’टाइम्स स्क्वायर’ घूमते हुये भूख लग आई। नेट पर भारतीय होटल खोजे गये। कई मिले। लेकिन जब उनको खोजने निकलते भटक जाते। इस चक्कर में टहलाई काफ़ी हो गयी। भटकने के बाद अंदाज हुआ कि कैसे सही जगह पहुंचा जाता है। बाद में स्ट्रीट और एवेन्यू का गणित भी समझ आ गया।
खाने का जुगाड़ खोजने के दौरान कई नुक्कड़ों पर पूछा लेकिन पक्का पता नहीं चला। एक नुक्कड़ की गुमटी पर अपनी दुकान पर बैठे एक भले मानुष बंगाली में फ़ोन पर किसी से बतिया रहे थे। हमारे पूछने पर बात करना स्थगित करके हमको जबाब दिया – ’आई डोंट नो।’ ’आमि जानि न’ की जगह ’आई डोंट नो’ सुनकर सांस्कृतिक झटका सा लगा लेकिन उतने से झटके से हम उससे उबर भी गये।
बहरहाल काफ़ी भटकने के बाद एक हिन्दुस्तानी होटल मिला। डेढ खाने की मेज की चौड़ाई और करीब सात-आठ मेज की लम्बाई वाला होटल। काउंटर पर पंजाबी अंग्रेजी बोलती महिला। लगा पंजाब के किसी ढाबे में पहुंच गये। ढोसा आर्डर किया। आठ डालर का एक ढोसा। जब तक ढोसा आता तब तक मोबाइल चार्ज कर लिया उसी दुकान से। मोबाइल चार्जिंग ढाबे के मीनू में था नहीं सलिये उसके पैसे नहीं पड़े।
पेट भरने के बाद अपन आगे बढे। पास ही एम्पायर इस्टेट बिल्डिंग थी। 102 मंजिल की इमारत है यह इमारत। 1931 से 1970 तक दुनिया की सबसे ऊंची इमारतों में शुमार यह बिल्डिंग सामान्य ज्ञान की किताबों में किसी न किसी रूप में मौजूद रही। बाद में दूसरी इमारतें इससे भी ऊंची बनीं लेकिन जितनी प्रसिद्ध यह इमारत हुई उतनी शायद दूसरी नहीं। अमेरिकन लोग इस इमारत को दुनिया के सात आश्चर्यों में से एक मानते हैं।
बिल्डिंग देखने गये। नीचे पूरी इमारत का माडल लगा बना हुआ था। माडल देखते ही मन ललच गया। ऊपर चल के भी देखा जाये। पता किया कि ऊपर की मंजिल तक जाने फ़ीस 65 डालर है। डालर ज्यादा नहीं लगे सुनने में। लेकिन उसको रुपये में
बदलते ही होश उड़ गये। 4500 रुपये फ़ीस इमारत देखने के। दोनों को मिलाकर 9000 रुपये। इत्ता मंहगा एम्पायर इस्टेट बिल्डिंग दर्शन। लेकिन इमारत देखने के उत्साही जोश ने उड़े हुये होश को जल्द ही काबू में कर लिया। टिकट खरीद के लाइन में लग गये ।
इमारत में जैसे-जैसे ऊपर पहुंचते गये वैसे-वैसे उसके निर्माण से जुड़ी बातें पता चलती गयीं। बनाने वालों ने इमारत बनाई साथ में उसका निर्माण इतिहास भी लगभग जैसे का तैसा फ़ोटो/वीडियो के सहारे संरक्षित किया है। गजब की कलाकारी। 17 मार्च 1930 को शुरु करके 102 मंजिल की इमारत साढे तेरह महीने 1 मई 1931 को बनकर तैयार हो गयी। मतलब हर महीने लगभग साढे सात मंजिल।
एम्पायर इस्टेट बिल्डिंग की निर्माण प्रक्रिया देखते हुये हमें अपने यहां का सीओडी ओवरब्रिज याद आया जो बेचारा 14 साल से भी अधिक हुये अपने पूरे होने की राह ताक रहा है। यह भी अपनी तरह का एक रिकार्ड ही है।
इमारत के निर्माण की प्रक्रिया के वीडियो और फ़ोटो देखकर ताज्जुब भी हुआ। साथ ही ’ कोई काम नहीं है जब मुश्किल , जब किया इरादा पक्का’ वाला भाव भी फ़िर महसूस हुआ। एक वीडियो में दिखाया कि इमारत की रिबेटिंग करते समय कैसे गर्म रिबेट उछालकर बाल्टी जैसे कन्टेनर में फ़ेंक कर पकड़ाये जा रहे हैं।
इमारत के निर्माण में लगभग 3500 कामगार रोज काम पर लगते थे। इनमें से अधिकतर आयलैंड और इटली से आये प्रवासी मजदूर थे। काम का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इमारत के निर्माण में लगभग 200 ट्रक निर्माण सामग्री रोज लगती थी। इमारत में लोहे का काम करने वालों के लिये न्यूयार्क टाइम्स मैगजीन ने लिखा – ’मजदूर लोहे का जाल बुनने वाले मकड़ी की तरह इमारत बना रहे थे।’
इमारत के किस्से बयान करते हुए उसके निर्माण में जिनका योगदान रहा उनके किस्से तफ़सील से बयान किये गए थे। कामगारों की मूर्तियां भी बनी थीं जिनके बगल में बैठकर हमने फोटोबाजी भी की।
वहीं मौजूद म्यूजियम के बगल में बीहड़ वीडियो भी थे। उनसे भयंकर आकृतियां बन रहीं थीं जिनके साथ लोग फोटो खिंचा रहे थे। हमने भी खींचे।
बाहर निकलते हुए इमारत के जिस हिस्से से निकले वहां तमाम यादगार के लिए मॉडल मिल रहे थे। लेकिन उनकी कीमत देखकर हम बिना उनकी तरफ देखे बाहर निकल आये। हमारे होश ने अब जोश पर कब्जा कर लिया था।
लौटते हुये रात हो गयी थी। बारिश में भीगते हुये , भागते हुये स्टेशन पहुंचे। वापसी का टिकट सुबह ही ले लिया था। थोड़ी देर बाद ही ट्रेन भी आ गयी।
ट्रेन पकड़कर घर आ गये। स्टेशन पर सौरभ आ गये थे हमको लेने के लिये। न्यूयार्क की तरह न्यूजर्सी भी ठंडा रहा था। घर पर गर्मागर्म चाय हमारा इंतजार कर रही थी। यह हमारा अमेरिका में तीसरा दिन था।
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