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कभी कभी हमारा मन करता है कि धांसू-धांसू कुछ शेर लिख डाले जायें। लेकिन
हमने जब भी शेर पर हाथ आजमाये , मेमना बनकर रह गये। अपनी समझ में धांसू
शेर लिखे तो लोगों ने कहा ये बहर में नहीं है, इसमें कहर है। इसमें वजन
नहीं है, इसमें कहन नहीं है। इसका रदीफ़ कहां है, इसका काफ़िया किधर है। मतलब
एक ठो शेर लिखने पचास बार मेमना बनना पड़ता है। हमने देखा कि शेर लिखने
वाले लोग घण्टो क्या हफ़्तों एक शेर के लिये सोचते रहते हैं, सोचते रहते
हैं। एक-एक शब्द ऐसे चुनते-रखते हैं जैसे हमारी श्रीमतीजी शापिंग करते हुये
साड़ियां पसन्द करती हैं। घण्टों देखने-भालने , वो वाली दिखाओ, ये वाली
निकालो के बाद –पसन्द नहीं आई कहकर अगली दुकान के लिये चल देती हैं।
शेर लिखना मेरी समझ में डिजाइनिंग टाइप का काम है। दिन भर वो मारते रहो जिसे हिन्दी में कुछ लोग झक कहते हैं तब कहीं एक ठो शेर निकलता है! भये प्रकट कृपाला दीन दयाला वाले अन्दाज में! हद्द से हद्द एक गजल निकल आयी। लेकिन हम ठहरे प्रोडक्शन लाइन के आदमी। एक मिनट में एक के हिसाब से चाहिये ।कहां से निकलेगा! लिहाजा शेर लाइन में अपनी बरक्कत नहीं । फ़्री इस्टाइल दोहा-कुस्ती में जो मजा है वो हाई क्वालिटी शेरो-शायरी में कहां! उधर तो भैया मतलब समझ आ गया तो वाह-वाही में सर हिलाओ, न समझ में आया तो समझने के लिये सर धुनो!
तमाम दुनियादारी की बात सोचते हुये हमने सोचा कि कुछ दोहा ठेल ही जायें। जो होगा देखा जायेगा। इनके लिखने में समय उत्ता ही लगा जित्ता टाइम टाइप करने में लगा। आप ही देखिये अगर शेर लिखते तो इत्ती देर मतले चौखट में ही सर झुकाये खड़े रहते। बहरहाल देखिये जरा ये फ़्री इस्टाइल हिसाब-किताब!
1.मंहगाई के दौर में ,मन कैसे हो नमकीन,
आलू बीस के सेर हैं, नीबू पांच के तीन।
2.चावल अरहर में ठनी,लड़ती जैसे हों सौत,
इनके तो बढ़ते दाम हैं, हुई गरीब की मौत।
3.माल गये थे देखने, सुमुखि सुन्दरी के नैन,
देखि समोसा बीस का, मुंह में घुली कुनैन।
4.साथी ऐसा चाहिये, जैसा सूप सुभाय,
पैसा,रेजगारी गहि रहै, पैसा देय थमाय।
5.पैसा हाथन का मैल है, मत धरो मैल को पास,
कछु मनी माफ़िया ले गये,बाकी सट्टे में साफ़।
6.आरक्षण करवाने गये, लगी बहुत बड़ी थी क्यू,
बोर हुये एस.एम.एस. किया, जानी आई लव यू।
7.कहो गुरु कैसे निभै, मंहगाई इनकम को संग,
इनकम कछुआ अस चलै, मंहगाई की चाल तुरंग।
मंहगाई के दौर में ,मन कैसे हो नमकीन
By फ़ुरसतिया on September 23, 2009
शेर लिखना मेरी समझ में डिजाइनिंग टाइप का काम है। दिन भर वो मारते रहो जिसे हिन्दी में कुछ लोग झक कहते हैं तब कहीं एक ठो शेर निकलता है! भये प्रकट कृपाला दीन दयाला वाले अन्दाज में! हद्द से हद्द एक गजल निकल आयी। लेकिन हम ठहरे प्रोडक्शन लाइन के आदमी। एक मिनट में एक के हिसाब से चाहिये ।कहां से निकलेगा! लिहाजा शेर लाइन में अपनी बरक्कत नहीं । फ़्री इस्टाइल दोहा-कुस्ती में जो मजा है वो हाई क्वालिटी शेरो-शायरी में कहां! उधर तो भैया मतलब समझ आ गया तो वाह-वाही में सर हिलाओ, न समझ में आया तो समझने के लिये सर धुनो!
तमाम दुनियादारी की बात सोचते हुये हमने सोचा कि कुछ दोहा ठेल ही जायें। जो होगा देखा जायेगा। इनके लिखने में समय उत्ता ही लगा जित्ता टाइम टाइप करने में लगा। आप ही देखिये अगर शेर लिखते तो इत्ती देर मतले चौखट में ही सर झुकाये खड़े रहते। बहरहाल देखिये जरा ये फ़्री इस्टाइल हिसाब-किताब!
1.मंहगाई के दौर में ,मन कैसे हो नमकीन,
आलू बीस के सेर हैं, नीबू पांच के तीन।
2.चावल अरहर में ठनी,लड़ती जैसे हों सौत,
इनके तो बढ़ते दाम हैं, हुई गरीब की मौत।
3.माल गये थे देखने, सुमुखि सुन्दरी के नैन,
देखि समोसा बीस का, मुंह में घुली कुनैन।
4.साथी ऐसा चाहिये, जैसा सूप सुभाय,
पैसा,रेजगारी गहि रहै, पैसा देय थमाय।
5.पैसा हाथन का मैल है, मत धरो मैल को पास,
कछु मनी माफ़िया ले गये,बाकी सट्टे में साफ़।
6.आरक्षण करवाने गये, लगी बहुत बड़ी थी क्यू,
बोर हुये एस.एम.एस. किया, जानी आई लव यू।
7.कहो गुरु कैसे निभै, मंहगाई इनकम को संग,
इनकम कछुआ अस चलै, मंहगाई की चाल तुरंग।
Posted in बस यूं ही | 33 Responses
पंकज: शुक्रिया। वैसे ई बात हम भी जानते हैं कि हम डबल शेर भले लिख लें शेर नहीं लिख पाते!
आपके दोहे देखे, इन्हें दोहे कहना दोहों का अपमान होगा,
यदि इन्हें निम्नलिखित रूप में लिखा जाय तो दोहे कहलाएंगे,
अब और क्या कहें,
आपने हिन्दी पता नहीं कौन से स्कूल में पढ़ी होगी,
मुझे तो लगता है आपने हिन्दी घर पर ही पढ़ी है
जीना बड़ा बबाल है, कैसे हों नमकीन ?
आलू सेर पचीस के, नीबू दो के तीन॥
चावल अरहर में ठनी,लड़ती ज्यों हों सौत।
इनके बढ़ते दाम हैं, पर गरीब की मौत॥
माल गये थे देखने, सुमुखि सुन्दरी नैन।
देखि समोसा बीस का, मुंह में घुली कुनैन॥
साथी ऐसा चाहिये, जैसा सूप सुभाय।
रकम,रेजगारी गहै, पैसा देय थमाय॥
पैसा कर का मैल है, मैल धरो मत पास।
मनी माफ़िया ले गये, कछु सट्टे में साफ़॥
आरक्षण को हम गये, फँसते क्यू में जाय ।
एस.एम.एस. यूँ कर दिया, आई लव यू , हाय॥
कहो गुरू कैसे निभै, मंहगाई के संग।
इनकम कछुआ सी चलै, मंहगाई है तुरंग॥
इन्हें ठीक करने में हमें उतना ही वक्त लगा जितना यह टिप्पणी छापने में
विवेक: हम ये नहीं बताइयेंगे कि हमने हिन्दी कहां से पढ़ी! और जहां तक ये जो दोहा करने वाली बात है तो इन दोहों को हम किसी दोहा-ज्ञानी के पास भेज के जंचवायेंगे तब कुछ कहेंगे।
गला सारा सूख गया, उड़ा मुख का रंग.
संजय बेंगाणी: बड़ी ऊंचाई वाली बात कह दी। मजा आ गया।
तुंरत विवेक सिंह को गुरु बनाइये , शेर भी लिखने आ जायेंगे ! वैसे अगर इसे मज़ाक न समझें तो विवेक ने आज आपसे मौज ली है ! इनका कुछ करो….
;-))
इनके तो बढ़ते दाम हैं, हुई गरीब की मौत।
वाह वाह..आज तो बहर मे हैं जी.
रामराम.
नीरज
पुनश्च: 1
उर्दू शायरी आपकी तहे दिल से शुक्र गुजार है जो आपने शेर कहना नहीं सीखा वर्ना शेर की जो हालत होती वो हम इन दोहों को पढ़ कर समझ गए हैं :))
पुनश्च 2:
{वैसे होली का समय नहीं है इसलिए आप मेरे इस कमेन्ट का बुरा मान सकते हैं….}
दोहे ही सही, जब तक शेर लिखने की ट्राई करो, हम दोहे ही झेल लेते है। कभी कभी तो तुमको देखकर दोहे लिखने का दौरा पड़ता है, लेकिन ये सोचकर चुप बैठ जाते है, कि अगर ब्लॉग पर दोहे लिखने लगेंगे तो बनी बनायी दुकानदारी ना चौपट हो जाए। अब सिंधी है ना, नाप तौल कर ही लिखेंगे।
शेर मुंह खोलकर ब्लॉगर को चबा जाएगा
सब तो ठीक है ई जबरी छौंक लगाई है जो, आपने महंगाई में ई लाइन कइसे ठेली। जरा मंतव्य साफ करें
6.आरक्षण करवाने गये, लगी बहुत बड़ी थी क्यू,
बोर हुये एस.एम.एस. किया, जानी आई लव यू।
फिलहाल..
आप ठेलो निस-दिन प्रभु हम जायेंगे झेल
चाहे शेरो-सियार लिखो या दो दोहा पेल.
शेर को मारिये गोली. दोहों को बांधकर रखिये. ऐसे ही जब-जब इच्छा हो, छोड़ दिया करिए.
लाजवाब लिखा है आपने अनूप भाई…वाह …आनंद आ गया…
आप चिट्ठा लिखें या चर्चा करें चर्चा में रह जाते हैं। किसी भी विषय को चाहे कितनाहौं नीरस हो रोचक और चटपटा बना देते हैं। आपके इंगित की ओर देखें तो दोहे बड़े रोचक हैं किसी चाट की तरह कि पेट में जगह हो न हो मन ललचा ही जाता है।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
अपने तौर पर तो खोजि कै हार गये, कभी संभव हो तो तनिक पता-ठिकाना-फुनवा बत दीजियेगा मेलऊ करौ सकत है। नवम्बर में कानपुर आय का है भतीजि ब्याह है और आपसे भेंटि का है।
हर्षवर्धन जी का प्रश्न ही हमारा प्रश्न है, कृपया स्पष्ट करें।
शेर बहुत प्रासंगिक हैं …
मात्रा पानी भर रही, कवि गण भरते आह॥
कवि गण भरते आह, सुझावें छन्द विवेका।
हर दोहे को काट-छाँट फिट किया सलीका॥
सुन सुन ले सिद्धार्थ जुगलबन्दी की बतिया।
गुरु बन गये विवेक , हुए चेला फुरसतिया॥
क्वालिटी भले ही सुधर गई हो पर मजा किरकिरा हो गया। अनगढ़ दोहों का खिलंदड़ापन ही गायब हो लिया। अब वो मजा जो अमरूद को दांतो से काट कर खाने में हैं और आम को चूसने में, वह चाकू से काट कर और या अमरस में थोडै ही है।
किसी ने कहा था कवि वह नहीं जो बने बनाए नियमों के मुताबिक कविता लिखे। वह तो कारीगरी का काम है। कवि तो वह जो कविता बनाने के नए नियमों का सृजन कर दे। आप की हर कविता का नया नियम होता है। यह तो आपही धोती खोल कहे देते हैं कि यह दोहा है। पोहा, सोहा या खोहा नाम नहीं रख सकते?
अच्छा तो.. ईहाँ दोहे दुहे जा रहे हैं,
गुरु-चेला दोहा सँग्राम हुई रहा है ?
तौन ठीक..
चलो ज़ायका तो बदला, अर्ज़ किया है.. अजी सुनिये अर्ज़ किया है,
हाँ तो क्या किया है, ज़नाब अर्ज़ किया है कि,
ग़म ए दिल अब जो ग़म ए दिलदार तक आ पहुँचे हैं
ओह, ग़म के शोले तो उनके रुख़सार तक आ पहुँचे हैं
, मगर अंत में वकील साहब भी …. मुझे उनसे यह उम्मीद नहीं थी ….
तीन लायनों में तीन किरदार निभाए है वकील साहब ने ..
पहली में- विवेक सिंह की तारीफ , जबकि उन्होंने आपकी पैरोडी की है…….
दूसरी में – शोले के अमिताभ बच्चन बन कर बीरू का खेल बिगाड़ दिए…..
तीसरी में – आपका ही नाम लेते हुए आपकी धोती खोल कर रख दी ….
अपने दोस्तों को पहचानो भोले से भाले अनूप भाई …..
शुक्ला जी दोहा रचे, जाँचत रहे विवेक॥
यूँ तो बहुतेरे मिले, सब हमको हैं भाय।
साथी ऐसन चाहिये, जिसको दोहा आय॥
-बहुत उम्दा रचे हो भाई -बाजार की स्थितियाँ स्पष्ट हुई और विवेक बाबू का चटपट सुधार कार्य भी पसंद आ गया.
जारी रहिये. मतले चौखट पर तो जाईये ही मति-दोहा चबूतरा है तो.
मजा आया.
(कवच: उपर के दोनों दोहे मात्र हास्य विनोद के लिए हैं.)