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टिप्पणी न कर पाने के कुछ मासूम बहाने
खाली लिखने से नहीं ,अब बनती कोई बात,
आज् उसी की पूछ् है ,जो रहे सदा टिपियात।
रहे सदा टिपियात , बढाये जनता का उत्साह,
रोती-धोती पोस्ट पर भी कहे -क्या लिखा वाह!
कहे क्या लिखा वाह,बजाये बार-बार फिर ताली,
हम तारीफ़ करेंगे भैया, बस पोस्ट करो तुम खाली॥
(मुंडलिया किंग च टिप्पणीसम्राट समीरलाल की दिमागी डायरी से उड़ाई गयी एकदम ताजा मुंडलिया)
पिछ्ले दिनों चिट्ठाजगत में टिप्पणी की महिमा पर तमाम पोस्टें लिखीं गयीं। कुछ से तो ऐसा लगा कि अगर आपको टिप्पणी मिल गईं तो समझ लीजिये आपका लोक-परलोक सुधर गया। टिप्पणी करने से बड़ा पुण्य का काम और कोई है नहीं चिट्ठाजगत में। एकाध पोस्ट में वरिष्ठ चिट्ठाकारों को यह जिम्मेदारी दी गयी है कि वे नये लोगों का उत्साह बढ़ाते रहें।
अब यहां वरिष्ठता की कोई मानक परिभाषा नहीं है अत: भ्रम बनाये रखा जा सकता है कि वरिष्ठ् चिट्ठाकार किसे माना जाये? सबसे शुरुआती दौर से लिख रहे प्रतीक पाण्डेयजी को या अभी एक साल से भी कम समय से लिख रहेज्ञानदत्त पाण्डेयजी को। उमर में प्रतीक , ज्ञानजी से आधे होंगे लेकिन चिट्ठाकारी के अनुभव के पैमाने पर ज्ञानजी का अनुभव प्रतीक के अनुभव का एक तिहाई से भी शायद कम हो। पोस्ट के मामले में भी शायद ज्ञानजी आगे निकल जायें मतलब मामला आपके पूर्वाग्रह पर टिकेगा आकर कि आप किसे वरिष्ठ साबित करना चाहते हैं।
प्रतीक और ज्ञानजी तो अपनी अस्पष्ट वरिष्ठता का बहाना बनाकर (दुविधा की यही सुविधा है भाई!:) )टिप्पणी करने की जिम्मेदारी से बचने का प्रयास कर सकते हैं लेकिन हम कैसे बचेंगे? हमारे ऊपर तो कई जगह व्ररिष्ठता का अपराध सिद्ध हो चुका है सो सजा भुगतनी ही पड़ेगी। जब हमसे बाद में लिखना शुरू करने वाले और् हमसे भी अधिक बाली उमर वाले जीतेंन्दर तक के पास लोग आते हैं और श्रद्धा का अद्धा पिलाकर सरे आम आशीष मांग कर ले जाते हैं तो हमारी कौन बिसात। इसलिये हम यह् तो मानते हैं कि हम वरिष्ठ चिट्ठाकारों के गैंग में शामिल हैं और नये-नवेले ब्लागरों के ब्लाग पर टिप्पणी करना हमारा धर्म है।
इस अहसास के बावजूद् हम पिछले दिनों इस मामले में पिछड़े रहे और टिप्पणी करने में पीछे रहे। चाहते हुये भी टिप्पणी न कर पाने का दुख वही जानते होंगे जो सच में टिप्पणी करना चाहते होंगे। बाकी लोग तो खाली मौज लेना जानते हैं।
ऐसे ही मन के सच्चे सथियों की परेशानियों का बयान करने के लिये यह पोस्ट लिखी जा रही है। यह उन साथियों के दिल का दर्द है कि वे चाहते हुये भी क्यों टिप्पणी करने से वंचित रह गये। आप भी देख लीजिये। हो सकता है यह आपका भी दर्द हो।
१. आप जैसे ही टिप्पणी पोस्ट करने जा रहे होते हैं आपका नेट कनेक्शन कट जाता है और आप टिप्पणी करने की बात बिसराकर देश के तकनीकी पिछड़ेपन पर चिंतित होने लगते हैं- क्या विकसित देश बनेगा भारत जहां नेट कनेक्शन तक प्रापर नहीं है। हुंह!
२. आप पाण्डेयजी की पोस्ट पर कोई कमेंट करने ही वाले हैं तब तक आपको पता चलता है कि आप जिस टिप्पणी बाक्स में कमेंट ठेलने वाले हैं वह आलोक पुराणिक का है। आप जहां के तहां ठिठक जाते हैं और सोचते हैं अभी दिमाग ठीक नहीं है। जब ठीक होगा तब आराम से करेंगे। जाहिर है वह आराम का मौका बाद में कभी सुलभ नहीं हो पाता है। आप इस सच के नजदीक तक नहीं फटक पाते कि टिपियाने से दिमाग का कोई वास्ता नहीं होता। परिणामत: आप हमेशा टिप्पणी करने से वंचित रह जाते हैं।
३. आप किसी बहुत धांसू च फ़ांसू पोस्ट को पढ़कर कमेंट करने की सोचते हैं तो पाते हैं कि उस पर पहले से ही ढेरों टिप्पणियां मौजूद हैं। ऐसे में आप सोचते हैं इस भीड़ में अपनी बच्चा/बच्ची टिप्पणी को क्या घुसायें? गुम हो जायेगी बेचारी! जमाना बड़ा खराब है।
४. किसी टिप्पणी बोझिल पोस्ट को देखकर आप यह भी सोचते हैं- इत्ते लोग तो कह चुके बहुत अच्छा लिखा अब हम भी वही बात काहे दोहरायें बेफ़ालतू में। संयोग् भी कुछ् ऐसा कि आपको अपनी राय् के समर्थन् में जलाली साहब् का शेर् भी याद् आ जाता है- अपने तआरूफ के लिये बस इतना काफ़ी है/ हम उस रस्ते नहीं जाते जो आम हो जाये।
५. किसी टिप्पणी विहीन पोस्ट पर कमेंट करने का मन बनाते हुये आप लखनवी तहजीब के शिकार होकर सोचते हैं कि पहले कोई आकर उदधाटन तो करे तब आगे कुछ कहा-सुना जाये। अक्सर ऐसा होता है कि ऐसी पोस्टें यह यथास्थिति बनाये रखने में कामयाब हो जाती हैं।
६. अक्सर कई ब्लागर् साथी इतना ऊंचे दर्जे का लेखन करते है कि उनको पढ़कर लगता है कि उनको अच्छी तरह से पढ़- समझकर टिप्पणी करेंगे। ऐसी ही पोस्टों के साथ ही ऐसा होता है कि आप उनको दुबारा-तिबारा…….रा जब भी पढ़ते हैं तो लगता है कि एक् बार् फिर अच्छी तरह से समझकर टिपियायेंगे। इस् तरह् समझकर् टिपियाने के मासूम हठ के कारण आपका टिप्पणी कर्म निरंतर स्थ्गनादेश हासिल करता रहता है।
७. ऊंची दर्जे वाली पोस्टों के एकदम उलट तमाम पोस्टें ऐसी होती हैं जो आपको एकदम समझ में आ जाती हैं। तब आपको लगता है कि कुछ न कुछ झाम जरूर है। ऐसा कैसे हो गया कि पोस्ट तुरंत समझ में आ गयी। आप झांसे में आकर उसे भी समझकर टिपियायेंगे वाले खाते में डाल लेते हैं और टिप्पणी स्थगित हो जाती है।
८. आलोक् पुराणिक जैसे तमाम लोग् पुराने टापरों के पर्चे से नकल् करके पोस्ट् लिखते हैं। इन पोस्टों पर कमेंट करते हुये हमेशा डर लगा रहता है कि उन्हीं टापरों में से कोई आगे चलकर उत्तर प्रदेश् में पुलिस कप्तान न बन गया हो गया और् कालान्तर् में किसी पुलिस भर्ती घोटाले में निलंबनावस्था को न् प्राप्त् हो गया हो। आलोक पुराणिक का क्या? वे तो कोई निवेश करके स्मार्टली निकल लेंगे। फंसेगे निरीह टिप्पणीबाज ।
९. अक्सर आप किसी नवोदित के ब्लाग पर कमेंट करते हुये सोचते हैं और् सोचते ही रह जाते हैं। आपको् जब यह दिखता है कि उसने किसी दूसरे ( उमर और तजुर्बे में आपसे कनिष्ठ ब्लागर के ब्लाग पर) तो कई टिप्पणियां कर डालीं हैं और् आपके यहां वह झांका तक नहीं। आप अपनी इस बेइज्जती खराब होने से स्तब्ध रहे जाते हैं और् जहां के तहां टगे खड़े रह् जाते हैं। जो व्यक्ति ठगा सा खड़ा रह् गया उससे टिप्पणी की आशा कैसे कर सकता कोई भला मानस ! और जब भला मानस् आशा नहीं कर् सकता तो ब्लागर कैसे कर सकेगा भाई! सोचने की बात है।
१०. अपने बराबर वाले ब्लागर साथियों के साथ टिप्पणी के मामले में कहानी रिश्तेदारी निभाने जैसा होता है। तिवारीजी हमारे लड़के के मुंडन् में नहीं आये हम् उनकी बिटिया के कनछेदन में न जायेंगे। आप हमारे यहां छोड़कर दुनिया भर में टिपियाते फिरते हो। जाओ हम भी असल् ब्लागर् नहीं जो तुम्हारे ब्लाग् की तरफ़् मुंह् करके कोई कमेंट् करें।
११. किसी ऐतिहासिक लेख को पढ़कर आपके चेहरे भूगोल प्रभावित होता है। या तो आप अपना ढेर सारा जिक्र देखकर् शरम् के मारे लाल् हो जाते हैं या फिर् अपना जिक्र् तक् न् देखकर् गुस्से से लाल् हो जाते हैं। दोनों लालिमाऒं में खतरे के सिग्नल का अहसास् देखकर् आपकी टिप्पणी ट्रेन जहां की तहां खड़ी हो जाती है।
१२.दुनिया आजकल उसी को पूछती है जो सबसे टाप पर रहे। आप या तो टिप्पणी करने में सबसे टाप पर रहो या सबसे पिछड़े। बीच में रहने में कोई मजा नहीं है। अब् चूंकि सबसे ज्यादा टिप्पणी करने में बहुत् मेहनत् करनी पड़ेगी इसीलिये अक्सर् सोचा जाता है बाटम्-बहुमत के साथ रहा जाये। यह बहुमत के साथ रहने की सहज लोकतांत्रिक भावना आपके टिप्पणी करने के उत्साह में आलस्य के रोड़े अटकाती है।
१३. आप किसी निर्मलमना ब्लागर की पोस्ट् पर् या उसकी टिप्पणी पर उससे इत्तफ़ाक न रखते हुये कोई बचकानी टिप्पणी कर जाते हैं। निर्मलमना ब्लागर आपको ऐसा हड़काता है कि आपकी सिट्टी-पिट्टी (अगर् कभी रही होगी) ऐसी गुम हो जाती है जैसे भारतीय नौकरशाही से कर्तव्यपरायणता , ईमानदारी जैसी सामान्य चीजें। आप दुबारा कमेंट करने के पहले सोचोगे कि टिपिया के सिट्टी-पिट्टी दुबारा गुमाई जाये या ऐसे ही ठीक है।
१४. आपकी सिट्टी-पिट्टी तो चलो फिर् भी ठीक् है गुम् गई दुबारा खोज् लेंगे आप। आप अपनी किसी सहज सरल मानी जानी टिप्पणी से प्रमुदित च किलकित होने का मन बनाते हैं तब तक आपको पता चलता है कि आप अपनी जिस करतूत को सहज मानकर अपने दिल को बल्लियों उछाल रहे थे वही आपकी निहायत घटिया हरकत साबित कर दी जाती है। आपके साथ आपके दोस्त भी नप जाते हैं जिनको आप अपना आत्मीय च आदरणीय मानने का नाटक करते हैं। आप अपने फरिश्तों तक के दुबारा हंसी-ठिठोली करने पर पाबंदी लगा देते हैं।
१५. विवाद् की स्थिति में अक्सर् यह् तय् करना मुश्किल् रहता है कि किस तरफ़ टिप्पणी करना मुफ़ीद रहेगा। इस चक्कर में तमाम लोग तट्स्थ रहकर् टिपियाने से सफ़लता पूर्वक बच निकलते हैं। हिंदी चिट्ठाजगत भले ही अपनी शैशवावस्था से गुजर रहा हो लेकिन विवाद के मामले में कमजोर नहीं रहा। लोग विवाद की स्थिति में अपना पक्ष न तय कर पाने के कारण टिप्पणी कर्म से सफ़लता पूर्वक् दूर बने रहे।
१६. इसके उलट् कुछ् ऐसे भी लोग् हैं जिनकी प्रतिभा विवाद् करवाने और् उसको हवा देने में ही सबसे उत्कर्ष पर होती है। विवाद हीनता की स्थिति में वे संवादहीनता की स्थिति को प्राप्त् हो जाते हैं। वे बिनु झंझट् टिप्पणियौ न होई का नारा लगाकर शांतिकाल में टिप्पणी से जी चुराते हैं।
१७. आप किसी पोस्ट पर जब टिप्पणी लिखते हैं और वह लंबी हो जाती है तो आप उस लम्बाई को अपने ब्लाग में जबाबी पोस्ट लिखने का मन बनाते हैं। जबाबी पोस्ट लिखते समय आपके ऊपर ब्लाग के नीति निर्देशक सिद्धांत हल्ला बोल देते हैं कि जबाबी पोस्ट लिखने से बचना चाहिये। नतीजतन आप न टिप्पणी कर पाते हैं न पोस्ट लिख पाते हैं। इसी को कुछ लोग कहते हैं -दुविधा में दोनों गये माया मिली न राम्!
१८. ब्लाग लिखते-लिखते अक्सर लोग हिसाबी हो जाते हैं। सोचने लगते हैं कि दस ठो फालतू की टिप्पणियां लिखने से अच्छा है कि एकाध फ़ालतू सी पोस्ट लिखकर चढ़ा दी जाये। उसमें दस ठो फालतू के कमेंट आ जायेंगे तो ब्लाग जगत की कुल टिप्पणियां तो उतनी ही रहेंगी। लोग यह नहीं सोचते कि आपकी तरह ही दूसरा ब्लागर भी सोचता है। इस चक्कर् में होता यह है कि फालतू की पोस्ट बढ़ती जातीं हैं और टिप्पणियां कम होती जाती हैं।टिप्पणियां लिखना छोड़कर पोस्ट लिखने के लिये उचकने की मंशा एक फ़ालतू के काम से दूसरे फ़ालतू के काम की तरफ़ सहज संक्रमण है।
१९.शुरुआती दिनों में केवल् एक् ई-मेल की दूरी पर रहने वाले लोग शायद अपनी फ़ी-मेल के आवाहन पर ऐसी स्थिति को प्राप्त् हो जाते हैं कि जी-मेल पर ही बता पाते हैं कि यार, बहुत बिजी हूं अब लिखना/टिपियाना उतना नहीं इजी है।
२०. अक्सर पाडकास्टिंग वाली पोस्टें या तो आपको दिखाई नहीं देतीं या सुनाई नहीं देतीं। दिखाई सुनाई न देने के पीछे कारण आपकी मितव्ययिता की भावना भी हो सकती है कि क्या फ़ायदा इतनी बड़ी फ़ाइल डाउनलोड करने का? आप बचत कार्यक्रम के चलते न तो पोस्ट सुन देख पाते हैं और सच बोलने की आदत् के चलते न् दूसरे लोगों की नकल् करके कह् पाते हैं -वाह ,देखकर/सुनकर मजा आ गया।
२१. टिप्पणियां करते-कराते आप कभी न कभी तथागत बुद्ध की स्थिति को प्राप्त् होते हैं और् आपको लगता है सारे झगडों की जड़ इच्छा का होना है। अगर आपको सुखी होना है तो आपको अपनी इच्छाऒं का त्याग करना होगा। ऐसी हालत में पहुंचा हुआ ब्लागर अपनी टिप्पणी करने की इच्छा को देता है और सहज बुद्धत्व को प्राप्त् होता है।
आपको नहीं लगता कि आप अपने जिस ब्लागर मित्र् की टिप्पणियों का इंतजार् कर् रहे हैं वह् आपके ब्लाग् पर् टिप्पणी करने की इच्छा का त्याग करके बुद्धत्व की स्थिति को प्राप्त् हो गया है। जाने अनजाने आपकी एक पोस्ट आपके मित्र को तथागत बना गयी। इससे अधिक आपके ब्लाग की किसी पोस्ट की क्या उपलब्धि हो सकती है?
छपने के बाद्: ये बाइसवां बिंदु उन्मुक्तजी ने बताया जिसे मैं लिखने की सोचता रह् गया लेकिन् सही शब्द् न् मिल् पाने के कारण् टाल् गया।
२२.यदि वर्ड वेरीफिकेशन हो तथा आप चश्मे वाले हों तो कम से तीन चार बार जब शब्द ठीक से लिखो तो टिप्पणी हो। इतनी मुश्किल से तो न टिप्पणी करना भला
मेरी पसन्द
डोम मणिकर्णिका से अक्सर कहता है,
दु:खी मत् होऒ
मणिकर्णिका,
दु:ख तुम्हें शोभा नहीं देता
ऐसे भी श्मशान् हैं
जहां एक् भी शव् नहीं आता
आता भी है,
तो गंगा में नहलाया नहीं जाता।
दु:खी मत् होऒ
मणिकर्णिका,
दु:ख तुम्हें शोभा नहीं देता
ऐसे भी श्मशान् हैं
जहां एक् भी शव् नहीं आता
आता भी है,
तो गंगा में नहलाया नहीं जाता।
डोम् इसके सिवा कह् भी
क्या सकता है,
एक् अकेला
डोम् ही तो है
मणिकर्णिका में अकेले
रह सकता है।
क्या सकता है,
एक् अकेला
डोम् ही तो है
मणिकर्णिका में अकेले
रह सकता है।
दु:खी मत् होऒ, मणिकर्णिका,
दु:ख मणिकर्णिका के
विधान में नहीं
दु:ख उनके माथे है
जो पहुंचाने आते हैं
दु:ख उनके माथे था
जिसे वे छोड़ चले जाते हैं।
दु:ख मणिकर्णिका के
विधान में नहीं
दु:ख उनके माथे है
जो पहुंचाने आते हैं
दु:ख उनके माथे था
जिसे वे छोड़ चले जाते हैं।
भाग्यशाली हैं, वे
जो लदकर या लादकर्
काशी आते हैं
दु:ख मणिकर्णिका को सौंप् जाते हैं।
जो लदकर या लादकर्
काशी आते हैं
दु:ख मणिकर्णिका को सौंप् जाते हैं।
दु:खी मत् होऒ
मणिकर्णिका,
मणिकर्णिका,
दु:ख हमें शोभा नहीं देता।
ऐसे भी डोम् हैं
शव की बाट जोहते
पथरा जाती हैं जिनकी आंखे,
शव् नहीं आता-
इसके सिवा डोम कह भी क्या सकता है!
शव की बाट जोहते
पथरा जाती हैं जिनकी आंखे,
शव् नहीं आता-
इसके सिवा डोम कह भी क्या सकता है!
श्रीकांत् वर्मा
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Posted in बस यूं ही | 29 Responses
फ़ुरसतिया
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
किसे मणिकर्णिका घाट ले जायें जी – टिप्पणियों को या बहानों को? फिल हाल तो यह टिप्पणी सहर्ष फुरसतिया घाट को अर्पित है!
@किसी को घाट ले जाने की जरूरत नहीं है। भाव साम्य की ध्वजा फ़हराते हुये कम टिप्पणी पाने वाले ब्लागर साथी अपने ब्लाग से कह सकते हैं -दुखी मत हो मेरे ब्लाग! ऐसे भी ब्लाग हैं जिन पर कोई कमेंट नहीं आते। तुम्हारे यहां कम से कम् कुछ् तो आते हैं।
जब जब पीड़ पड़ी भक्तन पर, तब तब आए सहाय करे|
रूखा सूखा खाय के ठंडा पानी पीव/देखि पराई चूपड़ी मत ललचावै जीव।
जीतू जी को समर्थन-वाकई में ये हॉल-ऑफ़-फ़ेम में शामिल करने लायक पोस्ट है। शुभकामनायें।
२३. कोई जमाना था भाई गिने-चुने होते थे, सबको पढ़ते थे सब पर टिपियाते थे। एक-एक पोस्ट याद रहती थी सबकी लिखी। अब तो इत्ते ब्लॉग हो गए हैं कि याद ही नहीं रहता, कितनों पर टिपियायें आखिर, पढ़ तक नहीं पाते सबको।
कंप्यूटर फ़ॉर्मेट क्या किया आज तो किसी का ब्लॉग देख ही नई पाए!! अब आधी रात मे दुई चार चिट्ठे पढ़ लिए जाए!
एकदम फुरसते में बइठे रहे का, जउन सब्बै का लपेट के बेलाग पोस्ट्मार्टम रिपोटिया हाज़िर कई दिहे ! सच्ची मा टिप्पणी से लईकन का हौसला टूटत नहीं अउर मैदान छोड़ के भागै वाले भी ‘ धीरे धीरे मचल दिले बेवफ़ा ……..आता है ‘ गुनत गुनत इन्टरनेट ( अंतरजाल,और जने का-का ! ) के सामने बइठे- बइठे रतिया काट देत हैं. अगर कोई एक्को टिप्पणी सरका देत है तो जनो अंखियां फोड़ब सार्थक हुई जात है. जब आपे लोग बिसर जईहो तौ का अपने में कित्ता रेवड़ी बंटिहौ ?
रही शबासी दिये कै बात..तो कउनो एहसान नहीं, नये नये चले वाले बच्चन ( अमितभवा नहीं ! ) का तो कहे जात है, अले अलेले..शबास शबास आओ आओ आओ…. ! नाहीं तो मनई एक दुई बार चोटाय के गोदिन गोदी ज़िन्दगी भर घूमा करत . एक टीप मिल जाये तो मेहरियो के सामने सीना तन जात है. उई अंउघात-मुंह फाड़त सबेरे सबेरे शुरू होइ जाए वइसे पहिलेन पकड़ लेओ, ‘टिप्पी आई है, आई है, आई है…ऊंहूं आंहूं आंहूं . बीबी भी रिसियाब भूल के लपक लेय, ऎं कहां ? दिखाओ दिखाओ, वाह ! टोले-मुहल्ले मा गावत फिरै जइसे रातौ-रात इन्टरनेट के कीड़वा के पदवी से प्रमोशन हुई के इन्टरनेशनल राइटर के दर्ज़ा मिल गवा होए .
ख़ैर एक तुम्हिन हो जौन ई समस्या पर कुछ प्रकाश फेंके के तकलीफ़ किहौ, भगवान भला करे .एकठो रेलवई के इलाहाबाद वाले पांड़ेजी हैं, उई ज़रूर नोटिस लेत हैं. हर पन्ने पर एक लाईन तो जरूरे चटकाय देत हैं, कमाल है भाई, पता नहीं कउन बीबी कवच पढ़कै नेट्सेवा करत हैं ? भगवान उनहू के भला करे .
बाकिन तो आपन आपन इत्तर एक दूसरै का सुंघाय सुंघाय पुलकित भये जा रहे हैं ,दूसर कउन बाड़े मा आवा, कउन गवा ,छिनरो का कौन फ़िकिर. माफ़ किहौ देहाती ज़ुमला कुंजीपटल पर खटकाय दिया, हमार कोउ का करिहे ?
आपका बहाना क्रमांक 4