Wednesday, May 17, 2023

आज चाय मंहगी पड़ गयी

 


आज बेटे अनन्य Anany को स्टेशन छोड़ने गए। कल से उसकी https://www.facebook.com/firguntravels ट्रिप शुरू होनी है। मनाली जाना है उसको। उसकी दिल्ली की ट्रेन सुबह 6 बजे थी। अलार्म लगाया था साढ़े चार का। सोचा था कि सुबह पांच बजे चलकर आराम से समय पर स्टेशन पहुंच जाएंगे। गाड़ी के लिए ड्राईवर को बोल दिया था। सुबह आ जायेगा पांच बजे। उसने भी कहा था -'हम पांच के पहले ही आ जाएंगे।'
पहली बार नींद खुली। समय देखा। रात के साढ़े तीन बजे थे। पलट के सो गए। सोचा अलार्म बजेगा तब उठेंगे।
दूसरी बार जब नींद खुली तो साढ़े पांच बजने वाले थे। अलार्म पता नहीं बजा कि नहीं। लेकिन उसके लिए जांच कमेटी बैठाने का समय नहीं था। झटके से उठे। दो मिनट में तैयार हो गए। बेटा भी सूटकेस बन्द करके तैयार हो गया।
ड्राइवर को फोन किया। वह नींद के चपेटे में था। बोला -'आंख लग गयी थी। उठ नहीं पाए। अभी आते हैं।'
हमको पहले से ही आशंका थी कि ड्राइवर देर कर सकता है। उसने मेरे विश्वास की रक्षा की।
ड्राइवर के समय पर न आने से उपजा गुस्सा और उसके समय पर न आने से हुई मेरे विश्वास की रक्षा से मिली खुशी में मुकाबला शुरू हो गया। किसका पलड़ा भारी रहा, कहना मुश्किल।
समय कम था। 'सैंट्रो सुन्दरी' की शरण में गए। बुजुर्ग गाड़ी बिना नखरे के तुरंत स्टार्ट हो गयी। चल दिये स्टेशन। आधे घण्टे में आर्मापुर से सेंट्रलन पहुंचना था।
जल्दी पहुंचने की मंशा से गाड़ी तेज चलाई। कालपी रोड के स्पीड ब्रेकर पर गाड़ी जिस तरह उछाल मार रही थी उससे लगा वह ऊंची कूद में भाग ले रही थी। बेटे ने टोंका -'आराम से चलिए, बीस मिनट में पहुंच जाएंगे। अभी आधा घन्टा बाकी है छह बजने में।'
फजलगंज पहुंचने पर ड्राइवर का फोन आया। वह घर आ गया था। बेटे ने बात की। ड्राइवर देर से आने के लिए अफसोस जताते हुए सफाई दे रहा था। बेटे ने आराम से कह दिया -'कोई बात नहीं अब आफिस के समय घर पहुंच जाइयेगा।'
अच्छा हुआ मुझसे बात नहीं हुई। होती तो बिना गुस्से के भी ढेर सारा गुस्सा निकल जाता। आजकल के समय में लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है। मौका मिलते ही और कुछ तो बिना मौके के ही लोग गुस्सा करने लगते हैं।
हमको लगा जैसे हमारी आंख लग गई वैसे ही उसकी भी लग गई होगी। लेकिन सहज सोच के हिसाब से हमारी बात और ड्राइवर की बात और। ड्राइवर को उसकी आंख लगने का हक थोड़ी है।
संयोग कि जरीब चौकी क्रासिंग खुली मिली, टाटमिल चौराहा पर भी रुकना नहीं पड़ा। नतीजतन जब स्टेशन पहुंचे तो घड़ी में समय 0547 हो रहा था। मतलब 17 मिनट में पहुंच गए घर से स्टेशन।
रास्ते में एक गुब्बारे वाला अपने पूरे शरीर को गुब्बारे से ढंके गुब्बारे बेच रहा था। गुब्बारे उसके शरीर को इस कदर घेरे हुए थे जैसे वह गुब्बारे के कपड़े पहने हो। मन किया रुककर उसका फोटो खींचें। लेकिन स्टेशन पहुंचने की जल्दी में चलते गए।
अनन्य को छोड़कर वापस लौटे तो अनवरगंज के पास पंकज बाजपेयी दिख गए सड़क पर। गाड़ी किनारे खड़ी करके उनसे मिले। पंकज जी ने देखते ही ' दूर-प्रणाम' किया। उनका हाथ इस कदर झुका हुआ जैसे पेट्रोल पम्प में पाइप से पेट्रोल भरते हैं। वो झुके हुए हाथ से हमारे चरणों में प्रणाम भर रहे थे।
प्रणाम के बाद कहा पंकज जी ने -'अबकी बहुत दिन बाद आये।'
इसके बाद बोले -'अबकी तुमको नई चप्पल दिलाएंगे।' फिर इधर-उधर की बातें। जैसे:
*मैसूर में गर्मी बहुत है
*जलेबी-समोसा-दही कहाँ है।
*अबकी बार सौ रुपये लेंगे।
*दोपहर को गर्मी बहुत पड़ती है। घर चले जाते हैं।
*बहन जी तुमको देखकर बहुत खुश होंगी।
*सुबह जल्दी आ जाते हैं यहां।
चाय पीने के लिए मामा की दुकान गए। पंकज ने अपने कप में चाय डलवाई आए टहलते हुए अपने ठीहे पर आ गए। वहां मौजूद लोगों ने भी बहुत दिन बाद आने की बात कही। एक ने मजे भी लिए -'अंकल , आपकी गाड़ी नो पार्किंग जोन में खड़ी है। चालान आता होगा। देखिए मोबाइल में आ गया होगा।'
हमने कहा -'जो होगा। देखा जाएगा।'
कहने को तो मैंने कह दिया -'जो होगा। देखा जाएगा।' लेकिन मन में बहस शुरू हो गयी कि यह मजाक है या सच। मजाक कहीं सच न साबित हो जाये। यह सोचते हुए मुस्ताक युसूफी साहब का जुमला भी याद आ गया -'पाकिस्तान में अफवाहों की सबसे बड़ी खराबी यह होती है कि वे सच साबित होती हैं।'
मजाक की बात पर अफवाह की बात याद आना भी यह बताता है कि अपने यहां भी अब मजाक की जगह अफवाहों का चलन हावी हो गया है। हंसी-मजाक गए जमाने की बात हो गयी।
चाय पीकर गाड़ी खोलने के लिए चाबी के लिए जेब में हाथ डाला तो चाबी नदारद। देखा चाबी गाड़ी में लटक रही थी। सारे दरवाजे बंद। बहुत दिनों बाद फिर ऐसा हुआ था।
हमको वहां रुका देखकर लोग वहां आ गए। गाड़ी खोलने के तरीके बताने लगे। एक ने कहा -'शीशा तोड़ दें। 200 रुपये में बन जायेगा।'
हमने लोगों से कहा -'कोई लंबी पत्ती या बड़ा स्केल मिल जाये तो खुल जाएगी गाड़ी।'
लोग खोजने लगे। कोई छोटी पत्ती लाया कोई कुछ। लेकिन उससे काम बना नहीं। फिर जिसने हमारी गाड़ी के चालान के मजे लिए थे उसने कहा -'अंकल, यहाँ एक जन हीटर बनाने का काम करते हैं। उनके पास मिल जाएगा। देखते हैं।'
गए। रास्ते में लोगों में टीन-टप्पर देखते गए। शायद कहीं पत्ती मिल जाये। लोग स्टेशन की तरफ के लिए लपकते हुए चले जा रहे थे। उनको भी गाड़ी पकड़नी थी। उनकी भी आंख लग गयी थी।
हीटर वाले के घर पहुंचे। उन्होंने दो फूटा स्टील का स्केल निकाल के दिखाया। पूछा -'इससे काम चल जाएगा। हमने कहा -'हां।' उसने स्केल दे दिया। साथ में आया भी। रास्ते में बोला -'इससे न काम चले तो एक तीन फुट का भी है।'
हमने कहा-'नहीं, इससे हो जाएगा।'
गाड़ी के पास और लोग भी छोटे-बड़े स्केल, पत्ती लेकर आये थे। लेकिन उसकी कोई जरूरत नहीं थी।
हमने स्ट्रिप हटाई। स्केल से गाड़ी के लॉक को दबाया। लॉक खुल गया। साथ आये लड़के ने फिर मजे लिए -'अंकल, यही काम करते थे क्या?'
हमने बताया -'पच्चीसवीं बार खोल रहे होंगे ऐसे ताला।'
फिर उसने कहा -'चाय तो हो जाये इसी खुशी में।'
हम फिर आये चाय की दुकान में। फिर से चाय पी गयी। पिक्कू ने मजे लेते हुए कहा -'अंकल की आज की चाय महंगी पड़ गयी।'
हमने कहा -'अभी तो चालान भी झेलना है।'
पिक्कू ने कहा -'अरे, वो तो हम मजाक कर रहे थे।'
पंकज इस सब घटनाक्रम से निर्लिप्त वहीं टहल रहे थे। चलते हुए बोले -'अबकी आना तब तुमको चप्पल दिलाएंगे।'

https://www.facebook.com/share/p/wCLA2efvpV6zMafZ/

Sunday, May 14, 2023

जोश मलीहाबादी और नेहरू जी

 जोश मलीहाबादी जी के नेहरू जी से दोस्ताना और आत्मीय रिश्ते थे। जोश मलीहाबादी द्वारा नेहरू जी पर रेखाचित्र का एक अंश यहाँ पेश है।

अब चंद घटनाएँ उनकी अदबनवाजी, उनकी ग़ैरमामूली शराफ़त और उनकी बेनजीर नाज़बरदारी की भी सुन लीजिए।
जब केंद्रीय सरकार के सूचना विभाग में मेरी नियुक्ति सरकारी रिसाले 'आजकल' में हो गई तो मैंने उन्हें ख़त लिखा कि मेरे पर्चे के वास्ते अपना पैग़ाम जल्द भेज दीजिए। अगर आपने सुस्ती से काम लिया तो मेरी आपसे ज़बरदस्त जंग हो जाएगी। एक हफ़्ते के अंदर उनका पैग़ाम आ गया। अपने पैग़ाम के आख़िर में उन्होंने यह भी लिखा मैं जल्दी में पैग़ाम इसलिए भेज रहा हूँ कि जोश साहब ने मुझे धमकी दी है कि अगर देर हो गयी तो वह मुझसे लड़ पड़ेंगे। जब मैंने पैग़ाम के शुक्रिये में उन्हें ख़त लिखा तो दबी ज़बान से यह शिकायत भी कर दी की कि आपने मेरे ख़त का जबाब खुद अपने हाथ से लिखने के एवज़ सेक्रेटरी से लिखवाया है। मेरे साथ आपको यह बरताव नहीं करना चाहिए था।
उनकी शराफ़त देखिए कि मेरी इस शिकायत पर खुद अपने हाथ से मुझे यह लिखा कि अधिक व्यस्तता के कारण मैं सेक्रेटरी से ख़त लिखवाने पर मजबूर हो गया। आप मेरी इस गलती को गलती को माफ़ करें।
एक बार मैं उनके यहाँ पहुँचा तो देखा वह दरवाज़े पर खड़े किदवई साहब से बातें कर रहे हैं। लेकिन जैसे ही मैंने बरामदे में कदम रखा और उन से आँखें चार हुईं तो वह एक सेकेंड के अंदर ग़ायब हो गए।
मैंने किदवई साहब से कहा कि मैं तो अब यहाँ नहीं ठहरूँगा। आप पंडित जी से कह दीजिएगा कि लीडरी और प्राइममिनिस्ट्री को लीडरी और प्राइममिनिस्ट्री तक सीमित रखें। और उसे इस क़दर न बढ़ाएँ कि वह मोनार्की बादशाही से टक्कर लेने लगे। किदवई साहब ने मुस्कराकर पूछा कि आप किस बात पर इस क़दर बिगड़ गए? मैंने कहा,"अरे आप अभी तो खुद देख चुके हैं कि मेरे आते ही वह ग़ायब हो गए। मिज़ाजपुरसी तो बड़ी चीज़ है, उन्होंने मुझसे साहब सलामत तक नहीं की।"
इतने में जवाहरलाल आ गए। मैं मुँह मोड़कर खड़ा हो गया। उन्होंने कहा, "जोश साहब, मामला क्या है?"
किदवई साहब ने सारा माजरा बयान कर दिया। वह मेरे क़रीब आए और मेरे कान में कहा,"मुझे इस क़दर ज़ोर से पेशाब आ गया था कि अगर एक मिनट की भी देर होती तो पायजामे ही में निकल जाता।"
यह बहाना सुनकर मैंने उन्हें गले लगा लिया।
उर्दू के मशहूर शायर जोश मलीहाबादी की बहुचर्चित आत्मकथा 'यादों की बारात' से। किताब ख़रीदने का लिंक कमेंट बाक़्स में।

https://www.facebook.com/share/p/SucYb4U1V1t4kip1/

Friday, May 12, 2023

यादों की बारात -जोश मलीहाबादी

 

पिछले दिनों कई किताबें पढ़ीं। उनमें से एक उर्दू के मशहूर शायर जोश मलीहाबादी की बहुचर्चित आत्मकथा 'यादों की बरात' भी थी।
जोश साहब ने अपने बारे में और अपने समय के बारे में रोचक और बेबाक अंदाज में लिखा है।
अपनी खूबियों-खामियों के बारे में बेहिचक लिखी आत्मकथा का अंदाज-ए-बयाँ इतना शानदार है कि पूरी आत्मकथा एक दिन में पढ़ गए।
अपने गुस्से का जिक्र करते हुए हुए उन्होंने बताया कि अपने एक नौकर को बचपन में उन्होंने इसलिए पीट दिया था क्योंकि वह उनको सलाम करना भूल गया था। वहीं दरियादिली भी ऐसी की एक नौकर की आर्थिक सहायता के लिए अपनी मां के गहने चुपचाप उसको दे दिए।
अपने समय के ख्यातनाम लीडरों से जोश साहब की व्यक्तिगत जान-पहचान थी। नेहरू जी उनमें से खास थे। इसके बावजूद वे उर्दू के मसले पर नेहरू जी नाइत्तफाकी रखते हुए आजादी के बाद सन 1956 में पाकिस्तान चले गए। बाद बाकी वहां उनके साथ जो सलूक हुआ उसके चलते उनके निर्णय पर पछतावा भी हुआ। नेहरू जी ने उनको वापस आने का निमंत्रण भी दिया लेकिन उनका वापस आना हुआ नहीं।
अपने समय की महिलाओं की स्थिति का जोश जी ने जिस तरह चित्रण किया है उसको पढ़कर लगता है कि सौ साल पहले महिलाएं किस तरह की पाबन्दियों में जीने को मजबूर थीं। उनकी आत्मकथा का एक अंश यहां पेश है:
"नवाब साहब की बेगम हों या बैरिस्टर साहब की बेटर हाफ (better half) दोनों बड़ी सख्ती के साथ पर्दे की पाबंद थीं। डोली और पालकी के सिवा कोई बीबी घर के बाहर कदम नहीं रखती थीं। और तो और , औरतों की आवाजें और उनका वजन भी पर्दा नशीन था। यानी कोई बीबी इस कदर जोर से नहीं बोलती थी कि मर्दांने तक उनकी आवाज जा सके। और जब कोई औरत पालकी में सवार होती थी तो पत्थर का टुकड़ा या सिल पालकी में रख दी जाती थी ताकि कहारों को उनके जिस्म का सही अंदाजा न हो सके। बीबियाँ तो बीबियाँ, मामाएँ, असीलें और लौंडियाँ तक पर्दे की पाबंद थीं।
जनाने में आने-जाने वाले बाहर के बच्चों से भी, जबकि वे दस -ग्यारह बरस के हो जाते थे, पर्दा शुरू कर दिया जाता था। और तो और , बाप, दादा , नाना, चाचा, फूफा के सामने भी औरतें सरों पर पल्लू डालकर जाया करतीं थीं और किसी औरत की यह मजाल नहीं थी कि वह अपने बुजुर्गों की मौजूदगी में अपने बच्चे को गोद में ले ले।
जनाने मकान की फिजा को पवित्र रखने का यहां तक ख्याल किया जाता था कि किसी तरकारी वाली को यह इजाजत नहीं थी कि वह लंबी-लंबी तरकारियाँ जैसे लौकी, तुरई, केले, चचेंड़े टुकड़े-टुकड़े किये बगैर सालम (साबुत) हालत में अंदर ले जाये, इसलिए कि सूरत के लिहाज से इन तरकारियों की 'अश्लील' तरकारी ख्याल किया जाता था।
अपने लड़कपन का एक वाकया बयान करता हूँ। मलीहाबाद के एक लड़के का शादी में नाच हो रहा था कि बालाखाने से एक औरत झांककर इधर देखने लगी और साहबाने-महफ़िल में से एक साहब ने उसे बंदूक मार दी। साहबे-खाना देंगों के हल्के में खड़े थे कि उन्होंने गोली चलने की आवाज सुनी और दौड़े हुए महफ़िल में आये। गोली मारने वाले खां साहब ने उनसे कहा , "भाई आपकी बीबी ऊपर से झांक रही थीं। मुझसे यह बेहयाई बर्दाश्त नहीं हुई, मैंने गोली मार दी।" साहबे-खाना ने उसकी पीठ ठोंककर कहा,"बहुत अच्छा किया आपने।" वह तुरन्त अंदर चले गए। थोड़ी देर में एक लाश खींचते हुए आये और कहा," भाइयों, देख लीजिए मेरी बीबी नहीं लौंडी झांक रही थी। अल्लाह ने मेरी आबरू और मेरी जान दोनों चीजें बचा लीं।""
जोश मलीहाबादी की आत्मकथा -"यादों की बरात" से। किताब ख़रीदने का लिंक कमेंट बाक्स में।

https://www.facebook.com/share/p/K2xxs4a2a9CoEZhY/

Wednesday, May 10, 2023

वृद्धाश्रम में कुछ घण्टे



इतवार को स्वराज वृद्धाश्रम गए। सात साल पहले कई बार गए थे। दिलीप घोष और कई लोगों से मिले थे। दिलीप घोष से बतकही की तमाम यादें जेहन में थीं।
पनकी पावर हाउस के बगल से होकर रास्ता है वृद्धाश्रम का। पावर हाउस की ऊंची चिमनी के बगल में खड़ा हरा पेड़ मानो चिमनी से निकलने वाले प्रदूषण को ललकार रहा हो। चिमनी से निकलने वाला प्रदूषण भी ऊपर-ऊपर बगलिया के निकल जाता है। वह भी पेड़ से डरता है।
रास्ते के मकान सात साल पहले बनने शुरू हुए थे, बन गए थे। उनमें लोग रहने भी लगे थे।।मकानों के प्लास्टर झड़ से गए थे। खराब क्वालिटी के बने मकान कुपोषित बच्चों से लगे जो बचपन से ही बूढ़े लगने लगते हैं।
वृद्धाश्रम के अंदर पहुंचते ही लालचंद से मुलाकात हुई। मुंह गुटके से लैस। तीन साल पहले आये यहां। एक एक्सीडेंट में पैर टूट गया। ऑपरेशन हुआ तो एक पैर छोटा हो गया। डॉक्टरों की महिमा। ऊंचाई बराबर करने के लिए छोटे पैर पर ऊंची हील की चप्पल पहनते हैं।
लालचंद डब्बा बनाने का काम भी करते हैं। हर तरह का डब्बा बना लेते हैं। आर्डर मिलने पर बनाते हैं। पचास साथ रुपये कमा लेते हैं। लेकिन जितना कमाते हैं, उससे ज्यादा गुटके पर खर्च कर देते हैं। चिंता की बात भी नहीं, वृद्धाश्रम देखभाल करता ही है।
दिलीप घोष के बारे में पूछा तो पता चला -'घोष दादा तीन साल पहले गुजर गए। काफी दिन बीमार रहे।'
दिलीप घोष जी अनोखे व्यक्तित्व के इंसान थे। उनके बहुत पढ़े-लिखे होने के तमाम किस्से थे। विदेश में प्रोफेसर, आई.आई.टी. के बच्चों को पढ़ाने के और शेक्सपियर साहित्य के मर्मज्ञ होने के किस्से वो खुद सुनाते थे। उनके सुनाने का अंदाज ऐसा होता था कि सुनने वाला बिना प्रभावित हुए रह नहीं सकता था।
बाद में पता चला कि उनके तमाम किस्से मनगढ़ंत थे। कितना सच, कितना गप्प अब तो जानना भी मुश्किल। लेकिन यह तय है कि उनकी जानकारी का स्तर ऊंचा था और अंदाज-ए-बयान दिलचस्प।
घोष जी से जुड़ी बातें याद करते हुए याद आया कि उन्होंने मुझसे अपने बचपन से जुड़ी यादें और फोटो भी साझा की थी। अपने एकतरफा रोमांस की कहानी भी बयान की थी। अब सब एक कहानी हो गयी।
चौधरी जी से बात हुई। आफिस में थे। आयुध निर्माणी खमरिया से 1978 में त्यागपत्र देकर एलिम्को ज्वाइन किया था। उनके पेंशन के सिलसिले में कोशिश की थी। लेकिन कामयाब नहीं हुए। इतने पुराने कागजात खोजने मुश्किल। इस बीच उनकी पेंशन के लिए कोशिश करने वाले तिवारी जी भी नहीं रहे।
चौधरी जी 82 साल के करीब उम्र के हैं। चुस्त, दुरुस्त। घर में बच्चे हैं लेकिन उनको लगता है कि यहाँ वे बेहतर स्थिति में हैं।
वृद्धाश्रम में 28 पुरुष और 32 महिलाएं हैं। सबके एक बार के खाने का करीब 6500 खर्च आता है। लोग अलग-अलग तरह से स्पॉन्सर करते हैं।
पिछली बार आये थे तो एक महिला लगातार चिल्लाती रहती थीं। उनके बारे में पूछा तो बताया, खराब निकल गईं। बार-बार आश्रम से निकल जाती थीं। किसी-किसी के साथ रहती थीं। आखिर में निकल गईं आश्रम से।
जब गए थे तो कीर्तन हो रहा था। घोष जी के कमरे में तीन महिलाएं रहती हैं अब। कमला, सनेही, रीता चड्ढा। सब ने अपने-अपने किस्से बताए। किसी का आदमी खराब निकल गया, किसी का रहा नहीं। किसी के बच्चे नशा करते हैं, किसी को घर से निकाल दिया गया। भले ही यहां रहते हैं लेकिन घर वालों से सम्बंध हैं। घर वाले आते-जाते रहते हैं। यहां हर तरह से सुरक्षित हैं और आराम से भी। खाने-पीने की कोई चिंता नहीं। कोई यहाँ से जाना नहीं चाहता।
वृद्धाश्रम को शुरू करने में मधु भाटिया जी का योगदान था। कुछ दिन पहले उनका निधन हुआ। जब तक वे जीवित रहीं, लगातार जुड़ी रहीं यहां से। हफ्ते में तीन-चार दिन जरूर आती थीं। सबकी समस्यायों का निराकरण करती थीं। दिलीप घोष उनको मम्मी कहते थे। सब लोग उनकी याद करते हैं।
चलते समय सभी ने कहा-'फिर आना। आते रहना।' कमला, सनेही और रीता चड्ढा ने परिवार सहित आने को कहा। महिलाओं का परिवार से जुड़ाव बना ही रहता है।
लौटते हुए प्रार्थना हाल में एक बुजुर्ग वाकर के सहारे चलते दिखे। पूछने पर पता चला कि सनेही के पति हैं। सनेही अपने पति की चुपचाप जाते देखती रहीं, चुपचाप। दोनों में शायद अबोला है।
लालचंद मोबाइल में लूडो खेल रहे थे। एक क्लिक पर पासा आया और उन्होंने गोटी बढ़ा दी।
हम भी बाहर की तरफ बढ़ गए।
(दिलीप घोष और चौधरी जी से जुड़ी पोस्ट कमेंट बॉक्स में)

https://www.facebook.com/share/p/8EstEYAFLmzZGkr1/

Tuesday, April 18, 2023

निकट का लोकार्पण और कहानी पाठ



कल साहित्यिक पत्रिका ‘निकट’ के बैनर तले कथा गोष्ठी का आयोजन हुआ। वरिष्ठ कथाकार और और निकट के संपादक कृष्ण बिहारी के आत्मीय अनुरोध पर शहर के प्रमुख साहित्यकार आयोजन में आये और आख़िर तक बने रहे।
कथा गोष्ठी में लखनऊ से आए वरिष्ठ कथाकार नवनीत मिश्र जी और कानपुर की सक्रिय रचनाकार अनीतामिश्रा ने कहानी पाठ किया। कहानी पाठ के बाद प्रसिद्ध कवि आलोचक पंकज चतुर्वेदी , वरिष्ठ कथाकार प्रियंवद जी , राजेंद्र राव जी और अमरीक सिंह दीप जी ने कहानियों पर चर्चा की। कार्यक्रम का प्रभावी संचालन वरिष्ठ रचनाकार डा राकेश शुक्ल जी ने किया।
कार्यक्रम के बारे में जानकारी देते हुए कृष्ण बिहारी जी ने हमसे अनुरोध कम आदेश ज़्यादा देते हुए कहा था -‘पंडित जी, आपसे एक अनुरोध कर रहा हूँ। मना मत करियेगा।आपको कार्यक्रम की अध्यक्षता करनी है।’
हमको ‘पंडित जी’ कहने वाले कृष्ण बिहारी जी अकेले हैं। उनके अनुरोध को मना करना आसान नहीं होता। हमने कई तर्क दिये कि मुख्य अतिथि किसी समर्थ रचनाकार को बनाइए। लेकिन बिहारी जी माने नहीं। उन्होंने हमारी किताबों के हवाले देते और यह कहते हुए कि आर्मापुर में कार्यक्रम होने के नाते आप मुख्य अतिथि के सर्वथा उपयुक्त पात्र हैं। बिहारी जी का अनुरोध इसी तरह का था जैसे किसी जमाने में बुजुर्ग लोग अपने बच्चों की शादी अपनी मर्ज़ी से कहीं तय कर देते थे और बच्चों को बिना कोई सवाल किए मंडप में बैठना पड़ता था।
कार्यक्रम लगभग समय पर ही शुरू हुआ। निकट के 34 वें अंक का विमोचन हुआ। हिन्दी की प्रसिद्ध रचनाओं मूलतः उपन्यासों पर चर्चा है। बिहारी जी बिना किसी के सहयोग के लगातार पत्रिका निकाल रहे हैं। यह उनके साहित्यिक लगाव और सात्विक ज़िद का परिचायक है।
अनीता मिश्रा ने अपने कहानी ‘ड्रामा क्वीन’ का पाठ किया। ग्रामीण परिवेश में एक स्त्री पर उसके पति और परिवेश द्वारा उपेक्षा और अत्याचार की कहानी का प्रभावी पाठ किया। तीन-चार साल पहले भी इस कहानी का पाठ सुना था। उस समय कहानी सुनकर जो प्रतिक्रिया मेरी थी , कल दुबारा कहानी सुनने के बाद विचार उससे अलग थे। समय के साथ रचनाओं के बारे में विचार बदलते हैं।
अर्चना मिश्रा के कहानी पाठ के बाद नवनीत मिश्र जी ने कहानी ‘क़ैद’ का पाठ किया। पिंजरे में बंद तोते की कहानी के बहाने समाज और उसमें भी प्रमुख रूप में स्त्री की स्थिति का विस्तार से वर्णन किया। उनका रचना पाठ इतना प्रभावी था कि आधे घंटे से भी अधिक समय तक चले उनके रचनापाठ को श्रोताओं ने पूरे मनोयोग से सुना।
कहानी पाठ के बाद कहानियों पर चर्चा हुई। दोनों कहानियों में स्त्रियाँ अपने जीवन साथी के द्वारा सताई जाती हैं। आख़िर में धर्मात्माओं द्वारा उनका शोषण होता है।
कहानियों पर बात करते हुए पंकज चतुर्वेदी जी ने रघुवीर सहाय की कविता ‘पढ़िए गीता,बनिये सीता’ का उल्लेख करते हुए कहा कि किसी समाज के लिए यह दुखद है कि वर्षों पहले स्त्रियों की त्रासदी पर लिखी कविता आज भी प्रासंगिक बनी रहे।
प्रियंवद जी ने कहा -‘दोनों कहानियाँ पराजय की कहानियां हैं।’ कहानी के पात्रों में अपनी त्रासदी से मुक्त होने की कोई छटपटाहट नहीं है। बेहतरीन शिल्प, संवाद, कहानी पाठ के बावजूद ऐसा लगता है कि कहानी में कुछ बदलाव की कोशिश होती तो बेहतर लगता।’
राजेंद्र राव जी कानपुर में युवा कहानीकारों की कमी की बात करते हुए कहा -‘आजकल कानपुर में पचास से कम उम्र के कहानी लेखक बहुत कम हैं।’ उन्होंने अनीता मिश्रा की कहानी ड्रामा क्वीन के प्रकाशित होने की कहानी भी साझा की। कहानियों पर बात करते हुए उन्होंने कहा -‘दुख इंसान के जीवन का अपरिहार्य हिस्सा है।’
अमरीक सिंह दीप जी ने कहानियों पर अपनी बात कहते हुए कहा -‘इंसान प्रकृति का सबसे क्रूर जानवर है।’
कृष्ण बिहारी जी ने अपनी बात कहते निकट के प्रकाशन के अनुभव साझा किए। निकट के 34 अंक , बिना किसी सांस्थानिक सहयोग के निकालना अपने में बहुत चुनौतीपूर्ण अनुभव रहा लेकिन मित्रों के सहयोग से निकट निरंतर निकल रही है। बिहारी जी ने निकट निकालते रहने के अपने संकल्प को दोहराते हुए कहा -‘जब तक मैं ज़िंदा हूँ , निकट निकलती रहेगी।’
मित्रों से मिलने वाले सहयोग की चर्चा का ज़िक्र करते हुए बिहारी जी ने बताया -‘जब मैं निकट निकाल रहा था तब लोगों ने कहा था कि सब लोग कहानी देंगे लेकिन प्रियंवद जी नहीं देंगे। लेकिन उन्होंने निकट के लिए कहानियाँ दीं।’
मुख्य अतिथि के रूप में अपनी बात कहते हुए अनूप शुक्ल ने कहा -‘दोनों कहानियों में कहानी के पात्र आख़िर में शोषण के लिए धार्मिक सत्ता की गिरफ़्त में आते हैं। लेकिन ऐसा इसलिए होता है क्योंकि समाज का तानाबाना ऐसा है। समाज धर्म से पहले है।

https://www.facebook.com/share/p/d1C5k22xYEFJEFwK/

Tuesday, April 11, 2023

स्पेनिश और एकाकीपन के सौ वर्ष

 


आज सुबह स्पेनिश के कुछ शब्द सीखे। dualingo मोबाइल एप से। शब्द बार-बार भूल रहे थे, लेकिन एप बिना झल्लाये फिर से सिखाता जा रहा था। सिखाने वाले को मोबाइल एप जैसा धैर्यवान होना चाहिए। जिसने यह एप बनाया वह भाषाओं और मानव व्यवहार का कितना जानकार होगा।
स्पेनिश सीखने के पीछे कोई खास कारण नहीं। संयोग यह कि पिछले महीने गैबरियल गार्सिया मारखेज का प्रसिद्ध उपन्यास 'एकांत के सौ साल' पढ़ा। उपन्यास की कथात्मकता, भाषा और विवरण इतना प्रभावित हुआ कि मारखेज के बारे में कहीं भी कोई जानकारी मिलती , उसको लपककर पढ़ते।
इसी सिलसिले में मारखेज से उनके मित्र की बातचीत के संकलन वाली किताब 'अमरूद की महक' भी पढ़ी। संयोग से इसी समय इस भाषाई एप Duolingo की जानकारी हुई। विदेशी भाषाओं में पहला विकल्प स्पेनिश का दिखा। उसी को सीखना शुरू कर दिया। अब तक 25-30 शब्द सीख चुके हैं। कुछ भूल भी गए। लेकिन का सिखाने का तरीका इतना रुचिकर है कि आगे भी सीखने का मन बनता है।
'एकांत के सौ साल' उपन्यास हमने पहली बार 92-93 में खरीदा था। अंग्रेजी में। one hundred years in solitude । उस समय धूम मची थी इस उपन्यास की।
खरीद तो लिया और सरसरी तौर पर पढ़ भी लिया लेकिन अंग्रेजी में होने और बिना शब्दकोश के पढ़ने के चलते उतना रस नहीं आया जितना उपन्यास का नाम था। उन दिनों बिना शब्दकोश के पढ़ते थे और जिन शब्दों के अर्थ नहीं आते थे उनके अर्थ अंदाज से लगाते थे। कई बार मतलब कुछ और होता था लेकिन हम समझते कुछ और होंगे। पढ़ने की हड़बड़ी में ऐसा होता था। कहने को पढ़ लिए लेकिन पूरा मजा नहीं आता था।
सोचा था दुबारा पढ़ेंगे उपन्यास लेकिन एक दिन हमारे घर हमारे साथी अरविंद मिश्र आये। किताब देखकर ले गए यह कहते हुए कि हम भी पढ़ेंगे। हमने दे दी।
करीब महीने भर बाद हमने किताब के बारे में पूछा तो वो बोले -'वो हमसे चचा ले गए हैं। कह रहे थे पहले हम पढ़ेंगे।'
अरविंद जी के चचा मतलब हृदयेश जी। हृदयेश जी शाहजहांपुर के प्रसिद्द कहानीकार, उपन्यासकार थे। कचहरी में काम करते थे। भारतीय न्यायतंत्र पर लिखा उपन्यास 'सफेद घोड़ा काला सवार' अद्भुत उपन्यास है। इसमें कचहरी के अनुभवों, किस्सों के रोचक विवरण भी हैं।
बहुत पहले पढ़े इस उपन्यास का एक किस्सा याद आ रहा है। उसके अनुसार एक जज साहब को ऊंचा सुनाई देता था। कान में सुनने की मशीन लगाकर बहस सुनते थे। एक दिन मशीन , शायद बैटरी के चलते, कुछ खराब हो गयी। जज साहब को बहस ठीक से सुनाई नहीं दे रही थी। लेकिन कह नहीं पाए। बहस चलती रही। जज साहब बिना सुने सुनते रहे। बहस के अंत में फैसला भी सुना दिया।
आजकल जब किसी अधिकारी या अदालत का कोई निर्णय असंगत लगता है तो मुझे अनायास हृदयेश जी द्वारा लिखा यह किस्सा याद आता है।
बहरहाल बात हो रही थी किताब की। काफी दिन अरविंद जी से तकादा करते रहे किताब का। वो कहते रहे, चचा ने अभी लौटाई नहीं।
बाद में तकादे की अवधि बढ़ती गयी। आखिर में बताया अरविंद जी ने कि लगता है चचा भूल गए। एक दिन बताया -'चचा कह रहे थे कि किताब उन्होंने वापस कर दी।'
लब्बोलुआब यह कि अंग्रेजी की किताब इधर-उधर हो गयी। किताबों की यह सहज गति है। किसी मित्र को दी हुई किताब सही सलामत वापस आ जाये तो सौभाग्य समझना चाहिए।
इधर hundred years in solitude का हिंदी अनुवाद आया तो उसको खरीदा। न सिर्फ खरीदा बल्कि 10-15 दिन में लगकर पढ़ भी लिया। अनुवाद दिल्ली विश्वविद्यालय की मनीषा तनेजा जी ने किया है। पांच साल में किया अनुवाद छपने में करीब बीस साल लग गए।
किताब राजकमल प्रकाशन से छपी है -एकाकीपन के सौ वर्ष । आनलाइन है। 438 पेज की किताब के दाम 499 रुपये हैं। मंगाकर पढ़िए, अच्छा लगेगा।
किताब का अनुवाद बहुत सहज और आसानी से समझ में आने वाला है। पाद टिप्पणियों में विभिन्न शब्दों और परंपराओं के अर्थ समझाए गए हैं। इससे उपन्यास के परिवेश को समझना आसान और रुचिकर हो जाता है।
किताब एक बार पढ़ चुके हैं लेकिन फिर पढ़नी है। अब समझिए कि one hundred years in solitude की लिखाई सन 1965 में शुरू हुई थी। 1967 में पूरी हुई मतलब आज से 56 साल पहले। 1982 में इसे नोबल पुरस्कार मिला और इसे हम पढ़ पा रहे हैं आज 2023 में। समय के कितने अंतराल होते हैं इस कायनात में।
बात शुरू हुई थी स्पेनिश सीखने से। जब किताब छपी थी तब कम्प्यूटर और मोबाइल और एप का कोई चलन नहीं था। कोई सोचता भी नहीं होगा कि हम इस तरह स्पेनिश सीखेंगे। लेकिन ऐसा हो रहा है। स्पेनिश सीखने के बहाने उन समाजों के बारे में सीख सकेंगे जहां स्पेनिश बोली जाती है।

https://www.facebook.com/share/p/2VbqL1dwXvWuS8Gm/

Monday, April 10, 2023

इतवार की सड़कबाजी

 



कल दोपहर कुछ सामान लेने के लिए बाजार जाना हुआ। सामान की लिस्ट एक प्लेटफ़ॉर्म टिकट के पीछे लिख कर बग़ल में रख ली। चलने के पहले अधूरी लिखी पोस्ट पूरी करने लगे। प्लेटफ़ॉर्म टिकट को शायद बुरा लग गया। वह पंखे की हवा के सहारे उड़कर बिस्तर के नीचे दुबक गई। उसको निकाल के फिर बगल में रखा और फिर पोस्ट लिखने लगे।
पोस्ट लिखने के बाद चलते समय सामान की लिस्ट खोजी। टिकट नदारद थी। लगता है उसको क़ायदे से बुरा लग गया। उसके स्वाभिमान के स्तर को देखकर लगा कि उसकी बेइज्जती सहन करने का अभ्यास नहीं है। कहीं नौकरी न करने के ये साइड इफ़ेक्ट मतलब किनारे के प्रभाव हैं।
बहरहाल, सामान की लिस्ट दूसरे कागज में बनाई। पर्स लिया और चल दिए। चलते हुए पर्स में देखा तो रुपये बहुत कम थे। कोई नहीं एटीएमकार्ड और मोबाइल साथ थे। सोचा पैसा निकाल लेंगे। गूगल पे कर देंगे। आजकल दस-बीस रुपये के भुगतान भी गूगल पे हो जाते हैं।
पैसा निकालने के लिए रास्ते में जितने भी एटीएम मिले, बंद मिले। हर बंद एटीएम पर लगता, आगे कोई खुला मिलेगा। एक जगह मिल भी गया एटीएम खुला लेकिन वहाँ मशीन ख़राब थी।
चलते हुए सोचा अब गूगल पे से या कार्ड से भुगतान ही करना होगा। आजकल यह सुविधा तो हर जगह होती है।
इस बीच देखा बग़ल में रखा मोबाइल गरम होकर बंद हो गया। चलते हुए प्रभात रंजन जी की Prabhat Ranjan आवारा मसीहा पर बातचीत सुन रहे थे वह भी सुनाई देनी बंद हो गई। स्क्रीन पर सूचना लिखी थी -‘ गर्मी के कारण मोबाइल बंद हो गया है।’
इससे एहसास हुआ कि गर्मी कितनी ख़राब चीज है। ज़्यादा गर्म नहीं होना चाहिए। सिस्टम बैठ जाता है।
मोबाइल बंद हो गया लेकिन भरोसा था कि भुगतान के समय तक ठीक हो जाएगा। हुआ भी ऐसा ही। भुगतान के समय से पहले ही मोबाइल होश में आ गया। मानो गहरी नींद से जगा हो। मोबाइल ने हमारे विश्वास की रक्षा की।
लौटते समय ट्रांसपोर्ट नगर से टाटमिल चौराहे की तरफ़ आने वाले ओवरब्रिज से आए। देखा की बीच सड़क पर डिवाइडर बना हुआ है, लोहे की बारीकेटिंग का। अधिकतर गाड़ियाँ सड़क की दायीं ओर जा रही थीं। मतलब कानपुर की सड़क पर अमेरिका का क़ानून चल रहा था। लेकिन हम बायें ही चले। हमेशा चलते हैं। सड़क के क़ानून का पालन करते हैं।
क़ानून पालन का फल यह मिला कि एक बार बायें मुड़े तो बायें ही बने रहे। सड़क ने हमको मजबूरन वामपंथी बना दिया। हमको टाटमिल चौराहे से दायें मुड़ना था लेकिन चौराहे पर बैरिकेटिंग थी। जो लोग सड़क के नियम के हिसाब से ग़लत मुड़े थे वो ही चौराहे से दायें आगे जा पाये थे। क़ानून के हिसाब से चलने का नुक़सान हुआ।
हमको ट्रैफ़िक विभाग पर ग़ुस्सा आया कि कम से कम बैरिकेटिंग के पास लिख देना चाहिए था कि स्टेशन की तरफ़ जाने वाले दायीं तरफ़ से जायें। लेकिन ज़्यादा ग़ुस्सा करने से हमारे दिमाग़ का स्क्रीन भी मोबाइल की तरह उड़ जाएगा यह सोचकर शांत हो गये। बायीं तरफ़ ही आगे बढ़ते रहे।
आगे टाटमिल चौराहा, फिर पुल पार करके दायीं तरफ़ आए। इसके बाद बांस मंडी चौराहे से अनायास बायें मुड़ गये। पिछले हफ़्ते हुई आगज़नी में यहाँ सैकड़ों दुकाने जल गयीं थीं। करोड़ों का नुक़सान हुआ। उस समय देखने आए थे तो रास्ता बंद था। कल खुला देखा तो अनायास उधर ही घूम गये।
कुछ दूर आगे ही जली हुई दुकानें दिखीं। धुएँ के निशान इमारतों में दिख रहे थे। दुकानों में सन्नाटा था। कुछ कुत्ते अलबत्ता वहाँ टहल रहे थे। सामने कुछ पुलिस वाले तैनात थे। कुछ मोबाइल देखते , कुछ सुरती ठोंकते , बतियाते हुए दिख रहे थे। जिन दुकानों पर कभी चहल-पहल रहती होगी वे सब सन्नाटे में डूबी थीं।
जली हुई दुकानों की सामने की पट्टी पर सड़क पर चाय की दुकान थी। नाम लिखा था -‘राम जाने टी स्टाल।’ पहले सोचा वहाँ रुककर चाय पी जाए लेकिन फिर मन नहीं किया। लौट लिए।
लौटे तो घंटाघर चौराहे से नरोना चौराहे की तरफ़ वाले रास्ते से। आराम-आराम से , ख़रामा-खरामा। चौराहे पर जब मुड़ने लगे तो सामने ट्रेफ़िक पुलिस के सिपाही जी अपने मोबाइल को दोनों हाथों में बंदूक़ की तरह थामे दिखे। बाद में पता लगा वो मेरी कार की फ़ोटो ले रहे थे। हमको कारण समझ में नहीं आया। हमने सीट बेल्ट लगा रखी थी। स्पीड ज़्यादा नहीं थी। इंडिकेटर भी दिया था मुड़ने से पहले। फिर काहे की फ़ोटो।
ट्रेफ़िक पुलिस के सिपाही जी ने हमारी फ़ोटो भले खींची लेकिन रोका नहीं। हम भी घूम गये चौराहे से। मुड़ते समय हमने सुना भाई साहब कह रहे थे -‘वन वे में इधर से क्यों आ रहे हो?’
हमको ताज्जुब हुआ कि कहीं लिखा नहीं रास्ते ने एकल मार्ग। लिखा भी होगा तो इस तरह कि कहीं आते-जाते किसी को दिख न जाये।
यातायात व्यवस्थित रखने की मंशा से कभी भी कोई भी रास्ता एकल मार्ग या पथ परिवर्तन हो जाता है। आप जिस सड़क पर रोज़ आते-जाते हैं , पता चला अचानक उससे अलग किसी सड़क पर चलने के लिये सूचना लग जाती है।
लौटते हुए शुक्लगंज ओवरब्रिज के नीचे गन्ने का रस पिया। 20 रुपये ग्लास। भुगतान गूगल पे से किया। भुगतान करते हुए पूछा -‘सलाहुद्दीन किसका नाम है?’ गन्ना पेरते लड़के ने अपनी तरफ़ इशारा किया -‘मेरा नाम है।’ और कुछ बात हुई नहीं उससे। वह अपने अगले ग्राहक , एक रिक्शावाले के लिए , रस निकालने के लिए गन्ना छाँटने लगा था। हम घर आ गये।
बहरहाल यह तो रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा है। इतवार की सड़कबाज़ी के क़िस्से। फ़िलहाल तो नया हफ़्ता शुरू हो रहा है। चकाचक शुरुआत के लिए शुभकामनाएँ।

https://www.facebook.com/share/p/qQtuVrBMe4Tsi2bi/

Sunday, April 09, 2023

इन दिनों आप क्या पढ़ रहे हैं ?

 



फ़ेसबुक करते ही पूछता है आप क्या सोच रहे हैं ?
अपन हाल ही में पढ़ी हुई किताब ‘अमरूद की महक’ के बारे में सोच रहे हैं। इस किताब में मशहूर लेखक गैबरियल गार्सिया मारकेज और उनके मित्र प्लिनियो आपूले मेंदोज़ा के बीच संवाद हैं। विविध विषयों पर हुई बातचीत का स्पैनिश से हिन्दी में अनुवाद किया है समीर रावल में।
मारखेज की इस बातचीत को पढ़ना रोचक अनुभव रहा। पढ़ते समय मन किया था कि कुछ रोचक जवाब नोट करके फ़ेसबुक पर पोस्ट करेंगे। लेकिन किताब पढ़ने में इस कदर मशगूल हुए नोट करना भूल गये। कुछ रोचक संवाद जो फ़ौरन मिल गये दोबारा खोजने में वो यहाँ पेश हैं :
*इतिहास हर हाल में दिखाता है कि शक्तिशाली जन एक क़िस्म की सेक्स उन्मत्तता से पीड़ित रहते हैं।
*स्त्रियाँ जाति की व्यवस्था को लोहे जैसी पकड़ से सम्भाले रहती हैं। जबकि पुरुष संसार में उन सभी अनगिनत पागलपंतियों में डूबे रहते हैं जिससे इतिहास आगे बढ़ता है ।
*हम सब अपने ख़ुद के पूर्वाग्रहों के बंदी हैं। परिकाल्पनिक मानसिकता वाले आदमी की तरह मैं मानता हूँ कि काम-संबंधी आजादी की कोई सीमा नहीं होनी चाहिए। लेकिन असल ज़िंदगी में मैं अपनी कैथोलिक पढ़ाई और अपने बुरजुआ समाज के पूर्वाग्रहों से नहीं भाग सकता, और हम सब की तरह विरोधाभासी मूल्यों की कृपा पर हूँ।
* स्त्रियाँ संसार को एक जगह स्थित रखती हैं ताकि वो असंतुलित न रहे, जबकि आदमी इतिहास को धक्का देने की कोशिश करते हैं। अंत में ये सवाल उठता है कि दोनों में से कौन सी चीज कम संवेदनशील है।
*एक साहित्यिक काम में हम हमेशा अकेले होते हैं। जैसे सागर के बीच भटका हुआ व्यक्ति। हाँ, यह दुनिया का सबसे एकांतवादी पेशा है। कोई भी किसी लिखने वाले को जो वो लिख रहा होता है उसमें मदद नहीं कर सकता।
फ़िलहाल इतने ही। बाक़ी फिर कभी।
किताब पढ़ते हुए स्पैनिश सीखने का मन बना तो आनलाइन टूल भी डाउनलोड कर लिया-Duolingo. इसमें बांग्ला के साथ कई विदेशी भाषाएँ सीखने की सुविधा है। यह अलग बात है कि अभी तक एक भी शब्द सीखे नहीं स्पैनिश का।
बहरहाल यह तो हुई हमारी पढ़ाई की बात। आप बताइए कि इन दिनों आप कौन सी किताब पढ़ रहे हैं या पिछले दिनों कौन सी किताब पढ़ी या आने वाले समय में कौन सी किताब पढ़ने का मन है।
प्रश्न का जवाब देना आवश्यक नहीं है। लेकिन मन करे तो बताइए कि क्या पढ़ रहे हैं आप ?

https://www.facebook.com/share/p/KavPL4skMZCUkZcC/

Thursday, April 06, 2023

प्रसिद्धि सच्चाई के भाव को बाधित करती है

 



‘एकांत के सौ साल’ Hundred years of solitude गैबरियल गार्सिया मार्केज की सबसे प्रसिद्ध पुस्तक मानी जाती है। पिछली सदी की बेहतरीन किताबों में से एक। लेकिन ख़ुद लेखक अपनी इस किताब को अपनी सबसे बेहतरीन किताब नहीं मानते थे।
एक बातचीत में हुए सवाल-जबाब के अंश :
सवाल :हैरानी की बात है: आप कभी भी एकाकीपन के सौ साल को अपने बेहतरीन किताबों में नहीं गिनते जिसे आलोचक सर्वश्रेष्ठ कहते हैं?
जवाब :हाँ, मुझे है। ये किताब मेरे जीवन को हिलाकर रख देने की कगार पर थी। इसको प्रकाशित करवाने के बाद कुछ भी जैसा नहीं रहा।
सवाल : क्यों ?
जवाब : क्योंकि प्रसिद्धी सच्चाई के भाव को बाधक करती है,शायद सत्ता जितना ही, और इसके अलावा ये निजी ज़िंदगी पर एक सतत ख़तरा है। दुर्भाग्यवश जो इससे पीड़ित हैं उनके अलावा इस बात को कोई नहीं मानता।
- गैबरियल गार्सिया मारकेज और प्लिनियो आपुले मेंदोज़ा के बीच संवाद की किताब ‘अमरूद की महक’ से

https://www.facebook.com/share/p/8ownbbbBrmMuZHNo/