http://web.archive.org/web/20140419215322/http://hindini.com/fursatiya/archives/457
छत से पानी टपकता, घर की लग गयी वाट।
घर की लग गयी वाट, झमाझम पानी बरसे,
जो सूखे से थे सूखते, वे अब सूखे को तरसे।
सूरज भागा जोर से, छुपा बादलों की ऒट,
जैसा कोई नेता भगे, डलवा के सब वोट।
पानी बरसत देखिकर, गैयन करी पुकार,
चलौ बैठकी करन को, चौराहा रहा पुकार।
छत से पानी टपकता, नल से हो गया गोल,
गलत जगह हरदम रहत, ये पानी है बगलोल।
बिजली से आंखें लड़ीं, फ़्यूज उड़ गया भांय।
पानी बरसत देखि के आलू सरपट लुढ़का जाय
कद्दू के नीचे जा छुपा, सूखा बच गया भाय।
पानी नाले में बहा, सड़क चली गहि हाथ,
साथ-साथ चलते रहे, बहना भी है एक साथ।
बूढा पेड़ करील का, देखा मोर, गया बौराय,
वो भी संग मटकन लगा, गिरा मुंहभरा आय।
रेन डांस जब शुरू भा, फ़ट थिरकन लगीं आप।
बदरा, बदरी संगैं फिरैं, छत, पेड़, बगीचा, आकाश,
लटपटात हैं फिर रहे, बिजली करत उजास।
लुका-छिपी के खेल में , बदरी हो गयी पस्त,
चलों यहीं अब बरस लो, जगह बड़ी है मस्त।
कह फ़ुरसतिया कविराय, कहें क्या और कहानी,
नानी आ गयी याद कि ऐसा हचक के बरसा पानी।
कविता के साथ यहै लफ़ड़ा है। हमारी अगड़म-बगड़म कविता की देखा-देखी और साथी भी बारिश मगन-मन हो गये। वे भी कवि बन गये कविता के प्यार में । उनके भी नजारे देखिये:-
आती बारिश देख के कवी गए बौराय
ब्लॉगर सारे पढ़ रहे सर पे मस्ती छाय।
दिनेशराय द्विवेदी
बारिश से फिसलन भई, फिसलें लोग-लुगाय।
फिसल रहे जै सबद भी, छंदन में न समाँय।।
प्रेत-विनाशक
भीगे भीगे से कवित्त फुरसतिया बिखराएँ
संभल संभल कर पढ़ रहे कहीं फिसल ना जायें
कहीं फिसल ना जायें कि टूटे हड्डी पसली
श्रीमती घोस्ट बस्टर को हो जाए तसल्ली
कब से कहती रहीं कि छोडो चिट्ठा विट्ठा
पड़ें झेलने सौ पचास डायलॉग इकठ्ठा।
डा.अमर कुमार
सूखाग्रस्त की फ़ाइल पे साहेब दीन टिपियाय
पकौड़ी मुँह मा टूँगि कै, बोलै धीमें से मुस्काय
एहिमाँ अब का धरा है एहिका देयो बिसराय
बाढ़ग्रस्त की फाइल चलाओ पइसा वहीं दिखाय
समीरलाल
बारिश बरसत जात है, भीगत एक समान,
पानी को सब एक हैं, हिन्दु औ’ मुसलमान.
फुरसतिया भी भीगकर, बदल गये हैं यार
गद्य छोड़ कर आ गये, कविता के दरबार.
अब तो कोई गम नहीं, बारिश हो या बाढ़
कविता में भी आप तो, सबको दये पछाड़।
ये भी पढें:
पानी बरसा जोर से
By फ़ुरसतिया on July 5, 2008
बारिश
पानी बरसा जोर से , खड़ी हो गयी खाट,छत से पानी टपकता, घर की लग गयी वाट।
घर की लग गयी वाट, झमाझम पानी बरसे,
जो सूखे से थे सूखते, वे अब सूखे को तरसे।
सूरज भागा जोर से, छुपा बादलों की ऒट,
जैसा कोई नेता भगे, डलवा के सब वोट।
पानी बरसत देखिकर, गैयन करी पुकार,
चलौ बैठकी करन को, चौराहा रहा पुकार।
छत से पानी टपकता, नल से हो गया गोल,
गलत जगह हरदम रहत, ये पानी है बगलोल।
बारिश
छत से पानी चल दिया, छुपा दीवार में आय,बिजली से आंखें लड़ीं, फ़्यूज उड़ गया भांय।
पानी बरसत देखि के आलू सरपट लुढ़का जाय
कद्दू के नीचे जा छुपा, सूखा बच गया भाय।
पानी नाले में बहा, सड़क चली गहि हाथ,
साथ-साथ चलते रहे, बहना भी है एक साथ।
बूढा पेड़ करील का, देखा मोर, गया बौराय,
वो भी संग मटकन लगा, गिरा मुंहभरा आय।
बारिश
बच्चा भीगत देखि के, मम्मी दिहिन एक कंटाप,रेन डांस जब शुरू भा, फ़ट थिरकन लगीं आप।
बदरा, बदरी संगैं फिरैं, छत, पेड़, बगीचा, आकाश,
लटपटात हैं फिर रहे, बिजली करत उजास।
लुका-छिपी के खेल में , बदरी हो गयी पस्त,
चलों यहीं अब बरस लो, जगह बड़ी है मस्त।
कह फ़ुरसतिया कविराय, कहें क्या और कहानी,
नानी आ गयी याद कि ऐसा हचक के बरसा पानी।
कविता के साथ यहै लफ़ड़ा है। हमारी अगड़म-बगड़म कविता की देखा-देखी और साथी भी बारिश मगन-मन हो गये। वे भी कवि बन गये कविता के प्यार में । उनके भी नजारे देखिये:-
बारिश
शिव कुमार मिश्रआती बारिश देख के कवी गए बौराय
ब्लॉगर सारे पढ़ रहे सर पे मस्ती छाय।
दिनेशराय द्विवेदी
बारिश से फिसलन भई, फिसलें लोग-लुगाय।
फिसल रहे जै सबद भी, छंदन में न समाँय।।
प्रेत-विनाशक
भीगे भीगे से कवित्त फुरसतिया बिखराएँ
संभल संभल कर पढ़ रहे कहीं फिसल ना जायें
कहीं फिसल ना जायें कि टूटे हड्डी पसली
श्रीमती घोस्ट बस्टर को हो जाए तसल्ली
कब से कहती रहीं कि छोडो चिट्ठा विट्ठा
पड़ें झेलने सौ पचास डायलॉग इकठ्ठा।
डा.अमर कुमार
सूखाग्रस्त की फ़ाइल पे साहेब दीन टिपियाय
पकौड़ी मुँह मा टूँगि कै, बोलै धीमें से मुस्काय
एहिमाँ अब का धरा है एहिका देयो बिसराय
बाढ़ग्रस्त की फाइल चलाओ पइसा वहीं दिखाय
समीरलाल
बारिश बरसत जात है, भीगत एक समान,
पानी को सब एक हैं, हिन्दु औ’ मुसलमान.
फुरसतिया भी भीगकर, बदल गये हैं यार
गद्य छोड़ कर आ गये, कविता के दरबार.
अब तो कोई गम नहीं, बारिश हो या बाढ़
कविता में भी आप तो, सबको दये पछाड़।
ये भी पढें:
ब्लॉगर सारे पढ़ रहे सर पे मस्ती छाय
बहुत खूब धोये…सॉरी दोहे.
जैसा कोई नेता भगे, डलवा के सब वोट।
- बहुत अच्छा
फिसल रहे जै सबद भी, छंदन में न समाँय।।
संभल संभल कर पढ़ रहे कहीं फिसल ना जायें
कहीं फिसल ना जायें कि टूटे हड्डी पसली
श्रीमती घोस्ट बस्टर को हो जाए तसल्ली
कब से कहती रहीं कि छोडो चिट्ठा विट्ठा
पड़ें झेलने सौ पचास डायलॉग इकठ्ठा
पकौड़ी मुँह मा टूँगि कै, बोलै धीमें से मुस्काय
एहिमाँ अब का धरा है एहिका देयो बिसराय
बाढ़ग्रस्त की फाइल चलाओ पइसा वहीं दिखाय
कविता, बरसात की ,तब तो,
आनँद ही आनँद
पानी को सब एक हैं, हिन्दु औ’ मुसलमान.
फुरसतिया भी भीगकर, बदल गये हैं यार
गद्य छोड़ कर आ गये, कविता के दरबार.
अब तो कोई गम नहीं, बारिश हो या बाढ़
कविता में भी आप तो, सबको दये पछाड़.
–बहुत बढ़िया भीगे, महाराज बारिश में. और भीगये. शुभकामनाऐं.
भीग गये अन्दर अन्दर तक …
पानी बरसत देखिकर, गैयन करी पुकार,
चलौ बैठकी करन को, चौराहा रहा पुकार।
वाह क्या कल्पना है…:)