जयपुर में ट्रेकिंग के लिए उकसाया दोस्त Naresh Thakral नरेश ठकराल ने। हम भी पानी पर चढ़ गए। सुबह उठकर पहुंच गए विद्यार्थीनगर। वहां से पापड़ वाले हनुमान जी के पास से शुरु हुआ जंगल का सफर।
पापड़ वाले हनुमान जी का नाम वहां स्थित गांव के नाम पर पड़ा। पापड़ वाले हनुमान जी की प्रसिद्ध से जुड़ी कथा यह है कि यहां आई एक बाढ़ में जब आसपास के इलाके डूब गए थे, तब भी मंदिर बचा रहा। इस तरह की घटनाओं से ही मान्यताएं बनती हैं।
शुरुआत में अंधेरा था। जमीन में निकली पेड़ों की जड़ों पर पैर पड़ने से मुंह के बल गिरते बचे। ऊपर और दाएं-बाएं कटीले पेड़ों में भी कपड़े फंसने का डर। मतलब चौतरफा देखकर चलने की चुनौती।
थोड़ी देर बाद रास्ते में रेत मिली। पैर रेत में धंसने लगे। रेत जूतों से होते हुए मोजे के अंदर घुसकर पंजो, तलुओं से गले मिलते हुए उनके हाल-चाल पूछने लगे। पैर बेचारे मजबूर। घुसपैठिया रेत को मजबूर होकर बर्दास्त करते रहे।
कुछ देर के बाद सांस लेने में समस्या होने लगी। मुंह खुल गया सांस लेने में। मुंह खोलकर सांस लेते हुए आवाज दूर तक सुनाई देने लगी। समूह के लोग सब आगे निकल गए। आगे निकलकर फिर रुककर हमारा इंतजार करते। हम फिसड्डी ट्रैकर के रूप में चलते रहे।
कुछ दूर तक रेत में चलते हुए इतना हांफ गए कि लगा कि कहीं सांस दाएं-बाएं हो गयी तो क्या होगा। अगर कुछ गड़बड़ हुई तो शहर तक कैसे जाएंगे। वहीं चलते-चलते कसम खाई कि अब से नियमित चलाई करेंगे ताकि ऐसी समस्या न आये।यह कसम हम कई बार खा चुके हैं,इसलिए एक बार और खाने में कोई हिचक नहीं हुई। कसम खुद से खानी थी इसलिए कोई दुविधा भी नहीं हुई। किसी और से खानी होती तो और भी कुछ नाटकीय अंदाज में कहना होता -'अगर कसम तोड़ी जो सजा दोगे वो मंजूर।'
थोड़ी देर में सांस सम पर आ गयी। तसल्ली से चलने लगे। आगे चलकर रास्ता पथरीला हो गया। हर पत्थर पर पैर रखकर आगे बढ़ना एक चुनौती। कहीं पैर फिसलता कहीं ठोकर लगती। किसी जगह पैर पत्ते पर पढ़कर नीचे धंस जाता। हर कदम पर एक चुनौती।
ट्रेकिंग करते हुए लगा -हर अगला कदम आपकी मंजिल है।
एक जगह बड़ी चट्टान पर चढ़कर रास्ता था। ठहरते हुए उस पर चढ़े। हिदायतों की बौछार में चढ़ना और कठिन हो जाता है। लेकिन सफलता पूर्वक रास्ता पार करके जो सांस ली उसको चैन की सांस कहते हैं।
आगे रास्ते के पत्थर और नुकीले होते गए। लेकिन तब तक अभ्यास हो गया था। एक जगह धंस गए पैर पत्थर और गड्ढे में। हम ठहर गए। जिसे पत्थरों ने स्टेच्यू बोल दिया हो हमको। साथ के लोगों ने सहारा देकर निकाला हमको।
करीब चार किलोमीटर के बाद एक कुंड मिला। कुंड का पानी हरा हो गया था। कुछ लोग उसके पास बैठे फोटो खिंचा रहे थे।
वहीं ऊपर पहाड़ी पर एक बाबा मात्र लँगोटी पहने मौका मुआयना वाले अंदाज में टहलते दिखे। कुछ देर हम लोगों को और आसपास देखा। फिर अपनी कुटिया में चले गए।
आखिरी बिंदु पर पत्थर की बड़ी चट्टान थी। उसके आगे रास्ता नहीं था। चटटान बर्फी की शक्ल में कटी थी। बरसात के दिनों में यहां झरना बन जाता है। पानी अपना रास्ता खोज कर आगे बढ़ता है।
सामने से सूरज भाई भी दिखने लगे। लगता है हमको देखकर मुस्करा रहे थे। हम भी उनको देखकर मुस्कराए। दोनों को मुस्कराता देखकर पूरी कायनात मुस्कराने लगी। 'मुस्कान अनुनाद' हो गया समझिए।
कुछ देर वहां रहने के बाद हम वापस लौट लिए। वापसी के किस्से आगे।
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