श्रीनगर का पुराना इलाका घूमने के बाद वापस आए। लौटते हुए दस बज गए थे। नाश्ते का निर्धारित समय पूरा हो गया था लेकिन जामा मस्जिद से फोन कर देने के चलते बचा लिया गया था नाश्ता। होटल में पहुंचे तो कहा- ‘आते हैं नहा-धोकर नाश्ता करने। ‘
किचन वाले ने कहा –‘पहले नाश्ता कर लीजिए फिर बाकी काम करिएगा।किचन बंद हो जाएगा।’
नाश्ता करके कमरे में आए। नहा-धोकर तैयार हुए। ड्राइवर आ गए थे तब तक। निकल लिए दूध पथरी के लिए।
दुधपथरी का अर्थ है "दूध की घाटी", और इसके नाम की उत्पत्ति के कई कहानियां हैं। कुछ लोग कहते हैं कि घास के किनारे पर बहने वाली नदी इतनी बहाव से नीचे की ओर गिरती है, कि इसका पानी का बहाव एकदम दूध की तरह है, इसलिए इसे दूध पथरी कहा जाता है।
इसके अलावा एक और कहानी है कि,कश्मीर के एक प्रसिद्ध संत ने एकबार जमीन से पानी निकलाने के लिए प्राथर्ना की, जैसे ही उन्होंने अपनी छड़ी से खोदाई की तो उसमे से दूध की धार बहने लगी।
जहिर है कि यह दूसरी वाली कहानी ज्यादा प्रचलन में है। इसी में ज्यादा चमत्कार है। चमत्कार को हर जगह नमस्कार है।
शहर से करीब 45 किलोमीटेर दूर है दूधपथरी। सड़क काम चौड़ी है। पहाड़ी रास्ता। मजे-मजे चलते हुए आगे बढ़े।
मौसम बढ़िया हो गया। आसमान में बादल- ‘गेट, सेट, गो’ वाले अंदाज में बरसने को तैयार दिख रहे थे। हवा भी उसे अंदाज में माहौल बनने लगी थी। लेकिन धूप और बदली की की कसमकस देर तक चलती रही । कभी बदली ने कब्जा कर लिया माहौल में और कभी धूप ने अपना झण्डा पहरा दिया।
दूधपथरी से थोड़ा पहले कुछ सड़क किनारे कुछ ढाबे टाइप दुकाने दिखीं। जमीन पर दरी, कालीन टाइप बिछी हुई थी बैठने के लिए। तीन-चार दुकाने एक के बाद एक लाइन से। बाद में पता चला कि एक ही परिवार के लोग हैं वे सब। भाई, बहन, भाभी, माता जी , सब लोग पास-पास दुकान लगाए थे।
दुकान में नमकीन चाय और मक्के की रोटी बिक रही थी। नमकीन चाय के बारे में प्रसिद्ध है कि इसके पीने से शरीर में गर्मी बनी रहती है। चाय में शक्कर की जगह नमक मिलाया जाता है। इसी लिए इसको ‘नून चाय’ भी कहते हैं। लेकिन आम चाय की तरह इसको दिन में कई बार नहीं पिया जाता। ज्यादा पीना नुकसान देह हो सकता है।
नमकीन चाय देखाकर याद आई कि हमारी अम्मा कुछ बचपन में चाय में हल्का नामक डाल देती थीं। कोयले की अंगीठी में गरम करके बनाई चाय का दृश्य एकदम सामने आ गया। यादों गति बहुत तेज होती है। फौरन अपने पूरे वजूद के साथ सामने आ जाती हैं। बाद के दिनों में चाय से नमक हट गया हमारे यहाँ। कब और किस तरह –यह याद नहीं।
चाय के लिए बैठ गए। चाय आई। हमारे पीना शुरू करने से पहले दुकान वाली ने अपनी भाषा में ड्राइवर से जो पूछा उसका मतलब यह था –‘ये पी लेंगे?’ मतलब नमकीन चाय पीना हमारे लिए चुनौती हो गई।
बहरहाल हमने चाय ली। पी। साथ में मक्के की एक रोटी भी ड्राइवर ने ले ली थी वहां से। भूख तो लगी नहीं थी क्योंकि नाश्ता ‘चांप’ के चले थे। रहने के साथ नाश्ता मुफ़्त वाली जगहों में लोग नाश्ता इस तरह भरपूर करते हैं कि पेट से भूख का अलार्म शाम के पहले नहीं बजता। भूख न होने के बावजूद, स्वाद महसूस करने के लिए एकाध टुकड़े खाए।
चाय पीते हुए दुकान पर महिला को रोटी पकाते देखा। आटे को गीला करके, हथेली और उंगलियों के सहारे आकार देते हुए , पानी मिलाते हुए बड़ी करते हुए बना रही थी वह रोटी। पूरी बन जाने के बाद रोटी के केंद्र में ऊपर उठे , कूबड़ सरीखे हिस्से को उंगलियों के सहारे निकाल कर अलग कर दिया और उस हिस्से को पानी से मिलाकर बराबर कर दिया। जिस तल्लीनता और तन्मयता से वह रोटी बना रही थी उसे देखकर लगा कोई कलाकार अपनी किसी कृति की रचना कर रहा है। जीवन को बचाए और बनाए रखने के उपक्रम कलाकारों की कृति ही तो होते हैं।
दो चाय, एक रोटी के दाम कुल मिलाकर साठ रुपए हुए। बीस रुपए की चाय , बीस रुपए की रोटी। पैसे देकर हम आगे बढ़े।
थोड़ी देर में ही हम दूधपथरी पहुँच गए। गाड़ी स्टैंड में खड़ी हो गई। आगे के लिए घोड़े का इंतजाम।
घोड़े के दाम वहां लिखे थे 495 रुपए प्रति घंटा। हमने पहले तो ना-नुकुर की घोड़ा लेने में। लेकिन कुछ देर बाद जो सबसे पहले दिखा घोड़े वाला उसको हाँ बोल दी। घोड़े वाले ने सहारा देकर बैठाया हमको। दोनों पैर रकाब में डालकर आगे बढ़े।
हमको घुमाने के ले चलने वाले बच्चे का नाम परवेज था और घोड़े का नाम बादल। परवेज नाम से अपने परिचित सभी परवेज और उनसे जुड़े किस्से अनायास याद आए। यह भी लगा कि यहां अधिकतर घोड़ों के नाम बादल ही होते हैं।
बादल से अनायास रमानाथ अवस्थी जी के गीत का मुखड़ा याद आ गया:
‘बादल भी है , बिजली भी है , पानी भी है सामने,
मेरी प्यास अभी तक वैसी ,जैसी दी थी राम ने।‘
घोड़े पर चढ़े-चढ़े आसपास की खूबसूरती निहारते हुए आगे बढ़े। तमाम लोग पीछे अपने-अपने समूहों में , परिवार, दोस्तों और हमसफ़रों के साथ प्रकृति की खूबसूरती के मजे लेते हुए और उसको अपने कैमरों में कैद कर रहे थे। लोग जल्दी से जल्दी सब कुछ को देखकर और उससे ज्यादा अपने कैमरे में कैद कर लेना चाहते थे। पिंडारियों की तरह प्रकृति के दृश्यों को लूटकर अपने कैमरे में ठूँसते जा रहे थे लोग। कई बार तो हम लोग ऐसा करते हुए सिर्फ फ़ोटो ही खींचते रहते हैं। देखते भी नहीं।
आगे जाते हुए रास्ते में कुछ घर दिखे। लकड़ी के लट्ठे , पटरों को मिट्टी के साथ जोड़कर बनाई गई झोपड़ियों के बाहर लोग बैठे थे। एक जगह एक बच्ची हमको देखकर कुछ कह रही थी, इशारा कर रही थी। उसके घर वाले , महिलायें ही थीं, कुछ –कुछ कह रहीं थीं। शायद हंस रहीं हो कि देखो ये घोड़े पर घूम रहा है जबकि पैदल घूमता तो और अच्छे से देखता सब कुछ।
कुछ आगे दो महिलायें जाते दिखीं। एक के हाथ में कुल्हाड़ी थी। छोटे बेंट की। वे लपकती हुए , आराम से चली जा रहीं थीं। हमारा भी मन हुआ हम भी उतर जाएँ घोड़े से और पैदल चलें। लेकिन फिर चढ़ाई का सोचकर घोड़े पर ही बैठे रहे।
महिलाओं से ऐसे ही कुछ-कुछ करके बतियाए-‘यहीं रहती हो?’
वे कुछ-कुछ बोली। फिर उन्होंने पूछा –‘अकेले ही घूमने आए हो? फेमिली को नहीं लाए?’
हमारे पास कोई जबाब नहीं था। यही कहा- ‘अगली बार साथ आएंगे।‘
हमने उनका फ़ोटो लेना चाहा लेकिन उन्होंने मना कर दिया। शायद अकेले आने की सजा दी हो। हमने तय किया – ‘अब जल्द ही परिवार के साथ आना है फिर।‘
रास्ते में बादल, हवा और प्रकृति की मिली जुली दोस्ती के खूबसूरत नजारे दिखे रहे थे। घोड़ों में जाते लोग, फ़ोटो लेते लोग, हँसते-खिलखिलाते लोग। सबको देखते हुए कुछ ही देर में हम दूध गंगा के पास पहुँच गए।
नदी के पास जाने के पहले एक लड़का कश्मीरी रोटी बेंचता दिखा। उससे बात करने के लिहाज से हम उसके पास बैठ गए। उससे एक रोटी बनाने के लिए कहा।
कश्मीरी रोटी मैदा की होती है। रोटी में सब्जी मसाले की तरह भरकर गोल करके खाई जाती है। सब्जी अखरोट और प्याज और मसाले की बनती है। 20 रुपये की एक रोटी। दिन में कभी-कभी पचास-साथ रोटी बिक जाती है।
बिलाल नाम है कश्मीरी रोटी बेंचने वाले लड़के का। 24 साल उम्र है। दो बच्चे हैं। दो छोटे भाई। बहन थी उसकी शादी हो गई।
बिलाल से बात करते हुए उनकी फ़ोटो ली और वीडियो भी बनाया। उनका नंबर भी लिया। बाद में फ़ोटो और वीडियो भेजे भी। बात करना अभी बाकी है।
कश्मीरी रोटी खाने के बाद अपन आगे बढ़ गए। खूबसूरत दूधगंगा इठलाती हुई बहते हुए हमारा इंतजार कर रही थी।
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