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…जन भाषा के हायपर लिंक
By फ़ुरसतिया on September 11, 2009
ज्ञानजी की पोस्ट सुबह-सुबह देख रहे थे। जानकारी दिहिन हैं रेल की-डरते-डरते। हम टिपियाये- “सुन्दर। हम भी कटियाज्ञानी हो गये। कटियाज्ञानी बोले तो जैसे कि आपके ब्लाग पर ज्ञान करेंट बह रही थी हम उसमें कटिया फ़ंसा के सप्लाई ले लिये। सब ले रहे हैं! न पैसा दिया न छदाम,मुलु बनिगा अपना सारा काम!”
अल्लेव एक ठो शब्द बन गया -कटियाज्ञानी। कटिया और ज्ञानी के गठबंधन से एक नया शब्द बन गया -कटियाज्ञानी। वाह-वाह क्या कहने टाइप।
ऐसे ही कल एक ठो शब्द लिखते-लिखते बन गया था- ब्लागव्रता। मसिजीवी तो उसका पोर्स्टमार्टमै कड्डालिन। जिन्दा डिसेक्सन कर डाले। अब लेव का कल्लोगे।
शब्द लगता है ऐसे ही बनते हैं। तड़ से देखा, भड़ से सोचा और खड़ से बाहर आ गये।
यह भ्रम होगा लोगों का कि शब्द ज्ञानी लोग गढ़ते हैं। नये-नये शब्द ग्ढ़ने में ज्ञान की कौनौ जरूरत नहीं होती। आम आदमी जो शब्द गढ़ता है वही चलता है। ज्ञानियों के गढ़े शब्द ज्यादातर ज्ञानकोष में पड़े रहते हैं। चैम्बर से बाहरै नहीं निकलते। वहीं से तन्ख्वाह पीटते रहते हैं। कौनौ जानता ही नहीं कि ई भी कौनौ शब्द हैं।
नयी से नयी तकनीक में चाहे जित्ती आधुनिकता से काम किया जाये उत्पादन स्तर पर आकर उसके सब जटिल पक्षों का हिन्दीकरण हो जाता है। सब लक्षण झाड़-झूड़ के तब ही उत्पादन की गाड़ी फ़र्राटे से दौड़ती है।
हमारी फ़ैक्ट्ररी में एक से एक नयी मशीने हैं। नयी से नयी तकनीक है। लेकिन मशीनिंग के दौरान बातें जमीनी अन्दाज में ही समझ आती हैं- इसमें माल नहीं है कैसे काट दें? छील देव किनारे से बैठ जायेगा। ज्यादा काट दिया सट से अन्दर चला गया अब माल भरवाना पड़ेगा।
ये सब जन भाषा के हायपर लिंक हैं। जनभाषा कोई इंचीटेप लेकर लम्बाई-चौड़ाई नापकर नहीं गढ़ी जाती। ऐसे ही अनायास बनती है और चलती रहती है नित नये रूप बदलते हुये। नये-नये शब्द गढ़े जाते हैं, प्रचलित होते हैं, बदलते हैं चलते जाते हैं। समय के साथ जो नहीं चल पाता वी आर एस लेकर बैठ जाता है। सीनियर शब्द बन जाता है। अपना इतिहास बताता है, भूगोल गिनाता है, संग्रहालय की चीज बन जाता। लेकिन उसके सफ़र का द एंड हो जाता है।
ऐसे ही एक दिन अरविन्दजी अपने ब्लाग के बारे में कह रहे थे- क्वचिदन्य्तोअपि बोलने में नहीं गूगल ट्रांस्लितेरेशन पर भी कठिन ही है मगर मुझे इस बात का गर्व रहेगा अगर कम से कम इस क्लिष्ट शब्द समास को लोगों को रटा सका
ईश्वर उनकी गर्वकामना जल्दी पूरी करे लेकिन यह बात समझने की है ऐसा गर्व कौन काम का कि आप एक जटिल शब्द लोगों को रटा दिये। चंदू के चाचा ने चंदू की चाची को चांदी की चम्मच से चटनी चटाई थी सबसे ज्यादा बार बोल पाने वाले के गर्व जैसा ही होगा यह गर्व।
शब्दों की महत्ता उनके प्रचलन में है। सम्प्रेषित न हुआ तो वो शब्द कैसा? बांट,बंटखरे ,अद्धे-पौने, किलो-पसेरी भले ही परिभाषा में न इस्तेमाल किये जायें लेकिन तौल के लिये चलते तो वहीं हैं। अप्रचलित भारी-भरकम शब्द पेरिस के संग्रहालय में धरी प्लेटिनम इरीडियम की राड से अधिक नहीं जिनका इस्तेमाल केवल परिभाषा में होता है -कुमार मित्तल के जमाने से।
बहरहाल बात जनभाषा की हो रही थी। जब मैं अजित जी का शब्दों का सफ़र देखता हूं और एक शब्द से दूसरे, दूसरे से तीसरे को जुड़े पाता हूं तो लगता है सारे शब्द आपस में हायपरलिंकित हैं। हटमलित हैं। जुड़े हैं। ये सब अनायास होते गये होंगे। अनायास, अप्रयास।
नये-नये शब्द गढ़ने की प्रक्रिया न जाने कैसे-कैसे चलती है। लेकिन मुझे लगता है कि शब्द जो बहुत दूर तक और बहुत दिनों तक चलता है उसके किनारे घिसे होते हैं। सब गोल होते हैं। जैसे बड़े-बड़े शब्द ज्ञानजी बनाते और बताते हैं उनमें बहुत माल है। अगर इस तरह के शब्द चलेंगे कुछ दिन तो उनकी चर्बी सब छंट जायेगी। इस बीच जित्ते भी शब्द उन्होंने उछाले उनमें से चिठेरा-चिठेरी को छोड़कर मुझे कोई नहीं याद हैं। ज्ञानजी के सिवा किसी को नहीं याद होंगे। कारण यह कि उनमें से ज्यादातर इस तरह बने जैसे कि छ्ह-छह फ़ुट के बांस बेल्ड करके नया बांस बारह फ़ुट का बांस बना दिया जाये लेकिन उसके ट्रान्सपोर्टेशन के लिये एक नया ट्रक बनवाने की अर्जी दे दी जाये।
नया शब्द बनना कुछ ऐसे ही होता होगा जैसे कागज की नाव बना के पानी में डाल दी। अब यह नाव और पानी के ऊपर है कि किधर-किधर से जाते हुये कहां-कहां तक पहुंचती है- मेरा तो पैगाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे टाइप।
एक और उपमा याद आती है मुझे बचपन की याद से। बचपन में जब कंचे खेलते थे तो पिच्चुक (गढ्ढे) की तरफ़ कंचे फ़ेंके जाते थे। कंचे अलग-अलग दूरी तक जाकर रुक जाते थे। तो शब्द गढ़ने वाला अपने शब्द कंचे फ़ेंकता है। जमीन के घर्षण, फ़ेंकने की ताकत, कंचे का वजन और न जाने कित्ती बातों के गठबंधन से कंचे आगे बढ़ते हैं। अब जब कंचों का आकार एक सा होता है तब उनके व्यवहार में इत्ता अंतर होता है तो शब्दों के मामले में तो मामला और भारत की विविधता की तरह शब्दे-शब्दे विहैवियर भिन्ना टाइप का होगा। है कि नहीं?
भाषा के बारे में हम विद्वान नहीं हैं लेकिन यह जरूर सोचते हैं कि जयशंकर प्रसाद सौंदर्य के लिये द्युति सुंदरी जैसे शब्द की जगह खिला हो ज्यों बिजली का फ़ूल इस्तेमाल किये होंगे तो शायद इसीलिये कि बिजली के जमाने में द्युति का बाजार शायद न चले।
बहरहाल बात कटियाज्ञानी से शुरू हुई थी और न जाने कहां अटक गयी। फ़िर कभी देखा जायेगा मामला। फ़िलहाल तो आप पाठकजी की बात सुनिये:
भाषा तो है मुस्कानों का ही एक रूप,
अधरों से बहता यह आंखों का पानी है,
भाषा तो पुल है मन के दूरस्थ किनारों पर,
पुल को दीवार समझ लेना नादानी है।
मेरी पसंद
कांटे सौ-सौ प्रश्न उछालें
कलियों के मुंह पर हो ताले
फ़ूलों, एक विनय है
ऐसी गंध मुझे मत देना।
कलियों के मुंह पर हो ताले
फ़ूलों, एक विनय है
ऐसी गंध मुझे मत देना।
मैं तो उनकी बहुत ऋणी हूं
जिनने मुझको दर्द दिया है
मैंने उनको किरणें देकर
मनचाहा अंधियार पिया है।
जिनने मुझको दर्द दिया है
मैंने उनको किरणें देकर
मनचाहा अंधियार पिया है।
जिस घर में मेरे सपनों ने करवट ली, मुसकाना सीखा
उस द्वारे पर कभी न आऊं, यह सौगंध मुझे पत देना।
उस द्वारे पर कभी न आऊं, यह सौगंध मुझे पत देना।
प्यार कभी सागर है या फ़िर
एक लहर या एक बूंद जल
मानों तो वह एक जिंदगी
मत मानो तो भ्रम है केवल
एक लहर या एक बूंद जल
मानों तो वह एक जिंदगी
मत मानो तो भ्रम है केवल
मैं हूं नदी, मुझे धरती के छंदों की रचना करनी है
जो मुझको गाने से रोके, वह तटबंध मुझे मत देना।
जो मुझको गाने से रोके, वह तटबंध मुझे मत देना।
कलियों के मुंह पर हो ताले
फ़ूलों, एक विनय है
ऐसी गंध मुझे मत देना।
निरमला जोशी जी की सुन्दर रचना के लिये और आपकी लाजवाब पोस्ट के लिये आभार!
इनका एक्ठो सबदकोष बनाया जाय, जी ।
और लोकभाषा कल्याण समिति के हवाले की जाय,
ऊहाँ से रिजेक्ट होय, तो ब्लागरों की ड्यूटी है, कि आपके साथ
कँधे से कँधा मिला कर इसको मान्यता दिलायें । इत्तै तो करना है कि,
रोज गूगल ट्राँस्लेटर में आठ-दस ठँई शब्द सज़ेशन माँ ठेल दें, जो होगा देखा जायेगा !
वईसे जनहितार्थ यहू सूचित करना प्रासँगिक रहेगा कि,
क्वचित + अन्य + यद्यपि का सँधि विग्रह है, क्वचिदन्य्तोअपि ।
नभ: प्रकीर्णाम बुधरम विभाति ।
क्वचित क्वचित पर्वत सनिरुद्धम ,
रुपं यथा शान्त महार्णवस्य ॥
एहिका मायने May or may not be definite से जोड़ लेयो, भाई जी ।
अरे अभिषेक भाई लट्टू होने की बात पढ़कर तो हमार मन गुलगुला हो गया। सौन्दर्य अनुपात चमक गया मन का। शुक्रिया।
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शब्दों की महत्ता उनके प्रचलन में है। सम्प्रेषित न हुआ तो वो शब्द कैसा? बांट,बंटखरे ,अद्धे-पौने, किलो-पसेरी भले ही परिभाषा में न इस्तेमाल किये जायें लेकिन तौल के लिये चलते तो वहीं हैं। अप्रचलित भारी-भरकम शब्द पेरिस के संग्रहालय में धरी प्लेटिनम इरीडियम की राड से अधिक नहीं जिनका इस्तेमाल केवल परिभाषा में होता है -कुमार मित्तल के जमाने से।
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ये पूरा पैरा जादुई लगा. अजदक जी का नाम लिया जा सकता है. भले अजीबो-गरीब शब्दों का भारी-भरकम शब्दकोष हो उनके पास, पर यदि भावों का पाठक तक उचित सम्प्रेषण ही ना हो सके तो उसका महत्व क्या है?
घोस्ट बस्टरजी: शुक्रिया! ज्ञानजी की शब्द प्रवर्तक होने की कोई अभिलाषा नहीं है। यह वे कई बार लिख चुके हैं! न ही मेरे द्वारा उनके प्रयास को कोई गम्भीरता से लेने वाली बात है। बस बात की बात वाली बात है। निकलती चली गयी। आजकल सबसे ज्यादा शब्द ज्ञानजी के कीबोर्ड से निकल रहे हैं मेरे देखे ब्लागस में!
हेपी ब्लोगिग कहने का मन कररिया है! ♥♥♥♥♥♥ ♥♥♥♥♥♥ ♥♥♥♥♥♥
हे! प्रभु यह तेरापन्थ
बाबा कबीर की तरह मैने भी सोचा कि भाषा की मजूरी नहीं करनी। वह जहां तक साथ दे, ठीक। नहीं तो कुछ भी कच्चा-पक्का गढ़ कर सम्प्रेषण पूरा करना है।
और भाषा के महन्तों/साहित्य के ठेकेदारों से अरुचि भी इसी भाव के चलते है। बहुत से कहने वाले होंगे कि लिखने की तमीज नहीं है – पर हू केयर्स! और यह भी है कि हफ्ते भर न पोस्ट करूं तो भूलने में देर न लगेगी लोगों को। पर हू केयर्स। जो कुछ शब्द लिखे हैं वे भदेस हैं और उनकी शेल्फ लाइफ उसी पोस्ट भर की है – यह मुझे मालुम है। पर हू केयर्स!
केयर करने लगें तो दुकान ही बन्द कर लें!
संजय बेंगाणी: वोई तो हम कह रहे हैं!
आज की प्रविष्टि तो हैरतअंगेज है । हम तो एकदमै धड़ाम ।
एक जिज्ञासा उभर आयी,
लगे हाथ ज्ञान गुरु जी से निवारणौ हो जाय ।
ई विश्व स्वास्थ्य सँगठन ( WHO ) भाषा के मामले में कब से देखरेख ( CARES )करने लगा, जी ?
अतिशय आँग्ल-प्रेम में मुझ विह्वल को इसका यही अर्थ लौक रहा है, जी ।
गूगल सर्च मौन है कि हू केयर्स कौन है ?
और यह भी सुनिए अनूप जी जिस हास्य व्यंग से आप व्यामोहित हैं साहित्य में उसकी भी ख़ास बिसात नहीं है ! हम कूप मंडूक वृत्ति से ऊपर उठें और ब्लॉग साहित्य को पूरे समर्पण और उत्तरदायित्व बोध के साथ समृद्ध करें ! हा हां ही ही बहुत हो गयी है !
डा.अरविन्द मिश्र: आपको लग रहा है तो सहिऐ लग रहा होगा। कर डालिये गम्भीर चर्चा। डा.खुर्पेचिया छ्द्मनामी नहीं वे नामौपारिचकता से ऊपर उठे डा. अमर कुमार हैं। ब्लाग-ब्लाग वासी डा.अमर कुमार किसी एक नाम के मोहताज नहीं हैं! हर टिप्पणी के लिये अलग-अलग नाम धारण कर लेते हैं।
यह तो आपने अब तक लिंक पकड़ कर जान ही लिया होगा ।
यह सँधिविग्रह प्रामाणिक है, और मैं सँस्कृत का विद्वान भी नहीं ।
विभिन्न भाषाओं के प्रति प्रेम के चलते कुछ सँदर्भ ग्रँथों से सानिध्य बना रहता है, बस इतना ही समझें ।
कोई डाक्टर क्या अपने को केवल दवाईयों तक ही सीमित रखे, तो बाकी जन भी यहाँ बन्दूक की गोली बनाते और पैक करते दिखने चाहियें !
सो, यहाँ भी वही ऑरा एक अलग तरह से है, इसमें साहित्य के बनने बिगड़ने की बात ही कहाँ आती है ?
इस माहौल में पाठक को ढाल कर अपनी तरह से नचा लेना भी कोई गुण होता होगा, कि नहीं ?
किसी मार्मिक दृश्य पर कुछ जन यह कह सकते हैं, स्वाँग कर रहा है.. तो दूसरे जन रोने लग पड़ते हैं ।
यह क्या है, जबकि सभी जानते हैं कि, सारा खेल पैसे के बदले किये जाने वाले अभिनय का है ।
रही बात क्षद्मनामी होने की… तो यह विशेषाधिकार मैं अनूप शुक्ल से छीना है ।
उनके हर पोस्ट पर मेरा परिचय अलग अलग है ।
शुरु में तो, यह मैं केवल माडरेशन के सत्य को उजागर करने की चिन्ता में किया करता था ।
यह उनकी सदाशयता है कि उन्होंने कभी कहीं इसका जिक्र भी न किया ।
ऎसा भी कह सकते हैं कि, श्रीमान जी बड़े घाघ हैं जिन्होंनें मेरे मँसूबों को ताड़ कर विफ़ल कर दिया । यह तो अपना नज़रिया है भाई, का किया जाये ?
यदि किसी सज्जन के पास श्री अनूप शुक्ल का फोन नम्बर हो, तो वह मुझे मेल कर दे ।
आभारी रहूँगा ।
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अरे भाई, चुन्नीगन्ज (कानपुर) के बी. एन. एस. डी. कालेज़ मे कई साल पहले पढी बाहरवी कक्षा की याद दिला दी.
पंचायती: अरे आप तो फ़िर हमारे स्कूल के हुये। हम भी वहीं के पढ़े हैं! ई देखिये कहानी वहां की।
अभय तिवारी: अरे सीरियस कौन! न भैया बस मौज है!
कटियाज्ञानी शब्द भी घणा सुंदर लागा और पाठक जी के शब्द भी
अधरों से बहता यह आंखों का पानी है,
भाषा तो पुल है मन के दूरस्थ किनारों पर,
पुल को दीवार समझ लेना नादानी है।
आप के ब्लॉग का यह नाम वाकई कठिन है.लेकिन है classic!एक दम यूनिक !
—–@fursatiya ji -आप की पसंद -निर्मला जोशी जी की कविता बहुत अच्छी लगी.
[देर से पोस्ट पर पहुँचने का यह नुक्सान की टिपण्णी लिखने के लिए इतना स्क्रॉल करना पड़ता है..अब कविता का अंश कॉपी करना चाह रही थी.लेकिन दोबारा पेज स्क्रॉल कौन करे.]
लवली: इस तरह के मुद्दों पर सर्वसम्मति कहां बनती है!
वन्दनाजी: शुक्रिया आपकी सच्ची-मुच्ची बात के लिये।
“जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख. और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख”
@अल्पना जी ,सच कहा आपने ,भाषाई अस्थमा वाले ही इसका उच्चारण नहीं कर पा रहे हैं ,हा हा ,प्रयास से भी डर रहे हैं की कहीं सांस ही न उखड जाए -मुझे तो मजा आता है कठिन शब्दों के उच्चारण से जबकि मुझे सच में वह बीमारी है बचपन से ही जिसका अनाम आपने लिया है !
श्री अनूप शुक्ल : मैं भूल गया था कि इस देश में अभी ज्यादा वक्त पहले नहीं ,एक शैतान हुआ था नाम था मैकाले उसके अवतरण से हमारे यथोक्त पूर्वजों के बिचारे कुछ वंशधर भी संदूषित होते गए ! बहरहाल बात लम्बी हो जायेगी ! कहना कम समझना अधिक !
पूर्वजों का नगापन ही दिखता है हमें .अब वह सुघढ़ उत्कृष्ट प्रशंसा बोध और विनयशीलता कहाँ कि हम उनके गुणों को भी लक्ष्य कर सकें -यह भूलते हुए कि आज बहुत कुछ उन्ही का दिया हम जी रहे हैं -यह तो कृतघ्नता से भी बढ़ कर कुछ हुआ !कामिल बुल्के जैसे विदेशी भी हैं जिनके अवदानों से हमारी आँखे खुल जानी चाहिए मगर हम तो बस अपनी ही अहमन्यता में डूबे रहते हैं ! हैं छटाक भी नहीं ! अपनी श्रेष्ठ विरासत से भी मुंह मोड़ कर उसकी भी मौज उडाना बस एक सस्ती टुच्चई है और सतहीपन !
शब्द ज्ञान तो मनुष्य को समृद्ध करता है -अंगरेजी के गिटर पिटर को तो हम डिक्शनरी ले ले खोजते फिरते हैं मगर यह निष्ठां हिन्दी शब्दों के लिए क्यों नहीं ? इसलिए ही तो कि उससे कैसे कोई जुगाड़ सफलकैसे होगा ?
ब्लॉग महज निजी अभिव्यक्ति का माध्यम ही है (बासी समझ ) तो क्यों नहीं उसे ताले में बंद कर रखते ? क्यों सार्वजनिक किये हुए हैं ? यदि सार्वजनिक हैं तो सामाजिक सरोकारों से भी जुड़ना होगा ! हंसी ठट्ठा वहीं तक ठीक है जब तक वह अधकचरेपन और अपसंस्कृति का प्रसार न करे !
अप नई पीढी के हैं,हम तो पुरनियें हो चले -आपकी जिम्मेदारी हमसे अधिक है ! यही गुजारिश है कि हिन्दी चिट्ठाजगत को एक और अधकचरेपन -अप संस्कृति का अड्डा मत बनने दीजिये !
हम तो बार बार यही कहेगें कि नया सीखने के लिए उम्र आड़े हाथ नहीं आती -लेकिन यहाँ तो लोग क़समें खाए बैठे हैं !
किमाधिकम …..
जय हो…!
PNEUMONOULTRAMICROSCOPICSILICOVOLCANOCONIOSIS
या शेक्सपीयर द्बारा प्रयुक्त – Honorificabilitudinitatibus
निर्मला जी की सुन्दर रचना पढ़वाने के लिए धन्यवाद.