दिल्ली से श्रीनगर की फ्लाइट समय पर आई। बैठे और उड़ लिए कश्मीर के लिए। ऊपर उड़ते ही थोड़ा ऊँघने के बाद जब आंख खुली तो जहाज बादलों के बीच उड़ रहा था। बाहर दूर-दूर तक फैले बादल ऐसे लग रहे थे मानो हजारों लीटर पानी में सैकड़ो टन सर्फ घोल दिया हो। उसी से पूरी कायनात का मैल साफ करने का इरादा हो।
पता चला बगल के यात्री दिल्ली में अपना काम करते है। मुरादाबाद के रहने वाले। बिजनेस के बारे में और इधर-उधर की बातें जल्दी ही खत्म हो गईं। उन्होंने हाथ बढाकर खिड़की से बाहर का फोटो खींचा। हम अपने-अपने में मशगूल हो गए। बातें आगे बढ़ी नहीं। ठहर गयीं। बात शुरू करना और जारी रखना भी कलाकारी की बात है।
कुछ देर में जहाज उतरा। सामान लेकर हम बाहर आये। उतरते ही ड्राइवर का फोन आ गया था। वह हमारा इंतजार कर रहा था।
बाहर निकले तो इधर-उधर ताका। शायद कोई प्लेकार्ड लिए खड़ा हो। लेकिन ऐसा कुछ नहीं। कुछ दूर खड़े शख्स ने मुझे पहचानकर गाड़ी में आने को बोला। हमने नाम पूछा तो वो हमारे ड्राइवर साहब ही थे। नाम मुदासिर।
हमको कैसे पहचान गए पूछने पर उन्होंने मुझे बताया-' आपकी फोटो देखी व्हाट्सअप की प्रोफाइल में।'
एयरपोर्ट से ठहरने की जगह करीब आधे घण्टे की दूरी पर ही थी। रास्ते में जो इमारतें दिखीं वे सब एक या अधिक से अधिक दो मंजिला थीं। अब्दुल्ला परिवार के बंगले, राजा कर्ण सिंह और मुफ़्ती परिवार के घर बाहर से दिखाए । मन किया उनमें से किसी से मिलें। लेकिन आगे बढ़ते गए। किसी से मिलना इतना आसान कहां !
कश्मीर से जुड़े तमाम नेताओं के बारे में मुदासिर का मानना है कि इन लोगों ने अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए तमाम जमीन जायदाद बनाई। खुद का भला किया। आम अवाम के भले के लिए कुछ नहीं किया। अलबत्ता कर्ण सिंह जी के लिए अच्छे भाव जाहिर किये उसने।
ड्राइवर मुदासिर की आपबीती भी सुनी। पिता भी ड्राइवर का काम करते थे। 2004 में एक कार एक्सीडेंट में नहीं रहे। माताजी हैं। पत्नी और दो बच्चे है। पढ़ाई इंटर तक ही हो पाई। पत्नी और माता जी के स्वभाव में 36 का आंकड़ा है। दोनों के बीच तालमेल में बहुत मेहनत करनी पड़ती है मुदासिर को। बच्ची का नाम महनूर बताया। बेटे की तबियत नासाज थी उस दिन। बार-बार हाल पूछ रहे थे घर से।
मुदासिर ने अपनी खुद की गाड़ी खरीदी थी। कोरोना में पर्यटक आये नहीं। गाड़ी बिक गयी। खाने-पीने के लाले पड़े थे उन दिनों। कोरोना ने तमाम लोगों का हुलिया बिगड़ा है।
होटल में सामान रखकर घूमने निकले। रास्ते में कृष्णा भोजनालय से खाना लेकर गाड़ी में बैठे-बैठे खाया।
श्रीनगर में खूब सारे गार्डन हैं। बाग बगीचे देखने तमाम लोग आते हैं। शुरुआत बोटानिकल गार्डन से हुई।
बाटनिकल गार्डेन देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जी के नाम पर है।
करीब 15000 खूबसूरत सजावटी पौधे हैं और तरह-तरह के ओक के पेड़ हैं गार्डेन में। चार भाग में बंटा है पार्क। जहां पौधे उगाए जाते हैं , रिसर्च वाला भाग , मनोरंजन का हिस्सा और बाटेनिकल गार्डन।
टिकट काउंटर पर भीड़ नहीं थी। 24/- का टिकट। हर बगीचे का टिकट यहां 24 रुपये का ही मिलता है। टिकट लेकर अंदर जाने के पहले काउंटर के पास खड़ी बच्ची से बात की।
बच्ची वहां खड़ी आते-जाते लोगों से कुछ मांगती जा रही थी। सर छुपाए हुए। फ़ोटो खींचने के लिए पूछने पर मुंह छुपा कर मना कर दिया। हमने भी फिर जिद नहीं की। दूर से फोटो पहले ही ले चुके थे।
पता किया तो बच्ची ने बताया मां-बाप कोई नहीं हैं। भाई-बहन हैं छह। दादी हैं। राजस्थान से आई है। यहां ऐसे ही मांगकर गुजारा करते हैं सब लोग। डल झील के पास किराये के कमरे में रहते हैं सब लोग।
अंदर जाकर देखा तो बॉटनिकल गार्डन खूबसूरत हरियाली से युक्त था। झील के पानी ने खूब सारे फव्वारे चल रहे थे। लोग वहां घुमते हुए फोटो खिंचवा रहे थे।
बॉटनिकल गार्डन में एक परिवार के लोग वहां मौजूद फूलों के बारे में ज्ञान का आदान-प्रदान करने लगे। आपस में फूलों के नाम और उसकी खासियत के बारे में इंटरव्यू चलने लगा। एक लड़की ने एक फूल के बारे में देखते हुए बताया -'पढा था इसके बारे में लेकिन अब याद नहीं। बहुत दिन हुए।'
फूल हवा के साथ चुपचाप सर हिलाता रहा। शायद कहना चाह रहा हो -'मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं। इम्तहान होते ही भूल गयी।'
फूल शरीफ होते हैं। उनकी जगह इंसान होता कोई तो शायद कहता -'बेवफा। मतलबी। हरजाई।'
वहां लोग कश्मीरी ड्रेस में फोटो खिंचा रहे थे। हम कुछ देर टहल कर बाहर आ गए।
काउंटर पर खड़ी बच्ची अभी भी वहीं थी। इस बीच एक और बच्ची भी वहां आ गयी थी। दोनों आपस में बातचीत करते हुए आते-जाते लोगों के सामने खड़े होकर मांग रहीं थी।
हम उनको वहीं छोड़कर अगले बगीचे की तरफ बढ़ गए।
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