http://web.archive.org/web/20140420082729/http://hindini.com/fursatiya/archives/4928
सबके लिये शौचालय – कहीं हो न जाये
By फ़ुरसतिया on October 9, 2013
पिछले हफ़्ते शौचालय और देवालय का बड़ा हल्ला रहा मीडिया में।
कोई बोला देश को देवालय नहीं शौचालय चाहिये।
सुनते ही कोई और बोला – अरे शौचालय वाली बात तो हमने कही पहले। हम इसके कोलम्बस हैं। आप देवालय वाले लोग शौचालय की बात कैसे कह सकते हैं? वास्कोडिगामा बने रहिये, कोलम्बस मती बनिये।
इसके बाद तो पूरा देश शौचालय बनाम देवालय की लड़ाई में जुट गया। अखबार, टेलिविजन और सोशल मीडिया जहां देखो वहां बयानों का दिब्य निपटान होने लगा।
मंदिर और मकान (रोटी,कपड़ा और मकान) का वायदा पूरा न कर सकने वाले लोग शौचालय की मांग पूरी करके नंबर लूटना चाहते हैं। खाने और रहने का इंतजाम भले न कर पायें लेकिन निपटने की व्यवस्था के लिये जान लगा देंगे। हरेक के लिये शौचालय सुलभ करवा देंगे। कुछ ज्याादा करना भी नहीं होग। मंदिर और मकान के नक्शे में एक ठो 2 बाई 2 के कमरे का जुगाड़ हो जायेगा।शौचालय की मांग पूरी हो जायेगी।
यह जरूरत कब पूरी होगी, कैसे होगी इसके बारे में बयान वीरों ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं लेकिन इस बारे में पढ़ा गांधीजी का एक लेख याद आता है जिसमें उन्होंने खुले में निपटने से मना किया था। इससे बीमारियां फ़ैलती हैं। विस्तार से बताते हुये गांधीजी ने लिखा था कि कैसे खेत में निपटने के लिये जाने पर एक खुरपी साथ लेकर जायें। गढढ़ा खोदंकर उसमें शौच करें और फ़िर गढढे को मिट्टी से बंद कर दें। गांधीजी अंतिम आदमी की जरूरत समझते थे। इसलिये इतने विस्तार से बताया तरीका।
जितना विस्तार से गांधी जी ने एक गढढा खोदने की तरकीब बताई, योजना समझाई उतना तफ़सील से तो पूर देश के लिेये शौचालय के बारे में बयान देते हुये न तो ’बयानिया कोलम्बस’ ने सोचा होगा न “डायलागिया वास्कोडिगामा” ने। शौचालय वाले बयान से निपट कर अगला बयान गढ़ने लगे होगे। उल्टे वे खेत खतम करने में सहयोग कर रहे हैं ताकि आदमी गांधी जी वाले तरीके से निपटने तक को मोहताज हो जाये।
इस बयान युद्ध् के बीच ही कानपुर जाना हुआ। शहर में घुसते ही पटरियों के किनारे निपटते लोग दिखे। पटरी के पार लोगों के घर देखे। घर के पास के जमा बरसाती पानी तालाब की शक्ल ले चुका था जिसमें पालीथीन की चादर सी पसरी थी। घर, घर के पास की जमीन और पालीथीन पटे गढ़हे (छोटा तालाब) देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा था कि घर कहां खतम होता है और शौचालय कहां शुरु होता है। दोनों का सह अस्तित्व अगर कोई बयान वीर देख ले तो क्या पता कि बयान जारी करे कि हमने अपने देशवासियों के लिेये मकान और शौचालय दोनों की व्यवस्था एक साथ कर दी। टू इन वन। रहना है तो झुपड़िया में घुस जाइये, निपटना हो खुल्ले में आ जाइये। आगे के काम के लिय थोड़ा और तालाब तक आइये। पोछने का काम पालीथीन से। पूरे देश में हर जगह निपटने की सहज-सुलभ व्यवस्था है।
यूनीसेफ़ की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 1.1 अरब लोग खुले में शौच करते हैं। लेकिन यह भी सोचने वाली बात है कि अगर कभी सारा देश बंद में निपटने लगेगा तो क्या होगा। इस बारे में प्रर्यावरण पत्रकारिता को समर्पित सोपान जोशी का मानना है कि सोपान जोशी मानते हैं कि हर एक के पास शौचालय हो जाए तो बहुत बुरा होगा। ”
खुदा न खास्ता अगर ये बयानवीर सबके लिये शौचालय का इंतजाम करने पर अड़ गये और हो भी गया इंतजाम तो हाल क्या होगा सुनिये पर्यावरण पत्रकार सोपान जोशी से:
कोई बोला देश को देवालय नहीं शौचालय चाहिये।
सुनते ही कोई और बोला – अरे शौचालय वाली बात तो हमने कही पहले। हम इसके कोलम्बस हैं। आप देवालय वाले लोग शौचालय की बात कैसे कह सकते हैं? वास्कोडिगामा बने रहिये, कोलम्बस मती बनिये।
इसके बाद तो पूरा देश शौचालय बनाम देवालय की लड़ाई में जुट गया। अखबार, टेलिविजन और सोशल मीडिया जहां देखो वहां बयानों का दिब्य निपटान होने लगा।
मंदिर और मकान (रोटी,कपड़ा और मकान) का वायदा पूरा न कर सकने वाले लोग शौचालय की मांग पूरी करके नंबर लूटना चाहते हैं। खाने और रहने का इंतजाम भले न कर पायें लेकिन निपटने की व्यवस्था के लिये जान लगा देंगे। हरेक के लिये शौचालय सुलभ करवा देंगे। कुछ ज्याादा करना भी नहीं होग। मंदिर और मकान के नक्शे में एक ठो 2 बाई 2 के कमरे का जुगाड़ हो जायेगा।शौचालय की मांग पूरी हो जायेगी।
यह जरूरत कब पूरी होगी, कैसे होगी इसके बारे में बयान वीरों ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं लेकिन इस बारे में पढ़ा गांधीजी का एक लेख याद आता है जिसमें उन्होंने खुले में निपटने से मना किया था। इससे बीमारियां फ़ैलती हैं। विस्तार से बताते हुये गांधीजी ने लिखा था कि कैसे खेत में निपटने के लिये जाने पर एक खुरपी साथ लेकर जायें। गढढ़ा खोदंकर उसमें शौच करें और फ़िर गढढे को मिट्टी से बंद कर दें। गांधीजी अंतिम आदमी की जरूरत समझते थे। इसलिये इतने विस्तार से बताया तरीका।
जितना विस्तार से गांधी जी ने एक गढढा खोदने की तरकीब बताई, योजना समझाई उतना तफ़सील से तो पूर देश के लिेये शौचालय के बारे में बयान देते हुये न तो ’बयानिया कोलम्बस’ ने सोचा होगा न “डायलागिया वास्कोडिगामा” ने। शौचालय वाले बयान से निपट कर अगला बयान गढ़ने लगे होगे। उल्टे वे खेत खतम करने में सहयोग कर रहे हैं ताकि आदमी गांधी जी वाले तरीके से निपटने तक को मोहताज हो जाये।
इस बयान युद्ध् के बीच ही कानपुर जाना हुआ। शहर में घुसते ही पटरियों के किनारे निपटते लोग दिखे। पटरी के पार लोगों के घर देखे। घर के पास के जमा बरसाती पानी तालाब की शक्ल ले चुका था जिसमें पालीथीन की चादर सी पसरी थी। घर, घर के पास की जमीन और पालीथीन पटे गढ़हे (छोटा तालाब) देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा था कि घर कहां खतम होता है और शौचालय कहां शुरु होता है। दोनों का सह अस्तित्व अगर कोई बयान वीर देख ले तो क्या पता कि बयान जारी करे कि हमने अपने देशवासियों के लिेये मकान और शौचालय दोनों की व्यवस्था एक साथ कर दी। टू इन वन। रहना है तो झुपड़िया में घुस जाइये, निपटना हो खुल्ले में आ जाइये। आगे के काम के लिय थोड़ा और तालाब तक आइये। पोछने का काम पालीथीन से। पूरे देश में हर जगह निपटने की सहज-सुलभ व्यवस्था है।
यूनीसेफ़ की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 1.1 अरब लोग खुले में शौच करते हैं। लेकिन यह भी सोचने वाली बात है कि अगर कभी सारा देश बंद में निपटने लगेगा तो क्या होगा। इस बारे में प्रर्यावरण पत्रकारिता को समर्पित सोपान जोशी का मानना है कि सोपान जोशी मानते हैं कि हर एक के पास शौचालय हो जाए तो बहुत बुरा होगा। ”
खुदा न खास्ता अगर ये बयानवीर सबके लिये शौचालय का इंतजाम करने पर अड़ गये और हो भी गया इंतजाम तो हाल क्या होगा सुनिये पर्यावरण पत्रकार सोपान जोशी से:
“हरेक के पास शौचालय हो जाए तो बहुत बुरा होगा। हमारे सारे जल स्रोत-नदियां और उनके मुहाने, छोटे-बड़े तालाब, जो पहले से ही बुरी तरह दूषित हैं- तब तो पूरी तरह तबाह हो जाएंगे। आज तो केवल एक तिहाई आबादी के पास ही शौचालय की सुविधा है। इनमें से जितना मैला पानी गटर में जाता है, उसे साफ करने की व्यवस्था हमारे पास नहीं है। परिणाम आप किसी भी नदी में देख सकते हैं। जितना बड़ा शहर, उतने ही ज्यादा शौचालय और उतनी ही ज्यादा दूषित नदियां। दिल्ली में यमुना हो चाहे बनारस में गंगा, जो नदियां हमारी मान्यता में पवित्र हैं वो वास्तव में अब गटर बन चुकी हैं। सरकारों ने दिल्ली और बनारस जैसे शहरों में अरबों रुपए खर्च कर मैला पानी साफ करने के संयंत्र बनाए हैं। इन्हें सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट कहते हैं। ये संयंत्र चलते हैं और फिर भी नदियां दूषित ही बनी हुई हैं। ये सब संयंत्र दिल्ली जैसे सत्ता के अड्डे में भी गटर का पानी बिना साफ किए यमुना में उंडेल देते हैं।कितना भला लग रहा है यह सोचते हुये कि अपने यहां नेताओं के बयान सिर्फ़ बयान तक ही सीमित रहते हैं। उनके कार्यान्वयन का खतरा नहीं रहता।
जितने शौचालय देश में चाहिए, उतने अगर बन गए तो हमारा जल संकट घनघोर हो जाएगा पर नदियों का दूषण केवल धनवान लोग करते हैं, जिनके पास शौचालय हैं। गरीब बताए गए लोग जो खुले में पाखाने जाते हैं, उनका मल गटर तक पहुंचता ही नहीं है क्योंकि उनके पास सीवर की सुविधा नहीं है फिर भी जब यमुना को साफ करने का जिम्मा सर्वोच्च न्यायालय ने उठाया तो झुग्गी में रहने वालों को ही उजाड़ा गया। न्यायाधीशों ने अपने आप से ये सवाल नहीं किया कि जब वो पाखाने का फ्लश चलाते हैं तो यमुना के साथ कितना न्याय करते हैं। ”
Posted in बस यूं ही | 8 Responses
………..
अब साडी कवायद इस बात को लेकर रहेगी के……….’इस बात के कोलम्बस हम हैं’
………..
प्रणाम.
ऐसे ही जलस्तर गिरता जा रहा है.. देश की अर्थ व्यवस्था भी चरमरायी हुई है..खाएंगे तभी तो जाएंगे..पांच किलो अनाज में कब्जियत के शिकार होने की संभावनाएं ज्यादा है।
और, कल्पना करें कि अगर ऐसा हो गया, तो पांच सितारा सुविधा भोगी लोगों को लोटा लेकर बाहर जाते देखना …
रवि की हालिया प्रविष्टी..याहू! 1 टीबी ईमेल बॉक्स बिलकुल मुफ़्त
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..वर्धा से कानपुर
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..नौकरी के तीन दशक -संस्मरण श्रृंखला
अधिक से अधिक शौचालय बनना सबके लिए अच्छा है।
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..सेकुलरिज्म का श्रेय हिंदुओं को: विभूति नारायण राय
वैसे गाँव के लोगो के लिए खुले में शौच के लिए जाना कुछ ऐसे है जैसे हम सब के लिए फेसबुक ……..
सोशल नेटवर्किंग सुबह सुबह चैटिंग हो जाती है |