जयपुर में जब ट्रेकिंग के लिए निकले तो बस ऐसे ही निकल लिए थे। अंदाज नहीं था कि इतने बहुरंगी अनुभव होंगे। पहले तो शुरुआत में ही हांफ गए। फिर लगा पानी साथ में होना चाहिए। साथ के लोगों के पास बैग में था सामान। पानी भी। लेकिन हांफ और प्यास को जब्त कर लिया। पानी के लिए नहीं कहा यह सोचकर कि हमें खुद लगेगा- 'शुरुआत होते ही पानी मांग गए।'
जब चटटान पर चढ़ रहे थे तो साथ के लोग हिदायतों की बौछार कर रहे थे। पैर इधर रखो, ऊपर थोड़ा, चटटान की तरफ मुंह करो, आहिस्ते चलो, इसको पकड़ो। हिदायतें ऐसी लग रहीं थीं जैसे गाड़ी चलाते हुए ड्राइवर को पीछे सीट पर बैठी सवारी टोंके -'दाएं मोड़, बाएं काट, आहिस्ता चल, आगे निकल।'
जब हम कोई काम कर रहे होते हैं तो ज्यादा हिदायतें बाज वक्त अवरोध का काम करती हैं। ध्यान बंटता है। मिल्खा सिंह जी का ध्यान दौड़ते समय खुद उनके ही कारण बंट गया था। पीछे वाले धावक को देखने में पिछड़ गए और रिकार्ड बनाने के बावजूद वे मेडल वंचित हो गए थे।
लेकिन यह बात तो हम अब कह रहे हैं जब हम सकुशल पार हो गए। अगर कुछ चोट लग जाती तो साथ के लोगों को कोसते -'बताना चाहिए था।'
इंसान बहुत चालाक आइटम होता है। अपनी हर बात को सही ठहराने के तरीके खोज लेता है।
जब हम पहाड़ी पार करके अपना सीना फूलाते हुए गर्वीली सांस ले रहे थे उसी समय हमसे करीब सौ फीट बहुत दुर्गंम ऊंचाई पर एक नौजवान एक पहाड़ी पार करता दिखा। हमको लगा कि अपनी किसी उपलब्धि पर सन्तोष व्यक्त करना तो ठीक लेकिन बहुत इतराना नहीं चाहिए। जिस समय हम अपनी किसी उपलब्धि पर इतरा रहे होते हैं, उसी समय कायनात के किसी दूसरे हिस्से में कोई उससे बड़ी उपलब्धि हासिल कर रहा होता है।
लौटते में चाय का हिसाब था। एक जगह पत्थरों के बीच चूल्हा जलाया गया। आसपास के पत्ते और लकड़ियां बीन कर आग सुलगाई गयी। थोड़े धुंए के बाद आग सुलग गई। खूबसूरत आग। आग देखकर एक बार फिर लगा, चूल्हे की आग दुनिया की सबसे खूबसूरत आग होती है।
चाय के लिए पानी और दूध गर्म होने लगा। तब तक एक साथी को पास के पेड़ पर मधुमक्खी का छत्ता दिखा। यह लगा कि धुएं से मधुमक्खी के छत्ते की मक्खियां निकलकर हमला कर सकती हैं। इस आशंका के चलते चूल्हे की आग बुझाई गयी। पास ही दूसरी जगह चूल्हा लगाया गया। आग जलाई गई। चाय बनी। छानी गई। पीना शुरू हुआ। बहुत स्वादिष्ट चाय। ऐसी चाय पीने के लिए बार-बार ट्रेकिंग पर जाने का मन करेगा।
चाय बनने के दौरान और पीने के समय भी गप्पाष्टक जारी रहा। स्थानीय राजनीति और इधर-उधर के किस्से। आसपास पत्थरों के सोफों और कुर्सियों पर बैठे हम लोग चाय का इंतजार करते हुए आनन्दित हो रहे थे। एक साथी ने मौके का उपयोग योग करते हुए किया। पास के पत्थर पर बैठकर योग करते हुए लम्बी-लम्बी सांसे पतंग की डोर की तरह खींचनी शुरू कर दी। दाएं से खींची, बाएं से खींची, सामने से खींची। मतलब हर तरफ़ की हवा खींचकर ऑक्सीजन ग्रहण कर ली।
चाय के एक दौर के बाद दूसरा दौर भी चला। तीसरा दौर तो नहीं चला क्योंकि तब तक चाय ख़त्म हो चुकी थी। लेकिन बची हुई चाय खत्म करने का जिम्मा हमने निभाया। समूह में। इतना सहयोग की भावना तो होनी चाहिए।
लौटते हुए जगह-जगह फोटोबाजी हुई। एक पेड़ के पास हम लोग अलग-अलग पोज में खड़े होकर फोटोबाजी किये। पेड़ भी सोचता होगा कि -"ये नामुराद हमारे ऊपर , दाएं-बाएं खड़े होकर फोटो खिंचा रहे हैं। अगर खड़ा होता तो पास से होकर निकल जाते। किसी की हिम्मत न होती हम पर चढ़ने की। "
सामने से सूरज भाई भी दिख रहे थे। उनको मुस्कराते हुए देखकर लगा मानो हमसे कह रहे हों -'बड़ा मजा आ रहा है।'
हम भी मुस्कराते हुए कुछ कहते तब तक माथे पर आई पसीने की बूंद बोल उठी -'यकीनन, कोई शक!'
अब इस बात का किसी के पास कोई जबाब है क्या ?
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