कल शाहजहाँपुर से कानपुर आये। कुल करीब 11 साल मतलब अपनी सेवा का लगभग एक तिहाई हिस्सा शाहजहाँपुर रहे। तमाम सारी यादें हैं।
मार्निंग वाकर क्लब के डॉक्टर Anil Trehan और Inderjeet Sachdev जी ने कल सुबह ही आने को कहा।कहते हुए -'आपका फेयरवेल करेंगे।
सुबह ही हम नहा-धोकर , राजा बेटा बनकर पहुंच गए मार्निंग वॉकर क्लब के अड्डे पर। रामलीला मैदान के पास तीन बेंचो पर बैठकी और जमावड़ा होता है मार्निंग वाकर क्लब का।
पहुंचे तो तैयारियां चल रहीं थीं। केक भी सजा था। केक पर एक दिन पहले की ली हुई फोटो लगी थी। फोटो में जो टी शर्ट पहने थे उसको देखकर पत्नी जी ने टोंका था -'ठीक कपड़े पहन कर जाया करो। कुछ भी पहनकर चले जाते हो टहलने।'
अब केक पर बनी फ़ोटो तो बदली नहीं जा सकती है। सो उसको वहीं छोड़कर इधर-उधर टहलने लगे। इधर तैयारियां हो रहीं थीं।
थोड़ी दूर बेंच पर कचहरी के दीक्षित जी सीतापुर वाले बैठे दिखे। उनके पास गए।बतियाये। दीक्षित 75 के करीब हो रहे। अब भी बिना चश्मा के अखबार पढ़ लेते हैं।
बातचीत के बाद दीक्षित जी के साथ सेल्फी ली गयी और फोटो भी। उनके पास हमारा फोन नम्बर नहीं था। हमारे पास उनका भी नहीं था। फोन नम्बर आदान-प्रदान हुआ। दीक्षित जी के पास नोकिया का पुराना वाला मोबाइल है। इस मोबाइल में को एक बार चार्ज कर लें तो दो-दिन तक तो चलता ही रहता है क्योंकि यह सिर्फ बात करने के लिए प्रयोग होता है।
आजकल के स्मार्ट फोन में तो इतने फीचर हैं कि दो-तीन घण्टे में बैटरी खलास हो जाती है। जबकि पुराने नोकिया के फोन खूब चल जाते हैं।।इससे यह सीख मिलती है कि ऊर्जा बचानी है तो फोकस्ड होकर काम करना चाहिए। जितने ज्यादा झंझट उतने ज्यादा बबाल।
थोड़ी देर में मार्निंग वाकर क्लब से बुलावा आ गया। खूब माला-फूल , गुलदस्ता दिए गए। पुष्पवर्षा भी हुई। हर आने वाला माला पहना रहा था। मिठाई भी खिलाई गयी। केक काटा। खाया-खिलाया गया।
तारीफ पर तारीफ हुई। हम शरमाये से सुनते रहे। लगा कि क्या सही में इतनी तारीफ के काबिल हैं।
बाद में भी जो लोग आए वे भी माला-गुलदस्ता देते रहे। सिलसिला चलता रहा। फ़ोटो होते रहे। वहीं ग्रीन टी भी आ गई। मजेदार, खुशनुमा माहौल।
शेरो शायरी भी खूब हुई। सुनील मिश्रा जी ने मीर का शेर सुनाकर शुरुआत की:
वो आये बज्म में इतना तो मीर ने देखा,
फिर उसके बाद चिरागों में रोशनी न रही।
दो सौ साल पहले लिखा था मीर ने यह शेर। न जाने कितने लोगों ने अलग-अलग मौके पर इस शेर को पढ़ा-सुना होगा। अपने-अपने हिसाब से इसको प्रयोग किया होगा।
इससे लगा कि कोई कायदे का शेर अगर चलन में आ जाये तो कितनी दूर तक और देर तक चलता है। कितनों के मुंह से होता हुआ कितने दिलों तक पहुंचता है। अद्भुत है यह अनुभव।
दूसरा शेर पढ़ा मिश्रा जी ने:
दिल के आईने में है तस्वीरे यार की,
जब चाहा गर्दन झुकाई देख ली यार की।
बाद इसके गुनगुनाकर पढा:
तुझे भूल जामा पहना जाना मुमकिन नहीं
तेरी याद न आये ऐसा कोई दिन नहीं।
लोगो की बातचीत के बीच मिश्रा जी के शेर चलते रहे:
अगला शेर पढ़ा उन्होंने:
तुझको दिल से भुलाने की कसम खाई थी,
पहले से भी ज्यादा तेरी याद आई थी।
शेर चलते रहे। अगला शेर आया;
'तसव्वुर भी भला मैं तेरी जुदाई का मैं कैसे करूँ'
इसके आगे रिकार्ड करूँ तब तक मार्निंग वाकर साईकिल क्लब के डॉ विकास खुराना ने हमको रिकार्डिंग से रोक दिया कि आप रहन दो। हम कर रहे रिकार्ड। भेज देंगें।
नजर वो है जो कोनों मकां के पार हो जाये,
जिस कातिल पे निकले उसी कातिल पे वार हो जाये।
तसव्वुर भी भला तेरी जुदाई का मैं कैसे करूँ,
तुझको किस्मत की लकीरों से चुराया है मैंने।
शेरो-शायरी के बीच बातचीत भी चलती रही इजहार-ए-मोहब्बत भी। विदा करते समय उदारता भी आ जाती है। लगभग सबने अच्छी-अच्छी बातें कहीं मेरे लिए। विकास भारती ने मेरा वक्तव्य रिकार्ड किया शाहजहाँपुर की यादों के बारे में।
हमारे सुबह की साइकिलिंग के साथी Arif Khan आरिफ खान ने एक नोट मुझे भेंट किया जिसने 786 लिखा है। मैंने भेंट स्वीकार करके अपनी अमानत उनके ही पास रख दी ताकि यह खास रुपया सुरक्षित रहे। अब जब भी शाहजहाँपुर जाना होगा, अपनी अमानत का मुआयना कर लेंगे। यहाँ लिख दिया ताकि सनद रहे।
इस बीच फैक्ट्री के साथी योगेंद्र कुमार भी आ गये और सचान जी भी। सचान जी शाहजहाँपुर के बच्चों को बॉलीबाल सिखाते हैं। बॉलीबाल के खिलाड़ी और कोच के रूप में उनकी सेवाएं अनमोल हैं। ऐसे अनगिनत लोग चुपचाप समाज की बेहतरी में अपना योगदान देते रहते हैं। समाज ऐसे ही लोगों से बेहतर बनता है।
मार्निंग वाकर क्लब के साथियों से फिर-फिर मिलते हुए विदा हुए। योगेन्द्र कुमार घर तक आये। साथ चाय पी। तमाम यादों को फिर से ताजा किया गया।
दोपहर की निकलने के पहले रागिनी का सन्देश आया। वो हमारा इंटरव्यू करना चाहती थीं। रागिनी शाहजहाँपुर की एक मात्र रजिस्टर्ड पत्रकार हैं। अपना यूट्यूब चैनल चलाती हैं। हमारी सुबह की साइकिलिंग की साथी भी रहीं हैं।
समय बहुत कम होने के बावजूद बातचीत हुई। वहीं मार्निंग वाकर क्लब की बेंच पर। कुछ सवाल-जबाब। वो रागिनी के चैनल में आएंगे।
सवाल-जबाब में रागिनी ने इफरा का जिक्र किया। इफरा का एक वीडियो हमने साझा किया था। उसमें इफरा अपने पिता के कंधे पर बैठी उसका सर सहला रही थी। बेटी दिवस का मौका था।
संयोग से इफरा का जिक्र आते ही इफरा के पापा का फोन आ गया। उनको मेरे तबादले के बारे में पता चल गया था। इफरा मुझसे मिलना चाहती थी।
इफरा को भी वहीं बुला लिया गया। उसका भी इंटरव्यू हुआ। वो पोस्ट भी हो गया रागिनी टाइम्स में।
फैक्ट्री में मैन्युफैक्चरिंग का काम करने वाले नबील भी आये मिलने। उन्होंने भी बहुत अच्छी-अच्छी बातें कहीं मेरे लिए।
बाद में रागिनी से उनके काम के बारे में और उससे जुड़ी परेशानियों के बारे में बातें हुईं। घर भी आईं और हमारी श्रीमती जी से मुलाकात हुई उनकी। बातचीत के दौरान पता चला कि हमारी श्रीमती जी रागिनी के पिता को बहुत अच्छे से जानती हैं। उनके सेंटर में ही काम करते हैं। दोनों में खूब बातें हुईं।
दोपहर बाद निकलना था। न चाहते हुए भी। जाने के पहले फैक्ट्री के साथी ऋषि बाबू आये मिलने। श्रीमती जी ने तिलक लगाकर विदा किया। पुराने समय ने युध्द पर जाते समय रानियां अपने पतियों को तिलक लगाकर विदा करती थी , कुछ-कुछ उसी तरह।
हमारी बंगले में काम करने वाले सब लोग थे विदा करने के लिए। मंजू ने विदाई की शुभकामनाएं देते हुए प्यारा कार्ड बनाया था। ये वो लोग हैं जिनको बहुत लिखना-पढ़ना नहीं आता। लेकिन शुभकामनाएं लिखत-पढ़त की मोहताज नहीं होती।
रास्ते में हमारे साथी रहे गौड़ साहब से मुलाक़ात हुई। उनकी दुकान में सफीपुर में। शाहजहांपुर आते-जाते गौर साहब से मुलाकात जरूर होती है। लस्सी का खर्च उनके मत्थे पड़ता है। रिटायर होने के बाद कपड़े की दुकान किये हैं। जीवन दर्शन मुफ्त बांटते हैं-'नौकरीं में फालतू की अकड़ में कुछ रखा नहीं है। जितना सहज रह सकें रहना चाहिए।'
गौर साहब ने हमारे सामान का मुआयना करके सन्तोष जाहिर किया कि साइकिल साथ आ रही है।
कल शाम को वापस अपने शहर आ गए। शहर जहां पले-बढ़े, पढ़ाई हुई। जीवन और नौकरी की शुरुआत हुई। जीवन का सबसे अधिक समय यहीं गुजरा।
जिस शहर ने बचपन बीता, बड़े हुए , तमाम दोस्त हैं, अनगिनत यादें हैं उस शहर से फिर से जुड़ना अद्भुत अनुभव है।
नौकरी के चलते तीसरी बार वापस आये हैं शहर। आने वाला समय कैसा गुजरेगा यह आगे पता चलेगा। लेकिन शहर में आते ही कहने का मन होता है: झाड़े रहो कलक्टरगंज।
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