बुझाने के लिये पागल हवायें रोज़ आती हैं
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(स्व. कन्हैया लाल नंदन जी के जन्मदिन के मौके पर उनका एक आत्मकथ्य )
बड़ी मुश्किल यात्रा होती है यह ,कि आप आईने के सामने खड़े होकर अपने जन्म से लेकर अब तक के जीवन को एक गवाह की तरह निहारें। मेरे शायर मित्र(स्व.) अमीर क़ज़लबाश ने लिखा था :-
आदमी अपने जीवन की तल्ख सच्चाइयों से लहूलुहान हो जाता है और फिर मुकद्दर को कोसने लगता है और माथे का पसीना पोंछने लगता है। जब यह शेर सुना था पहली बार,तो पहली बार,उसकी भावाभिव्यक्ति की चमक ने आकर्षित किया था। फिर धीरे-धीरे इस शेर की गहराई मेरे सामने खुलती गयी और अब मैं जब खुद उसकी गहराई में उतरने को हूँ तो लगता है कि ज़िन्दगी फिर लहूलुहान कर देगी-
ये सच है हम भी कल तक जिन्दगी पर नाज़ करते थे
मगर अब ज़िन्दगी पटरी से उतरी मेल लगती है।
ऐसा नहीं है कि पूरी उतर गयी हो और ऐसा भी नहीं कि इस यात्रा में आनन्द नहीं आया या शिकायतें ही शिकायतें हैं जिनको गिनने और उठाकर बयान करने मेंमुश्किलें आ रहीं हैं। मुश्किल सिर्फ यह है कि इनमें से किसे उठाऊँ और किसे छोड़ूँ। रंगतें हज़ार हैं,बल्कि कहूँ तो रंगो का मेला है यह सफर ,तो अतिशयोक्ति न मानी जाये।हर रंग को जीने का अवसर दिया जिन्दगी ने,भरपूर अवसर दिया…गुरबत का आलम क्या होता है यह भी देखा तो अमीरी किस कदर बेहूदगी से अट्टहास करती है यह भी मुंबई में रहकर अमीर घरों में आ-जाकर देख सका। व्यवस्था किस कदर जरूरी होती है जीवन में यह भी जाना तो यह भी कि सब कुछ व्यवस्थित-व्यवस्थित जीने में कितनी ऊब होती है। जीवन बिल्कुल किताब बनकर रह जाता है,एक तरह की रूल बुक। इसलिये जीवन में थोड़ी बहुत अव्यवस्था होती है तो छोटी-मोटी चुनौतियों को जूझने का सुख मिलता रहता है और कारे-जहाँ दराज़ का काम भी चलता रहता है। इसका आनन्द एक अलग आनन्द होता है,ऐसा आनन्द कि अल्ला ताला से भी कहने का मन हो जाये कि:-
बागे़-बहिश्त से मुझे हुक्मे सफर दिया था क्यों,
कारे जहाँ दराज़ है अब मेरा इंतजार कर।
जीवन का असली आनन्द तभी मानना चाहिये जब मन यह हो कि अल्लाताला से भी कहने का हुलास पैदा हो कि हुजूर,अब मुझे आपकी कायनात में दिल लग गया है,वापस बुलाने की जल्दी मत कीजिये। तो साहबान! सफ़र यह कुछ इसी ढब का रहा है जिसकी शुरुआत एक छोटे से गांव परसदेपुर से हुई।
परसदेपुर उत्तर प्रदेश के जिले फतेहपुर की पश्चिमी सरहदों पर बसा हुआ एक छोटा सा गांव ,जिसे दो तरफ से एक छोटी सी सदानीरा नदी ने घेर रखा है। वह नदी किसी पहाड़ से नहीं निकली थी लेकिन फिर भी सतत प्रवाहमान ही दिखती है,गर्मियों में भी इतना कभी नहीं सूखी कि पानी मँझाए बिना पार उतर जायें। उत्तर की तरफ हावड़ा-दिल्ली रेलवे लाइन का छोटा सा स्टेशन करबिगवाँ,जहाँ भाप से चलने वाले इंजनों के लिये उसी सदानीरा पांडव नदी से पानी भरने का इंतजाम था इसलिये हर मालगाड़ी का इंजन पानी लेने के लिये उस छोटे से स्टेशन पर रुके बिना आगे नहीं बढ़ती। करबिगवाँ स्टेशन से दक्खिन के तमाम गावों के लोग मेरे गांव के अंदर से होकर ट्रेन पकड़ने जाते थे और रास्ता मेरे घर के सामने से होकर जाता था तो आते-जाते लोग मेरे बाबा पंडित देवी दयाल तिवारी को सभी लोग पैंलगी करते थे।”मैं बालक बंहियन को छोटो” उन सारे सम्पर्क-सूत्रों को अपने हितू का दर्जा देकर सम्बन्धों की संपन्नता का एहसास करता गया और गर्व से कहता रहा कि मेरे बराबर संपन्न कौन हो सकता है जिसे इतने गांवो के लोग चाहने वाले हैं।
इन्ही चाहने वालों के बीच मेरा बचपन कटा । पिता श्री यदुनन्दन तिवारी इलाहाबाद में नौकरी करते थे। जब मेरे जन्म की खबर उन्हें मिली तो मारे खुशी के उन्होंने अपनी कमाई के रुपये कमर में समेटे और ऊपर से फेंटा कसा और बैठ गये ट्रेन में । स्टेशन से उतरे तो टिकट न होने के कारण स्टेशन मास्टर के दफ्तर में दाखिल किये गये।उन्होंने टिकट न ले पाने में अपनी मज़बूरी बताई तो किसी को यकीन न हो कि कोई खुशी में टिकट लेना कैसे भूल सकता है। उन्होंने हज़ार मिन्नतें की लेकिन स्टेशन का बाबूवृंद उन्हें छकाने के आनन्द में उतर आया। बोले,’फाइन भरना पड़ेगा। अंग्रेज बहादुर का राज है कोई मजाक नहीं है।’ अब पंडित यदुनन्दन प्रसाद तिवारी को आ गया गुस्सा, उन्होंने पूछा,” बोल कितने रुपये फाइन के हुये?” और अपनी कमर का फेंटा खोला और सारे रुपये खड़-खड़ करके मेज़ पर उड़ेल दिये। चांदी के रुपये चलते थे सो सारी मेज़ रुपयों से पट गयी। बैंक-वैंक तो होता नहीं था इस काम के लिये । जो काम था सब नकद का था। पूरी कमाई मेज पर पड़ी थी। बोले पिताजी,”ले ले जितना तेरा फाइन बनता हो और भर ले अपने अंग्रेज बहादुर का पेट। मजबूरी का फायदा उठाना है तो उठा ले और फिर बता कि अब जाऊँ कि न जाऊँ” इस तरह के यात्री से पाला रेल बाबू का पाला नहीं पड़ा था । रेलबाबू ने अचकचाकर पिता जी से माफी मांगना शुरू कर दिया और एक नयी रिश्ते की डोर बननी शुरू हो गयी। पिताजी ने खुद एक बार जब यह किस्सा सुनाया तो मुझे अपने पिताजी के तेवर उसमें झांकते दिखाई दिये। उन तेवरों का कोई न कोई अंश मेरे वजूद का हिस्सा भी बना जिसके अनेक उदाहरण जीवन में भरे पड़े हैं। एक सीमा तक विनम्रता और फिर सीमा के पार पहुँचते ही बिल्कुल विपरीत अक्खड़पना-इस धजा के कुछ नुकसान होते हैं कुछ फायदे भी। मैंने नुकसान का कोई हिसाब नहीं लगाया और फायदा हुआ तो उसे जीवन का सहज अंग मानकर आगे बढ़ गया।
आगे बढ़ने में सबसे बड़ा सहारा मेरे लिये शिक्षा रही। गांव में प्राइमरी पाठशाला थी सो एक दिन बाबा स्कूल में दाखिले के लिये मेरी पाटी पुजाने ले गये। हेडमास्टर थे पास के औराड़ी खेड़ा के पंडित जी। बोले : जन्मदिन क्या लिखें? अब जन्मदिन किसी को याद हो तो बतावे न! बोले :’यही कोई पांच साल का है।सो हिसाब लगाया गया और पांच साल पहले के साल की उसी तारीख को जिस दिन स्कूल में दाख़िल हुये थे मेरी जन्मतिथि तय हो गयी। उस दिन तारीख थी १ जुलाई और सन् निकला १९३३ सो बन्दे की जन्मतिथि बिना किसी हीले-हवाले के १ जुलाई ,१९३३ मुक़र्रर कर दी गयी जो आज तक मान्य, मुकर्रर और बरकरार है।
चूंकि उसके पहले की दो पीढ़ियों में कोई पढ़-लिख नहीं सका था सो बन्दे के स्कूल जाने को बाबा ने एक उत्सव बना दिया। घर के दोनों और देवस्थान थे। दक्षिण की तरफ काले देव बाबा का चबूतरा जिसमें यदाकदा हवन हुआ करता था,उत्तर की तरफ शिवजी का मंदिर। बीच में मेरा घर। बाबा ने दोनों जगह प्रसाद बँटवाया और मेरा स्कूल जाना ऐसे ‘सेलिब्रेट’हुआ जैसे दाखिला लेते ही डिग्री हासिल हो गयी हो। बाबा और पिताजी दोनों की इच्छा थी कि लड़का खूब पढ़े-लिखे।
पढ़ने-लिखने में मेरी तरफ से कोई कोर-कसर नहीं रही अगर कुछ रही भी तो स्थितियों की रही। चार बहनें थीं,पिताजी मामूली कमाई वाले नौकरी पेशा इंसान थे। बाबा अपनी जगह-जमीन एक कत्ल के मुकदमें से दूर रहने के क्रम में छोड़कर चले आये थे और परसदेपुर में आकर बस गये थे सो आटा हमेशा गीला रहता था। पढ़ाई में जो थोड़ा-बहुत खर्च होता था,उसकी भी गुंजाइश नहीं थी। उसे बन्दे ने वजीफा का इम्तिहान देकर पूरा कर लिया। वजीफा का इम्तिहान दिया तो पछता-पछताकर लेकिन नतीजा निकला तो अपनराम ज़िले में अव्वल आ गये। दो रुपये महीने वज़ीफा।
उस दो रुपये के लालच में मेरा मिडिल स्कूल दाखिला हुआ। उर्दू दीगर ज़बान चलती थी सो मौलवी एक मौलवी की तरह ककहरे के साथ अलिफ़-बे की पढ़ाई भी की। उर्दू मुझे खासी रुचिकर लगती। उसकी नज़्में और ग़ज़लों की लय आकर्षित करती थी। हिन्दी और उर्दू के सम्मिलित बहाव से जो भाषा-प्रवाह बनता है,वह मेरे लिये सहज अभिव्यक्ति का माध्यम बना जिसे मेरे अध्यापकों ने बड़ी खूबसूरती से संवारा।
मुझे अध्यापक भी मिले उम्दा वे पढ़ाने में तो थे ही,अपने चारित्रिक गुणों में ए वन थे। विद्यार्थी को अपनी सन्तान से बढ़कर समझने वाले। एक बार मेरी छूट गयी और मैं घर के हालात में आर्थिक सहारा बनने के लिये मुड़िया (एक भाषा जो मुनीमी के लिये लोग सीखते थे) पढ़ाकर मुनीमी में डाल दिया गया।तीस रुपये महीने में कत्थे की दुकान पर पर्ची काटने का काम। मैं अंग्रेजी पढ़ना चाहता था लेकिन अंग्रेजी तो काफूर हो रही थी। तभी एक दुर्धटना घट गयी। मेरी दो बहनें, जिन्हें मैं अपनी माँ के साथ कानपुर लिये जा रहा था,अचानक रेल के एक इंजन के नीचे आ गयीं और देखते-देखते उन्हें हमेशा खो बैठा।
उस सदमें से उबरने के क्रम में मैं नौकरी से छुट्टी लिये रहा और फिर नर्वल के भाष्करानंद विद्यालय के अपने अध्यापक पंडित प्यारेलाल त्रिपाठी के सहयोग से मैं फिर नर्वल में जा दाखिल हुआ। उन्होंने मेरी संगीत दक्षता को आधार बनाकर प्रिंसिपल पंडित शिवशंकर लाल शुक्ल से मेरी फीस ही नहीं माफ करायी,मेरी किताबों की भी व्यवस्था स्कूल से ही करायी और मैं हाई स्कूल का विद्यार्थी हो गया। वहीं मुझे मिले डा.ब्रजलाल वर्मा जो मेरे क्लास टीचर भी थे और हिंदी,उर्दू, अंग्रेजी और फारसी तथा संस्कृत के खासे विद्वान थे। उन्होंने शब्दों की लरजन,उसकी ऊष्माउस सदमें से उबरने के क्रम में मैं नौकरी से छुट्टी लिये रहा और फिर नर्वल के भाष्करानंद विद्यालय के अपने अध्यापक पंडित प्यारेलाल त्रिपाठी के सहयोग से मैं फिर नर्वल में जा दाखिल हुआ। उन्होंने मेरी संगीत दक्षता को आधार बनाकर प्रिंसिपल पंडित शिवशंकर लाल शुक्ल से मेरी फीस ही नहीं माफ करायी,मेरी किताबों की भी व्यवस्था स्कूल से ही करायी और मैं हाई स्कूल का विद्यार्थी हो गया। वहीं मुझे मिले डा.ब्रजलाल वर्मा जो मेरे क्लास टीचर भी थे और हिंदी,उर्दू,अंग्रेजी और फारसी तथा संस्कृत के खासे विद्वान थे। उन्होंने शब्दों की लरजन,उसकी ऊष्मा और उसकी संगति की ऐसी पहचान मेरे मन में बिठा दी कि मुझे साहित्य जीवन जीने की कुंजी जैसा लगने लगा। वे हिन्दी की किसी कविता की पंक्ति को समझाने के लिये उर्दू और संस्कृत के काव्यांशों के उदाहरण देते थे और इस तरह साहित्य की बारीकियों पर मेरा ध्यान केंद्रित करते थे। लोकजीवन से संवेदना के तमाम तार झनझना देते थे:-
छापक पेड़ छिउलिया तपत वन गह्वर हो,
तेहि तर ठाढ़ी हिरनिया हिरन का बिसूरइ हो।
यह सोहर मैंने पहली बार डाक्टर ब्रजलाल वर्मा के मुख से सुना था और पहली बार उस दर्द को गहराई से महसूस किया था कि एक हिरनी कैसे अपने हिरन को मार दिये जाने पर उसे याद करने के लिये कौशल्या मां से कहती है-” जब उसकी खाल से बनी डपली पर तुम्हारा लाड़ला थाप देता है तो मेरा हिया काँप जाता है,माँ वह डफली मुझे दे दो।मुझे उस आवाज में हिरना की सांस बजती हुई मालूम होती है और मैं बिसूर कर रह जाती हूँ।”
संवेदना की इन गहराइयों में उतरने का अभ्यास मेरे उन्हीं प्रारंभिक अध्यापकों ने कराया था जो शब्द की सिहरन को दिल की धड़कन के इशारों की तरह बारीकी से पढ़ना सिखा देना चाहते थे। डा.ब्रजलाल वर्मा अक्सर गुगुनाया करते थे:-
कोई हमराज तो पायें कोई हमदम तो मिले
दिल की धड़कन के इशारात किसे पेश करें।
यही साहित्यिक अभ्यास थे जो जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ का दर्शन और ‘आंसू’ की रोमानियत को समझ सकने का सलीका भी दे सके और यह भी कि साहित्य और कुछ नहीं,जीवन की बारीकियों का बुना हुआ टुपट्टा है जो जिन्दगी को ज़ेवर भी बनाता है और ज़हर भी । यह आप पर निर्भर है कि आप उसे जे़वर बना लें या ज़हर। मैं एक बार नहीं अनेक बार लिख चुका हूँ कि साहित्य मेरे लिये और खास तौर पर कविता,जिंदगी को बेहतर बनाने का ज़रिया है। कविता सुनना,कविता लिखना और पढ़ना मेरे लिये बेहतर मनुष्य बनने का एक ज़रिया है। जब से कविता को समझने की समझ पैदा हुई तब से मैंने कविता को जीकर अपनी जिंदगी संवारी है। भाषा की दीवारें इसमें कभी आड़े नहीं आयीं,खासकर उर्दू और हिन्दी के बीच की दीवारों को मैंने भरसक तोड़ने की कोशिश की है। आज भी जब कुछ लोग प्रेम के अतिरेक में मुझे यह कहते हुये हिन्दी-उर्दू के बीच पुल बनाने का श्रेय देते हैं कि आपके बाद हिन्दी सम्पादकों में कोई ऐसा नहीं दिखता जो दोनों भाषाओं की खूबसूरती को पहचान कर उसकी बारीकियों को उभार सके तो एक धक्का सा लगता है कि क्या सचमुच भविष्य का मंजर इतना वीराना है! लेकिन जब आज के साहित्यिक मित्रों के बीच उर्दू शब्दों की छीछालेदर सुनता हूँ या पत्रकारों में उर्दू के शीन काफ दुरुस्त करने के क्रम में जबलपुर को ज़बलपुर कहते सुन लेता हूँ तो अपनी आत्मप्रशंसा में लगा हुआ धक्का एक तकलीफ में बदल जाता है। भाषाओं के प्रति मेरा उदार भाव ,हो सकता है, थोड़ा -बहुत अव्वहारिकता की हदें छुये लेकिन मेरे लिये सरदार जाफरी ,कैफ़ी आज़मी,कृष्ण बिहारी ‘नूर’,बशीर बद्र, और निदा फाज़ली अथवा अहमद फ़राज़,किश्वर नाहीद और फ़हमीदा रियाज़ उतने ही प्रिय हैं जितने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना,कुंवर नारायण, धर्मवीर भारती,जगदीश गुप्त अथवा दिनकर,अज्ञेय और सुमनजी लगते हैं। मैंने अपने अनेक समकालीनों के रचनाखंडों को अपने जीवन का अंग बनाया है और उससे अपने जीवन शैली के सिद्दान्त गढ़े हैं। पंडित रमानाथ अवस्थी की पंक्तियाँ हैं:-
आये गये बड़े-बड़े पंडित औ’ज्ञानी
कह नहीं पाये कोई मिट्टी की कहानी
कोई मिला बस्तियों में कोई बियाबान में
कोई कहीं टूट गया भूख की थकान में
टूटने का दर्द जहाँ समझा न जाये
ऐसी दुनिया को जिस वास्ते संवारूँ!
करने वाला और है किसी को क्यों पुकारूँ
जीवन की नाव किसी घाट क्यों उतारूँ!
मुझे ये पंक्तियां ऐकान्तिक संघर्ष का सबसे बड़ा संबल लगती हैं। एक ऐसी ऊर्जा, जो असहाय सी दिखने वाली अवस्था में भी स्वाभिमान को जागृत रखती है,इन पंक्तियों में प्रवाहित होती रहती है। डा.बशीर बद्र की पंक्तियाँ पढ़ता हूँ:-
मैं तो दरिया हूँ मुझे अपना हुनर मालूम है
मैं जिधर से जाऊँगा वो रास्ता हो जायेगा।
तो ये पंक्तियाँ मुझमें मगरुरी नहीं,गहरा आत्मविश्वास जगाती हैं। अपनी अकिंचनता में भी अपनी अस्मिता को रेखांकित करने का जो हलास बाबू जगन्नाथ प्रसाद रत्नाकर ‘उद्धव शतक’ की एक पंक्ति में दे देते हैं कि:-
जइहै बनि बिगरि न बारिधिता बारिधि की
बूंदता बिलैइहै बूंद बिबस बिचारी की।
उसी को कृष्णबिहारी नूर मेंपढ़ता हूँ:-
मैं एक कतरा हूँ लेकिन मेरा वजूद तो है
हुआ करे जो समन्दर मेरी तलाश में है।
अपने एकान्त को बांटने के लिये मैं कुंवरनारायण जी की कविता पुस्तक ‘इन दिनों’को अपने साथ रखता हूँ और उनके शब्दों के साथ जिंदगी की तमाम धूल झाड़कर तरोताज़ा हो जाता हूँ। डा.धर्मवीर भारती की ‘सपना अभी भी’ में अपने ही नहीं,देश और दुनिया के तमाम अधूरे सपनों के साकार होने का विश्वास जीने लगता हूँ। जीवन की अनेक विषम परिस्थितियों में कविता ने राह दी है। इलाहाबाद के मेरे मित्र कवि बुद्धसेन शर्मा ने लिखा है:-
जिस तट पर प्यास बुझाने में अपमान प्यास का होता हो
उस तट पर प्यास बुझाने से प्यासा मर जाना बेहतर है।
ये पंक्तियां पढ़कर मुझे जीवन में रीढ़ सीधी करके जीने का मंत्र मिल जाता है। कोलकाता के उर्दू शायर मुनव्वर राना की गज़ल का एकशेर मेरी कै़फियत बयान करने के लिये मुझे कई बार काफ़ी लगा है। वे कहते हैं:-
मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहज़ा नर्म भीकर लूँ तो झुंझलाहट नहीं जाती।
काव्य के ऐसे असंख्य उदाहरण हैं जिनसे मैंने अपना मानस रचा और संवारा है और उस रचाव से जो मेरा शब्द बनकर निकला है उसकी बाकायदा इज्ज़त की है। अपने बोले हुये शब्द के प्रति पूरी आस्था के साथ डटे रहना मेरी कमजो़री भी है और मेरी शक्ति भी। यह अवगुण मेरी पैतृक संपत्ति है और उसकी रक्षा करना मैं अपना परम धर्म मानता हूँ।
हुआ कुछ यूँ कि मेरे पिताजी उन दिनों नौकरी-वौकरी छोड़कर गांव में ही रह थे। रिश्ते के दूर के चाचा राधेश्याम जो साधू हो गये थे,अपने गांव में भंडारा करना चाहता थे। उन्होंने अपनी यह इच्छा पिताजी को बतायी ने इसे मांगलिक ‘सर्वजनहिताय’ काम समझकर उसमें पूरी तरह सम्मिलित रहने का वचन दिया। जब भंडारे का समय आया। तो गांव के चंडाल प्रकृति ब्राह्मणों ने भंडारे का बहिष्कार शुरू कर दिया। बहिष्कार का कारण यह साधू है,हर जगह का भोजन छुआछूत का विचार छोड़कर करते हैं,ऐसे व्यक्ति के भंडारे में सम्मिलित होने से ब्राह्मणत्व की साख को बट्टा लगेग और ‘उच्चता’ लांछित होगी।अजीब तर्क कि साधू अछूत है।
पिताजी पर भी ब्राह्मण मंडली ने दबाव बनाया और चाहा कि वे भी सम्मिलित होने से इंकार कर दे। पिताजी ने कहा कि मैं अपनी ज़बान से राधे को वचन दे चुका हूँ। मुझसे राय लेकर उन्होंने भंडारा किया है,अब कैसे इंकार कर दूँ। ब्राह्मण मंडली अब ज़रा सख्त हो गयी और बोली:” अगर यदुनन्दन तिवारी भंडारे में शामिल होंगे तो हम उनका भी जाति बहिष्कार करेंगे।” पिताजी ने खबर भिजवा दी जवाब में कि जाति बहिष्कार तो अब से ही कर लें क्योंकि मैं भंडारे में सम्मिलित होऊंगा।
वे भंडारे में सम्मिलित हुये और शान से भंडारा हुआ। मैं आयु में छोटा था लेकिन पिताजी का वचन देकर उस पर टिकने का तेवर मेरे लिये प्रेरक मंत्र बना और जीवन भर बना रहा। लांछन सहकर भी अपने शब्द को जीना मैं अपने चंद बुनियादी सिद्धांतो में मानता हूँ और लांछन मैंने जीवन में कम नहीं सहे।
सबसे बड़ा लांछन तो यह कि मैं’पूँजीपतियों का पिट्ठू’रहा।मेरा ‘दुर्भाग्य’ कि मैंने बम्बई विश्वविद्यालय की प्राध्यापिकी छोड़ने के बाद पूंजीपति संस्थानों में ही नौकरी पायी। सौभाग्य यह कि मुझे कोई प्रार्थनापत्र देने कहीं नहीं जाना पड़ा। जिस नौकरी के लिये प्रार्थनापत्र देते घूम रहा था वह थी किसी इंटरमीडियट कालेज में ड्राइंग मास्टर की नौकरी। जिन दिनों मैं इंटरमीडियट कर रहा था तभी मेरे अग्रज और आत्मीय, जो बाद में मेरे सगे संबंधी बने ,श्री रामावतार चेतन ,उनकी प्रेरणा से मैंने सर जे.जे.स्कूल आफ आर्टस बम्बई की इंटरमीडियट ग्रेड ड्राइंग की परीक्षा पास की। उसका उत्तर भारत में केन्द्र था ग्वालियर में जहां मैंने पहली बार ग्वालियर का राजमहल भी देखा। परीक्षा देने गया तो ग्वालियर का किला और फिर महल देखने की इच्छा हुई । महल में गया तो सब लोग जिधर जा रहे थे उधर से अलग वह खंड भी देखने की इच्छा हुई जिधर कोई नहीं जा रहा था। जब मैं उधर जा रहा था तो किसी अन्य दर्शक ने रोका कि उधर नहीं जाने देंगे,उधर शाही निवास है।
मैंने कहा: “जब कोई रोकेगा तो देखा जायेगा,लौट आऊंगा। जाने नहीं देगा तो आने तो देगा।”
और मैं अंदर तक अटपटे अंदाज़ में महल को देखता हुआ अन्दर तक चला गया। काफी दूर अंदर जाकर एक पहरेदार ने झिड़का:”ए कहाँ जाता है तुम? ”
मैंने कहा:”मैं महल देख रहा हूँ बाहर से आया हूँ।”
उसने कहा:” बाहर से आया है तो अंदर कहां जा रहा है? बाहर जाओ।”
मैंने उसी बे डर टोन में कहा:” तो अकड़ क्यों रहा है,जा रहा हूँ।”
और मैंने बाहर जाने का रास्ता पकड़ा और बाहर आ गया। लेकिन इसी क्रम में आधे से ज्यादा महल का अंतर टटोल आया।
उसका परीक्षाफल आया तो मैं पास हो गया था। उस समय यू.पी.बोर्ड में सर जे.जे.स्कूल आफ आर्टस से ‘पास’ को इंटर कालेज में ड्राइंग पढ़ाने का हकदार माना जाता था। अपनराम ने उसका फायदा उठाना चाहा और बी.ए. करते -करते थोड़ी आमदनी का ज़रिया बना लेना चाहा। नौकरी मिली लेकिन गंगा पार उन्नाव जिले के गांव रुझेई में। वहां कुछ संयोग ऐसा बना कि इंटरव्यू पहले हो लिया और उसमें प्रिंसिपल साहब की रुचि दिखी तो उन्होंने कहा कि आप प्रार्थना पत्र दे दीजिये। मैंने सुबह वहीं उठकर प्रार्थनापत्र लिख दिया।लिखा अंग्रेजी में और पहुंचवा दिया। जो परिचित प्रार्थनापत्र देने गये थे उनसे प्रिंसिपल साहब ने पूछा कि यह प्रार्थनापत्र किसने लिखा है। चूंकि उन्होंने खुद देखा था मुझे लिखते हुये ,सो बोले लिखा तो उन्होंने ही है,लेकिन नींद में से जागे थे इसलिये हो सकता है कुछ चूक हो गयी हो।
मेरे परिचित सज्जन तो जैस आसमान से जमीन में आ गिरे।प्रिंसिपल साहब ने कहा:”चूक नहीं बहुत अच्छी अंग्रेजी लिखा है।”वे लौटे गदगद भाव से -नौकरी की स्वीकृति साथ लेकर।
मैंने वह नौकरी साल भर की और फिर एम.ए. करने इलाहाबाद चला गया। इलाहाबाद गया तो यह पता नहीं था कि रहूंगा कहां,फीस कैसे भरूंगा और खाऊंगा क्या? लेकिन अपन ने एक कहावत सुन रखी थी कि जिसने मुंह चीरा है ,वह खाने को भी कुछ न कुछ कहीं से लेआयेगा। यह अजब किस्म का विश्वास लेकर मैं इलाहाबाद गया और वहाँ प्रकाशकों के भरोसे शान से दो साल गुज़ारे। सुबह यूनिवर्सिटी जाता था,दोपहर को प्रकाशकों के चक्कर लगाता था,पुस्तकों के कवर डिजा़इन करने का काम ढूंढता था और रात में उसे पूरा करके सुबह देर तक सोता था। इतनी देर तक कि कई बार नाश्ता किये बिना ही क्लास में जाने की मज़बूरी होती थी। वह सुबह देर तक सोने की आदत आज तक नहीं छूटी ।
अगली नौकरी जाकर लगी महाराष्ट्र में। चेतनजी उन दिनों बम्बई में रह रहे थे। उन्होंने वहाँ एल्फिंसटन कालेज के हिंदी विभागाध्यक्ष डा.इंदु प्रकाश पांडेय की सलाह से मुझे सरकारी कालेजों में आवेदन भेजने को कहा।मैंने बेमन से आवेदनपत्र भेजा क्योंकि पूना में शिक्षा विभाग के निदेशक के नाम भेजना था एक प्रार्थनापत्र। भेज दिया और भेजकर निश्चिंत हो गया कि होना जाना तो कुछ है नहीं। सो हिंदी भवन,इलाहाबाद की पुस्तकों की प्रचार-मुहिम हाथ में लेकर पश्चिमी यू.पी. के कालेजों में भटकता रहा। जब लौटकर इलाहाबाद आया तो देखा कि इंटरव्यू – लेटर आया है। और ‘कल’पूना में इंटरव्यू है। कल…यानी कि तत्काल गाड़ी पकडूँ तो भी कल तक बम्बई ही पहुंचूंगा,फिर वहाँ से पूना जाना… मतलब कि नौकरी की उम्मीद गयी।
उम्मीद गयी थी ,मगर गाडी़ मेरी नहीं गयी थी। मैंने फौरन टिकट के पैसों का इंतज़ाम किया और हावड़ा मेल पकड़ बम्बई के लिये रवाना हो गया। इंटरव्यू के दिन बम्बई पहुंचा,उससे अगले दिन पूना भी गया लेकिन चिड़िया खेत चुग गयीं थीं।
मैं निदेशक महोदय से मिलने की जिद में दिन भर पूना में रहा,उनसे कुछ कहता उसके पहले ही उन्होंने बता दिया कि वे अज्ञेयजी के भाई हैं,अब जरूर कुछ नहीं कर सकते लेकिन शाम का खाना खिलाने अपने घर ले गये।
खैर अगले साल मैंने फिर प्रार्थनापत्र दिया और एक साल किसी तरह फुटकर काम करके बम्बई में गुजार दिया। नौकरी मिली और शानदार मिली। मुझे मेरे मन की नियुक्ति दी गयी । जिस कालेज में मुझे प्राध्यापिकी मिली उसमें प्रिंसिपल थे मराठी के मशहूर कवि पु.शि.रेगे जो मराठी में मर्ढेकर के बाद कविता के पुरोधा माने जाते थे।दो साल मैंने उनके साथ काम किया। उन्हीं के साथ काम करते हुये मेरी शादी हुयी। उन्होंने शादी के बाद खाने पर आमन्त्रित किया और जो भेंट दी वह अपने आप में अद्भुत थी। उन्होंने अपने बगीचे से रातरानी ,एक्जोरा और पारिजात के पौधे दिये। वही मेरे लिये शादी की सौगात थी। वैसी सुगन्धभरी सौगा़त जीवन में दोबारा किसी ने नहीं दी। रातरानी और पारिजात की सुगन्ध से मैं आज भी अविभूत हो उठता हूँ।
एक दिन रेगे साहब ने बड़ी गंभीरतापूर्वक मुझे राय दी कि मैं सरकारी कालेजों के बजाय यूनिवर्सिटी के स्थानीय कालेजों में शिफ्ट हो जाऊँ। कारण यह कि मैं गैर मराठी अध्यापक मराठा राजनीति में पिसकर पूरे प्रदेश में ट्रांसफर भोगता रहूंगा,मेरा लिखना पढ़ना सब स्वाहा हो जायेगा। और इस तरह मैं शींव के एस आई ई एस कालेज में हिंदी विभाग में आ गया। वहां मेरे प्रिंसिपल थे प्रोफेसर ए.बी.शाह और वाइस प्रिंसिपल थे प्रोफेसर राम जोशी जो बाद में बंबई विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर बने। साल भर मैं विले पार्ले के मीठीबाई कालेज में हिंदी विभागाध्यक्ष बनकर चला गया और उसी के छह महीने बाद डा.धर्मवीर भारती ने मुझे ‘धर्मयुग’ में बुला लिया।
‘धर्मयुग’ में मेरा साल मुश्किल से बीता कि भारतीजी को मेरा सुकून खलने लगा। उन्हें अपने मातहतों को अग्नि की लपटों में रखने का हुनर हासिल था। संपादकीय संप्रभुता की रक्षा के लिये प्रतिबद्ध टाइम्स का प्रकाशन इसमें भारतीजी का पक्ष लेने को मज़बूर था और इस तरह उन्होंने पंडित विद्यालंकार के जमाने से अपने भरती किये आदमियों तक करीब अठारह आदमी निकाल दिये थै। धर्मयुग में भारती जी की तूती के आगे किसी की पिपिहरी भी नहीं बज सकती थी। धर्मयुग का संपादकीय स्तर सुधारने में भारती जी का योगदान बेजोड़ है लेकिन वहाँ का सौहार्द का माहौल नष्ट करने में उनका योगदान ऐतिहासिक था।अनेक भावी के होनहार बडे़ बेआबरू होकर निकाल फेंके गये।मैं भी भारती जी की अपेक्षाओं के मुताबिक खरा न उतरा और अंत में उनके बम की आखिरी चोट नंबर दो होने के नाते मुझ पर आकर दम लेती थी। मुझे उनके साथ ग्यारह साल काम करना पड़ा। लंबी दास्तान है वह जीवन की,जिसे फिर कभी बयान करूँगा। लेकिन उस दरमियान मुझे अनेक दोस्तमिले जो तब जुड़े तो जीवन भर जुड़े ही रहे। रवीन्द्र कालिया उनमें से एक हैं और मुझे उनसे दोस्ती निर्वहन पर आज भी गर्व होता है। खासकर उनके सामने रखा गया भारती जी का सहायक संपादक बनने का प्रस्ताव और बदले में कालिया द्वारा अपने प्रभाव का उपयोग करके विभाग से मेरे खिलाफ सहयोगियों का एक शिकायती पत् बनवाने का प्रस्ताव सिरे से ठुकरा देना।कालिया का उस प्रस्ताव को ठुकराने के लिये साहस जुटाने के लिये शराब पीकर भारती जी के घर जाना उनकी कथाकृतियों ‘काला रजिस्टर’ और ‘मोनालिसा की मुस्कान’ में दर्ज है।
बहरहाल वह ऐसा इतिहास है जो मेरी पत्रकारिता की पाठशाला भी है और मेरे टाइम्स में जीवित बने रहने का एक अजूबा भी। मगर जैसा मैंने कहा कि मुझे उसी दौरान अनके घने मित्र मिले जो मेरे तूफानी दिनों का लंगर साबित होते रहे। उनमें कुछ तो भारतीजी के ही घने मित्र थे। स्वर्गीय ठाकुर प्रसाद झुनझुनवाला और उनकी विदुषी धर्मपत्नी श्रीमती शीला झुनझुनवाला उनमें मुख्य थे। उस घर में मुझे अपार प्रेम मिला जो आज तक मिलता आ रहा है।आज भी मेरे घर का कोई भी मांगलिक कर्म,पूजा-अनुष्ठान शीला जी की शिरकत के बिना पूरा नहीं होता। प्रसिद्ध संगीतकार सुरिन्दर सिंह सिंह हैं जो मेरे एकान्त के क्षणों के लिये ‘एक अकेला काफी’ है।रवीन्द कालिया मेरे लिये आज भी अनुजवत प्यारे हैं।डा.महीप सिंह आज तक घने विश्वास के हकदार बने हुये हैं। कमलेश्वर जी को अब भी मैं उसी विश्वास और आत्मीयता के साथ अपने नजदीक पाता हूँ जिसे उन्होंने मुझे बम्बई में मुझे दिया था। टाइम्स संस्थान के तत्कालीन महाप्रबन्धक डा.राम तरनेजा के प्रबन्ध कौशल और प्रशासनिक दक्षता ने एक दिन मुझे संपादक बनाकर दिल्ली भेज दिया और मैं बिना किसी सूचना के संपादक बनाकर भेज दिया गया। सुनने में बात अविश्वसनीय लगती है लेकिन सच है कि मुझे मेरी पदोन्नति की भनक तक न दी गयी और एक झटके में बम्बई छोड़कर दिल्ली जाने का मार्चिंग आर्डर दे दिया गया।
दिल्ली में मेरे जीवन का बन्द ढक्कन जो खुला तो फिर पलटकर देखने के दिन नहीं आये। मेरे संपर्कों का दायरा एकदम विस्तार पा गया। राजनीति,साहित्य, पत्रकारिता ,समाजसेवा,शिक्षा,मीडिया…बहरहाल हर कहीं अपनी झंडी का रंग दिखाई देता था। और यही मेरे लिये ईष्या और लांझनों का कारण बनता गया। लेकिन विश्वास मानिये ,बन्दे ने अपने अन्दर झांकने अलावा किसी भकुये का कथन कान नहीं दिया। मैं ‘पराग’ से ‘सारिका’ से ‘दिनमान’और ‘दिनमान’ से’नवभारत टाइम्स’ तक का सफर तय करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचा कि मुझे जिनका आशीष मिलता तो मैं मालामाल अनुभव करता ,वे इतने कमज़र्फ थे कि उन्होंने अपने अल्फ़ाज़ मेरा कद छोटा करने में ही सर्फ़ किये। दुष्यन्त कुमार की पंक्तियाँ रह-रहकर याद आया करती थीं।’एक कण्ठ विषपायी’ में शंकर सती का शव ढोते-ढोते आखिर कह उठते हैं:-
आदर्शों का परिधान ओढ़
मैंने क्या पाया जीवन में? प्रेयसि वियोग!
हर परम्परा के ढोने का श्रेय मुझे मिला
हर सूत्रपात का श्रेय ले गये ‘और लोग’।
मैं ऊब चुका हूँ इस महिमामंडित छल से
अब मुझको अपना जीवन सत्य पकड़ना है
जिन आदर्शों ने मुझे छला है कई बार
उन आदर्शों से मुझको लड़ना है।
मेरी यह लड़ाई मेरे उन्हीं अपनों से रही जो मुझे परोक्ष रूप से लांक्षित करके मेरे लिये खाई खोदते रहे और सामने मुझसे मेरे सम्पर्कों का लाभ लेने का बानक बनाते रहे।
इस सबके बावजूद मेरे आत्मीयों की परिधि छोटी नहीं थी जिनमें जोड़ने का सूत्र केवल ‘मनुष्यता’थी। देखने काबिल दृश्य था जब मेरी बड़ी बेटी का तिलक जाने वालों में श्री रमेश चंद्र जैन थे, पंडित रमानाथ अवस्थी थे,सरदार सुरिन्दर सिंह और डा.महीप सिंह थे,डाक्टर कैलाश बाजपेयी थे,मैं उस जमात में सबसे पीछे था। आज भी जब मेरे दोनो दामाद मेरे मित्रों-अग्रजों के पैर को हाथ लगाकर आशीर्वाद लेते हैं तो मैं फूला नहीं समाता कि जात-पाँत और धर्म की जिन बेमानी दीवारों को मैंने अपने जीवन में कोई स्थान नहीं दिया,उन्हें मेरे दोनों बेटों(दामाद) ने भी अपने जीवन में ज्यों का त्यों उतारा।श्री भागवत झा आजाद और पंडित शिवशंकर मिश्र बारात की अगवानी करने वालों में थे। ताराचंद खंडेलवाल अपने घर की एक शादी को भुलाकर सारा इंतजाम देख रहे थे,प्रबन्धकर्ता थे।घरेलू हेतू व्यवहारी के रूप में सुशील अंसल और उनकी सुप्रसिद्ध लेखिक पत्नी कुसुम अंसल थीं,लक्ष्मी निवास झुनझुनवाला,अशोक जैन, डा.लक्ष्मीमल्ल सिंघवी और भौजाई कमला सिंघवी,श्री रामनिवास जाजू जैसे आत्मीय थे जो आज भी वही आत्मीय गौरव देते हैं। अनुज के रूप में आलोक मेहता मिले हुये थे। मेरी पत्नी को सगी बहन से भी ज्यादा मानने वाले कुलदीप तलवार और विजय क्रांति थे।…सम्बन्धों की एक लहलहाती शस्य श्यामला फसल थी जो मुझे दिल्ली में मिली और जिन्हें पाकर मैं धन्यता अनुभव करता हूँ। इन आत्मीयों ने मुझे कभी विपन्न नहीं महसूस होने दिया।
सत्ता का प्यार भी मुझे कम नहीं मिला था। यह मेरा सौभाग्य था कि श्रीमती इंदिरा गांधी के जमाने से लेकर उनके पुत्र राजीव गांधी,श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह,चंद्रशेखर ,पी वी नरसिंहराव,इंदर कुमार गुजराल,अटल बिहारी बाजपेयी तक सभी प्रधानमंत्रियों के सान्निध्य से मैं मंडित रहा लेकिन इस सान्निध्य का अनधिकृत लाभ मेरे हिस्से कभी नहीं आया और न कभी उसके लिये मेरा मन किया कि अपनी रीढ़ झुकाकर कुछ हासिल करूँ। पद्मश्री अलंकरण मिला तो तब जब राजग की सरकार थी जिसका मैं बहुत प्रशंसक नहीं रहा,यहां तक कि कुछ ‘महापुरुषों’ ने प्रधानमंत्री को मेरे विरुद्ध भड़का भी दिया था। नेहरू फेलोशिप मिली जब मैं अखबार का संपादक तो क्या किसी को भी ‘ओबलाइज़’ कर सकने का भ्रम भी नहीं दे सकता था। ‘परिवार’ पुरस्कार तब मिला जब मैं प्रिंट मीडिया से अलग इलेक्ट्रानिक मीडिया में ‘इन चैनेल’ का डायरेक्टर बन गया था। पत्रकारिता का सर सैयद पुरस्कार तब मिला जब मैं वहां से भी मुक्त होकर पुन: दिल्ली आ गया। व्यवस्था को भी आंख मूंद कर मैं कभी नहीं भाया। श्रीमती इंदिरा गांधी के समय श्री श्रीकांत वर्मा के जब लेखक संगठन बनाया तो एक मीटिंग में मुझे बुलाया गया। उसमें मैंने एक तिर्यक बयान दे दिया था तो फिर दोबारा मैं कभी उस मीटिंग के काबिल नहीं समझा गया। राजनीतिक सम्पर्क सूत्र का लाभ इमरजेंसी के वक्त कुछ निर्दोष लोगों के वारंट कटवाने में जरूर किया ,कुछ के तबादले रुकवाये। लेकिन उन्हीं लोगों ने मेरे लिये हलफिया बयान दिये कि वे निजी अनुभवों के आधार कह सकते हैं कि इमरजेंसी के दिनों’व्यवस्था’ से सम्पर्क घनेरे थे। मैंने ऐसे लांझन सुने और सहे । ऐसे ही लांझनों का पत्थर एक दिन उस पूंजीपति संस्थान कि तरफ से भी आया जिसका मैं बड़ा पिट्ठू बताया जाता था।
चूंकि न व्यवस्था का पिट्ठू होना मंजूर रहा और न पूंजीपति का ,सो दोनों ओर से किनाराकशी हुई और मैं टाइम्स संस्थान से निकलकर दूजे पूंजीपति संजय डालमिया के अखबार ‘संडे मेल’ में आ गया और अपनी कीमत पर ही गया। ‘संडे मेल’ हिंदी का सर्वाधिक लोकप्रिय रविवासरीय अखबार बना ,यह मेरा सौभाग्य रहा। ‘पराग ‘से लेकर’संडे मेल’ तक मैंने हर क्षेत्र की प्रख्यात हस्तियों से साक्षात्कार किया। संसार भर की सैर की। अपने देश के प्रधानमंत्रियों और विदेशमंत्रियों के साथ घूमा, विदेशी सरकारों के आमंत्रण पर बाहर गया, मौका पाकर हर विभूति से बातचीत की,फिदेल कास्त्रो से क्यूबा में मिले तो मार्गरेट थैचर से नयी दिल्ली के प्रगति मैदान में। अपने देश के हर प्रधानमंत्री के साथ लम्बे-लम्बे साक्षात्कार किये,दुनिया देखी और अपने पाठकों को दिखाई। आज भी इस शौक से उबर नहीं पाया । अपनी कमाई का अधिकांश हवाई जहाज के किराये में दिया और पर्यटन और भ्रमण का सुख उठाया।
…और जब संडे मेल बंद हुआ तो एक बार फिर किंकर्तव्यविमूढ़ होने की स्थिति में पहुंचता कि उसके पहले ही दुनिया के सबसे धनी माने जाने वाले लोगों में से हिन्दुजा समूह के चैनेल में मीडिया डायरेक्टर बनकर चला गया। ईर्ष्या की स्याही के धब्बे अभी मेरे दामन में पड़ने बंद नहीं हुये ,कम भले हो गये हैं। कुछ तो इसलिये भी कम हो गये हैं कि स्याही फेंकने वाले भी मान बैठे हैं कि यह तो लाइलाज़ मरीज़ है,अपनी मौत मरने दो। लेकिन मरीज़ अपनी चाहत के दियों के साथ ज्यों का त्यों जिंदा है:-
अभी रोशन हैं चाहत के दिये सपनों की आंखों में
बुझाने के लिये पागल हवायें रोज़ आती हैं।
ये पागल हवायें अब सेहत की जानिब से भी हमला करने लगीं हैं। पता यों चला कि एक दिन ब्लड प्रेसर नाप लिया गया। पता चला कि जिस रक्तचाप का आदी धर्मयुग के ज़माने से हो गया था,उसने दिल को तो बचा लिया लेकिन किडनी पर हमला कर बैठा। करीब करीब अठहत्तर प्रतिशत गुर्दे ढेर हो चुके थे। मैंने हिन्दुजा अस्पताल के फ़िजीशियन डा.एफ.डी.दस्तूर की मदद से वहां के गुर्दा विभाग के हेड डा. भरत शाह सीधा सवाल किया कि डाक्टर साहब,अगर इसी रफ्तार से मैं चलता रहा तो मुझे कितना सुरक्षित वक्त आप दे सकेंगे ? उन्होंने डाक्टर के नाते सवाल का जवाब देना गैर वाजिब माना लेकिन इसरार करने पर दोस्त के नाते बता दिया कि अठारह महीने के बाद जिंदगी को डावांडोल मानना चाहिये। डाक्टर दस्तूर अठारह महीने की बात सुनकर घबरा गये।मैं उनकी घबराहट देखकर घबरा गया। मैंने डाक्टर दस्तूर से कहा कि डाक्टर साहब,एक नियम होता है ऐकिक नियम,जिसमें हिसाब लगाया जाता है एक इकाई के आधार पर। सो आप हिसाब लगाइये कि एक आदमी की दोनों किडनियाँ अठहत्तर प्रतिशत खराब होने में सत्तर साल लगे तो बाकी बाइस प्रतिशत खराब होने में उसे कितने साल लगेंगे?
सवाल सुनना था कि डाक्टर भरत शाह सहित हम सब ठहाका लगाकर हँस पड़े।डा.शाह बोले : “डाक्टर नंदन ,आई अप्रीशियेट योर सेंस आफ ह्यूमर ऐंड विल पावर,कीप इस अप।”
अब मैं उन्हें कैसे बताऊँ कि उनके दिये अठारह महीने कई बार गुज़र कर चले गये और हम हैं कि अभी चले ही जा रहे हैं। पिछले दिनों दिल्ली के डाक्टरों ने एक आपरेशन जरूरी माना तो मैंने उनके हुजूर में अपने को दाखिल कर दिया। सर्जन साहब तीन घंटे लगे रहे,एक धमनी काटकर किसी शिरा में जोड़ी जानी थी। शिरा ने जुड़ने से साफ इंकार कर दिया,आपरेशन फेल घोषित हो गया। सर्जन साहब अफसोस में। मैंने कहा : डाक्टर ,मस्त हो जाओ, अपन को अभी जल्दी कुछ नहीं होने का।
मेरे अजदाद ने रौंदे हैं समन्दर सारे ,
मुझसे तूफान में लंगर फेंका नहीं जाता।
कन्हैयालाल नंदन
(मासिक पत्रिका संचेतना से साभार)
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