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एक और कनपुरिया मुलाकात
By फ़ुरसतिया on October 13, 2007
पिछले दिनों काशीनाथ सिंह द्वारा अपने ‘नामवर भैया‘ बारें में लिखी संस्मरणात्मक किताब ‘घर का जोगी जोगड़ा’में उपरोक्त बात पढ़ी। आगे नामवरजी कहते हैं-भारतेंदु रईस थे लेकिन गद्य देखिये-सड़कछाप। पनवाड़ी की दुकान का गद्य।
हमें अच्छा लगा। सोचा कुछ ‘सड़कछाप’ लिखने की कोशिश करने में कउन हर्जा है। लिख गया तो लिख गया ‘सड़क छाप‘ वर्ना धांसू तो रहेगा ही न!
कल एक और संस्मरण पढ़ा। कानपुर से छपने वाली अकार तैमासिक पत्रिका में विजय बहादुर सिंह का संस्मरण। यह संस्मरण 1992 में लिखा गया था। कुछ कारणों से पहले छप नहीं पाया तो अकार में गिरिराज किशोरजी ने पिछले साल छापा। इसमें बेटियों के बारे में एक कविता है-
छोड़कर चली जाती है पत्नी
प्रेमिकायें चली जाती हैं छोड़कर
चले जाते हैं छोड़कर दोस्त-यार सारे के सारे
बेटियां हाथ थाम लेती हैं आगे बढ़कर।जवान बेटों की नींद में व्यवधान होता है बाप
व्यवधान होता है बहुऒं के निजी सुख में
अपने अकेलेपन में लहूलुहान
जीवित व्यवधान होता है पूरे मकान के वुजूद में!व्यवधान को मानकर आशीर्वाद
बेटियां सर पर बिठा लेती हैं
सजा लेती हैं आखों में
पलकों पर उठा लेती हैं बेटियां
सबके सब छोड़कर चले जाते हैं जब…
— शलभ
कवि शलभ के बारे में तो मुझे ज्यादा पता नहीं (संस्मरण में इसका जिक्र है कि उनकी अतिभावुकता और अराजकता के कारण उनकी पत्नी अलग रहने लगीं थीं) लेकिन इस संस्मरण को पढ़ने के बाद मैं सोचता रहा कि क्या सच में ऐसा होता होगा कि पत्नी , प्रेमिका छोड़ जाये और बेटियां सहारा दें। संस्मरण में दूधनाथ सिंह से जुड़े वाकये हैं। एक जगहबोधिसत्व का भी जिक्र है। चूंकि बोधिसत्व दूधनाथ सिंह घराने के हैं इसलिये मैं यह मानता हूं कि ये बोधिसत्व अपने विनय पत्रिका वाले बोधिसत्व ही होंगे।
बोधिसत्व की मार्मिक कविता पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थेपढ़कर अपने पिता का जाना बरबस याद आ गया-
पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे
वे हर मिलने वाले से कहते कि
बहुत नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस।वे जिंदगी को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती हो
किराने की दुकान पर।उनकी यह इच्छा जान गए थे उनके डॉक्टर भी
सब ने पूरी कोशिश की पिता को बचाने की
पर कुछ भी काम नहीं आया।
इसके पहले वाली पोस्ट में बोधि ने अभय तिवारी की याद में अपनेविरहका वर्णन किया था। मजे की बात यह कि उस दिन कानपुर में अभय माउस पट्क के रह गये लेकिन बोधि की विरह-व्याकुल पोस्ट न देख सके।
अब जब अभय वापस पहुंच गये होंगे। वे जब तक कानपुर रहे उनसे रोज बात होती रही। जिस दिन वे हमारे घर आये उसके अगले दिन हम उनसे मिलने उनके घर भी गये।
रात को अचानक प्लान बना कि मिला जाये। साढे आठ बज गये थे निकलते-निकलते। हमारे घर से उनका घर करीब दस किमी दूर है। साथ में चलने के लिये राजीव टंडनजी को टटोला गया वे तैयार हो गये। हम चल दिये।
रावतपुर तक तो हमारी फ़टफ़टिया फ़ड़फ़ड़ाते हुये चली। लेकिन येन रावतपुर चौराहे के पास फ़टफ़टिया के टंडनजी वाले हिस्से ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन कर दिया। टंडनजी की स्लिम-ट्रिम और किसी भी स्लिमिंग सेंटर की आदर्श आउटपुट काया के बावजूद पिछले पहिये की हवा निकलते देख मुझे पहली बार उनके व्यक्तित्व के वजन का अहसास हुआ। मोटरसाइकिल की हवा निकलते देख हमारी भी निकलने लगी। मोटरसाइकिल का पंचर रात में कितना दुख देता है यह मोटरसाइकिल हांकने वाले ही लगा सकते हैं। बाकी तो मात्र अनुमान लगा सकते हैं।
जो भी होना है वही होगा,
जो भी होगा वही सही होगा।
क्योंकि होते हो उदास यहां,
जो नहीं होना है, नहीं होना।
सो आशावादी राजीवजी उवाचे- गुरू, गाड़ी बड़े मौके से पंचर हुयी है। यहां चौराहे पर कोई न कोई इंतजाम जरूर होगा।
इंतजाम मिला लेकिन तब जब हम शेरशाह सूरी के बनवाये ग्रैंड ट्रंक रोड पर आधा किमी मोटर साइकिल के साथ घसिट लिये। पंचर बनवाते हुये हमें याद आया कि अभय तिवारी तो जल्दी सो जाने वालों में हैं। ऐसा न हो जब हम पहुंचे तो वे सपने देखने लगे हों। हमने उनको फोनियाकर जागते रहो कह दिया।
वैसे तो पंचर की दुकान पर पंचर बनने के सिवा ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसका जिक्र किया जाये। लेकिन वहां जो हमारा और टंडनजी का आपसी जिक्र हुआ वह काबिले जिक्र है। इसलिये कि हमें डर है कि हमने जो जिक्र किया वह कहीं सच न साबित हो जाये। अगर सच साबित हुआ तो वह जिक्र ऐतिहासिक की श्रेणी में आयेगा। इसलिये बेहतर है उसका जिक्र यहां कर ही दिया जाये।
पंचर बनवाते हुये हम लोगों ने यह सोचा कि अगर मोटर साइकिल से लंबी यात्रा करनी है तो एक ट्यूब और उसे बदलने का हुनर साथ में होना चाहिये। बात चलते-चलते इस दिशा में मड़ी कि अगर हम लोग अपनी साइकिल यात्रा की तर्ज पर भारत यात्रा करें तो कैसा रहेगा? कित्ता खर्चा आयेगा? कितना समय लगेगा?
उदारवादी फ़ार्मूला लगाते हुये हमने यह जोड़ा कि पांच हजार किलोमीटर की अगर कार से यात्रा की जाये तो एक माह में पचास हजार रुपये लग जायेंगे। हमने सोचा पांच बहादुर लोग मिल जायें तो दस हजार रुपये में मामला निपट जायेगा। लेकिन अपने खर्चे से देशाटन की बात कुछ जम नहीं रही थी। सो खर्चे के लिये तमाम जुगाड़ी उपाय सोचे गये। सोचा यह भी गया कि ब्लागर लोग इस महान यात्रा को खुशी-खुशी प्रायोजित करने के लिये आगे आ जायेंगे। जो लोग प्रायोजक बनेंगे हम उनके बैनर अपनी सवारी में लगा लेंगे। हम रास्ते से उनके ब्लाग पर टिप्पणी करेंगे। कुछ इस तरह से-
- ये टिप्पणी भन्नाना पुरवा से है। यहां जाम लगा है। इसलिये मजबूरी में टिपिया रहे हैं।ये न समझा जाये कि झकास लिखा है।
-ये झकरकटी के नुक्कड़ वाली चाय की दुकान से टिपिया रहे हैं। ई का फोटू लगा देते हो इतना बड़ा कि खुल ही नहीं रहा। क्या पंगा है भाई!
- ये टिप्पणी कानपुर से अस्सी किमी दूर एक पुलिया से की जा रही है।
-इस समय हम कल्लू पहलवान के ढाबे पर खाना खा रहे हैं। उन्होंने जबरदस्ती इत्ता खिला दिया है नींद आ रही है। वे सोने नहीं दे रहे हैं। कह रहे हैं हमें भी ब्लाग लिखना सिखाऒ। हमने कहा कि लिखना पहलवानों का काम नहीं भाई! इसमें दिमाग लगता है। इस पर पहलवान कह रहे हैं- जब समीरपहलवान, जीतू पहलवान और बोधि पहलवान लिख सकते हैं तो हम काहे नहीं! लगता है पहलवनवा रोज डेली ब्लाग पढ़ता है।
- यहां जंगल में डेरा डाला है। पेड़ से एक पक्षी अपनी बेगम से बतिया रहा है-तुम्हें पता है, हम पुराने जनम में टापर रहें। हमरे सारे निबंध टीप-टीप के आज न जाने कित्ते लोग रोजी-रोटी कमा रहे हैं। हमें देखो आज दाना तक नहीं नसीब नहीं हुआ। यही लिये कहा गया है- होइहै सोई जो राम रचि राखा!
अभी आपको यह मौज लग रही होगी। लेकिन कल यह हकीकत हो सकती है। हम कनुपुरियों का कुछ पता नहीं कब निकल लें।
पंचर बनने के बाद हम अभयजी के घर की तरफ़ चले। चूंकि इलाके का चप्पा-चप्पा राजीव टंडनजी का छाना हुआ था इसीलिये वे हमें भी चप्पा-चप्पा छनवाते रहे। भटकते हुये हम रात को साढ़े नौ बजे पहुंचे निर्मलानंद के घर।
अभय की माताजी हमारी फोटो देख चुकी थीं इसलिये देखते ही पहचान गयीं। पूछा- फ़ुरसतिया तुम्हारा घर का नाम है?
हम लोग उनसे बहुत देर बतियाते रहे। अभयजी के मुंबई के दोस्तों की भी तारीफ़ करती रहीं।
माताजी कविता लिखती रही हैं। कुछ कवितायें अभयजी ने अपने ब्लाग में डाली थी। इस बार और ढेर सारी नोट करके ले गये हैं। जल्दी ही वे आपको पढ़ने को मिलेंगी।
बातचीत के दौरान पता चला कि तीनों कनपुरिये ब्लागर एक ही स्कूल बी.एन.एस.डी. इंटर कालेज के पढ़े हुये हैं। राजीवजी सन 79 में, हम 81 और अभय तिवारी सन 1985 वहां से निकले।
वहां अभयजी की भाभीजी बढ़िया चाय भी पिलाई। नास्ता भी। भतीजियां स्वाति और श्रेया एक क्लास आगे पीछे हैं। हमने श्रेया से पूछा कि तुमको तो दीदी की पुरानी किताबें पढ़ने को मिलती होंगी।
बस्स, मौका मिलते ही अभय अपने घर में छोटा होने का रोना लगे। उनकी सबसे पीड़ादायक कथा यह है कि उनकी कोट पहनने की तमन्ना आज तक न पूरी हुई।
वे इस पर लिखने की कह रहे थे। आप लोग मुकर्रर ,इरसाद कहें तो शायद लिख ही डालें।
वे इस पर लिखने की कह रहे थे। आप लोग मुकर्रर ,इरसाद कहें तो शायद लिख ही डालें।
राजीवजी ने अपने इत्र के धंधे से जुड़े तमाम अनुभव सुनाये। मुझे यह पहली बार ,सच में , पता चला कि किसी उत्पाद में सुगंध का इतना महत्व होता है। महकौवा साबुन, पानमसाला, चाय, शराब और तमाम सामानों में सुगंध की विशेषज्ञता का सबसे बड़ा होता है। पता नहीं राजीवजी इस बारे में पोस्ट काहे नहीं लिखते? अरे ऐसा भी क्या आलस भाई!
रात को साढे दस बजे हम लोग वहां से विदा लेकर चले आये। इसके बाद अभयजी से बस फोनालाप ही हो पाया। कल वे यहां से मुंबई को प्रस्थान कर गये। प्रस्थान से पहले जब हमने उनको फोन किया तो वे जाने ही वाले थे। हमारी श्रीमतीजी ने एक बार फिर से स्मार्ट्नेस का प्रमाणपत्र दिया और उनकी उमर में पन्द्रह साल कम कर दिये। चुस्त-दुरुस्त रहने के राज पूछने वाली बात को वे अपनी निर्मल हंसी में उड़ा गये।
कानपुर जब अभय आये थे तो चालीस के होने वाले थे (17 अक्तूबर को)। वापस गये तो पचीस के होकर गये।
जन्मभूमि इससे ज्यादा और क्या दे सकती है भाई!
मेरी पसन्द
जब मै चाहूँ पंख पसारूं
मुझको तुम उड़ने देना
वापस लौट सकूँ जब चाहूँ
द्वार खुला रहने देना
मुझको तुम उड़ने देना
वापस लौट सकूँ जब चाहूँ
द्वार खुला रहने देना
कैनवस खुला हो मन का
मुझे तूलिका तुम देना
कैसे रंग भरूँ उत्सव का
मुझे बताते तुम रहना
मुझे तूलिका तुम देना
कैसे रंग भरूँ उत्सव का
मुझे बताते तुम रहना
छू लेते हो छप जाती हूँ
क्या कहते हो सुन लेती हूँ।
क्या कहते हो सुन लेती हूँ।
Posted in बस यूं ही | 11 Responses
जन्मभूमि इससे ज्यादा और क्या दे सकती है भाई!
संदर्भ-(कानपुर जब अभय आये थे तो चालीस के होने वाले थे (17 अक्तूबर को)। वापस गये तो पचीस के होकर गये।)
शुक्रिया…
“वह हिंदी का जातीय गद्य हो ही नहीं सकता जिसमें ‘भदेसपन’ न हो- डा.नामवर सिंह”
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और तीन “पहलवान” लोग उनका नाम बिगाड़ने के लिये सुकुल को सेंत-मेंत में छोड़ देंगे क्या?
kanpur aane ke bad laga tha duniya se kat gaya.
ab lagata hai yah ganda nagar delhi & lucknow se jyada jeevant aur ras bhara hai
पूरी पोस्ट का आनंद लिया।शुक्रिया…
आज ही रात को कानपुर और उसके बाद बनारस और इलाहाबाद के लिए निकल रहे हैं. बाकी व्योरा फुरसत में.
घर पर इंटरनेट लगाने के लिए आवेदन दे दिया है है १-२ दिन में लग जाना चाहिए, उसके बाद आराम हो जायेगा .