[ रंजना रावत जी हिन्दी की सबसे लोकप्रिय और बेहतरीन ’वनलाइनरिया’ हैं। आजकल कैमरा आईफ़ोन मोबाइल का कैमरा भी उनके हाथ में है तो उसके भी बेहतरीन प्रयोग वे करती रहती हैं। कविताओं पर हाथ साफ़ की सफ़ाई भी चलती ही रहती है। Alok Puranikसे आज के सवाल रंजना जी ने किये। रंजना जी का पहला सवाल आलोक पुराणिक की टाइपिंग स्पीड को लेकर है। उसका जबाब आलोक पुराणिक ने दिया। उनकी स्पीड का अंदाज लगाने के लिये जानकारी दे दूं कि आलोक पुराणिक को मैंने रजना जी के सवाल मैंने सबेरे 0451 बजे भेजे। उसके जबाब टाइप करके उन्होंने मुझे 6 बजकर एक मिनट पर भेज दिये। मतलब यहां जबाब वाली टाइपिंग करने में केवल एक घंटा लिया आलोक पुराणिक। मल्लब अगर कल को आलोक पुराणिक की व्यंग्य लेखन की कमाई बंद भी हो गयी तो बंदा उससे ज्यादा पैसा कचहरी में बैठकर टाइपिंग से पीट लेगा। बहरहाल आप बांचिये रंजना जी के सवाल और आलोक पुराणिक के जबाब]
सवाल 1: आपके शुरुआती दौर और आज की बात करें तो चार सौ शब्द का एक व्यंग्य लिखने में आपको अपेक्षाकृत अब कितना समय लगता है ? उस वक़्त की कठिनाईयों और आज टेक सैवी हो जाने की अपनी यात्रा के यादगार क़िस्से शेयर करें । अपनी टाइपिंग स्पीड भी बताएँ ।
जवाब: व्यंग्य लिखने की प्रक्रिया के दो हिस्से हैं-एक सोचना और दूसरा लिखना। सोचने का काम लगभग चौबीस घंटे है अब। कोई भी घटनाक्रम कोई खबर कोई विचार अब व्यंग्य के फ्रेम में उतरता है वह प्रक्रिया चौबीस घंटे लगभग की मानी जा सकती है। इक्कीस साल पहले विषय की तलाश और उस पर घंटों सोचना फिर फ्रेम बनाना, फिर संवाद बनाना, फिर फाइनल करना चार सौ शब्दों का व्यंग्य तब करीब चार घंटे में सोचा जाता था और आधा घंटा लिखने के लिए चाहिए था। बरसों बरस मैंने हाथ से लिखे हैं व्यंग्य, फिर सीख लिया कंप्यूटर। अब मैं पंद्रह मिनट में करीब छह सौ शब्द टाइप कर लेता हूं,छह सौ शब्द यानी करीब तीन हजार कैरेक्टर। पांच सौ शब्दों तक के व्यंग्य को मोबाइल पर टाइप करने की क्षमताएं भी विकसित कर ली हैं। तकनीक का फायदा सिर्फ गूगल औऱ माइक्रोसाफ्ट ही क्यों लें, आलोक पुराणिक को भी मिलना चाहिए। तकनीक के इस्तेमाल से अब बहुत चीजें आसान हो गयी हैं खास तौर पर शोध को लेकर। पहले शोध में बहुत वक्त जाता था। अब गूगल के जरिये लगभग सब कुछ आपके फोन या मोबाइल पर होता है।
सवाल 2: बतौर प्रोफेसर आप लगातार युवा छात्र छात्राओं से सम्पर्क में रहते हैं तो क्या इससे आपको अपने व्यंग्य लेखन और आर्थिक पत्रकारिता को समझने में मदद मिलती है ? यदि हाँ तो कैसे और नहीं तो क्यों नहीं ?
जवाब: नयी पीढ़ी से संवाद करना अपना आप में एक रोचक रचनात्मक अनुभव है। नयी पीढ़ी बदल रही है, तो अर्थव्यवस्था भी बदल रही है। मैं देखता हूं कि पापा और बेटे मिलने आ रहे हैं तो पापा के हाथ में नोकिया का पुराना सात साल पुराना फोन है बेटे के हाथ में नया एप्पल सेवन प्लस फोन है। बदलाव का अंदाज लगता है। नयी पीढ़ी अपने रहन-सहन ड्रेस वगैरह के मामले में बहुत चुस्त चौकस है। सेंस आफ प्राइवेसी उन्नत स्तर का है पापा क्या पूछ सकते हैं क्या नहीं का भाव है, नयी पीढ़ी में। बदलते वक्त को आप नयी पीढ़ी के साथ संवादरत रहकर भांप सकते हैं। आर्थिक पत्रकारिता या अर्थशास्त्र बदलते समाज के साथ भी जुड़ा है, तो मेरी आर्थिक पत्रकारिता और व्यंग्य दोनों ही नयी पीढ़ी के संवाद से समृद्ध होते हैं।
सवाल 3: आप अपने हर पाठक, हर छात्र को श्रीलाल शुक्ल जी का रागदरबारी पढ़ने की सलाह देते हैं । आपने भी व्यंग्य के हर फ़ॉर्मैट पर जमकर काम किया है तो क्या आपके पाठक भी आपकी इस अनुभवी क़लम से एक ऐसे ही कालजयी व्यंग्य उपन्यास की अपेक्षा रख सकते हैं ?
जवाब: ‘राग दरबारी’ उपन्यास नहीं जीवन-शास्त्र है। उसे तो हरेक को पढ़ना ही चाहिए। उपन्यास मैं जरुर लिखूंगा, पर वह व्यंग्य उपन्यास नहीं होगा। वह ऐतिहासिक घटनाक्रम पर आधारित ऐसा उपन्यास होगा, जिसकी जड़ें आर्थिक कारकों से जुड़ी होंगी। व्यंग्य-उपन्यास ब्रह्मांड के कठिनतम रचनात्मक उपक्रमों में से एक है। अभी व्यंग्य उपन्यास एजेंडा में नहीं है, एक वृहद उपन्यास है एजेंडा में, उसका शोध उसकी तैयारी बहुत ही समय लेनेवाली है। तो मेरे पाठक मुझसे एक बड़े ऐतिहासिक उपन्यास की उम्मीद रख सकते हैं। व्यंग्य उपन्यास की अभी कोई तैयारी नहीं है।
सवाल 4: आपने अपने पिछले साक्षातकार में कहा कि आप लगभग हर फ़िल्म देखते हैं । आपने व्यंग्य में अनेकों प्रयोग किए हैं यदि आपके समक्ष यह सुझाव रखा जाए कि फिल्म की समीक्षाओं को भी एक व्यंग्यकार की दृष्टि से देखने का प्रयोग किया जाना चाहिए तो इसका क्या पाठक इसे भी सरहाएँगे ? इसका भी कोई स्कोप देखते हैं आप ?
जवाब : बिलकुल ऐसे प्रयास होने चाहिए। फिल्म समीक्षा को व्यंग्य में लिखा जाना चाहिए और खास तौर पर बहुचर्चित फिल्मों पर व्यंग्यात्मक समीक्षा हो सकती है होनी चाहिए। शरद जोशी जी की एक रचना है एक कस्बे का सिनेमा मैनेजर, उसमें उन्होने देवानंद की फिल्म ज्वैल थीफ की अपने अंदाज से व्याख्या की है। अद्भुत तरह की व्याख्या है। मैं फिल्मों की व्यंग्यात्मक समीक्षा मैं करना चाहूंगा।
सवाल 5: व्यंग्य में ’सोशल मीडिया’ की भूमिका को आप कैसे देखते हैं ? यहाँ मौलिक लेखन और कॉपी पेस्टक लेखकों की पहचान करना मुश्किल काम है जिस पर अक्सर खासा विवाद भी रहता है ? आप एक सीनियर व्यंग्यकार हैं क्या कभी ऐसा हुआ है कि जिसे आपने सिलेब्रिटी समझा हो और बाद में वह एक कॉपी पेस्टक साबित हुआ हो ।
जवाब: ’सोशल मीडिया ’ एक मीडिया है माध्यम है। किसी भी माध्यम में हर तरह के लोग आते हैं। दूसरों के काम पर अपना यश खड़ा करनेवाले मुख्यधारा के मीडिया में भी हैं और सोशल मीडिया में भी हैं। हर तरह के लोग हैं। कुछ लोग वो हैं, तो मुख्यधारा के मीडिया से आये हैं, कुछ के लिए सोशल मीडिया ही पहला मीडिया है। छद्म पहचानवाले व्यक्तियों को आप बहुत आसानी से शुरुआती संवाद में ही पकड़ सकते हैं।
सवाल 6: हाल ही में आपने अपनी नई रूचि, फोटोग्राफी को गंभीरता से लेने की बात कही । ज़रा विस्तार से इसकी रूपरेखा के बारे बताएँ ? क्या फोटोग्राफी के इस नए प्रयोग में भी व्यंग्य और आर्थिक पत्रकारिता का समावेश रहेगा या बिलकुल अलग ही रूप में इस पर काम चलेगा ?
जवाब: फोटोग्राफी बहुत ही गंभीरता से ले रहा हूं, कुछेक फोटो-निबंध तो छपे भी हैं। कुछ छपने की प्रक्रिया में हैं। फोटो को गंभीरता से लेना जरुरी यूं है कि लोगों की पढ़ने की, मीडिया के उपभोग की आदतें बदल रही हैं। गंभीर बात को पढ़ाने के लिए भी फोटो, विजुअल चाहिए होते हैं। टीवी ने लगभग हर माध्यम को विजुअल होने के लिए विवश किया है। अब लोग पढ़ना कम देखना ज्यादा चाहते हैं। तमाम माध्यमों में काम कर रहे मित्र बताते हैं कि एक ही बात को हमने टेक्स्ट में कहा, लोगों ने नहीं पढ़ा, पर उसे ही इन्फोग्राफिक के तौर पर पेश किया, तो पढ़ लिया। दिमाग पर बोझ कम चाहिए, फोटो और विजुअल दिमाग पर कम बोझ डालकर ज्यादा बता देते हैं। हिंदी में उस क्षेत्र में काम होना बाकी है, अंग्रेजी में ग्राफिक उपन्यास चल निकले हैं। फोटो-विजुअल के माध्यम से कथा कही जा रही है। इकोनोमिक टाइम्स जैसा आर्थिक कारोबारी अखबार अपने लेखों को पढ़ाने के लिए सिर्फ ग्राफ नहीं, ऐसे फोटो का इस्तेमाल कर रहा है, जिनका लेख के मुख्य कंटेट से ताल्लुक नहीं है। विजुअल, फोटो से लेख को पढ़ना आसान हो जाता है और कहनेवाले को अपनी बात कहना आसान हो जाता। कैमरा मैंने कुछ ही समय पहले पकड़ा है मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। व्यंग्य के फ्रेम के साथ अब फोटो के फ्रेम भी बनने लगे हैं दिमाग में। मेरे एक मित्र ने बहुत ही अच्छा सुझाव दिया कि दिमाग के कैमरा सेंसर हमेशा आन रखो, हर जगह फोटो मिलते हैं और मिल रहे हैं। काम चल रहा है सबके सामने आयेगा। मोटे तौर पर कैमरे के साथ मेरे काम तीन तरह के होंगे-एक तो व्यंग्य को ही कैमरे के माध्यम से अभिव्यक्त करुंगा, यह काम तो शुरु भी कर दिया है। दो आर्थिक पत्रकारिता, आर्थिक कहानी कैमरे के माध्यम से कहने की कोशिश रहेगी, इस पर अभी काम होना बाकी है। अपने कुछ लेक्चरों में मैंने फोटो को जगह दी है, बेहतर संवाद स्थापित हुआ है। आर्थिक पत्रकारिता में कैमरे के साथ बहुत थोड़ा काम पहले किया था-नोटबंदी पर कुछ फोटो-निबंध किये थे, बीबीसी और दूसरे माध्यमों ने उन्हे जगह दी थी। तीसरा एक बड़ा मोटा मोटा सा आइडिया है, कैमरे के साथ ऐतिहासिक स्थलों पर लिखा जायेगा-वह वृतांत जैसा होगा, रिपोर्ताज जैसा होगा, व्यंग्य नहीं होगा वह। वह सब जल्दी ही आपके सामने आयेगा, ऐसी उम्मीद करता हूं। काम करके बताना अच्छा होता है। सो करके बताऊंगा, अभी इतना ही- कैमरा मेरी अभिव्यक्ति के बहुत ही महत्वपूर्ण माध्यम बनेगा, ऐसी मुझे उम्मीद है।
सवाल 7: जो पाठक आप पर किसी पार्टी विशेष के प्रति पक्षपाती होने का आरोप लगाते हैं आप उन्हें डिप्लोमेटिकली एक सामान्य बयान जारी करके नज़रअंदाज़ सा कर देते हैं । आपको नहीं लगता कभी कभार ही सही यदि आप उनसे सीधा संवाद स्थापित करेंगे तो अधिक सहज और कनविंसिंग लगेंगे, एरोगेंट नहीं ।
जवाब: मैं साफ कर दूं मैं बिलकुल एरोगेंट नहीं हूं। हां बेकार की बहस में पड़ने में दिलचस्पी नहीं होती। कई बहसें अंतहीन होती हैं। खास तौर पर इस तरह की बहसें कि आपने उन पर कम लिखा, उनकी आलोचना कम की, इनकी ज्यादा की। मेरा पक्ष था मैंने रख दिया, किसी पाठक ने मुझे पक्षपाती कहा, उसने अपना पक्ष रख दिया। मैंने अपनी बात रख दी, संवाद हो गया। अब हम एक दूसरे को कन्विंस करने के चक्कर में क्यों पड़ें कि भाई तू गलत मैं ही सही। मेरा यह मत है, आपका यह मत है, अपने अपने मतों के साथ हम रह सकते हैं। एक दूसरे को कन्विंस करने का ठेका हमने नहीं लिया है, न मुझे किसी से वोट मांगना है कि उसे हर हाल में अपने से कन्विंस ही किया जाये। असहमतियां जरुरी हैं, वो रहें तो क्या हर्ज है। मेरे अच्छे दोस्त सभी राजनीतिक पार्टियों में हैं, दोस्तियां हैं, दोस्ती की यह बुनियादी जरुरत एकदम नहीं है कि हम ठीक एक जैसा ही सोचें.
सवाल 8: यह लाजिमी है कि बतौर व्यंग्यकार आप अपने इर्द गिर्द होने वाली गतिविधियों में हमेशा विसंगतियों की तलाश में रहते होंगे । माइंड पर व्यंग्य के कब्जे से आपको कभी खीझ नहीं होती कि आप कुछ और महत्वपूर्ण भी मिस कर रहे हैं जो शायद इसकी अनुपस्थिति में ही कर पाना संभव हो पाता ।
जवाब: जी आपने बहुत महीन बात पकड़ी है। यह तो होता है कि जब आप चौबीस घंटे व्यंग्य के मोड में होते हैं तो शमशान में भी व्यंग्य दिखना शुरु हो जाता है। पर यह मेरा चुनाव है कि व्यंग्य करना है, तो इसके साथ जीना पड़ेगा। किसी पेंटर को श्मशान में पेंटिंग दिखने लगती होगी, अपने काम के साथ लगातार रहेंगे, तो वह तो आपके साथ चलेगा। कोरी स्लेट तो नहीं हो सकते। हां इस चक्कर में बहुत कुछ मिस होता है, तो वह काम का हिस्सा मानना पड़ेगा। मुझे थोड़ा सा फायदा यह हो जाता है कि मैं एक सिचुएशन पर अब बतौर फोटोग्राफर भी सोच सकता हूं।
सवाल 9: वज़न कम करने के बाद अब आप बिलकुल एक नए लुक में हैं । बाल कलर कराने का विचार कभी नहीं आया आपको ? कुछ पुरानी फोटुओं में मूछें भी दिखीं आपकी, आजकल फिर फ़ैशन में हैं, अपने नए लुक में क्या इन्हें भी एड करेंगे ?
जबाब: बाल कलर कराने का खतरा यह है कि ’व्यंग्य के मठाधीश’ मुझे कल का छोकरा मानने लगेंगे, अभी मुझे परसों का छोकरा माना जाता है। छोकरत्व की सीनियरटी पर फर्क पड़ेगा बाल कलर कराने का। फोटोग्राफी जब धुआंधार करने लगूंगा तब लुक में चेंज करुंगा वड्डी मूंछें, सफाचट सिर, पांच कैमरे लादकर अपनी बुलेट बाइक पर चला करूंगा, तब लुक में चेंज में आयेगा। जल्दी आयेगा, जल्दी आयेगा।
सवाल 10: आपके व्यक्तित्व को चार लाइनों में डिस्क्राइब करने को कहा जाए तो वो चार लाइनें क्या होंगी ?
-व्यवस्थित आवारा, बहुधंधी फोकसकर्ता -सिर्फ चार शब्दों में ही खुद को डिस्क्राइब किया जा सकता है।
आलोक पुराणिक से सवाल करने के लिये मुझे मेल करिये anupkidak@gmail पर या फ़िर इनबॉक्स में सवाल भेजिये।
इसके पहले आलोक पुराणिक से पूछताछ पढने के लिये इन कडियों पर पहुंचिये।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10212484447839687 बाजार सबसे बड़ी विचारधारा है- आलोक पुराणिक
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10212476957012421जिसको जो लिखना है, उसे वह लिखने की छूट होनी चाहिए
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10212464433979353 पाखंड को समझना व्यंग्यकार का काम है
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10212457436844429लिखने-पढने की बात
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10212491759422472
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