती है।
झील तो वैसी ही बल्कि ज्यादा कहीं बहुत ज्यादा खूबसूरत दिखी जैसी पिक्चर में थी अलबत्ता फ़िल्म में दिखाया गया रैंचों स्कूल इस जगह से सैंकडों किमी दूर लेह में है। फ़िल्म में लेह का स्कूल उठाकर पैंगोंग में धर दिया गया है। लेकिन यह कोई नई बात नहीं। फ़िल्मों में ऐसा तो होता ही है।
लेकिन इन सब बवालों में पड़े बिना हम पैंगोंग झील की खूबसूरती निहारने में जुट गये। आप भी देखिए हमारी निगाह से।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10217747603775296

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