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छ्ठा पे कमीशन- एक चिरकुट चिंतन
By फ़ुरसतिया on March 27, 2008
छ्ठा पे कमीशन आ गया है।
जिस दिन पे कमीशन पेश किया गया नेट पर ट्रैफ़िक बढ़ गया। दफ़्तरों में लोग लिये पेन-ड्राइव लगे रहे। छह सात सौ पन्ने की रिपोर्ट तुरत कहां समझ में आती है। अंधों का हाथी है पे कमीशन की रिपोर्ट।
सरकारी कर्मचारी लिये कैलकुलेटर पिले पड़े हैं- किता मिलेगा? किता बढेगा?
लोगों को समझ नहीं आ रहा है कुच्छ।
कोई कहता है पांच हजार बढेगा। कोई दस हजार।
कोई कहता है – ये सब सरकार का मजाक है। खोदा पहाड़ निकली चुहिया।
कोई उचारता है- साला इधर से मिलेगा उधर टैक्स में निकल जायेगा।
एक व्यंग्य कविता लिखी है श्रवण शुक्ल ने। नायक स्टेयरिंग चलाते की मुद्रा में हाथ घुमाते हुये कहता है- ई बताओ यार, जित्ता मिली उत्ते मां नैनो आ जाई?
बीस साल की नौकरी वाले सरकारी अधिकारी पचास -साठ हजार रुपया पाने लगेंगे। मतलब दो हजार करीब रोज! पैकेज कहो तो छह लाख का पड़ेगा।
हजारों करोड़ का बोझ। अर्थशास्त्री हल्ला कर रहे हैं- हजारों करोड़ का बोझ पड़ेगा सरकारी खजाने पर। दुष्यन्त कुमार का शेर हाजिरी देने आ जाता है ,धुरविरोधी की याद के साथ-
ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सज़दे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा.
ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सज़दे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा.
हम अपराध बोध से दोहरे हो जाते हैं।
अपराध बोध कम करने के लिये सोचते हैं प्राइवेट में नये-नये लड़के शुरुआत ही इत्ते से करते हैं जित्ते हम बीस साल बाद पायेंगे।
जनता कहती है -प्राइवेट वाले काम भी तो किता करते हैं। ये भी तो देखो।
हम बहाने बताते हैं- हम भी तो कम नहीं खटते। सबेरे के साढ़े आठ से शाम के आठ तक जुटे रहते हैं।
बड़ा अजब-गजब है तुलनात्मक अध्ययन।
एक लेख कहता है- प्राइवेट कम्पनियां मेधा अपहरण का काम करती हैं। जो अच्छा दिखा उसे खरीद लिया। चूसा और चूस के आगे दूसरे के हाथ बेच दिया।
लेख यह भी चिंता करता है – क्या सरकार में केवल औसत के मेधा के लोग रहेंगे।
हम भी चिंता करते हैं। तमाम चिंतायें है करने को। कैसे ऐस हो जाता है कि अपने-अपने समय के सबसे अच्छे लड़के सरकारी नौकरी में जाकर औसत हो जायें? बड़ा मुश्किल है समझना।
अब एक चिंता और देखिये। ई चिंता टिपिकल चिर्कुट टाइप की है।
सबसे बड़ा सरकारी कर्मचारी महीने में नब्बे हजार पायेगा। मतलब दिन के तीन हजार।
न्यूनतम मजूरी करने वाले को मिलते हैं 113.70 रुप॔ये रोज। ये रकम कागज पर है। मिलते इससे कम ही होंगे। हैं। पचास-साठ रुपये रोज। कभी -कभी इत्ते में दो किलो सब्जी भी नहीं आती।
इस मजूरी को भी पाने के लिये मणियावा को बहुत साल इंतजार करना होगा। बहुत पिटना होगा।
ई बहुत चिरकुट चिंतन है जी। चले आफ़िस! काम पे लगें।
नोट: ऊपर दुष्यन्त कुमार का शेर राकेश खण्डेलवाल जी के बताने पर सही किया।
Posted in बस यूं ही | 12 Responses
मैं सज़दे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा.
शेर बड़िया है
वोट लपेटने का चक्कर क्रम है
जब तक आपको कुछ समझ आएगा
तब तक आपका वोट लुट जाएगा
मत जाएगा मत जाएगा
समझते समझते सम्मत जाएगा
माल कुछ हाथ नहीं आएगा
खुश तो हो लो यार
खुश होने पर तो कोई टैक्स नहीं लग पाएगा
जो बन रहा है सुख
चुनाव के बाद देखन
सब सूख जाएगा.