http://web.archive.org/web/20140420082626/http://hindini.com/fursatiya/archives/3844
जबलपुर से कानपुर आते-जाते
By फ़ुरसतिया on January 18, 2013
पिछले हफ़्ते कानपुर जाना हुआ। कोहरा नहीं था सो गाड़ी सुबह समय पर कानपुर पहुंच गयी।
स्टेशन आने के कुछ पहले हमने अपना सामान दरवाजे के पास धर लिया। दूसरे दरवाजे से अपने शहर को देखने लगे। शहर के बाहर इलाके में लोगों के घर देखते रहे। कच्चे-पक्के मकान। झुग्गी-झोपड़ियों के अंदर-बाहर लोग। सुबह की ठंड में एक महिला गोबर से अपना घर लीप रही थी। पास ही कुछ लोग (आदमी/बच्चे) लकड़ी और कूड़ा जलाकर जाड़े को फ़ुटा रहे थे। आगे पटरियों के किनारे रखे सीमेंट के स्लीपर पर बैठे लोग दिव्य निपटान में जुटे थे। सुलभ शौचालय के एकबार के अगर तीन रुपये गिने जायें और औसन निपटान दिन में दो बार माना जाये तो ये लोग 720/- रुपये प्रति परिवार (औसत प्रति परिवार चार लोग लेकर) बचा रहे थे।
अचानक ट्रेन रुकी। शायद नियमित चेनपुलिंग हुई थी। तमाम लोग अपना-अपना सामान ट्रेन से उतारकर अपने रस्ते चल दिये। कुछ दूध वालों ने फ़टाफ़ट अपनी साइकिलें ट्रेन की खिड़कियों से खोलीं। कन्धे पर लाद कर पटरी के किनारे की पगड़ंडी पर धरा। अपने दूध के डिब्बे साइकिल पर लादकर चल दिये। अचानक एक बच्चा पटरी के किनारे के एक घर से निकलकर भागता हुआ पटरी पार करके गाड़ी के पास वाली पटरी के पास खड़ा होकर आंखे मूंदे जम्हुआई लेते हुये सूरज की तरफ़ धार मारते हुये लघुशंका करने लगा। घर के बाहर रखी दो अंगीठियों से उठता हुआ धुंआ बराबर की दूरी बनाये हुये आसमान की तरफ़ जाता दिखा।
गाड़ी धीरे-धीरे फ़िर से चल दी। देखते-देखते उसकी गति देश की विकास गति से बढ़कर मंहगाई की तरह बढ़ गयी।
हमारे शहर दर्शन में दखल देते हुये एक भलेमानस ने कहा- सामान दरवज्जे के पास मत रखिये। कोई मार देगा। ये कानपुर है।
ये भलामानस पिछले स्टेशन से चढ़ा था। कोच अटेंडेंट के साथ घुसुर-पुसुर करके बैटने के उसके अंदाज से लग रहा था वह ऐसे ही डिब्बे में घुस आया है। शायद डिब्बे में बैठे यात्रियों का हितचिंतक होकर डिब्बे में अपने अवतरित होने को उचित ठहरा रहा था।
ये शरीफ़ों के लक्षण हैं। अनधिकृत काम करते हुये भलमनसाहत दिखाने से अनधिकृत काम अधिकृत सा लगने लगता है!
प्रवासी होते ही देश/शहर के प्रति अनुराग बढ़ जाता है। दो हफ़्ते बाद अपने शहर लौट रहा था। शहर की बुराई सहन नहीं हुई। लेकिन आलस्य के चलते हम उसके कहे को अनसुना कर गये। लेकिन अगला भलमनसाहत पर उतारू था। प्रतिबद्ध भलामानस था शायद। उसने दुबारा चेताया – दरवज्जे से सामान पार हो जायेगा। ये कानपुर है।
हमने कहा- ले जायेगा तो ले जायेगा। कोई कनपुरिया ही तो ले जायेगा। कानपुर वाले का सामान कानपुर वाला ही तो ले जायेगा। कोई अमेरिकी थोड़ी ले जायेगा। ले जान दो।
इसके बाद अपने हम अपने शहर प्रेम में धृतराष्ट्र हो लिये और डिब्बे से सामान पार कर देने वाले संभावित चोर की मेहनत का हवाला देते हुये उसकी हरकत को उसी तरह ठहराते रहे जैसे बिहार से जुड़े कई लोग ’गैंग ऑफ़ वासेपुर’ फ़िलिम की गाली-गलौज और भयंकर गुंडागर्दी को सही ठहराते रहे। हमने यह तक कह डाला कि इस भद्दर जाड़े में कोई अपने घर से ट्रेन से सामान पार करने के लिये रजाई त्याग करके निकलता है तो इतना तो उसका हक बनता है। यह अलग बात है कि ये डायलाग मारते हुये हमारी निगाह हमारे सामान से चिपकी रही।
शहर में चार दिन कैसे बीत गये पता ही नहीं चला। मौसम खुशगवार रहा। लौटते हुये बीच की बर्थ मिली। नीचे की दोनों बर्थ में दो महिलायें थीं। अगल-बगल की सीटों पर पुरुष। हम थोड़ी देर तक आपस में मौसम, देश, समाज के बारे में बतियाते रहे। कुछ देर जबलपुर कानपुर की दूरी और ट्रेन के समय के बारे में। हमने यह स्थापित किया कि कानपुर से जबलपुर के लिये चित्रकूट एक्सप्रेस से बेहतर ट्रेन कोई नहीं। साथ की सीट के एक यात्री कोई अंग्रेजी नावेल बांचते रहे। सोने के पहले अगले ने निपटा ही दिया उसे। इस बीच साथ की महिला यात्रियों में से एक ने फोन पर अपने घर वालों को जानकारी दी कि उनको बहुत अच्छी कंपनी( दूसरी महिला) मिल गयी हैं।
घंटे भर बाद न जाने क्या हुआ। सब अचानक अपने-अपने डिब्बे खोलकर अपना-अपना डिनर खाने लगे। चुपचाप सर झुकाये खाना खाते हुये। लगता है जहरखुरानों की सजा टुकड़ों-टुकड़ों में अपन के खाते में जमा कर दी गयी हो। वे महिलायें जरूर एक-दूसरे के डिब्बे से ले-देकर खा रहीं थीं। सुबह उनमें से एक ने दूसरे को जबरदस्ती चाय भी पिलाई जबकि उनको सुबह ’बेड टी’ लेने की आदत नहीं थी।
उनको देखकर एक बार फ़िर लगा कि महिलायें कितनी जल्दी आपस में सहज और आत्मीय हो जाती हैं।
सुबह उठे तो जबलपुर समय पर आ गया। उन महिलाओं में से एक को बस स्टैंड जाना था। लेकिन दोनों के रास्ते अलग-अलग थे। उनकी परेशानी और पूछतानी देखकर हमने उनको अपनी गाड़ी से बस स्टैंड छोड़ दिया। रास्ते में पता चला कि वे कानपुर में हमारे ही बगल के मोहल्ले में रहती हैं। यह बात तब पता चली जब हम लोग विदा हो रहे थे।
बस में बैठाकर लौटते समय मैं सोच रहा था कि जब वे बस में बैठीं तो अकेली सवारी थीं। अनजाने ही दिल्ली दुर्घटना को याद करता रहा। सोचता रहा कि अगर कुछ हुआ तो पुलिस पकड़ेगी। पूछेगी कि कैसे जानते हैं? क्यों छोड़ा बस स्टैंड? जब अकेली थी तो छोड़ा क्यों? बस नंबर क्या था? कितने लोग थे बस में? कैसे थे? पहचान सकते हो? और न जाने क्या इधर-उधर की।
एक दुर्घटना न जाने कितनों को असहज करती है। कहां-कहां तक सावधान करती है।
शाम तक किसी बस दुर्घटना की खबर न पाकर सुकून हो रहा है।
ऊपर की सब फ़ोटो फ़्लिकर से। नीचे वाली फोटो हमारे कैमरे से। रेल की पटरी के किनारे का कानपुर- ऐसी कम तैसी ससुरे विकास की।
स्टेशन आने के कुछ पहले हमने अपना सामान दरवाजे के पास धर लिया। दूसरे दरवाजे से अपने शहर को देखने लगे। शहर के बाहर इलाके में लोगों के घर देखते रहे। कच्चे-पक्के मकान। झुग्गी-झोपड़ियों के अंदर-बाहर लोग। सुबह की ठंड में एक महिला गोबर से अपना घर लीप रही थी। पास ही कुछ लोग (आदमी/बच्चे) लकड़ी और कूड़ा जलाकर जाड़े को फ़ुटा रहे थे। आगे पटरियों के किनारे रखे सीमेंट के स्लीपर पर बैठे लोग दिव्य निपटान में जुटे थे। सुलभ शौचालय के एकबार के अगर तीन रुपये गिने जायें और औसन निपटान दिन में दो बार माना जाये तो ये लोग 720/- रुपये प्रति परिवार (औसत प्रति परिवार चार लोग लेकर) बचा रहे थे।
अचानक ट्रेन रुकी। शायद नियमित चेनपुलिंग हुई थी। तमाम लोग अपना-अपना सामान ट्रेन से उतारकर अपने रस्ते चल दिये। कुछ दूध वालों ने फ़टाफ़ट अपनी साइकिलें ट्रेन की खिड़कियों से खोलीं। कन्धे पर लाद कर पटरी के किनारे की पगड़ंडी पर धरा। अपने दूध के डिब्बे साइकिल पर लादकर चल दिये। अचानक एक बच्चा पटरी के किनारे के एक घर से निकलकर भागता हुआ पटरी पार करके गाड़ी के पास वाली पटरी के पास खड़ा होकर आंखे मूंदे जम्हुआई लेते हुये सूरज की तरफ़ धार मारते हुये लघुशंका करने लगा। घर के बाहर रखी दो अंगीठियों से उठता हुआ धुंआ बराबर की दूरी बनाये हुये आसमान की तरफ़ जाता दिखा।
गाड़ी धीरे-धीरे फ़िर से चल दी। देखते-देखते उसकी गति देश की विकास गति से बढ़कर मंहगाई की तरह बढ़ गयी।
हमारे शहर दर्शन में दखल देते हुये एक भलेमानस ने कहा- सामान दरवज्जे के पास मत रखिये। कोई मार देगा। ये कानपुर है।
ये भलामानस पिछले स्टेशन से चढ़ा था। कोच अटेंडेंट के साथ घुसुर-पुसुर करके बैटने के उसके अंदाज से लग रहा था वह ऐसे ही डिब्बे में घुस आया है। शायद डिब्बे में बैठे यात्रियों का हितचिंतक होकर डिब्बे में अपने अवतरित होने को उचित ठहरा रहा था।
ये शरीफ़ों के लक्षण हैं। अनधिकृत काम करते हुये भलमनसाहत दिखाने से अनधिकृत काम अधिकृत सा लगने लगता है!
प्रवासी होते ही देश/शहर के प्रति अनुराग बढ़ जाता है। दो हफ़्ते बाद अपने शहर लौट रहा था। शहर की बुराई सहन नहीं हुई। लेकिन आलस्य के चलते हम उसके कहे को अनसुना कर गये। लेकिन अगला भलमनसाहत पर उतारू था। प्रतिबद्ध भलामानस था शायद। उसने दुबारा चेताया – दरवज्जे से सामान पार हो जायेगा। ये कानपुर है।
हमने कहा- ले जायेगा तो ले जायेगा। कोई कनपुरिया ही तो ले जायेगा। कानपुर वाले का सामान कानपुर वाला ही तो ले जायेगा। कोई अमेरिकी थोड़ी ले जायेगा। ले जान दो।
इसके बाद अपने हम अपने शहर प्रेम में धृतराष्ट्र हो लिये और डिब्बे से सामान पार कर देने वाले संभावित चोर की मेहनत का हवाला देते हुये उसकी हरकत को उसी तरह ठहराते रहे जैसे बिहार से जुड़े कई लोग ’गैंग ऑफ़ वासेपुर’ फ़िलिम की गाली-गलौज और भयंकर गुंडागर्दी को सही ठहराते रहे। हमने यह तक कह डाला कि इस भद्दर जाड़े में कोई अपने घर से ट्रेन से सामान पार करने के लिये रजाई त्याग करके निकलता है तो इतना तो उसका हक बनता है। यह अलग बात है कि ये डायलाग मारते हुये हमारी निगाह हमारे सामान से चिपकी रही।
शहर में चार दिन कैसे बीत गये पता ही नहीं चला। मौसम खुशगवार रहा। लौटते हुये बीच की बर्थ मिली। नीचे की दोनों बर्थ में दो महिलायें थीं। अगल-बगल की सीटों पर पुरुष। हम थोड़ी देर तक आपस में मौसम, देश, समाज के बारे में बतियाते रहे। कुछ देर जबलपुर कानपुर की दूरी और ट्रेन के समय के बारे में। हमने यह स्थापित किया कि कानपुर से जबलपुर के लिये चित्रकूट एक्सप्रेस से बेहतर ट्रेन कोई नहीं। साथ की सीट के एक यात्री कोई अंग्रेजी नावेल बांचते रहे। सोने के पहले अगले ने निपटा ही दिया उसे। इस बीच साथ की महिला यात्रियों में से एक ने फोन पर अपने घर वालों को जानकारी दी कि उनको बहुत अच्छी कंपनी( दूसरी महिला) मिल गयी हैं।
घंटे भर बाद न जाने क्या हुआ। सब अचानक अपने-अपने डिब्बे खोलकर अपना-अपना डिनर खाने लगे। चुपचाप सर झुकाये खाना खाते हुये। लगता है जहरखुरानों की सजा टुकड़ों-टुकड़ों में अपन के खाते में जमा कर दी गयी हो। वे महिलायें जरूर एक-दूसरे के डिब्बे से ले-देकर खा रहीं थीं। सुबह उनमें से एक ने दूसरे को जबरदस्ती चाय भी पिलाई जबकि उनको सुबह ’बेड टी’ लेने की आदत नहीं थी।
उनको देखकर एक बार फ़िर लगा कि महिलायें कितनी जल्दी आपस में सहज और आत्मीय हो जाती हैं।
सुबह उठे तो जबलपुर समय पर आ गया। उन महिलाओं में से एक को बस स्टैंड जाना था। लेकिन दोनों के रास्ते अलग-अलग थे। उनकी परेशानी और पूछतानी देखकर हमने उनको अपनी गाड़ी से बस स्टैंड छोड़ दिया। रास्ते में पता चला कि वे कानपुर में हमारे ही बगल के मोहल्ले में रहती हैं। यह बात तब पता चली जब हम लोग विदा हो रहे थे।
बस में बैठाकर लौटते समय मैं सोच रहा था कि जब वे बस में बैठीं तो अकेली सवारी थीं। अनजाने ही दिल्ली दुर्घटना को याद करता रहा। सोचता रहा कि अगर कुछ हुआ तो पुलिस पकड़ेगी। पूछेगी कि कैसे जानते हैं? क्यों छोड़ा बस स्टैंड? जब अकेली थी तो छोड़ा क्यों? बस नंबर क्या था? कितने लोग थे बस में? कैसे थे? पहचान सकते हो? और न जाने क्या इधर-उधर की।
एक दुर्घटना न जाने कितनों को असहज करती है। कहां-कहां तक सावधान करती है।
शाम तक किसी बस दुर्घटना की खबर न पाकर सुकून हो रहा है।
ऊपर की सब फ़ोटो फ़्लिकर से। नीचे वाली फोटो हमारे कैमरे से। रेल की पटरी के किनारे का कानपुर- ऐसी कम तैसी ससुरे विकास की।
Posted in बस यूं ही | 31 Responses
काजल कुमार की हालिया प्रविष्टी..कार्टून:-मालिक, झटका कीजीए न, हलाल क्यों
वाकई इस दौर में दुर्घटना ना सुने और ना देखें तो सुकून होता है ।
विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..हमनाम ने ऋण लिया और HSBC & ABN AMRO RBS परेशान कर रही हैं हमें !!
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..मित्रों की फरमाईश ,समय से द्वंद्व और नल दमयंती आख्यान
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..जाने व आने के बीच की शान्ति
jatdevta SANDEEP की हालिया प्रविष्टी..Youth Hostels Camp, Campal, Panji, Goa यूथ हॉस्टल कैम्प, कैम्पल, मीरमार, पणजी, गोवा
प्रणाम.
किसके लिये……………….???
यात्रा वृतांत बहुत अच्छा है. सहज-प्रवाहमय.
ajit gupta की हालिया प्रविष्टी..स्वामी विवेकानन्द के सांस्कृतिक नवजागरण में महिलाओं का योगदान
एक दुर्घटना वाकई में बहुत हिला देती है वो ठीक से पहुच गयी बढ़िया रहा ये !!!
और ये जो आखिरी वाली फोटो है , जो विकास की ऐसी तैसी कर रही है, इस टाईप की बहुत सारी अपन के लखीमपुर के टेशन के पास भी काफी हैं !!! विकास के मामले में कम्पटीशन तगड़ा है यूपी के शहरों का
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..मारे डर के हालत खराब, और लोग बोलते डर नहीं लगता !!!!
अमा यार हर इंसान इंतनी कानपुरी फुर्सत में फुरसतिया नहीं होता.
जो भी हो, कल ही ये रागदरबारी हाथ में वाया अमरकंट आया .. देर आयेद दुरुस्त आयेद.
रागदरबारी को इस मायाजाल में प्रस्तुत करने के लिए साधुवाद और आभार.