एवरग्रीन होटल से खाना खाकर निकले। कुछ ही देर में पहलगाम पहुंच गए। गुलमर्ग से पहलगाम की करीब 140 किलोमीटर की यात्रा करीब सात घण्टे में हुई।
शहर में घुसते ही अमरनाथ यात्रा के लिए आये लोग दिखे। जिधर देखिये उधर यात्री। जगह-जगह सुरक्षा के लिए जवान। आगे बढ़ने के लिए हर जगह पूछताछ। कुछ देर में हम ठहरने की जगह, जवाहरलाल नेहरू माउंटेनियरिंग इंस्टीट्यूट पहुंचे। इंस्टीट्यूट पर्वतारोहण की ट्रेनिंग के लिए हैं। प्रवेश करते ही ऊपर चढ़ने के अभ्यास के लिए स्ट्रक्चर दिखे। एक जगह रस्सी में बांधने के लिए तरह-तरह की गांठों के प्रकार के चित्र बने हुए थे।
रस्सी की गांठों को देखते हुए सोचा -'मन में भी अनगिनत गांठे होती हैं। काश उनके भी कोई फोटो और विवरण होते।' फिर सोचा -'मन की गांठें तो महसूस करने की होती हैं। उनके चित्र कैसे मन सकते हैं।'
चाय पीकर हम टहलने निकले। इंस्टीट्यूट में ही सैकड़ों तम्बू लगे थे। इनमें अमरनाथ यात्रा के लिए व्यवस्था बनाने वाले जवान रुके थे।
इंस्टीट्यूट से करीब सौ मीटर दूर ही लिड्डर नदी बहती है। नदी किनारे जाकर बैठ गए। वहां एक जगह बेंचे लगी हैं। एक बेंच के पीछे पहलगाम लिखा है। लोग वहां बैठकर फ़ोटो ले रहे थे। थोड़ी दूर पर सेल्फी प्वाइंट भी है। वहां भी दनादन फोटो बाजी जारी थी। हमने भी लिए।
नदी किनारे पत्थरों पर बैठकर लोग तरह-तरह के फोटो ले रहे थे। हम भी एक पत्थर पर बैठकर नदी को बहता देखते रहे।
नदी का पानी इठलाता हुआ बह रहा था। लहरें एक-दूसरे के साथ बहती हुई खिलखिल जैसी कर रहीं थी। मानो दौड़ने का कम्पटीशन कर रहीं हों। कोई लहर बहते-बहते अचानक उछल जाती। उछली हुई लहर की चमक अलग दिखती। तेज भागती लहर के सामने कोई पत्थर आ जाता तो लहर ठिठककर अलग-अलग भागों में बंट जाती। आगे चलकर फिर मिल जाती और गले मिलकर फिर बहने लगती। किसी लहर का पानी अचानक गुडुप से नीचे पानी में मिल जाता, फिर उचककर ऊपर आ जाता। हर लहर के अलग अंदाज। ऐसा लग रहा था कि लहरें किसी लहर सुंदरता प्रतियोगिता में भाग ले रहीं हैं और उसी क्रम में लिड्डर नदी के पाट के स्टेज पर कैटवॉक करते हुए अपना सौंदर्य प्रदर्शन कर रहीं हैं।
नदी के बीच का पानी लहराता, इठलाता, खिलखिलाता, मस्तियाता बहता जा रहा था। प्रफुल्लित, किलकिल, मुदित। यह नदी के मुख्यधारा का पानी था। कुछ पानी किनारे आकर ठहरते हुए आहिस्ते-आहिस्ते बह रहा था। इसको कोई हड़बड़ी नहीं थी आगे भागने की। लहर रेस से बाहर आकर पानी चुपचाप एकदम आहिस्ते बह रहा था। इनका भी कुछ हिस्सा तो किसी जगह एकदम ठहर सा गया था। मानो कह रहा हो, हमें नहीं भाग लेना इस अंधी दौड़ में।
वहीं एक आदमी नदी में आहिस्ते से चलकर बीच तक गया। घुटने तक पानी में बैठकर डुबकी मारी। दो-तीन डुबकी मारने के बाद आहिस्ते-आहिस्ते चलते हुए वापस आ गया। उसके बाद दूसरे आदमी ने भी अपने कपड़े उतारे। पटरे वाला जांघिया पहनकर नदी में डुबकी लगाकर वापस आ गया। इनके साथ और एक लड़का था। वह झिझक रहा था। पहले वाला फिर गया नदी में। उसको अपने निर्देशन में डुबकी लगवाई। हम तो भीगे हैं सनम, तुमको भी भिजवाएंगे।
पता चला औरैया से आये हैं लोग। औरैया मने घी-दूध की मंडी। कानपुर से सटा शहर। पड़ोसी शहर के लोगों के मिलने की खुशी जाहिर की गई। जो जगहें घूमी उनके विवरण साझा किए गए। उन्होंने मुझे लद्दाख यात्रा के बारे में जानकारी मांगी। हमने फेसबुक पर अपनी 2019 की यात्रा के दौरान लिखी गई पोस्ट्स दिखाईं। उन्होंने वहीं खड़े-खड़े फेसबुक मित्रता निवेदन दिया। दो मिनट में मित्र बन गए। अमरनाथ यात्रा के लिए निकलना था उन्हें।
बताया उन्होंने अमरनाथ यात्रा कैम्प में हर तरह का इंतजाम है। खाना-पीना मुफ्त। सुरक्षा इंतजाम चुस्त। हर दस मिनट पर चेकिंग। एकदम बीआईपी ट्रीटमेंट।
हमको कानपुरिया जानकर वे खुश हो गए। बोले-'अपनी तरफ के हैं।'
घर से बाहर निकलकर आदमी उदार हो जाता है। पड़ोस के शहर को बाहर मिलने पर अपनी तरफ का कहता है। जो लोग शहर में होते हुए नहीं मिलते, बाहर मिलने पर गलबहियां करते हैं।यात्राएं मनुष्य को उदार बनाती हैं। उद्दात बनाती हैं। उदार और उद्दात बनने के लिये यात्रा करना चाहिए।
नदी किनारे एक परिवार बैठे फ़ोटो ले रहे थे। तरह-तरह के पोज। हंसी-मजाक करते हुए। मोबाइल में कैमरा लगने के बाद लोगों में देखने की कम , फोटो खींचने की ज्यादा प्रवृत्ति बढ़ी है। खींच लो, देखेंगे बाद में। संग्रह की प्रवृत्ति है यह।
हम कुछ देर नदी के पानी में पांव डाले बैठे रहे। पानी ठंडा। नदी का जो पानी हमारे पंजों से छूकर गया होगा वह आगे जाकर किसी सीधे बहकर पानी से मिला होगा तो कहा होगा, बिना मतलब स्पीड ब्रेकर सा आ गया। रिदम टूट गया। मूड आफ हो गया।
सीधे बहता पानी उसे समझाता होगा-'बहने में अवरोध तो आते ही रहते हैं। रिदम तो बनता, बिगड़ता रहता है। इससे प्रभावित हुए तो गए। बह यार मस्ती से। देख कितना मस्त मौसम है। देख वह लहर कैसी इठला रही है। मानो उसी को लहर सुंदरी का खिताब मिलना है।
साढ़े सात बजे थे। इस समय भी ऊपर पहाड़ पर धूप एक जगह जमा थी। पहाड़ ने मानो अपने कटोरे में इकट्ठा कर रखी है धूप। बाद में उपयोग के लिए। संग्रह की प्रवृत्ति हर जगह है।
नदी से बाहर आकर सड़क पर सैलानी प्रवाह देखते रहे। एक बाबा जी सर पर गठरी धरे , नंगे पैर चले आ रहे थे, दोनों हाथ हिलाते-डुलाते। हमसे जम्मू की बस का पता पूछा। हम बता नहीं पाए। आगे पूछने के लिए कहा। बाबा जी आगे बढ़ गए। मथुरा के हते बाबा जी। हमने मथुरा के तमाम दोस्तों की याद कर डाली। याद करने में कोई पैसा थोड़ी लगता है।
वही कुछ लोग सड़क किनारे बैठे थे। यात्री ही थे। ज्यादातर महिलाएं। एक आदमी उनको शॉल बेंचने की कोशिश कर रहा था। कीमत सेंसेक्स की तरह ऊपर नीचे करते हुए। शाल देखने में तल्लीन महिलाओं से अलग महिला चुपचाप सारा मामला बहुत ध्यान से देख रही थी। बिना नजर हटाये। अनिर्लिप्त लिप्तता।
कुछ लोग वहीं रुकने के ठिकाने के लिए किसी एजेंट से मोलभाव और इंतजाम कर रहे थे। अधिकतर महिलाएं। एक पुरूष बात कर रहा था। कुछ महिलाएं घूंघट में भी थी। हमारे बात सुनने तक एक जन का रुकने का रेट 200 रुपया चल रहा था।
बाजार जाने का मन हुआ। एक जवान से रास्ता पूछा, दूरी भी। बोला -'सीधे चले जाओ। 15 मिनट लगेगा।' फिर बोला-'बस जाती है सामने से। पकड़ लो। यहां नहीं रुकेगी। वहीं चले जाओ।'
हम बस की तरफ बढ़े। जवान लोगों की मांग पर उनके साथ फोटो खींचाने लगा।
बस तक पहुंचने से पहले वह चल दी। हमने हाथ दिया तो रुक गयी। रुकी क्या धीमी हुई। हम लपककर बैठ गए। दो मिनट में बस स्टैंड।
बस स्टैंड के पास नदी का खूबसूरत पाट था। वहाँ फोटो खींची। वीडियो बनाये। सेल्फी भी ली। लेकिन बेकार लगी। पास में खड़े बच्चों में से एक को फ़ोटो लेने के बोला। उन्होंने ली। बच्चे होटलों में काम करते हैं। प्यारे, खूबसूरत। लगता ही नहीं होटलों में काम करते होंगे। थोड़ा मेहनत करे निर्देशक तो हीरो माफिक लगें। लेकिन अभी सब होटल में काम करते। घूमने आए हैं।
पास में ही एक जोड़ा एक-दूसरे की फोटो ले रहा था। हमने कहा लाओ तुम लोगों की फ़ोटो खींच दें। खुशी से उन्होंने कैमरा दे दिया। हमने खूब सारे फोटो खींचे उनके। नजदीक होकर खड़े करके। जोड़ा मुस्कराते हुए, सटते हुए , फोटो खिंचाता रहा। फ़ोटो देखकर खुश होकर दो बार धन्यवाद बोला।
आगे बाजार था। तरह-तरह की दुकानें। फुटपाथ पर अधिकतर कपड़े की दुकानें थी। एकाध चाय की भी। कुछ लोग , महिलायें चाबी के छल्ले बेंच रहीं थी। खाने-पीने की भी दुकानें। लोगों के ठट्ठ के ठट्ठ बाजार में मौजूद थे।
हमको चाय पीना था और एक दवा लेनी थी। एक जगह दवा की दुकान थी। दुकान खुली थी। बगल वाले ने बताया-'नमाज पढ़ने गया है। आता होगा।'
हमें याद आया कि कुछ देर पहले स्पीकर पर नमाज की आवाज आ रही थी।
चाय पीने के लिए दुकान नहीं दिखी। अल्बतत्ता एक जगह दूध बिकता दिखा। हलवाई की दुकान में। केसर का दूध। हमने एक ग्लास लिया। 50 रुपये का। सड़क पार करके सामने की रेलिंग पर बैठकर दूध पीने लगे। हर घूंट का मजा लेते हुए। पचास से ज्यादा ही घूंट लिए होंगे। हर घूंट दूध की कीमत एक रुपया।
बगल में बैठा आदमी मोबाइल पर वीडियो कॉलिंग कर रहा था। उसके मोबाइल पर एक बच्ची किलकती हुई दिख रही थी। बच्ची को दुलराते हुए वह भी बच्चा बन गया था। बाद में वह अपनी घरैतिन से बतियाने लगा। हम उठकर चल दिये। दूध का ग्लास डस्ट बिन में डालकर वापस हो लिए।
वापसी में रास्ता लोगों को देखते-सुनते कट गया। कुछ ही देर में इंस्टीट्यूट के पास पहुंच गए। अंधेरा हो गया था। सेल्फी प्वाइंट वीरान था। फ़ोटो खींचने की जगह पर कोई नहीं था। वह जगह जनविहीन थी जहां शाम को फोटोबाजी के लिए भीड़ थी।
लेकिन वही पर नदी उतनी ही मस्ती और मजे में। उतनी ही प्रफुल्लित, प्रमुदित, उल्लसित, आह्लादित बह रही थी जितनी शाम को।
नदी किसी सेल्फी की मोहताज नहीं होती। नदी अनवरत बहती है।
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