Thursday, July 22, 2021

दुनिया में पैसे के सब साथी होते हैं


कल बहुत दिन बाद 'सैंट्रो सुंदरी' की संगत हासिल हुई। 21 साल की उम्र हो गयी अगली की लेकिन कस-बल नई गाड़ियों जैसे। मजाल कि स्टार्ट होने के लिए चाबी एकबार आधे से ज्यादा कभी घुमानी पड़े।
21 साल में सरकारी लिहाज से तीन गाड़ियां अपनी उम्र पूरी करके किलो के भाव, कौड़ियों में बिक चुकी होती हैं। इस लिहाज से हमारी सैंट्रो सुंदरी तीन पीढ़ियों के बाद चौथी पीढ़ी की उम्र में दाखिल हो गयी है। लोग कहते हैं बदल डालो, बेंच दो। हमको समझ में नहीं आता किस लिये।
बहुत दिन बाद मुलाकात होने के बावजूद कोई उलाहना नहीं, कोई शिकायत नहीं। चाबी घुमाते ही चल पड़ी। चलते ही पीली बत्ती जलाकर अलबत्ता इशारा कर दिया कि पेट में कुछ है नहीं। ज्यादा दूर चलना हो भरवा लो।
पेट्रोल के हर दिन बढ़ते दाम के किस्से रोज सुनते हैं लेकिन भरवाया अर्से से नहीं। हर शहर में अलग दाम। कानपुर में पता चला 99 रुपये लीटर बिक रहा। मतलब बाटा के जूतों के घराने वाले दाम। भरवा लिया काम भर का।
सुबह दुकाने कम खुलीं थी। हलवाई और उनकी भट्टियां नींद की खुमारी में थीं। कुछ लोग अल्बत्ता सड़क पर फुर्तीली चाल से न जाने किधर लपके जा रहे थे। हमने कोशिश की किसी दुकान में जलेबी मिल जाये लेकिन हर जगह जबाब मिला -'टाइम लगेगा।' हम बिना जलेबी समोसे लिए ही पंकज बाजपेयी से मिलने चल दिये।
पंकज बाजपेई अपने ठीहे पर, अनवरगंज के सामने की जीटी रोड के पास के डिवाइडर के पास टहल रहे थे। उनको टहलते देख अनायास अनारकली फ़िल्म के जलालुद्दीन अकबर की टहलती हुई शक्ल याद आयी। फ़िल्म में अकबर बादशाह अलबत्ता हाथ पीछे किये, सर नीचा किये सोचते हुए टहलते हैं। यहां पंकज बाजपेयी सर उठाये हाथ में झोला लिए टहल रहे थे।
देखते ही -'कहाँ थे इतने दिन, अबकी बहुत दिन बाद आये, सीबीआई वाले पीछे पड़े हैं ' कहते हुए लपककर पास आये और पांव छूने वाले अंदाज में हाथ टेढ़ा किया। कोरोना के आने के बहुत पहले ही पंकज 'दूर प्रणाम' करते रहे हैं। बिना छुए पैर छूना। सुरक्षित दूरी अपनाते हुए।
बातचीत शुरू होने के साथ ही पहला सवाल -'माल कहां है?' माल मतलब जलेबी, दही, समोसा। बताया कि अभी दुकाने खुली नहीं हैं। इस पर पंकज ने फौरन रबड़ी, रसगुल्ला और खस्ते दिलाने का वायदा बिना हाँ बोले ले लिया।
मामा की दुकान पर चाय पीने गए। मामा मतलब गुप्ता जी ने बताया कि पंकज हमारा इंतजार करते थे। इसके बाद रोजगार पर कोरोना की मार का जिक्र। बताया आज ईद के दिन यहां दुकान पर इतनी भीड़ होती थी कि सांस लेने की फुर्सत नहीं मिलती थी। अब देखिए सन्नाटा है। सब चौपट हो गया।
चाय की दुकान पर ही एक बुजुर्गवार मिले। एक आंख कुछ नीली, शायद मोतियाबिंद हो, मूछें आधे चन्द्रमा की तरह होंठ की चहारदीवारी की तरह ,दाढ़ी बढ़ी हुई, दांत ज्यादातर गायब। चाय पीते हुए बतियाने लगे उनसे।
पता चला रिक्शा चलाते हैं। 1992 तक लक्ष्मीरत्न कॉटन मिल में नौकरी करते थे। मिल बन्द हुई तो जो पैसा मिला 50-60 हजार उससे साल-दो साल ऐश की। इसके बाद कई तरह के काम किये और फिर अंततः रिक्शा पकड़ लिया। 25 साल हो गए करीब रिक्शा चलाते हुए।
कानपुर के तमाम रिक्शावालों , कामगारों की कमोवेश इसी तरह की मिलती-जुलती कहानी है।
मिल के काम के अनुभव बताते हुए बोले-'बिनता पर काम करते थे। हर तरह का कपड़ा बनाया। बम्बई भी गए थे काम सीखने। अब सब मिलें बन्द हो गई। अब न वो मिलें रहीं, न वो कारीगर। मिलों के चलने की बाद सुनते हैं लेकिन सुन ही रहे हैं। कहीं कुछ चलते दिखता नहीं। सब कहते हैं, करता कोई कुछ नहीं।
परिवार के बारे में पूछने पर बोले-'अब यही रिक्शा हमारी बीबी, हमारे बच्चे और घर परिवार है। इसी के साथ रहना, बैठना, गुजर-बसर होती है। और किसी से कोई मतलब नहीं।'
और बतियाने पर पता चला दो बेटियां हैं, दोनों की शादी हो गयी, बीबी भी है लेकिन कोई साथ नहीं रहता। कहां हैं यह भी पता नहीं।
साथ क्यों नहीं पूछने पर बोले -'जब तक पैसे थे हमारे पास तब तक वो साथ में थे। पैसे खत्म हुए तो सबने साथ छोड़ दिया। दुनिया में सब पैसे के साथी होते हैं।'
हमने पूछा -'ऐसे कैसे? कोई तो कारण रहा होगा कि वे साथ नहीं रहते।'
बोले -'उनकी लाइन खराब हो गयी इसीलिए साथ छोड़ दिया उन्होंने।'
हमने पूछा -'क्या लाइन खराब हो गयी?'
फाइनल जबाब वाले अंदाज में वे बोले-'जब बीबी, लड़कियां साथ न रहना चाहें तो समझ लो उनकी लाइन क्या खराब हो सकती है।'
इसके बाद बात रिक्शे की हुई। 40 रुपये रोज के किराए पर है रिक्शे। इसी में रहना, सोना होता है। बारिश होती है तो मोमिया तान लेते हैं। खाना होटल में खाते हैं। जब मन आये रिक्शा चलाते हैं। जब न मन करे आराम करते हैं। जिंदगी ऐसे ही गुजर रही है।
एक कम सत्तर की उम्र के बुजुर्गवार की एक आंख की रोशनी कम हो रही। डॉक्टर को दिखाया है लेकिन ठीक नहीं हुई। शायद ऑपरेशन होना हो। लेकिन पैसे के कारण न हो सका हो।
गरीब इंसान अपनी तमाम बीमारियों के इलाज पैसे के कारण नहीं करा पाता। अपने अंगों को भी निर्लिप्त भाव से खराब होते देखता है। तसल्ली के लिए बहाना रहता है-'बहुत दिखाया, बहुत इलाज कराया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।'
बात करते हुए चाय पीने के पास बुजुर्गवार ने जेब से चुनहीँ तम्बाकू निकाली, प्लास्टिक की छुटके पाउच को दबाकर चूना मिलाया और दोनों को रगड़ते हुए फटकारने के बाद मुंह में दबाकर रिक्शे का हैंडल थाम लिया।
चाय की दुकान से वापस चले तो गाड़ी के पास पंकज खड़े थे। हलवाई की दुकान से रबड़ी, रसगुल्ला लिया और खस्ते के पैसे एडवांस में। जब बनेगा तो ले लेंगे। सत्तर रुपये हुए। बाकी बचे 30 रुपये पंकज को दिए तो बोले -'आज सौ रुपये लेंगे। बहुत दिन बाद आये हो।'
हमने 20 रुपये और देकर कहा -'फिर आएंगे जल्दी ही।'
इस पर ठुनकते हुए पूरे सौ रुपये के लिए बच्चों जैसे जिद करने लगे पंकज। लेकिन हमने दिए नहीं। पूछा ऐसे कितने लोगों से पैसे मिलते हैं तुमको?
बताया 12-14 लोग हैं जो नियमित-अनियमित आते हैं, मिलते हैं, सामान-पैसा देते हैं। आसपास दुकान वाले भी कुछ न कुछ देते रहते हैं। जिनका कोई नहीं, उनका दाता राम।
इस सारे बातचीत और घटनाक्रम से अलग एक आदमी अखबार में मुंडी घुसाए खबरों को हजम करने में जुटा था। ऊपर आसमान में सूरज भाई मुस्कराते हुए पूरी दुनिया को गुडमार्निंग कर रहे थे।

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