कल सुबह टहलने निकले। बहुत दिनों के बाद। सड़क पर चलता पहला इंसान ऊंघता हुआ दिखा। बेमन से टहलता। चेहरे पर उबासी लादे चलता। फुटपाथ की ठोकर से सहम कर चौकन्ना हो गया। ठोकरें हमको चौकन्ना बनाती हैं, सावधान करती हैं।
दो दरबानों में से एक की ड्यूटी ख़त्म हो गयी थी। वह अपनी वर्दी बदलकर जाने की तैयारी कर चुका था। अपने रिलीवर के इंतजार में था। घर जाने की बेताबी चेहरे पर हावी थी।
एक महिला दूसरे के घर खिले फूल उचककर तोड़ रही थी। जल्दी-जल्दी फूल तोड़कर झोले में डालती जा रही थी। हड़बड़ी में एकाध फूल नीचे गिर गए। चोट लगी होगी नीचे गिरे फूल को। लेकिन उससे बेखबर महिला फूल तोड़ती रही। अपनी पहुंच तक के सारे फूल तोड़कर महिला आगे बढ़ गयी। तेजी से।
उसी जगह एक बच्चा आसपास गिरे आम बीन रहा था। एक पालीथिन में। छोटे-टपके आम। दो-तीन किलो आम होंगे। पालीथिन में इकट्ठा आम नीचे गिरने पर टूट-फूट गए थे। किसी का मुंह घायल, किसी का पेट फटा, किसी की टांग टूटी, सिर्फ गुठली सलामत। सारे आम पालीथिन में किसी शरणार्थी कैम्प में भीड़ की तरह जमा थे।घर से उखड़े-उजड़े के यही हाल होते हैं।
सड़क पर टहलते लोग दिखे। कोई तेजी से, कोई आहिस्ते-आहिस्ते। कोई अकेले, कुछ लोग साथ में। एक बच्ची अपने घरवालों के साथ जाते हुए कोरोना से बचाव के सबक याद कर रही थी। बोली- 'मास्क, दूरी, सफाई-कोरोना से बचाव की पक्की दवाई'। उसके चेहरे पर तेजी से चलने के कारण पसीना सैनिटाइजर की तरह चमक रहा था। हमने उससे पूछा -' लेकिन तुम तो मास्क लगाये नहीं हो।'
'टहलते हुए मास्क लगाना जरूरी नहीं'-कहते हुए बच्ची आगे चली गयी।
मैदान पर तमाम लोग अपने-अपने हिसाब से मशगूल थे। दो बच्चियां बैडमिंटन खेल रहीं थीं। कुछ महिलाएं जमीन पर बैठी अनुलोम-विलोम कर रहीं थीं। कुछ लोग कसरत कर रहे थे। उठक-बैठक करता हुआ आदमी इतनी तेजी से बैठ रहा था मानो जमीन को जबरियन नीचे दबा रहा हो। जमीन दब नहीं रही थी तो गुस्से में और दबा रहा था।
कुछ लोग समूह में योग कर रहे थे। एक आदमी निर्देश दे रहा था, बाकी उसका अनुसरण कर रहे थे। जब हमने देखा तो लोग एक पैर पैर खड़े , दूसरे को ऊपर उठाये तथा हाथ दोनों ओर पंखे की तरह फैलाये हुए थे। एक पैर पर जहाज मुद्रा में खड़े थे लोग। कुछ लोग लड़खड़ाकर दोनों पैरों पर हो गए। फिर एक पैर पर खड़े होकर जहाज बनने की कोशिश करने लगे।
बात यहां कसरत तक ही सीमित थी। सही में जहाज बनते तो तेल के बढ़ते दाम के कारण साइकिल बनने की कोशिश में जुट जाते। जहाज मुद्रा की जगह साइकिल मुद्रा अपनाते।
हम सब इसी तरह जहाज बनते हुये सन्तुलन बनाने की कोशिश करते हुए लड़खड़ाते रहते हैं। लडखडाते हैं, सम्भलते हैं, स्थिर हो जाते हैं। जरूरत के हिसाब से स्टैंड, आसन बदलते हैं।
एक बच्चा पालीथिन में आटा लिए जगह-जगह डालता जा रहा था। जहाँ छेद दिखा , चीटिंयों का सुराग मिला, वहां आटा डाल दिया। रामनगर से आता है। घर से निकलता है आटा लेकर। जगह-जगह चींटियों के लिए आटा डालता चलता है। चीटियां कभी उसको न धन्यवाद देती हैं, न कोई वोट। उसको संतोष मिलता है, इसलिये वह यह काम करता है। सब कुछ अपनी ही कामना के लिए प्रिय होता है- 'आत्मनस्तु वै कामाय सर्वंम प्रियम भवति।'
आसमान में सूरज भाई अंधकार निरोधक अध्यादेश की तरह चमक रहे थे। कोई भी अंधेरे का टुकड़ा दिखे, फौरन उसका संहार करो। सूरज भाई की शक्ल देखते ही अंधकार अपने कुनबे समेत फूट लेता होगा।
मन किया सूरज भाई से पूछें -'ठीक है भाई आप चमको लेकिन अंधकार ने कौन तुम्हारी भैंस खोली है जो तुम उसको देखते ही कत्ल कर दो। आखिर उसका भी जीने का हक है।'
लेकिन फिर पूछे नहीं। क्या पता सूरज भाई बुरा मान जाएं। हमको अपने दोस्ती के पद से इस्तीफा देने को कहे और नए दोस्त अपने मित्रमंडल में शामिल कर लें। कोई भरोसा नहीं आजकल सूरज भाई का। बड़े बमक रहे हैं आजकल गर्मी में। गुस्से में बमकते साथी को कोई सलाह नहीं देनी चाहिए। वैसे भी सूरज भाई आसमान के राजा हैं। महाभारत में कहा गया है- ' राजाओं को बिना मांगे सलाह नहीं देना चाहिए।'
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बहुत सुंदर प्रस्तुति 👌👌
ReplyDeleteक्या खूब
ReplyDeleteबहुत अच्छा
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