http://web.archive.org/web/20140419212656/http://hindini.com/fursatiya/archives/357
जीतेंन्द्र, एग्रीगेटर, प्रतिस्पर्धा और हलन्त
By फ़ुरसतिया on October 27, 2007
पिछली पोस्ट ब्लागरों का उत्साह वर्धन के बहाने मुफ़्त सलाह मेंकाकेश भाई ने सवाल किया था-आपकी पोस्टों में ज्ञान जी, आलोक जी और समीर जी लगभग स्थायी रूप से किसी ना किसी बहाने लिंकित रहते ही हैं और बेचारे जीतू भाई उनको आप बिना लिंकित किये कलंकित करते रहते हैं.बेचारों की टांग भी खिचती है और लिंक भी नहीं मिलता.इसका कारण क्या है कुछ नये ब्लॉगर स्प्ष्टीकरण चाहते हैं कि एक वरिष्ठ ब्लॉगर को सबको समभाव से देखना चाहिये.
अब बताओ भाई लोग इसका क्या जबाब दिया जाये? कितना मासूम सवाल है( अहमकपने का हम चाहते हुये भी नहीं कह रहे हैं )। गोया आप यह कहना चाहता हैं काकेश भाई कि जीतेंन्द्र भी लिंक के मोहताज हो गये? यही दिन देखना बदा था जीतेंन्द्र को कि उनके लिये भी लिंक का इंतजाम किया जाये। ज्ञानजी, आलोकजी ने अभी साल नहीं पूरा किया। समीरलाल जी अभी कुछ महीने और चक्कर लगायेंगे उड़नतस्तरी में तब कहीं दो साल पूरा होगा उनका। जबकि जीतू तीन साल पूरे कर चुके। तो भाई सीनियारिटी का कुछ तो अलग ट्रीटमेंट मिलना चाहिये। सो किया गया। ज्ञानजी, आलोकजी,समीरजी पर लिंक लाद दिया गया और जीतू को हल्का कर दिया गया। मस्त होकर टहल बेटा। बिना किसी लिंक का बोझ लिये।
खैर काकेश के सवाल के बहाने जीतेंन्द्र की बात। हमारे ख्याल में जीतेंन्द्र के ऊपर केंद्रित पोस्टें जितनी हमने लिखीं हैं उतनी शायद किसी और के बारे में नहीं लिखीं। खिंचाई उसका मूल तत्व रहा। जीतेंन्द्र हमेशा चर्चा में रहना चाहते रहे। हम उनको रखते रहे। शुरुआती दौर में जब हमने उनके बारे में पहली पोस्ट लिखी-
मेरा पन्ना मतलब सबका पन्ना। इसमें हमने उनका रूप-वर्णन करते हुये लिखा था-
मेरा पन्ना मतलब सबका पन्ना। इसमें हमने उनका रूप-वर्णन करते हुये लिखा था-
गोरे ,गोल ,सुदर्शन चेहरे वाले जीतेन्द्र के दोनों गालों में लगता है पान की गिलौरियां दबी हैं.इनके चमकते गाल और उनमें दबी गिलौरी के आभास से मुझे अनायास अमृतलाल नागर जी का चेहरा याद आ गया.आखें आधी मुंदी हैं या आधी खुली यह शोध का विषय हो सकता है.इनकी मूछों के बारे में मेरी माताजी और मेरे विचारों में मतभेद है.वो कहती हैं कि मूछें नत्थू लाल जैसी हैं जबकि मुझे ये किसी खूबसूरत काली हवाई पट्टी या किसी पिच पर ढंके मखमली तिरपाल जैसी लगती हैं.नाक के बारे में क्या कहें ये खुद ही हिन्दी ब्लाग बिरादरी की नाक हैं.
जिन लोगों ने उनकी पहली फोटो देखी है वे मेरी इस बात से इत्तफ़ाक रखेंगे।
इसके बाद तो तमाम खिंचाई-लेख लिखे गये जो सिर्फ़ और सिर्फ़ जीतू पर केंद्रित थे। ये हैं-
१. जन्मदिन के बहाने जीतेन्दर की याद
२. गरियाये कहां हम तो मौज ले रहे हैं!
३. आइडिया जीतू का लेख हमारा
४. अथ कम्पू ब्लागर भेंटवार्ता
१. जन्मदिन के बहाने जीतेन्दर की याद
२. गरियाये कहां हम तो मौज ले रहे हैं!
३. आइडिया जीतू का लेख हमारा
४. अथ कम्पू ब्लागर भेंटवार्ता
बाद में हमें लगा कि हमारी खिंचाई से जीतेंन्द्र को हमसे भी ज्यादा लोकप्रियता मिल रही थी इसलिये हमने खिंचाई कम कर दी। अब कुछ दिन से बालककमाई में जुटा है इसलिये दिखता नहीं लेकिन इसका मतलब यह थोड़ी कि वह लिंक का मोहताज हो गया। इसीलिये जीतू को लिंक-मुक्त रखा जाता है अक्सर!
वैसे आपको बता दें कि पहले कुछ दिन तक खिंचाई की काफ़ी समृद्ध परम्परा थी। लोग केवल टिप्पणियों में ही नहीं बाकयदा खिंचाई पोस्ट लिखकर ईमानदारी से खिंचाई करने का काम पूरा करते थे। और तो और अपनी संवेदनशील भाषा के मशहूर प्रत्यक्षाजी ने भी बाकायदा हमारा खिंचाई अभियान चलाया था। लोगों ने उन्हें काफ़ी प्रोत्साहित भी किया था लेकिन फिर वे उसे आगे जारी नहीं रख पायीं। खिंचाई हरेक की बस की बात नहीं होती।
बहरहाल, आज जब ज्ञानजी ने अपनी पोस्ट लिखी फीड एग्रेगेटर – पेप्सी या कोक? तो हमें लगा कि पाण्डेयजी कुछ मौज लेंगे ज्यादा लेकिन वे छुआ के निकल गये।
हमें इसका कुछ तकनीकी पहलू मालूम नहीं वर्ना हम कायदे से मौज लेते। अब देखिये तकनीकी अज्ञानता आदमी को मौज से कितना दूर कर देती है।
लेकिन इत्ते दिन की ब्लागिंग से हमें यह लगता है कि ब्लागिंग के ये मजे हैं कि एक-दो ठो ब्लाग खोल लेने आदमी नबाब बन जाता है और संकलक संचालक के अंदर चक्रवर्ती सम्राट के तेवर आ आते हैं। थोड़े में बहुत कुछ हासिल हो हाता है। ये जुगाड़ उपलब्धि है।
वैसे शायद यह एग्रीगेटरों की रगड़-घसड़ है। नारद बेचरऊ की उमर हुई गयी। वे एक तरह से धीरूभाई अम्बानी की तरह शुरुआत करके चले गये। अब बचे दो एग्रीगेटर अनिल अम्बानी और मुकेश अम्बानी की तरह एक दूसरे से भाई का प्यार दिखाते रहते हैं।
वैसे आपको हम बता दें कि ऐसी अफ़वाह है कि नारद फिर से संजीवनी बूटी खाके सामने आने ही वाले हैं। हो सकता है कि आपको यह अफ़वाह लगे लेकिन हिन्दुस्तान में भी अफ़वाहें सच हो जाती हैं।
पाण्डेयजी ने बताया है कि
और एग्रेगेटरी के खेल में भी बिलो-द-बेल्ट (below the belt) हिट करने की या हिट खाने की गुंजाइश ले कर चलनी चाहिये। उसे मैं बिजनेस एथिक्स के बहुत खिलाफ नहीं मानता। और जो समझते हैं कि एग्रेगेटरी समाज सेवा है – सीरियस बिजनेस नहीं, उन्हें शायद माइण्ड सेट बदल लेना चाहिये।
माइन्ड सेट जब बदलेगा तब बदलेगा लेकिन हम आपको फिलहाल प्रतिस्पर्धा से भी आगे दुश्मनी का बनारसी आदर्शबताते हैं। जयशंकर प्रसाद की कहानी गुंडा मुझे उनकी सबसे अच्छी कहानियों में लगती है। इस कहानी के नायक, नन्हकू सिंह, के गुंडा थे। उनका दुश्मनी निबाहने का अंदाज देखिये-
दूर से बोधीसिंह का बाजा बजता हुआ आ रहा था। नन्हकू सिंह ने पूछा-”यह किसकी बारात है?”“ठाकुर बोधी सिंह के लड़के की।” -मन्नू के इतना कहते ही नन्हकू के ओठ फड़कने लगे। उसने कहा-”मन्नू! यह नहीं हो सकता। आज इधर से बारात न जायेगी। बोधीसिंह हमसे निपटकर तब बारात इधर से जा सकेंगे।”मन्नू ने कहा-” तब मालिक, मैं क्या करूं?”नन्हकू गंड़ासा कंधे पर से और ऊंचा करके मलूकी से बोला-” मलुकिया देखता है, अभी जा ठाकुर से कह दे कि बाबू नन्हकू सिंह आज यहीं लगाने के लिये खड़े हैं।
समझकर आवें, लड़के की बारात है।” मलुकिया कांपता हुआ ठाकुर बोधीसिंह के पास गया। बोधीसिंह और नन्हकू में पांच वर्ष से सामना नहीं हुआ था। किसी दिन नाल पर कुछ बातों में ही कहा-सुनी होकर, बीच-बचाव हो गया था। फिर सामना नहीं हो सका। आज नन्हकू जान पर खेलकर अकेले खड़ा है। बोधीसिंह भी उस आन को समझते थे। उन्होंने मलूकी से कहा-” जा बे, कह दे कि हमको क्या मालूम कि बाबू साहब वहां खड़े हैं। जब वह हैं ही, तो दो समधी जाने का क्या काम है।”बोधी सिंह लौट गये और मलूकी के कंधे पर तोड़ा लदवाकर बाजे के आगे नन्हकू सिंह बारात लेकर गये। ब्याह में जो कुछ लगा खर्च किया। ब्याह करा कर तब, दूसरे दिन इसी दुकान तक आकर रुक गये। लड़के को और उसकी बारात को उसके घर भेज दिया।
जिनकी दुश्मनी निबाहने की अदायें थीं वे दोस्ती कैसी निभाते होंगे?
पिछली पोस्टों में कुछ हलन्त दिखते रहे। यह शायद ठीक से टाइप न कर पाने के कारण हुआ। कभी-कभी हमारे ब्लाग में शब्द रामलीला के राजाऒं के पात्रों की तरह काम करने लगते हैं। जिनका पीछे का कपड़ा नीचे झाड़ू मारता चलता है।
काकेश के उकसावे में आकर हमने खोया-पानी किताब मंगवा ली। अब उसे पढ़ा जा रहा है। तुरंत विचार आया कि इसे भी नेट पर होना चाहिये। बात करें तुफ़ैल चतुर्वेदी से कि अगर टाइपिंग उपलब्ध हो तो डाल दिया जाये। फ़ांट रविरतलामीजी बदल देंगे। क्या विचार है!
Posted in बस यूं ही | 16 Responses
————————————–
थोड़ा शिलाजीत भी चटाइयेगा, रेगुलर। और ये अपने “खिंचाई-मित्र” को स्पष्ट कर दें कि पैसा हाथ का मैल है। अंतत नारद-भक्ति ही कैवल्य-प्राप्ति का साधन है। सो उस काम पे लगें!
मुस्कान के साथ पढ़ें….सादा नहीं….
राजेश जी मैं टिप्पणी कर रहा हूँ और मेरा नाम पोस्ट में नहीं है।