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खटपटाया, बटन टबाया और आपका लिखा हो गया शाया।
अब आप निहार रहे हैं चातक से। टिप्पणियों के इंतजार में। यह हमारा अपना सच है। हो सकता है आपक कुछ अलग सच हो भाया।
ब्लाग की जो ताकत है वह बिना किसी बिचौलिये के दुनिया के सामने अपने को अभिव्यक्त करने के लिये एक माध्यम के रूप में है।
तात्कालिकता इसका सहज गुण है। यही इसकी सामर्थ्य है यही इसकी सीमा।
कुछ एक सुधी और सजग ब्लागरों को छोड़ दें, जो लेख लिखने के पहले अपने लेख का नोक फ़लक दुरुस्त करते हैं ,तो अधिकतर लोग अपने पहले ड्राफ़्ट को पोस्ट कर देते हैं।
एक बार टिप्पणी यज्ञ पूरा हो जाने के बाद वह पुराने लेखों में चला जाता है। दो दिन बाद पोस्ट बासी और चिट्ठाकार लेने लगता है उबासी। कुछ नया ठेला जाये।
अब सब लोग ज्ञानजी जैसे कैमरानरेश नहीं होते कि जहां कार खराब हुई वहां भी चमका दिया कैमरा और जय गंगा मैया कहके प्रसाद बांट दिया। उनका पोस्ट संयोजन का ट्रेंड देखना पडे़गा। कैसा है। किस दिन ज्ञानी पोस्ट, किस दिन नये विचार और किस दिन रोतूली पोस्ट ठेलते हैं। अध्ययन का विषय है। गणितज्ञ ओझा जी के सहयोग हम भी कौनो थ्योरी निकालने ही वाले हैं। बचना ऐ ब्लागरों।
मेरा अभी तक का अनुभव बताता है कि चिट्ठाजगत की सबसे ज्यादा टिप्पणियां हंसी-मजाक हेहेहे वाली पोस्टों पर होती हैं या फ़िर भावुक / संवेदनशील स्मृतियों पर। नास्टेल्जिक पोस्टें ज्यादा ध्यान खैंचू होती हैं। हमारी अपने बड़े भाई के बारे में लिखी गयी पोस्ट को सबसे ज्यादा वोट मिले । यह लोगों के संवेदनशील होने का प्रमाण है शायद! परदुखकातरता भी सहज होती है। इसी परदुखकातरता में माननीय महोदय अपना जुखाम-बुखार खांसी भी ठेल जाते हैं। लोगों को हलकान कर देते हैं। लोग स्वास्थ्य ठीक होने की कामना करते हैं और ज्ञानी जी पट से पोस्ट ठेल देते हैं। संवेदनाओं का मैगी असर।
ऐसा मैने देखा है कि मेरे बहुत से लेख जो तमाम टिप्पणी बटोरू हुये, तातकालिक टाइप के, उनको जब दुबारा देखता हूं तो अहसास होता है कि क्या चिरकुट लिखा है। कैसे खौखिया के सफ़ाई दी। कैसे पलट के हल्ला बोला। हम आदमी हैं कि बिना नाड़े के पायजामा। बार-बार सरक-सरक गये।
यह सच है भाई अपना लिखा जब दुबारा बांचता हुं , [अव्वल तो पढ़ने का मन ही नहीं होता। जब हमारा नहीं होता तो दूसरे का कैसे होगा?] तो लगता है कि ब्लागिंग भी क्या चिरकुटई है। हमारे हाथ में उस्तरा पकड़ा दिया।
कभी-कभी यह लगता है कि ब्लागिंग में प्रयोग की जा रही भाषा के बारे में भी लिखा जाये। कैसे आलोक पुराणिक लव एट डाट काम टाइप शीर्षक सटा रहे हैं। शिवबाबू लिख रहे हैं नेता या तो डिमांड में होता है या रिमांड पर। ज्ञानजी या तो अंग्रेजी ठेलते हैं या ठेठ शब्द ठेल,रिठेल टाइप। बीच की चीज कोई मंजूर नहीं। प्रत्यक्षाजी की भाषा बांचते हुये लगता है निर्मलवर्मा घराने की ब्लागर हैं। प्रमोद जी की पोस्ट पर का कोई शब्द देखकर तो लगता है कि ऊंचे पहाड़ पर का टिका कोई पत्थर है जो लगता है कि अब गिरा तब गिरा लेकिन वो टिका रहता है। गजब का संतुलन! हमारे देबू बाबू जब कोई लम्बी पोस्ट लिखते हैं तो उसमें ‘अलहदा‘ शब्द जरूर प्रयोग करते हैं। अगर कोई टेस्ट करना हो तो किया जा सकता है कि यह देबू का पोस्ट है तो उनका ’अलहदा टेस्ट’ कराया जा सकता है।
और भी तमाम ब्लागर हैं जिनकी भाषा और मिजाज की पड़ताल अपने में रोचक काम हो सकता है। लेकिन करे कौन? हम तो जा रहे हैं आफिस।
भैया यह हमारा अपना मत है। इसे हमारा ब्लागिंग से मोहभंग न समझा जाये। ऊ तो हम करते ही रहेंगे। जबरिया।
ब्लागिंग एक और चिरकुट चिंतन
By फ़ुरसतिया on July 19, 2008
ब्लागिंग
ब्लागिंग अजब-गजब चीज है।खटपटाया, बटन टबाया और आपका लिखा हो गया शाया।
अब आप निहार रहे हैं चातक से। टिप्पणियों के इंतजार में। यह हमारा अपना सच है। हो सकता है आपक कुछ अलग सच हो भाया।
ब्लाग की जो ताकत है वह बिना किसी बिचौलिये के दुनिया के सामने अपने को अभिव्यक्त करने के लिये एक माध्यम के रूप में है।
तात्कालिकता इसका सहज गुण है। यही इसकी सामर्थ्य है यही इसकी सीमा।
कुछ एक सुधी और सजग ब्लागरों को छोड़ दें, जो लेख लिखने के पहले अपने लेख का नोक फ़लक दुरुस्त करते हैं ,तो अधिकतर लोग अपने पहले ड्राफ़्ट को पोस्ट कर देते हैं।
एक बार टिप्पणी यज्ञ पूरा हो जाने के बाद वह पुराने लेखों में चला जाता है। दो दिन बाद पोस्ट बासी और चिट्ठाकार लेने लगता है उबासी। कुछ नया ठेला जाये।
अब सब लोग ज्ञानजी जैसे कैमरानरेश नहीं होते कि जहां कार खराब हुई वहां भी चमका दिया कैमरा और जय गंगा मैया कहके प्रसाद बांट दिया। उनका पोस्ट संयोजन का ट्रेंड देखना पडे़गा। कैसा है। किस दिन ज्ञानी पोस्ट, किस दिन नये विचार और किस दिन रोतूली पोस्ट ठेलते हैं। अध्ययन का विषय है। गणितज्ञ ओझा जी के सहयोग हम भी कौनो थ्योरी निकालने ही वाले हैं। बचना ऐ ब्लागरों।
मेरा अभी तक का अनुभव बताता है कि चिट्ठाजगत की सबसे ज्यादा टिप्पणियां हंसी-मजाक हेहेहे वाली पोस्टों पर होती हैं या फ़िर भावुक / संवेदनशील स्मृतियों पर। नास्टेल्जिक पोस्टें ज्यादा ध्यान खैंचू होती हैं। हमारी अपने बड़े भाई के बारे में लिखी गयी पोस्ट को सबसे ज्यादा वोट मिले । यह लोगों के संवेदनशील होने का प्रमाण है शायद! परदुखकातरता भी सहज होती है। इसी परदुखकातरता में माननीय महोदय अपना जुखाम-बुखार खांसी भी ठेल जाते हैं। लोगों को हलकान कर देते हैं। लोग स्वास्थ्य ठीक होने की कामना करते हैं और ज्ञानी जी पट से पोस्ट ठेल देते हैं। संवेदनाओं का मैगी असर।
ऐसा मैने देखा है कि मेरे बहुत से लेख जो तमाम टिप्पणी बटोरू हुये, तातकालिक टाइप के, उनको जब दुबारा देखता हूं तो अहसास होता है कि क्या चिरकुट लिखा है। कैसे खौखिया के सफ़ाई दी। कैसे पलट के हल्ला बोला। हम आदमी हैं कि बिना नाड़े के पायजामा। बार-बार सरक-सरक गये।
यह सच है भाई अपना लिखा जब दुबारा बांचता हुं , [अव्वल तो पढ़ने का मन ही नहीं होता। जब हमारा नहीं होता तो दूसरे का कैसे होगा?] तो लगता है कि ब्लागिंग भी क्या चिरकुटई है। हमारे हाथ में उस्तरा पकड़ा दिया।
कभी-कभी यह लगता है कि ब्लागिंग में प्रयोग की जा रही भाषा के बारे में भी लिखा जाये। कैसे आलोक पुराणिक लव एट डाट काम टाइप शीर्षक सटा रहे हैं। शिवबाबू लिख रहे हैं नेता या तो डिमांड में होता है या रिमांड पर। ज्ञानजी या तो अंग्रेजी ठेलते हैं या ठेठ शब्द ठेल,रिठेल टाइप। बीच की चीज कोई मंजूर नहीं। प्रत्यक्षाजी की भाषा बांचते हुये लगता है निर्मलवर्मा घराने की ब्लागर हैं। प्रमोद जी की पोस्ट पर का कोई शब्द देखकर तो लगता है कि ऊंचे पहाड़ पर का टिका कोई पत्थर है जो लगता है कि अब गिरा तब गिरा लेकिन वो टिका रहता है। गजब का संतुलन! हमारे देबू बाबू जब कोई लम्बी पोस्ट लिखते हैं तो उसमें ‘अलहदा‘ शब्द जरूर प्रयोग करते हैं। अगर कोई टेस्ट करना हो तो किया जा सकता है कि यह देबू का पोस्ट है तो उनका ’अलहदा टेस्ट’ कराया जा सकता है।
और भी तमाम ब्लागर हैं जिनकी भाषा और मिजाज की पड़ताल अपने में रोचक काम हो सकता है। लेकिन करे कौन? हम तो जा रहे हैं आफिस।
भैया यह हमारा अपना मत है। इसे हमारा ब्लागिंग से मोहभंग न समझा जाये। ऊ तो हम करते ही रहेंगे। जबरिया।
अपनी लिखी कई सारी पुरानी पोस्ट्स को कल रात बैठ कर हिंदिनी और ई-स्वामी दोनो ही चिट्ठों से मिटा दिया – कुछ श्रेणियों के नाम-वाम बदले – सच कहूं तो अच्छा लगा ये करना!
बहुत सारे ब्लागर्स स्वीकार करते हैं की वे अपना पुराना माल हटा देते हैं और कई कहते हैं की यह तो वेब-लाग है जो भी है पडा रहे – मुझे मालूम है आप इस दूसरे स्कूल ऑफ़ थॉट के हैं!
याद है आप शुरु में मेरे लेखन को यूं भी खोमचे वाला कहते थे – तुरंत बना और दो घंटे में पटरी साफ़ – फ़िर भी उम्मीद है कुछ नास्टेल्जियाने के लिये ही सही बचा रहने लायक हो!
खैर….ये तो एक सामान्य प्रक्रिया है कोई बीमारी नही। अपने समय से ठीक हो ही जाएगा। फिर भी इलाज कराना चाहते हो तो इसका इलाज है, अपना लिखा कम दूसरों का लिखा ज्यादा पढो… कोशिश करो कि नए चिट्ठाकारों को पढो, सुबह शाम पाँच पाँच पोस्ट, लंच ब्रेक मे कविताओं का जोशांदा लेते रहो।
ऊंचाई वही अच्छी, जिसपर बार-बार चढ़ते-उतरते रहें. इसीलिए हम भी अपनी पुरानी पोस्ट बीच-बीच में बांचते रहते हैं. हंसी-ठट्ठे वाली टिप्पणियां तो कई तरह से सहारा देती हैं. तो क्यों न किया जाय? मध्यमान को कोई महत्व नहीं दिया जाता.
क्योंकि बिना दिमाग लगाये बोलना ठीक नहीं ।
और दिमाग से बोलो, तो दिमगिये का कबाड़ा होता है..
लेकिन अनूप सुकुल..आज ?
नरभसाये नरभसाये से नज़र आते हैं, वितृष्णा हो रही है न,
मेरा फरवरी का मेल याद करिये, तब आप ही ने कहा था, दिल पर मत लिया करिये..
वाकई मत लिया करिये…आप भी !
कई बार देर रात पोस्ट चढ़ाकर सोने चले जाते हैं. रात ख्याल आता है कि यार, क्या बकवास लिख डाला. सुबह उठते ही सोचते हैं कि पोस्ट मिटा देते हैं. कम्प्यूटर खोलते ही दिखता है कि ढेरों कमेन्ट आ गये-अब क्या खाक मिटायें..ऐसी न जाने कितनी पोस्ट सजी हैं अपने ब्लॉग पर जिसने धीरे धीरे इन लेखन वर्षों में, अगर इसी को लेखन कहते हैं तब, ढीट बना दिया.
हे हे वाली पोस्टें (गैर फूहड़ हे हे) जहाँ दिन भर की टेंशन से मुक्त कर देती है, वहीं अति संवेदना वाली पोस्टें अपने आप से जोड़ती हैं अतः दोनों का वजन अच्छा रहता है.
चिन्तन अच्छा किया गया है. अतः इस तरह के ड्राफ्ट ठेलते रहें. शुभकामनाऐं.
तब तक आप चिंतन करते रहिए जी, बाद में शायद हम कह लेगें येईच तो हमें भी लग रहा था। था।
चिरकुटस्य का भाषा? किम प्रभाषेत? किम व्रजेत?
प्रश्नों के उत्तर हेतु फुरसतिया शरणम गच्छ!
कभी कभी तो शून्य का स्कोर होता है उसका।
इससे हमें कोई फ़र्क नहीं पढ़ता।
हम तो उसका प्रदर्शन देखने के लिए हमेंशा तैयार हो जाते हैं।
महान खिलाडी जो हैं।
आप बस लिखते रहिए।
हिन्दी ब्लोग जगत में एक से एक बहतर लिखने वालों से मेरा परिचय हो रहा है आजकल। उनमें आप भी शामिल हैं। खेद है कि आपसे मेरा परिचय देर से हुआ।
आपका लिखने का अंदाज़ अलग है। देख रहा हूँ कि हरएक का अन्दाज़ अलग है।
हिन्दी ब्लॉग जगत से परिचय करके, पिछले कुछ महीनों में जितनी हिन्दी सीखी है मैंने, उतनी पिछले २५ वर्षों में नहीं सीखी।
टिप्पणी चाहे करूँ या न करूँ, पढ़ने के लिए हम हमेंशा हाज़िर हैं।
जमाए रहिए।
गोपालकृष्ण विश्वनाथ