महामारियों में समाज का व्यवहार शायद एक जैसा रहता है। पिछली शताब्दी में प्लेग महामारी को केंद्र में रखकर अल्बैर कामू ने उपन्यास लिखे उपन्यास ' प्लेग' को पढ़ते हुए लगा कोरोना काल की स्थितियां भी ऐसी ही हैं। कुछ अंश देखिये:
1. एक तो शहर को बन्द कर दिया गया था और बंदरगाह में दाखिल होने की मनाही थी, और दूसरे, चूंकि वे एक विशिष्ट मन:स्थिति में थे और हालांकि अपने दिलो की गहराई में वे अब भी अपने ऊपर आई मुसीबत की भयंकरता को स्वीकार करने में असमर्थ थे, वे यह अनुभव किये बिना न रह सके थे कि कोई चीज निश्चित रूप से बदल गयी है। फिर भी, अधिकांश लोग अभी भी यह उम्मीद यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि यह महामारी जल्द ही गुजर जाएगी और वे और उनके परिवार सुरक्षित बच जाएंगे। इसलिए वे अभी तक अपनी आदतों में कोई परिवर्तन करने की जरूरत नहीं महसूस करते हैं। उनके लिए प्लेग एक अनयाचित आगंतुक की तरह थी जो उसी तरह अचानक चली जायेगी जिस तरह आयी थी। वे घबराये तो थे , लेकिन अभी तक हताश नहीं हुए थे कि प्लेग उन्हें अपने अस्तित्व के दुर्निवार तंतु के रूप में दिखाई देती और अब तक उन्होंने जिस जिंदगी का उपयोग किया था , उसको ही भूल जाते।
2. ऐसे मौकों पर चीन के लोग प्लेग के देवता के आगे डफली बजाने लगते हैं, यह मत प्रकट किया कि यह बताना मुमकिन नहीं है कि क्या सचमुच व्यवहारतः छूत रोकने की एहतियाती कार्यवाहियों के मुकाबले डफली ज्यादा कारगर साबित होती थी?
-अल्बैर कामू के उपन्यास 'प्लेग' से
प्लेग उपन्यास राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है।
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