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[अगर आप व्यंग्यकार हैं तो आप में सच बोलने की कुटेव तो होगी। आप ठकुर सुहाती नहीं कर सकते। आप चेहरा देखकर बातें नहीं कर सकते।- ज्ञान चतुर्वेदी]
ज्ञान जी का वक्तव्य आयोजन की उल्लेखनीय उपलब्धि रही। अच्छा यह हुआ कि संतोष त्रिवेदी ने इसको रिकार्ड कर लिया। इससे बाद में सुनकर उसका आनन्द उठा सके। संतोष और मैं वहां कार्यक्रम में अगल-बगल ही बैठे हुये थे। ज्ञानजी के वक्तव्य के बीच-बीच में प्राम्पटिंग टाइप भी करते जा रहे थे। वो भी टेप में आ गई हैं। एक बार तो प्राम्पटिंग इतनी धीमी आवाज में की वो मंच पर बोलते हुये ज्ञानजी के कान तक पहुंच गयी और ज्ञान जी ने उसको भी अपने वक्तव्य में प्रयोग करके यह बताया कि अपने आसपास घट रही घटनाओं का उपयोग लेखन में कैसे किया जा सकता है।
[ज्ञानजी का पूरा वक्तव्य यहां पढिये https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10210583105987329 ]
ज्ञान जी का वक्तव्य अपने में एक मुकम्मल व्यंग्य लेख सा ही था। हास्य से शुरु होकर करूणा तक पहुंचते हुये बाजार के हल्ले पर खतम हुआ। मजे लेते हुये उन्होंने शुरु में ही बता दिया कि आलोक पुराणिक को व्यंग्य श्री सम्मान दिलाने के प्रस्तावक और एक निर्णायक वे भी थे। पता नहीं सम्मान की गोपनीयता के कुछ नियम भी होते हैं कि नहीं लेकिन जो बात सभी को पता है वह खुले मंच से बताकर बाकी के निर्णायकों का फ़ोन का खर्चा बढा दिया। अब वे सबको फ़ोन करके सबको बता रहा हैं कि निर्णायक तो हम भी थे लेकिन हमने किसी को नहीं बताया।
बात में इनाम प्रक्रिया का और खुलासा करते हुये ज्ञान जी ने जानकारी दी - "मेरी नजर में पैर छूने के बहुत सारे और क्राइटेरिया हैं। जिनमें आप जिसका सम्मान करते हैं वह भी और जुगाड़ में पैर तो छुये ही जाते हैं।" यह खुलासा होते लोग पूछने लगे -’ ज्ञान जी दिल्ली में कब तक हैं। भोपाल की गाड़ी में रिजर्वेशन पता करो यार।’
ज्ञानजी ने अपने एक निर्णायक होने की बात कहकर अपने लिये और दूसरे निर्णायकों के लिये भी समस्या का जुगाड़ कर लिया। पता चला कि जिस किसी को इनाम नहीं मिला वो फ़ौरन ज्ञान जी को फ़ोन करके पूछेगा -’ भाईसाहब, आप हमें बस ये बता दीजिये कि किसने-किसने विरोध किया था? बाकी हम निपट लेंगे बस आप अपना आशीर्वाद बनाये रखियेगा।’
वैसे ज्ञानजी ने तमाम इनामों की कमेटी में रहे होंगे। और भी उनके साथ के लोग रहते हैं। वैसे भी लेखक जब बड़ा हो जाता है और उसका लिखना पढ़ना कम हो जाता है उसे इनाम तय करने का काम थमा दिया जाता है। बड़े लोग अपनी-अपनी पसन्द के लोगों को इनाम देने की संस्तुति देते हैं। कभी-कभी इनाम मिल जाता है और कभी नहीं भी मिलता है। इस चक्कर में कभी-कभी इनाम के प्रस्तावक/निर्णायक की भद्द भी पिट जाती है। ज्ञानजी हाल ही में इस तरह के हादसे का शिकार भी हुये हैं। किसी को इनाम दिलाने की कोशिश में किसी दूसरे के लिये भी इनाम की हामी भर लिये। लेकिन हुआ अंतत: यह कि जिसको चाहते थे उसको मिला नहीं और जिसको नहीं चाहते थे उसको मिल गया। डबल अफ़सोस का शिकार हुये।
इस बारे में हरीश नवल जी ज्यादा अनुभवी इनाम के प्रस्तावक और निर्णायक हैं। पिछली बार दिल्ली में उन्होंने बताया - ’इनाम तो जो देने वाला होता है वही तय करता है। प्रस्तावक और निर्णायक तो बहाना होता है।’
बहरहाल ज्ञान जी ने आलोक पुराणिक की भरपूर तारीफ़ की। उनको नयी भाषा गढ़ने वाला, नये प्रयोग करने वाला, व्यंग्य के सौंदर्य की समझ रखने वाला बताया। यह भी कि आलोक उन चंद लोगों में हैं जिनको पढकर उनका दिल जुड़ा जाता है ( जी जुड़ा जाना कहते तो अनुप्रास की छटा भी दिखती )। कुल मिलाकर ज्ञान जी ने आलोक पुराणिक की इतनी तारीफ़ की उनका गला सूख गया।
जब ज्ञान जी ने तारीफ़ करते हुये गला सूखने की बात कही तो मुझे उनके ’तारीफ़ कंजूस’ होने का एक कारण यह भी समझ में आया कि लोग उनके लिये पोडियम पर पानी का इंतजाम नहीं रखते।
आलोक पुराणिक अपनी तारीफ़ में फ़ूलकर अपने साल भर पहले के आयतन में पहुंचने ही वाले थे कि ज्ञान जी ने उनको बड़े लेखक बनने का रास्ते का झलक दिखा दी। न सिर्फ़ दिखा थी बल्कि सजा टाइप सुना दी कि अब तुमको बड़ा लेखक बनना ही है (गनीमत रही कि यह नहीं कहा कि अगर बड़े लेखक बनने के रास्ते पर नहीं बढे आगे तो इनाम के पैसे ब्याज सहित वापस धरा लिये जायेंगे)।
ज्ञान जी ने बड़े लेखक बनने का रास्ता जो बताया उसमें तेज हवाओं, ऊंची चढाई, अकेलेपन, तम्बू का ऐसा हौलनाक सिलसिला दिखा कि मानों सियाचिन का वीडियो चल रहा हो। कमजोर दिल का लेखक होता तो कलम-फ़लम फ़ेंककर कहने लगता - ’हमको नईं बनना बड़ा लेखक। हमसे इतना चढना-उतरना न हो पायेगा।’
यह भी लगा कि बड़ा लेखक बनने का आसान तरीका पर्वतारोहण की ट्रेनिग कर लेना होगा। शायद इसीलिये बड़े लेखक को जो करना होता है वह जवानी में कर लेता है। बढती उमर के चलते बाद में पर्वतारोहण मुश्किल लगता है।
ज्ञानजी ने हिन्दी व्यंग्य की स्थिति पर चिन्तित होने का काम भी किया लेकिन इस बार अलग तरीके से किया। इस बात यह कहकर चिंतित हुये कि अब हिन्दी व्यंग्य पर चिन्ता नहीं करूंगा। अनूप शुक्ल की बात का उल्लेख करते हुये कहा - "मेरे मित्र शुक्ल जी यहां बैठे हैं उन्होंने कहा था कि आप बयानों की कदमताल क्यों करते हो। तो यह बयानों की कदमताल भी मान पर यह महत्वपूर्ण है। कई बातें बार-बार कहनी पड़ती हैं। कुछ चिन्तायें जैसे बेटे के बारे में है, घर के बारे में है, आपकी चिन्तायें बार-बार आती हैं। उनको आप कहें कि चिन्ताओं को बार-बार रिपीट करके कुछ कदमताल कर रहे हैं तो यह गलत है।"
ज्ञान जी के वक्तव्य में ’एक ही जगह पर कदमताल’, लिखने की मुमुक्षा’, नये लेखकों में छपास, सोशल मीडिया में लाइक/टिप्पणी से संतुष्ट हो जाने’ जैसे वाक्यांश नहीं आते तो लगता है कि ज्ञान जी नहीं कोई और बोल रहा है। हमको अपने वहां रहने का थोड़ा अफ़सोस हुआ और उससे ज्यादा अपनी उस टिप्पणी का अफ़सोस जिसको ध्यान में आते ही ज्ञान जी सहज होकर कायदे से हिन्दी व्यंग्य पर चिन्तित न हो सके।
इस बारे में मुझे परसाई जी का माखनलाल चतुर्वेदी जी पर लिखा संस्मरण याद आया।
"मैंने ‘वसुधा’ में उनके कुछ शब्दों व मुहावरों के ‘रिफ़्लेक्स’ की तरह आ जाने पर टिप्पणी लिखने की गुस्ताखी की। लिखा था कि अगर माखनलाल चतुर्वेदी का गद्य है तो दो पैराग्राफ़ में पीढ़ियां, ईमान, बलिपंथी, मनुहार, तरूणाई, लुनाई आ जाना चाहिए, वरना वह चतुर्वेदी जी का लिखा हुआ नहीं है। मुझे उनके भांजे श्रीकांत जोशी ने बाद में लिखा कि दादा ने बुरा नहीं माना। मुझसे कहा कि यह परसाई ठीक कहता है। तुम इक कार्डबोर्ड पर इन्हें लिखकर यहां टांग दो, ताकि मैं इस पुन: पुन: की आव्रत्ति से बच सकूं।"
बाद में एक और संस्मरण में मैंने पढा थ कि माखनलाल चतुर्वेदी जी का वसुधा में लेख छपने के लिये आया तो उसमें पीढ़ियां, ईमान, बलिपंथी, मनुहार, तरूणाई, लुनाई नहीं थे। परसाई जी ने इस शब्दों को लेख में शामिल कर लिया। माखनलाल जी ने पूछा तो परसाई जी ने कहा -’अगर वे शब्द शामिल न होते लेख में तो लगता है किसी और ने लिखा है लेख।’
कहने का मतलब यह कि अगर ज्ञानजी के वक्तव्य में हिन्दी व्यंग्य पर चिंता नहीं होगी तो यह मानना थोड़ा मुश्किल होगा कि वक्तव्य उनका ही है। वैसे भी ज्ञानजी जब आज के व्यंग्य लेखन (खासकर नये लेखकों की) की बात करते हैं तो वे संयुंक्त परिवार के उस पिता की तरह लगते हैं जो अपने बच्चों को प्यार तो बहुत करता है लेकिन सार्वजनिक इजहार करने के चलन के मुताबिक बच्चों को नालायक ही बताता है। उस कड़क मास्टर की तरह है यह अन्दाज जो अपने जहीन शिष्यों को दस में चार नंबर देता है पर बाद में अकेले में बताता है तुम्हारे छह नंबर हमने सफ़ाई के काट लिये बाकी जबाब तुमने उम्दा दिया था।
हरेक का प्यार करने का अंदाज अलग-अलग होता है।
ज्ञान जी जब अपने लेखन की बात करते हुये कहते हैं " ज्ञान चतुर्वेदी के लिये बहुत सारे लोग सुपारी ले सकते हैं " तो मुझे लगता है यह जबरियन गढा गया ’हाइप’ है। ज्ञानजी अब अपने ’हम न मरब’ की कुछ आलोचनाओं से दुखी होकर कहते हैं - ’इस आलोचना से मुझे लगा कि मेरी पीठ पर किसी ने छुरा भोंक दिया ।’ तो मुझे अच्छा नहीं लगा। ऐसा लगा कि उन्होंने खुद अपनी एकांगी आलोचना को सही मान लिया। आज कम से कम व्यंग्य लेखन में उनके आसपास कोई नहीं है। उनके उपन्यासों के जो मानवीय पहलू हैं, जो करूणा है (खासकर स्त्री पात्रों में) वह कहीं भी अन्यत्र दिखती नहीं। ’हम न मरब’ में जब अम्मा के बारे में लिखते हैं ज्ञान जी:
" रोबे की कोई बात नहीं बिन्नू। हमाई बात को समझो।हम एकदम सही बात कह रहे हैं।हमें इस पौर से बाहर निकालो। तब तो हम मर पायेंगे। इतें ही पड़े रहे तब तो हम कभी न मर पायेंगे।’ अम्मा ने कहा।
सावित्रा सिसकती रहीं।
’इतें से निकालो।.. अभी के अभी निकालो हमें। बिन्नू..., हमें इसे से निकालो।’ अम्मा उत्तेजित हो चलीं।
सावित्री क्या जबाब दें?
’बिन्नू, तुम हमें बब्बा वाले कमरा में धरवा दो।.. अब हम बब्बा के कमरे में ही रहेंगे।...अब तो बब्बा का कमरा खाली हो गया न? .... हमें वोई कमरा दिला दो।...उते भौत उजाला है। घर के ऐन सामने पड़ता है।....जमदूत घर में घुसेंगे तो हम उन्हें एकदम सामने ही दिख जायेंगे।...तुम तो हमें बब्बा वाला कमरा दिला दो बिन्नू, नहीं तो हम कभी भी न मर पायेंगे।...’ अम्मा की उत्तेजना बढ रही थी।
सावित्री फ़ूट-फ़ूटकर रोने लगीं।
’इत्ते अंधेरे में छुपा के न धरो हमें।....तुम्हारे हाथ जोड़ते हैं बिन्नू।...’ अम्मा बोलीं। उनकी श्वास तेज-तेज चल रही है। बेचैन होकर वे खटिया के हाथ-पांव पटकने लगीं।"
मानवीय करुणा का यह दुर्लभ आख्यान है।
लिखते-लिखते मन भारी हो गया। बीच में आंसू भी आये थे। हमने उनको वापस फ़ुटा दिया कहते हुये कि बाद में आना।
कहना हम यही चाहते हैं कि ज्ञानजी हम पूरी मोहब्बत से आपके लिखे को पढते हैं। उतनी ही उत्सुकता से आपके उपन्यास का इंतजार कर रहे हैं। अब आप सारे चकल्लस छोड़ छाड़कर इसई काम में जुट जाइये। बकिया सारा बवाल हम झेल लेंगे बस आप अपने को देवता बनाने वालों से बचने का इंतजाम खुद देख लीजिये। वो आप देख लेंगे इसका हमें पक्का भरोसा है।
अब बहुत हुआ। चयास लग आई। इसलिये बात यहीं खतम करते हैं पूरी मोहब्बत, आदर और सम्मान के भावों की निरन्तर कदमताल करते हुये।
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