लिबर्टी द्वीप से वापस लौटकर न्यूयार्क की इमारतों को पीछे रखते हुए कुछ देर फोटोबाजी की। शरीफ इमारतों ने इसका बुरा नहीं माना। बल्कि वो और ख़ूबसूरत होती गयीं।
शाम को गयी थी। लौटते में टैक्सी से जाते तो 60 डॉलर करीब लगते। लिहाजा सबसे पास के स्टेशन तक टैक्सी और फिर वहां से ट्रेन का विकल्प चुना गया ।
सबसे पास का स्टेशन पड़ता है नेवार्क पेन स्टेशन। वहां के लिए टैक्सी के लिए इंटरनेट आन किया। यहां 'लिफ्ट' और 'उबर' की टैक्सी चलती हैं। हमने 'लिफ्ट' से टैक्सी बुलाने की कोशिश।
यात्रा के विकल्प भरने पर लिफ्ट ने क्रेडिट कार्ड का विवरण मांगा। हमने अपने बैंक के क्रेडिट कार्ड का विवरण भर दिया। फौरन मना हो गया। इंटरनेट बोला फर्जी है। 'फर्जी' सही में तो नहीं बोला लेकिन जो लिखकर आया मेसेज में उसका 'लब्बो' और 'लुआब' वही निकलता है जो मैंने ऊपर लिखा।
बहरहाल हमने बैंक को हल्की लानत भेजते हुए फॉरेक्स कार्ड का विवरण भरा। मेसेज आया कि 8 मिनट में टैक्सी आ रही है। ड्राइवर का नाम लिखा था -'मावा'। फोटो किसी अफ्रीकी मूल की महिला की।
जब तक हम गाड़ी का इंतजार करें तब तक एकाध गाड़ी वालों ने 'टैक्सी' वाला दफ़्ती का बोर्ड दिखाते हुए ले चलने की पेशकश की। जैसे सेंट्रल स्टेशन पर ओला टैक्सी का इंतजार करते हुए ऑटो वाले करते हैं।
हमने घर तक का किराया पूछा तो उसने बताया 200 डॉलर। 55-60 $ की बजाय 200 $ सुनकर मन किया कह दें कि हम कोई नए नहीं है अमरीका में। रोज का आना जाना है यहां। लेकिन कौन हमको जाना था उसमें । इसलिए बेफालतू मोलभाव नहीं किया।
ठीक आठ मिनट बाद टैक्सी आ गयी। जिस जगह खड़े थे वहीं। लोकेशन सटीक। कानपुर में ऐसा कई बार हुआ कि ओला हमारे बगल की सड़क पर खड़ी करके ड्रॉइवर बोलता -'लोकेशन पर खड़े हैं। इधर ही आ जाओ।' कई बार इसी चक्कर ने ओला वालों ने 30 / 50 रुपये कैंसलेशन चार्ज काट लिए। लेकिन इधर ऐसा हुआ नहीं।
पहुंचते ही 'मावा' ने नाम पूछा -'अनूप'। हमने कहा -'यस'। उसने दरवाजा और हमको गाड़ी में भरकर चल दी। न पिन पूछा न कुछ और। गाड़ी स्टार्ट करते ही 'मावा' कोई गाना सुनने लगी। साथ - साथ खुद ही गाने लगी। हम बिना समझे उसका गाना सुनते हुए , बाहर की सीनरी देखते हुए बैठे रहे।
करीब आधे घण्टे में नेवार्क पेन स्टेशन आ गया। लेकिन स्टेशन दूसरी तरफ था। ड्रॉइवर ने मेरी परेशानी समझते हुये वन वे की बाधा के चलते टैक्सी कुछ किलोमीटर और घुमाकर हमको स्टेशन पर ही उतारा।
जिस जगह हम उतरे वहां भीड़ थी। सुमन तो आहिस्ते से उतर गई। हम जरा सहज लापरवाही से उतरे। उतरने में हमारी गाड़ी का दरवाजा बगल की गाड़ी से छू गया। छू गया मने बस छू ही गया। समझ लीजिए इतना ही छुआ कि उसने बगल की गाड़ी में स्पर्श रेखा सी डाल दी।
लेकिन इतने पर ही गाड़ी पर बैठी महिला ने बहुत तेज चिल्लाकर हमको डांटा। क्या कह रही थी यह नहीं मालूम लेकिन गुस्सा किसी भाषा का मोहताज नहीं होता न। हम सहम गए। लेकिन समझदारी का दामन नहीं छोड़ा। बेवकूफ बनकर चुप हो गए। यह दिखाने के लिए कि हमको पता ही नहीं कि हुआ क्या।
लेकिन हमको पता तो था कि हुआ क्या है। सोचा पास चलकर सॉरी बोल दें। लेकिन खिड़की से देखा कि वह महिला डांटकर अपने मोबाइल में व्यस्त हो गयी थी।
हम लगा फालतू में ही भौकाल बना रही थी हमको नया समझकर।
स्टेशन पर टिकट लेने खड़े हुए। उल्टी तरफ से आ गए। वहां पहले से खड़ी अकेली महिला तोङकर मुझे लाइन में आने को कहा। पहले गाड़ी वाली और अब टिकट की लाइन में मतलब परदेश में पहले ही दिन दो महिलाओं से डांट खा गए हम।
बहरहाल हम महिला के पीछे लग लिए। उसके बाद हमारा नम्बर आया। हमने 2 टिकट तौलवाये। यहां क्रेडिट कार्ड से पेमेंट देने पर टिकट दस्तखत कराते हैं और रसीद भी देते हैं।टिकट और रसीद लेकर अंदर चल दिये।
सोचा स्टेशन आराम से देखेंगे। लेकिन गाड़ी फौरन आ गयी। अपन धंस गए ट्रेन में। दिल्ली की मेट्रो की तरह भीड़।
हम दरवाजे के पास खड़े हो गए। सुमन थोड़ा अंदर। जब तक हम भी अंदर जाएं तब तक बीच का दरवाजा बंद हो गए। दोनों पारदर्शी दरवाजे के इधर उधर। अगला स्टेशन आने पर दरवाजा खुला । हम साथ हुए।
स्टेशन आने तक हम पहले तो पूछते रहे कि हमारा स्टेशन कब आयेगा। लगा कि दिल्ली की मेट्रो ज्यादा बढ़िया कि बताती रहती हैं कि कौन स्टेशन आने वाला है। यहां तो कोई सूचना ही नहीं। चुके तो गए परदेश में।
लेकिन फिर देखा कि एक जगह स्टेशनों की सूचना चल रही थी। हमने अमेरिका की रेल के नम्बर बढाकर दिल्ली की मेट्रो के बराबर कर दिया।
नेट के हिसाब से हमारा स्टेशन आने वाला था। लेकिन डिसप्ले में कुछ दूसरा दिख रहा था। साथ मे बैठी एक लड़की ने हिंदी में बताया कि यही है स्टेशन। हम उसकी बात को सही मानकर उतर लिए। देखा स्टेशन वही था। बच्ची के पैर में पोलियो था। लेकिन चेहरे पर आत्मविश्वास। हाथ में स्टिक लिए वह लड़की भी ट्रेन से उतरकर चल दी। हम भी बाहर निकल लिए।
बाहर बहुत सर्दी थी। सौरभ के आने में कुछ देर थी। हमने उनको फोन किया। उसने हमको लोकेशन भेजने को कहा। हमने जिस दुकान के बाहर खड़े थे उसका फ़ोटो भेजा। उसने 'लाइव लोकेशन' भेजने को बोला। अब हमको पता ही नहीं कि यह 'लाइव लोकेशन' क्या बला। लेकिन फिर समझने में देर नहीं लगी। समझगये और भेज दी।
बाहर ठंड के मारे बुरा हाल सुमन का। हम दुकान के अंदर हो लिए। वहां तापमान ठीक था। जितनी देर में आये सौरभ उतनी देर में हमने फोटो सेशन भी कर लिया अंदर। आते ही चल दिये हम।
इस तरह अमेरिका में यह हमारी पहली घुमाई हुई। साथ ही पहली फेरी, टैक्सी, ट्रेन यात्रा भी।
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