Sunday, November 17, 2019

पोर्टलैंड - फ़ुटपाथ के नुक्कड़ में आशुकवि

 


’पावेल बुक स्टोर’ के अन्दर जाने के पहले वहीं फ़ुटपाथ के नुक्कड़ पर एक खूबसूरत नौजवान बैठा था। खूब गोरा रंग ! बढिया चकाचक बढी हुई दाढी। गोल शीशे वाला चश्मा। कपड़े से ठंके तीन पाये वाले स्टूल पर धरा छुटका सा टाइपराइटर । टाइपराइटर के सामने एक कागज पर लिखा हुआ पोस्टर – ’गिव वर्डस गेट ए पोयम’। मतलब ’तुम हमें शब्द हो, तुमको कविता देंगे।’
अमेरिका में अब तक फ़ुटपाथ के कोनों पर चाय/काफ़ी की दुकानें देखीं। असहाय होमलेस लोग बैठे दिखे। बसों के एजेन्ट दिखे। पुलिस वाले दिखे। लेकिन फ़ुटपाथ के नुक्कड़ पर कवि पहली बार दिखी। लेकिन दिये शब्द पर कविता रचना तो आशुकविता हुई इसलिये कवि की जगह आशुकवि पढा जाये।
आशुकवि से बतकही की उत्सुकता के चलते हम उनसे बतियाये। बेन बर्नथल है कवि का नाम। पेशे से अंग्रेजी के अध्यापक हैं। स्वीडिश भी जानते हैं। किसी जगह बैठकर लोगों के दिये हुये शब्दों पर कवितायें बनाते हैं।
आशु कविता घराने की इस तरह की कवितायें शायद तुकबंदी घराने की होती हैं। अपने यहां आशुकविता का बहुत समृद्ध इतिहास रहा है। कुछ कवि तो आशुकविता में संचालन करते रहे हैं। इसके लिये कवि का बहुपाठी होना, शब्दसंपदा युक्त होना और भावों के जोड़-तोड़ में महारत होना आवश्यक होता है। इस तरह के अनेक सिद्ध आशुकवि हुये हैं। एक नाम मुझे स्व. बृजेन्द्र अवस्थी का याद आता है। आज के कवियों में अशोक चक्रधर जी अपनी पहले से लिखी हुई कविताओं के अलाव मंच पर जिस तरह मुक्त छंद वाली आशुकविता में बातचीत करते हैं वह जबरदस्त है।
व्यंग्य में भी कुछ लोग व्यंग्य के नाम पर आशु व्यंग्य लिखते हैं। शब्दों की तुक मिलाते हुए शानदार ड्रिबलिंग करते हैं। व्यंग्य को रौंदते हुए लेख के पोस्ट पर गोल कर देते हैं।
दिये हुये शब्द पर कविता लिखने में तो सोचने का समय होता है इसके मुकाबले आशुकवि के पास बहुत कम समय होता है अपनी बात कहने का। लेकिन टाइपराइटर पर लिखने में कोई शब्द गड़बड़ हो जाने पर ठीक करने की गुंजाइश कम होती है। इस लिहाज से बेन का काम काफ़ी चुनौती भरा है।
बेन दिये शब्दों पर कविता लिखने के इस काम को शौकिया करते हैं लेकिन उनका काम करने का अंदाज ऐसा है कि इससे उनको पैसे भी मिलते हैं। कविता लिखाने वाले जो मन आता है वह उनको देते हैं। अपने इस प्रोजेक्ट को उन्होंने नाम दिया है –स्ट्रेन्जर्स पोयम्स प्रोजेक्ट। उनकी साईट https://www.strangerspoemsproject.com/ में उनके द्वारा लिखी तमाम कवितायें मौजूद हैं।
आमने-सामने बैठकर कविता लिखने के अलावा बेन आर्डर पर भी कवितायें लिखते हैं। इस साइट में एक फ़ार्म है जिसमें आप अपने द्वारा चुने हुये शब्द , अपना नाम, मेल पता , जिसके लिये कविता लिखाना चाहते हैं उसका नाम भेज दें तो बेन उसके अनुसार कविता लिखकर भेज देते हैं। इस फ़ार्म के साथ भुगतान की व्यवस्था भी है जिसके माध्यम से कविता के आर्डर के साथ भुगतान किया जा सकता है।
बातचीत करने पर पता चला कि बेन तीन साल से यह काम कर रहे हैं। अभी तक हजार के करीब कवितायें लिख चुके हैं। व्यस्त दिन में 20-25 तक कवितायें लिखते हैं। कभी पांच-छह लोग ही कवितायें लिखवाते हैं।
कविता पैसे के लिये लिखते हैं या शौक के लिये यह सवाल पूछने पर बेन ने कहा कि मूलत: तो उनका यह शौक है। लेकिन कमाई भी होती है तो शौक और अच्छा लगता है। बेन ने बड़ी अच्छी बात यह कही कि कलाकार को अपनी कला में महारत हासिल करने के लिये नियमित अभ्यास तो करना ही चाहिये। रियाज से कला निखरती है। इसीलिये वे नियमित कविता लिखते हैं।
प्रभा ने बेन को चार शब्द दिये कविता लिखने के लिये। बेन ने कहा –’आप लोग किताब की दुकान से बाहर आइये तब तक हम कविता लिख लेंगे।’
हम लोग वापस पहुंचे तो बेन कविता लिख चुके थे। टाइप की हुई कविता के नीचे हस्ताक्षर करके बेन से दे दिया।उन्होंने कविता के लिये कोई मांग अपनी तरफ़ से नहीं की लेकिन इंद्र ने बेन को दस डालर कविता रचना के लिये दिये।
बेन से हमने कोई कविता तो नहीं लिखवाई लेकिन उनकी बातचीत से सीख ग्रहण की - 'कला के निखार के लिए नियमित अभ्यास जरूरी होता है।'
यह अनूठा प्रयोग अपने यहां चल सकता है क्या? शायद नहीं। आपको क्या लगता है?

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सैनफ्रांसिस्को में सुबह


सबेरे के 6.35 हुए हैं अभी। सैनफ्रांसिस्को में सुबह हो रही है। बेटे के घर में हैं हम लोग। सब सो रहे हैं। केवल सूरज भाई जाग रहे हैं। आसमान में अपना दरबार लगाये बैठे हैं। हमेशा कहीं न कहीं उनका दरबार लगा रहता है। मोबाइल दरबार है उनका। भारत से उठे तो अमेरिका में गद्दी जमा ली। अमेरिका में शटर गिराया तो भारत मे दुकान खुल गयी। इस बीच दुनिया भर में टहलते हुए मौका मुआयना करते रहते हैं। वो नन्दन जी की कविता है न :

"जिसे दिन बताए दुनिया, वो तो आग का सफर है
चलता है सिर्फ सूरज, कोई दूसरा नहीं है।"
हमने सूरज जरा बाहर टहल के देखा जाए। लेकिन बाहरवीं मंजिल से नीचे सड़क एक दम नींद में सोई हुई है। अंगड़ाई तक नहीं ले रही। इतवार का दिन है। लगता है पूरा शहर जी भर कर सो लेना चाहता है।
यह भी सोचा कि जरा बाहर टहल के आएं। देखें किसी नुक्कड़ पर चाय की दुकान खुली हो तो पीकर आएं। लेकिन याद आया कि यहां कोई नुक्कड़ पर दुकान नहीं लगती। जो दुकाने हैं भी वो भी दफ्तर की तरह दस - ग्यारह के बाद खुलतीं हैं। ये भी कोई शहर है यार जहां आदमी सड़क पर चाय पीने को तरस जाए। कानपुर में तो इतनी सुबह सैंकड़ों जगह गुमटियां गुलजार हो चुकीं होंगी। लोग हज्जारों कप चाय पीकर कुल्हड़, ग्लास सड़क पर फेंक चुके होने। लाखों मक्खियां कुल्हड़ पर बची चाय पर टूट पड़ीं होंगी।
कल यहां मोतीलाल के लोगों का दिवाली मिलन हुआ। जिस जगह हम रहते हैं वहां से करीब 60 मील दूर। मतलब नब्बे किलोमीटर। 33-34 साल पुराने दोस्तों से मिलने का लालच हमको वहां ले गया। बहुत दिन बाद तमाम लोगों से मिलना हुआ।
देबाशीष राय Debu Roy मिलन के आयोजक हैं। हमारे घुसते ही उन्होंने घोषणा की -'अनूप शुक्ल अपने परिवार सहित आ गए हैं। उनका स्वागत है। लेकिन इस बार वे साइकिल से नहीं आये फ्लाइट से आये हैं।'
कई लोगों को हमारी साइकिल यात्रा की बात याद है। हम 1983 में साइकिल से इलाहाबाद से कन्याकुमारी गए थे। कालेज के कई साथियों ने आर्थिक सहयोग भी दिया था। कई लोगों के यहां ठहरे भी थे हम लोग। तीन महीने कालेज गोल करके घूमना भी मजेदार अनुभव था।
देबाशीष से मिलकर याद आया कि जब हम कालेज से निकल रहे थे तो उसने मुझे जान रीड की किताब भेंट की थी। किताब का नाम था -'दस दिन जब दुनिया हिल उठी।'
देबाशीष ने किताब भेंट करते हुए लिखा था -' To the genious who does not realize his worth.'
मतलब ऐसे प्रतिभावान के लिए जिसको अपनी कीमत नहीं पता।
हमको पढ़कर अच्छा लगा कि कोई हमको जीनियस भी समझता है। लेकिन हमको फिर याद आया कि विदाई के समय इस तरह की बातें कहना- लिखना शिष्टाचार होता है। यह याद आते ही हम सहज हो गए। वैसे भी देबू अंग्रेजी के बढ़िया वक्ता थे। शानदार बातें लिखना उनके लिए कौन कठिन काम।
बाद में उस किताब को कानपुर की अलमारी में जमी दीमकों ने अपना भोजन बनाया। हमारे लिए लिखा एक हसीन जुमला इस कायनात से विदा हुआ।
मिलने का दूसरा लालच मेरे लिए ज्योति पांडे जी Jyoti Pande से मिलना था। ज्योति जी हनसे एक साल सीनियर थे। कॉलेज से निकलकर वे टेल्को , जमशेदपुर गए थे। हम वहां एक महीने की ट्रेनिंग के लिए गए पहुंचे तो रहने का कोई ठिकाना नहीं। पांडेय जी की भी नई ज्वाइनिंग थी। कोई जुगाड़ नहीं। अंततः हम उनके हॉस्टल के कमरे में बिस्तरबंद जमा के रहे। उनके साथ उनके ही बैच के कमलजीत जी थे। हॉस्टल की महिला वार्डन की निगरानी से बचते-बचाते कैसे वहां रहे यह फिर से याद करना मजेदार रहा ।
पांडेय जी गाना बहुत बढ़िया गाते हैं। लेकिन उससे अच्छी उनकी मिमिकरी और स्किट है। लोगों की हूबहू नकल उतारने में उनको महारत हासिल है। 33 साल बाद मिलना हुआ था उनसे। मिलते ही बीच का समय मिलने की गर्मजोशी में कपूर सा उड़ गया। इसके बाद तो हम लोग थे थे हमारी यादें थीं। बाकी सबको हमने तखलिया कह कर फुटा दिया।
दिवाली मिलन में मोतीलाल के तमाम लोगों से मिलना हुआ। सीनियर बैच के पंकज माथुर जी से मिले। उनके बैच के प्रदीप गुप्ता जी हमारे यहां हमारे सीनियर है। जो भी मिला उसने अपने हिस्से की यादें साझा कीं। एक ने मोबाइल पर कालेज के पीछे की सड़क पर बना फ्लाई ओवर दिखाया और कहा - 'यहां हम चाय पीते थे। अब यह सब बन्द हो गया।'
हिंदुस्तान के भी सबके अपने-अपने हिस्से के किस्से हैं। लोगों ने उनको फिर से साझा किया। पुरानी यादें लोगों के लिए इनहेलर की तरह होती हैं। सूंघते ही हाल चकाचक हो जाते हैं।
हमारे पहुंचते ही वहां हाउजी शुरू हो गयी। लेकिन अपन उस लफड़े में नहीं पड़े। ज्योति पांडे जी से तमाम यादें साझा करते रहे। हमसे जूनियर बैच की गीतू कानपुर की थी उनसे और उनके पति से गप्प लड़ाते रहे। उनके बाद के बैच की प्रीति ने बताया कि उनके पापा 87 साल की उम्र में एम टेक करने लिए गेट का इम्तहान दे रहे हैं। सुनकर बहुत अच्छा लगा। लगा कि पढ़ने सीखने की ललक का उम्र से कोई ताल्लुक नहीं।
हाउजी के बाद लोग खाने पर टूट पड़े। खाने के बाद बचा हुआ घर के लिए भी पैक करवाया गया। अन्न की बर्बादी नहीं होनी चाहिए। हमको आज कहीं निमंत्रण है इसलिए हम बांधकर नहीं लाये खाना।
खाने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम था। पांडे जी का भी गाना था। लेकिन देर हो रही थी इसलिए हम लौट आये। पांडे जी ने बाहर तक साथ आये। यह भी कहा कि वे गाना भेज देंगे।
रात लौट के आये। सो गए। सुबह हुई। उसके बारे में बताया ही। अब साढ़े सात बजे गए हैं। सूरज भाई का जलवा और बढ़ गया है। उन्होंने पूरे आसमान पर कब्जा कर लिया है। कह रहे हैं -'उठो, कब तक पड़े रहोगे काहिलों की तरह।चाय - वाय बनाओ। हमको भी पिलाओ।'
हम जाते चाय बनाने। तब तक आप मजे करिये।

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Saturday, November 16, 2019

पोर्टलैंड- मल्टनोमाह फ़ॉल की सैर


सुरेंद्र Surendra Gupta के यहां से देर रात लौटे। थके थे। सोये तो फ़िर सुबह ही नींद खुली।

सुबह उठते ही कई चाय के दौर चले। इंद्र Indra के बेटे देवांशु खुद चाय नहीं पीते लेकिन बनाते बढ़िया है। उनके इस हुनर की तारीफ करते हुए उनका जमकर शोषण किया गया। कई बार 'बढ़िया चाय' बनवाई गई।
तारीफ अक्सर मोहब्बत के साथ शोषण की आधारशिला होती है।
चाय के दौर के बाद प्रभा( श्रीमती इंद्र अवस्थी) को लेने एयरपोर्ट गए। बिटिया डिम्पी सर्विस करती हैं। बिटिया को बाहर का खाना-पीना उतना जमता नहीं इसलिए बिटिया की मम्मी अक्सर बिटिया के साथ रहती हैं। उसी तरह जैसे अपने यहां कोटा से इंजीनियरिंग की कोंचिंग करने वाले बच्चों की मम्मियां उनके साथ रहती हैं।


प्रभा ने आते ही घर का मोर्चा संभाला। चाय से शुरु करके नाश्ते, खाने के मोर्चे पर जमकर बैटिंग की। खूब रन बटोरे। हम लोग भी न , न करते हुए खाने-पीने में लगे रहे। प्रभा को हर काम के पूरे नम्बर मिलते रहे। वो भी यात्रा की थकान किनारे करके जुटी रहीं।
दोपहर के करीब हम घूमने निकले। शहर से बाहर निकलते ही मौसम सुधर गया। आशिकाना टाइप। धूप गुलजार हो हो गयी। जिधर देखो उधर हरियाली। समझ लीजिए मौसम एकदम अंगेजी में 'आसम ' मतलब कातिलाना हो गया।
शहर से निकलते ही सामने बर्फ से ढंकी कुछ चोटियां दिखने लगीं। लगा एक बार फिर लेह-लद्दाख पहुंच गए। इंद्र ने बताया कि पहाड़ की चोटी के पास ही ज्वालामुखी हैं।


इनमें से एक सेंट हेलन ज्वालामुखी जीवित ज्वालामुखी है। पोर्टलैंड से 50 मील दूर उत्तर-पूर्व में। यह आखिरी बार यह 18 मई, 1980 को फटा था। विस्फोट में 57 लोग मारे गए । विस्फ़ोट के बाद ज्वालामुखी की ऊंचाई 9677 फुट से घटकर 8363 फुट हो गयी। शायद विस्फ़ोट से 57 लोगों को निपटा देने की सजा मिली हो। क्या पता इस सजा के चलते ही ज्वालामुखी उसके बाद नहीं फटा।
दूसरा ज्वालामुखी माउन्ड हुड भी शहर से 50 मील दूर है। पूर्व में। जाते देखने तो घण्टे भर में किसी भी ज्वालामुखी तक पहुंच जाते। लेकिन गए नहीं।मारे डर के। क्या पता हमको देखकर ही उनकी भुजाएं फड़क उठतीं। कोई फट जाता। तो अमेरिका वाले हमको दोष देते। बिना बात के हम बुरे नहीं बनना चाहते थे। इसलिए हम उधर नहीं गए। माल्टोना झरना देखने चल दिये।


620 फुट ऊंचा मल्टनोमाह झरना अमेरिका का दूसरा सबसे ऊंचा झरना है जिसमें साल भर पानी बहता है।झरने का नाम विलायमत नदी के मुहाने पर रहने वाले अमेरिका के चिनूकन कबीले से जुड़ा है। मन्टोना मतलब नीचे बहने वाली नदी। झरने में 75 गैलन/सेकेंड से लेकर 7500 गैलन/सेकेंड पानी बहता है। ओरेगन प्रांत में स्थित इस झरने को हर साल करीब 20 लाख लोग आते हैं।
झरने के रास्ते में कई जगह दर्शनीय स्थल दिखे। गांव भी दिखे। लेकिन गांव का मतलब अपने यहां के गांव जैसे नहीं कि 50-100 घर बनें हो। झोपड़ियां हों। पनघट हो। गोबर पाथने के लिए गोबर हो। पुआल हो। जाति के हिसाब से अलग-अलग टोले हों। जाति बाहर शादी पर कत्ल होते हों।


अमेरिका के गांव सड़क किनारे ही होते हैं। हर तरह की न्यूनतम सुविधाओं से युक्त । बिजली, पानी, फोन की सुविधा से लैस। किसानों के पास सैकड़ों एकड़ जमीन होती है। ट्रेक्टर और अन्य सुविधा सहित। पूरी खेती यंत्रों के साथ करने के लायक होती है। यह नहीं कि धान रोपाई के समय कहीं से मजदूर आ रहे हैं, गेंहू कटाई के समय भी। सब काम खुद करने की सुविधा से युक्त होते हैं यहां के किसान। यहां किसान 'ग्राम देवता नमस्कार'वाला दीन हीन प्राणी नहीं होता। चकाचक साधन युक्त नागरिक होता है। उनके रहन सहन को देखकर लगा कि कम से कम कर्ज चुकाने में असमर्थ रहने पर यहां कोई किसान आत्हत्या नहीं करता होगा।
सड़क किनारे कुछ गांवों के पास से गुज़रते हुए हमने घरों के बाहर खड़े ट्रैक्टर देखे। अस्तबलों में हिनहिनाते हट्टे-कट्टे घोड़े देखे। झुंड में चरती गायें देखी। एक जगह सड़क के एकदम बगल में खेत में बंद गोभी की क्यारियां दिखीं। उनमें सैकड़ों बन्द गोभियां धूप-स्नान कर रहीं थीं।


हमारे अगल-बगल कोलंबिया नदी बह रही थी। साफ नीला पानी। कुछ जगहों पर पिकनिक स्पॉट टाईप बने थे। ऐसी जगहों पर रुककर लोग फोटो खींच रहे थे। शहर से बहुत दूर इन स्थानों पर गाड़ियों की पार्किग के लिए मार्किंग बनी थी। लोग उनमें ही अपनी गाड़ियां खड़ी कर रहे थे।
एक जगह हमने खड़े होकर भी फोटो खिंचाई। हमारे वहां रहते दो बुजुर्ग , शायद रिटायर्ड, महिलाएं वहां आईं। हम लोगों के अनुरोध पर उन्होंने हमारी फोटो खींची। फिर अपनी भी खिंचवाई। धन्यवाद का हिसाब बराबर हुआ। महिलाएं चहकती हुई गाड़ी में बैठकर चलीं गयीं। अमेरिका में महिलाओं का यह अकेले घूमने का आत्मविश्वास आम बात है। अपने यहां शहर से इतनी दूर महिलाओं का अकेले घूमने जाना अभी उतना सहज और आम नहीं हो पाया है।
मल्टनोमाह फ़ॉल पर पहुंचकर गाड़ी से उतरे। कसकर अंगड़ाई ली। बदन तोड़ा- मरोड़ा। फिर हाथ-पैर झटककर रेस्टरूम में हल्के हुए। इसके बाद झरने के दर्शनार्थ गम्यमान हुए।


झरना स्थल पर रेस्ट रूम, गिफ्ट सेंटर, काफी-नाश्ते के साथ-साथ झरने से सम्बंधित जानकारी प्रदान करने के लिए सहायता केंद्र भी था। सहायता केंद्र में स्वयंसेवक भी थे जो लोगों को उत्साह पूर्वक जानकारी दे रहे थे। आसपास के झरने के बारे में जानकारी और उसके बारे में फोटो एलबम भी था वहां।
गिफ्ट सेंटर की बात चली तो बतातें चलें कि जैसे अपने यहां हर मंदिर पर फूल-माला या प्रसाद की दुकान होती है वैसे ही यहां हर दर्शनीय स्थल/स्मारक पर गिफ्ट सेंटर अवश्य होता है। देखकर निकलो तो याद के रूप में कुछ न कुछ लेते जाओ। यह अलग बात कि हम मंदिर में प्रसाद चढ़ाने के लिये उतावले नहीं रहते हैं । यह आदत अभी तक यहां भी बनी हुई है। हर गिफ्ट सेंटर से अभी तक बेदाग, बेख़र्च सलामत बाहर आते रहे।
झरने के चारों तरफ ऊंचे पेड़। झरना एकदम अनुशासित बच्चे सा ऊपर से नीचे बह रहा था। तेज चलती हवा उसको इधर-उधर भटकाने की कोशिश कर रही थी। लेकिन शरीफ झरना हवा के बहकावे में आये बिना बिना किसी भटकाव के ऊपर से नीचे बहता रहा।
झरने के पास खड़े होकर लोग फोटो खिंचाने में जुटे हुए थे। हम भी लग लिए। कई पोज में फोटो खिंचाई। सब लोगों की साथ फोटो खिंचाने के लिए वहां मौजूद लोगों से 'एक्सक्यूज मी' और 'थैंक्यू वेरी मच' के हथियार का उपयोग फोटो खिंचाये गए।
वहां दो युवा पुरुष हाथ में हाथ डाले टहल रहे थे। साथ के लोगों ने घोषणा की कि जोड़ा समलैंगिक है। उनके साथ एक छोटा बच्चा भी था। हनारा सवाल यह था कि अगर यह जोड़ा समलैंगिक है तो बच्चा किसका होगा?
हमारे सवाल का जबाब यह आया कि किसी का भी हो सकता है बच्चा, हो सकता है कि गोद लिया हो लेकिन यह पक्का है कि जोड़ा समलैंगिक है। उनके हाव-भाव बताते हैं।
अमेरिका में समलैंगिक होना अपराधबोध या 'लोग क्या कहेंगे ?' घराने के सवालों से मुक्त है। लोग खुलकर स्वीकर करते हैं और सहज जीवन जीते हैं। पुरुष समलैंगिक जोड़े में दोनों लोग अपने साथी को 'माई हसबैंड' कहते हैं। इसी तरह 'महिला समलैंगिक' दोनों लोग एक-दूसरे की 'माई वाइफ' होते हैं।
भारत में कानूनन समलैंगिकता अपराध न होने के बावजूद सामाजिक रूप से इसे सहज स्वीकृति नहीं मिली है। ऐसे जोड़े महानगरों में भले आराम की जिंदगी जी सकें लेकिन छोटे जगहों में छिपकर, छिपाकर ही जीते हैं। 'अलीगढ़ टाइम्स' पिक्चर में इस समस्या के बारे चित्रण है जिसमें सामाजिक तिरस्कार के चलते समलैंगिक प्रवृत्ति का प्रोफेसर अंततः आत्महत्या कर लेता है।
कुछ देर वहां रहने के बाद अपन लोग वापस लौटे। सड़क बहुत दूर तक कोलंबिया नदी के साथ चलती रही। नदी मानो सड़क के साथ-साथ भागती चली। साफ नीला पानी धूप में क्यूट एन्ड स्वीट च लग रहा था।
एक जगह नदी किनारे खड़े होकर फोटो खींचे। हवा इतनी तेज चल रही थी कि मेरा पूरा शरीर हवा में पतले बांस की तरह हिल रहा था। बहुत तेज हवा शरीर को ऐसे हिल रही थी मानो गिरहबान पकड़कर झकझोर रही हो मुझे। फोटो खींचने के लिए मोबाइल कैमरा पकड़े हाथ इतनी तेज आगे-पीछे हो रहे थे कि अगर मोबाइल छोड़ देते तो वह न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के नियम के अधीन नीचे गिरने की बजाय सीधे मेरे दांत तोड़कर गिरा देता। न्यूटन गुरुत्वाकर्षण बल की बेइज्जती खराब हो जाने से बचाने के लिए हमने कैमरा इतनी तेजी से पकड़ा जितनी तेजी से गठबंधन सरकारें अपने निर्दलीय विधायकों को मंत्रीपद आदि देकर जकड़कर रखती हैं। फोटोबाजी करके हम आगे बढ़े। शाम होने से पहले पोर्टलैंड लौट आये।

किताबों की दुनिया की सबसे बड़ी दुकान में

 

मन्टनोवाह झरने से लौटते हुये शाम हो गयी थी। पेट भूख के हूटर लगातार बजा रहा था। क्या खायें-क्या न खायें के शाश्वत चिंतन के बाद स्टारबक्स पहुंचे। लाटे चाय पी गई। यह चाय हम लोगों की चाय के सबसे नजदीकी होती है। स्टारबक्स की चेन पूरे अमेरिका में है। जगह-जगह इनकी दुकाने मौजूद हैं। स्टारबक्स में इंटरनेट मुफ़्त होता है। आप आइये, दिन भर बैठिये, चाय-काफ़ी पीजिये चाहे न पीजिये। मुफ़्त इंटरनेट सुविधा का उपयोग कीजिये। लोग घंटों यहां बैठे रहते हैं, अपना काम करते हैं। कोई रोक-टोंक नही।
इसी सम्बन्ध में एक मजेदार घटना। 4 जुलाई को स्टारबक्स के एक कैफ़े के एक कर्मचारी ने एक ग्राहक की शिकायत पर कैफ़े में मौजूद पुलिस अधिकारियों से अनुरोध किया कि या तो वे वहां से चले जायें या ऐसी जगह बैठें जहां से वे ग्राहकों के सामने न पड़ें। इस पर बवाल हुआ। आफ़ीसर्स एशोसियेशन ने इस घटना के खिलाफ़ लिखा। स्टारबक्स के बायकाट का अनुरोध किया। फ़िर स्टारबक्स के सीईओ ने लिखित माफ़ी मांगकर मामला रफ़ा-दफ़ा किया।
इस घटना में अपने देश के नजरिये से कुछ बातें मजेदार हैं। अपने यहां किसी ग्राहक की हिम्मत नहीं होगी कि कैफ़े में आये पुलिस के लोगों की उपस्थिति पर एतराज करे। करे भी तो कैफ़े के कर्मचारी की हिम्मत नहीं होगी कि पुलिस वालों से कहे कि भाई साहब आप निकल लें या फ़िर ऐसी जगह बैठें जहां से ग्राहकों को तकलीफ़ न हो। इसके बाद पुलिस भी अपनी एशोसियेशन की तरफ़ से लिखने की बजाय फ़ौरन कैफ़े के मालिक को पकड़कर थाने ले जायेगी और अन्दर करके त्वरित न्याय की तरफ़ बढेगी। लेकिन यह अमेरिका है भाई यहां लोग लिखा-पढी में ज्यादा भरोसा करते हैं।
पोर्टलैंड में टहलते हुये आसपास की इमारतें देखी गयीं। पोर्टलैंड का खुला मंच देखा जहां अक्सर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते रहते हैं। हजारों लोग बैठकर देखते हैं। उसके सामने ही पोर्टलैंड का ’द पायनियर कोर्टहाउस’ है। मंच के पास ही पोर्टलैंड के मौसम को चित्रित करते हुये एक मूर्ति है। पोर्टलैंड में साल भर बारिश होती रहती है। इसलिये घर से निकलिये तो छाता साथ में हो। मूर्ति में इसी भाव को दिखाते हुये एक व्यक्ति छाता लिये खड़ा है। यह यहां की ’सिग्नेचर मूर्ति’ है।

मूर्ति के साथ खड़े होकर हम सबने फ़ोटो खिंचाई। हमने ’कट्टा कानपुरी’ का कातिलाना शेर याद किया:
तेरा साथ रहा बारिशों में छाते की तरह
कि भीग तो पूरा गये पर हौसला बना रहा।
पोर्टलैंड में कलकत्ते की तरह ट्राम भी चलती है। सड़क किनारे पटरियां हैं। उन पर ट्राम। हमारे सामने ही एक ट्राम आई। यात्री उतरे- चढे।
यह सब तो ठीक लेकिन पोर्टलैंड का सबसे बड़े आकर्षण से मुलाकात तो अभी बाकी थी। यह आकर्षण है यहां का ’पावेल बुक स्टोर।’ इसको देखने सबसे बाद पहुंचे।
’पावेल बुक स्टोर’ https://www.powells.com/ दुनिया में नई और पुरानी किताबों की सबसे बड़ी दुकान कही जाती है। ’पावेल सिटी आफ़ बुक्स’ के नाम से मशहूर यह किताबों की दुकान अनूठी है। तीन मंजिला इमारत में स्थित इस दुकान में नौ अलग तरह के कलर कोड वाले कमरे हैं। इनमें भी 3500 सेक्सन हैं। ये नौ कलर कोड अलग-अलग तरह की कैटेगरी की किताबों के हिसाब से हैं। साहित्य, कानून, इंजीनियरिंग मतलब कि तरह-तरह की किताबें।

1971 में वाल्टर पावेल ने इस पावेल बुक्स की शुरुआत की। इसके बाद उनके बेटे और फ़िर बेटे की बेटी न काम संभाला। फ़िलहाल काम इमली पावेल देखती हैं। तीसरी पीढी चला रही है यह दुकान। आज के समय में पांच दुकाने हैं इनकी। पांच सौ कर्मचारी। किताबों की दुकान से आमदनी की बात करने पर लोग शर्माते हैं। पावेल्स की 2009 की कमाई 4.5 करोड़ रही।
पावेल बुक स्टोर में घुसे तो सबसे पहले ही सूचना केन्द्र मिला। यहां दुकान के बारे में जानकारी मिली कि नौ रंग वाले अनुभागों में कैसी किताबें हैं। सबमें बारी-बारी से टहले। किताबों को अलट-पलटकर देखा। पढने का नाटक करते हुये फ़ोटो खिंचाये। दुकान में जगह-जगह बेंच भी रखी हुईं थी जिन पर बैठकर लोग किताबें पढते दिखे। दुकान में पुरानी किताबें भी थीं बिकने के लिये।
शुरुआत में ही एक नोटिस बोर्ड पर हालिया बड़े इनाम पायी किताबों और उनके लेखकों के नाम लिखे हुये थे। इनमें नोबल पुरस्कार , बुकर पुरस्कार आदि से सम्मानित लोगों और उनकी किताबों के नाम थे। पावेल बुक स्टोर में ’लेखक से मिलिये’ कार्यक्रम भी होते हैं। इसमें लेखक को बुलाया जाता है। उसकी किताब पर बात होती है। सवाल-जबाब किये जाते हैं। लेखक पाठकों/दर्शकों से अपनी बात कहता है। उनके सवालों के जबाब देता है।
पावेल बुक स्टोर में एक जगह कार की मरम्मत की सूचना का बोर्ड लगा था। पता किया तो मालूम हुआ कि पहले यहां कारों की मतम्मत होती थी। कभी का गैराज आज किताबों की दुकान है।

पावेल बुक स्टोर को देखते हुये हमको अपने यहां किताबों की दुकानों की स्थिति याद आई। कानपुर में ’करेंट बुक स्टाल’ साहित्यिक पुस्तकों का सबसे बड़ा स्थल है। उनकी किताबों की बिक्री का यह हाल है कि स्कूली मौसम में साहित्यिक किताबें बेंचना स्थगित करके स्कूलों की किताबें बेंचते हैं। वैसे इस तरह की दुकाने चलते रहने के लिये इनका आर्थिक पहलू भी मजबूत होना चाहिये। इस लिहाज से स्कूलों की किताबें भी बेंचना कोई गड़बड़ काम नहीं। आर्थिक स्थिति ठीक रहेगी तभी साहित्य सेवा हो सकेगी।
दिल्ली की फ़ुटपाथों वाली दुकान बन्द होने की सूचना आ ही गयी। किताबों की बिक्री कम हो रही है। ऐसे में ऐसी दुनिया की सबसे बड़ी किताबों की दुकान देखना अद्भुत अनुभव रहा।
दुकान से निकलते हुये हमने सोचा कि एकाध किताब भी लेते चलें। हमने ’2019 के बेस्ट अमेरिकन एस्से’ किताब छांटी। सोचा जरा देखा जाये कि इनके सबसे बढिया लेख कैसे हैं। इसके बाद गैबरियल मार्खेज की किताब ’लव इन द टाइम आफ़ कालरा’ दिख गयी। सेकेंड हैंड किताब 8.95 डालर में मिली। नई के दाम 12.95 डालर लिखे हैं। यह किताब हमने साल भर से भी पहले नेट से डाउनलोड की है लेकिन अब तक अनपढी है। क्या पता अब पढ ही ली जाये।
इसके बाद ओरहम पामुक की किताब ’द रेड हेयर्ड वूमेन’ ली। हम ओरहम पामुक की सबसे प्रसिद्द किताब खोज रहे थे लेकिन नाम नहीं याद आ रहा था। काउंटर पर पता किये तो वह वहां ले गया जहां ओरहम पामुक की किताबें रखी थीं। इंद्र अवस्थी ने खोजी तो पता चला हम उनकी किताब ’इस्तन्बुल द मेमोरी एंड द सिटी’ खोज रहे थे। किताब अवस्थी ने खोजी थी इसलिये बोले –’पैसे भी हम ही देंगे।’ बाद में किताब जबरदस्ती हमारे सामान के साथ लाद दी। इस जबरदस्ती से याद आया कि स्टारबक्स में काफ़ी के पैसे भी उन्होंने ही यह कहकर दिये कि उनको वहां यहां छूट मिलती है। हम मान गये लेकिन बनाया तो बेवकूफ़ ही हमको। वैसे ऐसे बेवकूफ़ बनने का भी मजा है। दुनिया ऐसे बेवकूफ़ बनाने वालों के चलते ही खुशनुमा है।
किताबों की दुकान से निकलकर हम रात को घर पहुंचे। खाते-पीते-गपियाते हुये सो गये।

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Thursday, November 14, 2019

व्हाइट हाउस के सामने - डोनाल्ड ट्रंप हाय-हाय


'एयर और स्पेस म्यूजियम' देखने के बाद हम लोग लन्च के लिए होटल तलाशने निकले। विनय जैन की गाड़ी साथ होने के चलते थकना नहीं पड़ा। खाली समस्या पार्किंग की थी थोड़ी। वह भी उस दिन छुट्टी का होने के चलते बिना किसी लफड़े के पार्किंग मिलती गयी।

पार्किंग की व्यवस्था सड़क किनारे ही थी। एक जगह गाड़ी खड़ी करके हम लोग शाकाहारी भोजनालय गए। शाकाहारी भोजन में मेक्सिकन भोजन 'चिपोटले' काफी चलन है इधर। 'चिपोटले' चावल, राजमा, दाल और कुछ सब्जी आदि (जिसमें ब्रोकली भी होती है) मिलाकर बनता है। ऐसा समझ लिया जाए कि घर में दाल-भात-सब्जी के साथ सब बचा हुआ खाना गरमा के इकट्ठे परस दिया जाए तो वही चिपोटले हुआ। इसकी खासियत यह बताई जाती है कि इसको बनाने में केवल प्राकृतिक तत्वों का इस्तेमाल होता है।
खाने के पैसे हमने देने की कोशिश की। लेकिन विनय जैन न जबरियन जबर मेजबान की भूमिका पकड़ ली और हमको खर्च के अधिकार से वंचित कर दिया। हमसे सीनियर ब्लागर होने के नाते हमने विनय की बात ख़ुशी-खुशी मान ली।


खाना खाने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति भवन व्हाइट हाउस देखने गए। सफेद पत्थर की बनी इमारत कोई इतनी भव्य नहीं दिखी जितना इसका जलवा है। अपना राष्ट्रपति भवन ज्यादा शानदार लगता है।
व्हाइट हाउस सामने से पूरा दिख भी नहीं रहा था। उसके सामने के हिस्से के आगे कपड़े से ढंकी रेलिंग खड़ी थी। रेलिंग पर व्हाइट हाउस के मरम्मत की सूचना लगी थी। शायद इसलिए भी हमको उतना जमाऊ न लगा हो।
एक तरफ राष्ट्रपति भवन की मरम्मत चल रही थी। दूसरी तरफ ट्रम्प साहब की मजम्मत चल रही थी। व्हाइट हाउस के सामने की सड़क के पार के मैदान में तमाम लोग ट्रम्प विरोधी नारे तख्तियों-पोस्टरों में लगाये प्रदशित करते हुए राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग चलाने की बात कर रहे थे।
इन नारों में न्यूक्लियर हथियार खत्म करने, गन पर रोक लगाने, पड़ोसियों से सम्बन्ध सुधारने, लालची प्रवृत्ति को छोड़ने के आह्वान के पोस्टर थे। ट्रम्प को झूठा और लालची बताते हुए उनके खिलाफ महाभियोग चलाने की मांग की गई थी।


राष्ट्रपति के घर के ठीक सामने उनके खिलाफ धड़ल्ले से विरोध प्रदर्शन हो रहा था। कोई इसको रोकने की कोशिश में नहीं दिखा। यह 'फ्री स्पीच जोन' था। हरेक को अपनी बात कहने की आजादी।
कुछ लोग , जो कि संख्या में बहुत कम थे, ट्रम्प के समर्थन में भी पोस्टर लगाए थे। इनके आह्वान में मेक्सिको की दीवार बनवाने की मांग के पोस्टर थे।
लेकिन एक बात यह रोचक लगी कि खिलाफत के नारों के अलावा और कोई नारेबाजी नहीं हो रही थी। नारेबाजी पोस्टर प्रदर्शन तक सीमित थी। कोई हल्ला-गुल्ला नहीं, बिना ध्वनि प्रदूषण का विरोध प्रदर्शन ।

अमेरिका में आजकल ट्रम्प के विरोध की हवा चल रही है। उनके खिलाफ किताबें लिखी जा रही हैं। एक किताब मैने आज देखी जिसका शीर्षक था -'Trumpo cracy -the corruption of the American Republic' आज ही खबर देखी कि -ट्रंम्प के खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही शुरू। महाभियोग की कार्रवाई का टीवी पर सीधा प्रसारण होगा।
ट्रम्प पर महाभियोग की कार्यवाही क्या गुल खिलाती है यह आने वाला समय बताएगा। लेकिन इसके पहले सिर्फ राष्ट्रपति निक्सन के खिलाफ 'वाटरगेट कांड' में महाभियोग लाया गया था। निक्सन ने इस्तीफा दे दिया था। क्लिंटन के खिलाफ भी तैयारी की बात चली थी लेकिन फिर माफ कर दिए गए वो। अब ट्रम्प के खिलाफ क्या होता है वह आगे आएगा।

ट्रंम्प देशभक्ति और 'अमेरिका फर्स्ट' के रथ पर सवार होकर आये थे। उनके समर्पित समर्थक कम भले हुये हों लेकिन वे अभी भी काम भर के हैं। ट्रंम्प के खिलाफ़ महाभियोग अमेरिकी लोकतंत्र और संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी के चलते सम्भव हो रहा है। यहां मीडिया को अपनी बात कहने पूरी आजादी है।
अभिव्यक्ति की आजादी के अलावा हथियार रखने की आजादी अमेरिकी संविधान के मूल अधिकारों में शामिल है। यह कानून जब बनाया गया था तब भावना यह थी कि अगर कभी सरकार नागरिकों के खिलाफ हो जाये तो नागरिक अपने हथियारों से सरकार से निपट सकें।
अब आज की परिस्थिति में सरकार की ताकत के सामने तो नागरिकों की तो कोई औकात नहीं। लेकिन इस अधिकार के चलते आम अमेरिकी बिना रोक टोंक खरीद सकते हैं। खरीदते भी हैं और कुछ सिरफिरे तो उसी तरह नागरिकों, बच्चो पर चला देते हैं जैसे अमेरिका बिना समझे-बूझे तीसरी दुनिया के देशों पर हमला कर देता है।
जैसा देश वैसे उसके नागरिक ।
वहीं पास ही सुप्रीम कोर्ट के सामने कुछ लोग धरने पर बैठे दिखे। अपने यहां के वोट क्लब की तरह।
व्हाइट हाउस को देखने के बाद अपन दीगर इमारतों के दर्शन के लिए चल दिए।

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न्यूजर्सी से पोर्टलैेंड- एक दिन में चार प्रदेश

 न्यूजर्सी में हमारे दिन पूरे हो गये। 5 को आये 12 को सुबह निकल लिये। हमारा अगला पड़ाव पोर्टलैंड था। पोर्टलैंड में इन्द्र अवस्थी रहते हैं। उन्होंने खुद 12 से 15 की तारीख तय की् थी हमारे पोर्टलैंड प्रवास की। पोर्टलैंड ओरेगन प्रान्त में पड़ता है जहां आचार्य रजनीश का आश्रम था।

रिजर्वेशन हमने कानपुर से ही करा लिया था। फ़्लाइट न्यूयार्क से थी। न्यूयार्क से पोर्टलैंड की करीब 6 घंटे की हवाई यात्रा है। एक तरफ़ अटलांटिक महासागर तो दूसरी तरफ़ प्रशान्त महासागर।
फ़्लाइट का रिजर्वेशन तो करा लिया था। लेकिन सीट तय करनी थी। यहां फ़्लाइट की सीट 24 घंटे पहले कराना शुरु हो जाता है। देर की तो गये। जहाज कम्पनियां अपनी क्षमता से 10-20 प्रतिशत ज्यादा टिकट बेंचती हैं। ताकि जहाज फ़ुल रहे। गलाकाट कम्पटीशन के चलते ही हम दोनों की 6 घंटे की यह फ़्लाइट और आगे पोर्टलैंड से सैनफ़्रान्सिस्को की फ़्लाइट कुल करीब 28000 की पड़ी। मतलब 1750 रुपये प्रतिघंटा। भारत में भी अभी देखा कि 15 दिन बाद की लखनऊ से दिल्ली की एक घंटा 10 मिनट फ़्लाइट 1817 रुपये की है। मतलब हवाई यात्रा के मामले में दोनो जगह दाम बराबर।
लेकिन नहीं। अमेरिका में अपन से 35 डालर एक बड़े बैग के भी धरा लिये गये। 35 डालर मतलब 2500 रुपये करीब। मतलब जितने का यात्रा का किराया नहीं उससे ज्यादा उसके सामान का। जित्ते का ढोल नहीं उससे ज्यादा का मजीरा।
फ़्लाइट सुबह आठ बजकर पांच मिनट पर थी। घर से पांच बजकर दस मिनट पर चल दिये। बैग की चेक इन हवाई अड्डे के बाहर ही हो रही थी। एक स्वयंसेवक ने हमारा बैग तौला। स्लिप दी। इसके बाद बोला -’इस सेवा के लिये कुछ देना चाहें तो दे सकते हैं।’
हम असमंजस में। देना तो नहीं चाहते। लेकिन मांग रहा है तो मना कैसे करें? अंतत: ढाई डालर प्रति बैग सेवा खर्च और जुड गया।
अंदर बोर्डिंग पास खुद बनाना था। विवरण भरते हुये उसने पूछा कि क्या आप अपनी सीट किसी दूसरे को देना चाहेंगे? हमने सोचा - ’अजब बात है। सीट किसी और को दे देंगे तो का खड़े-खड़े जायेंगे?’ हमने साफ़ मना कर दिया। पता चला कि हवाई कम्पनियां चूंकि ज्यादा बुकिंग कराती हैं तो पूछती हैं कि अगर कोई मना कर दे तो किसी दूसरे यात्री को लेती चले।
अन्दर सिक्योरिटी चेकिंग हुई। जैकेट, बेल्ट, वालेट और जूते भी ट्रे में धरवा के स्कैनिंग हुई। सबकी हो रही थी। हमारी भी हुई। हमको याद आया कि एक बार शाहरुख खान से पूछताछ और किसी के जूते उतरवाने पर अपने यहां मीडिया में बहुत हल्ला हुआ था। अरे जब हमारी चेकिंग हुई, हमने मना नहीं किया तो शाहरुख खान कौन चीज हैं। सुरक्षा मामलों को इज्जत से जोड़ना बेफ़ालतू का चोंचला है।
जहाज समय से आधा घंटा देरी से चला। छह घंटे की यात्रा में एक बार नाश्ता और एक बार बार सूप/जूस दिया गया। सीट हमारी साथ की नहीं मिली थी। आगे पीछे की थी। छह घंटे बैठे-बैठे टांगे अकड गयीं। उतरे तो बहुत देर तक टांगे सीधी करीं।
अभी यह लिखते हुये याद आया कि कल अपन को सैनफ़्रान्सिस्को के लिये निकलना है। अभी तक सीट नहीं तय की। देर करेंगे तो फ़िर रह जायेंगे। याद आते ही लपककर सीट बुक कराई ! सांस में सांस आई।
पोर्टलैंड पर उतरकर निकले। अवस्थी बाहर ही हमारा इंतजार कर रहे थे। बार-बार फ़ोनिया रहे थे -’अभी पहुंचे नहीं सामान लेने।’ हमको लगा कि ये हमको कहां से देख रहे कि अभी पहुंचे नहीं। पता चला बैग मिलने का स्थान एयरपोर्ट के एकदम बाहर (शुरु में) के हिस्से में है। ताकि आदमी आराम से निकाल ले जाये सामान। सारा कुछ बाहर शीशे से दिखता है। एयरपोर्ट से निकलकर सीधे सड़कपर !
पोर्टलैंड में बारिश हो रही थी। बारिश के बदनाम शहर है पोर्टलैंड। लगातार होती बारिश से शायद शहर उदास हो जाता होगा। शहर देश के सबसे अवसाद वाले शहरों में है जहां आत्महत्या की दर ऊंची है।
घर में अम्मा जी हमारा इन्तजार कर रहीं थीं। 36 साल पहले जब साइकिल यात्रा के दौरान पहली बार कलकत्ता गये थे। तब भी अम्मा जी के हाथ का खाना खाया था। अब जब पहली बार अमेरिका आये तब भी अम्मा जी मौजूद थीं खिलाने-पिलाने के लिये। कतकी का दिन था। सुमन ने अम्मा जी के साथ मिलकर कचौरी बनाई । सबने जम कर खाईं। खा-पीकर जो सोये शाम को ही नींद खुली।
शाम को जगे तो इंद्र Indra ने सूचना दी –’सुरेन्द्र गुप्ता के यहां चलना है। खाने पर बुलाया है। चलो जूठन गिरा आते हैं।’
सुरेन्द्र गुप्ता Surendra Guptaभी हमारे कालेज के ही पढे हैं। उरई के रहवासी। लखनऊ के सैनिक स्कूल में पढने के बाद मोतीलाल आये थे। 1986 में इंजीनियरिंग करने के बाद दस साल बाद अमेरिका आये। पिछले 23 साल अमेरिका में रच-बस गये हैं। हां को ’यप्प’ बोलने लगे हैं। बच्चे दोनों बड़े हो गये। बिटिया नौकरी के लिये और बच्चा पढाई के लिये बाहर हैं। मियां-बीबी अब जिन्दगी के मजे ले रहे हैं। इन्द्र के घर से करीब आधे घंटे की दूरी पर दूसरे प्रदेश वाशिंगटन प्रदेश के बैन्कोवर में रहते हैं।
सुरेन्द्र के यहां जाने से पहले कुछ मिठाई लेने एक दुकान पर गये। जलेबी ली। आधा किलो जलेबी के दाम 10 डालर में। मतलब लगभग 1400 रुपये किलो जलेबी। जलेबी शायद सुबह की निकली थीं। अमेरिकन ठंड में अकड़कर इतनी कड़ी हो गयीं थीं कि फ़ेंक के मार दें किसी को घायल हो जाये। जलेबी का असल मजा तो गरम-गरम शीरे के साथ ही है। ठंडी होकर कड़ी होने के बाद तो जलेबी के हाल ऐसे हो जाते हैं जैसे ताबूत में सुरक्षित रखी ममी। लेकिन मिठाई के नाम पर जलेबी ही तय की पंचों ने।
अब बहुमत की राय के आगे फ़िर किया क्या जा सकता है। बहुमत के नाम पर न जाने कितने नमूने , जमूरे दुनिया के देशों के राष्टाध्यक्ष बने बैठे हैं। अपने समाजों के वर्तमान और भविष्य को धड़ल्ले से हिल्ले लगा रहे हैं। जलेबी तो फ़िर भी बेचारी निरीह मिठाई है। लिहाजा तौला ही ली गयी जलेबी।
जलेबी के साथ और मिठाइयां भी मिल रहीं थीं दुकान पर। मजे की बात वहीं एक किताब भी थी काउंटर पर जिसमें 10 तरह की डायबिटीज के बारे में जानकारी दी गयी थी। मतलब मर्ज और दवा पास-पास। मेराज फ़ैजाबादी का शेर है न :
“पहले पागल भीड़ में शोला बयानी बेंचना
फ़िर जलते हुये शहरों में पानी बेंचना।“
सुरेन्द्र से 1985 के बाद मुलाकात हुई ! मतलब 24 साल बाद। पुरानी तमाम यादें उलट-पुलटकर ताजा की गयीं। कुंवारे दोस्त अब शादी-शुदा-बाल-बच्चेदार हो गये हैं। सबको परिचय के दायरे में लाया गया। सुरेन्द्र की पत्नी भारती टैक्स सलाहकार का काम करती हैं। जनवरी से अप्रैल भयंकर व्यस्त रहती हैं। टैक्स का काम कैसा करती हैं यह तो उनके टैक्सिये जानें लेकिन घर, घरवाले को शानदार ढंग से रखती हैं। उनके घर की बढाई सुमन कई बार कर चुकी हैं। खाना भी बहुत बढिया बना। चाय भी कई बार मिली। बहुत आनन्दित हुये मुलाकात करके।
12 नवंबर को अपन ने अमेरिका के चार प्रदेश नाप लिये। न्यूजर्सी से चले थे, न्यूयार्क से उड़े, ओरेगन में उतरे और शाम को वाशिंगटन पहुंचे। न्यूजर्सी में चाय, न्यूयार्क में नाश्ता (जहाज में) ओरेगन (पोर्टलैंड) में लंच और अंत में डिनर वाशिंगटन स्टेट (बैन्कोवर) में।
इस बीच आस्ट्रेलिया में Sanjiv Sharma संजीव शर्मा से बात हुई। सिडनी में संजीव महीने में एक बार आस्ट्रेलिया रेडियो पर अपनी प्रस्तुति देते हैं। हमारी एक पोस्ट रेडियो से पढी थी। अब तय हुआ कि हमारे अमीन सायनी संजीव से तय हुआ कि जल्द ही हमारी भेंटवार्ता सिडनी रेडियो से प्रसारित करेंगे।
इस तरह अपन एक दिन कायदे से ग्लोबल होकर खा-पीकर वापस लौट आये। आते ही नींद ने हमला किया। हम पहले ही हमले में बिस्तर पर धरासायी हुये तो अगले दिन सुबह ही नींद खुली।

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