Thursday, July 04, 2024

फ़िलहाल इतना ही



फ़ेसबुक पर अक्सर ही कुछ न कुछ लिखना होता है। जिस दिन न लिखो, लगता है आज का दिन बेकार गया। जो लोग नियमित लिखते हैं उन सभी के साथ ऐसा होता होगा। मुझे ऐसा लगता है। हो सकता है कुछ अलग भी लगता हो।
लिखने का मतलब कोई काम की बात लिखना ही नहीं होता। बस लिखना ही होता है। वैसे भी काम की बातें करने के लिए काम भर की जानकारी भी होनी चाहिए। कभी-कभी यही लिखकर पोस्ट कर देते हैं -'बोर हो रहे हैं। आप भी साथ में बोर होना चाहते हैं तो आएँ।' या फिर -'चाय बनाने जा रहे हैं। जिसको पीना हो बताए।'
ऐसी पोस्ट्स पर आमतौर पर हाथों-हाथ ली जाती हैं। क्लिक दर क्लिक उछलती है। देखते-देखते तमाम लाइक्स मिल जाते हैं। कमेंट भी आ जाते हैं। दिल ख़ुश हो जाता है।
ऐसी हल्की-फ़ुल्की पोस्ट कार्नफलेक्स की तरफ़ होती हैं जिनको सिनेमा हाल में बैठे-बैठे खाते जाओ, खाते जाओ पता नहीं चलता। सोशल मीडिया भी ऐसी हल्की-फ़ुल्की पोस्टों को उछालता रहता है। लोगों की निगाहों में लाता रहता है। देखो-देखो। इसको देखो। ऐसी पोस्ट्स अक्सर 'चू कित क़ित कित' की तरह वायरल होने की सम्भावना से भरी होती हैं।
इस तरह की पोस्ट लिखना और पढ़ना भी जाड़े के मौसम में रज़ाई बैठकर चटपटे नमक के साथ मूँगफली चबाना जैसा होता है। इस स्थिति के बारे में मुस्ताक अहमद युसुफ़ी साहब लिख ही गए हैं -'मूँगफली और आवरगी में ख़राबी यह है कि आदमी एक बार शुरू कर दे तो समझ में नहीं आता,ख़त्म कैसे करे।'
इसके विपरीत लम्बी और तथाकथित गम्भीर पोस्ट को फ़ेसबुक आमतौर पर धीमा कर देता है शायद। शायद न करता हो लेकिन ऐसा लगता है।तीन घंटे की मेहनत के बाद लिखी पोस्ट पर तीन -चार कमेंट और दस-बीस लाइक्स आते हैं। फ़ेसबुक का हाज़मा लम्बी पोस्ट्स से ख़राब सा हो जाता है।
पहले सोचते थे कि कोई बेवक़ूफ़ी की बात लिख दें। इस तरह की बातों को लोग अक्सर काफ़ी पसंद करते हैं। उनको लगता है किसी हमअक़्ल ने कुछ लिखा है। लेकिन आजकल तो बेवक़ूफ़ी की बातें लिखते हुए भी डर लगता है कि कहीं माननीय का नोटिस न आ जाए -'तुम संसद के बाहर कैसे असंसदीय बातें कर रहे हो?'
यह डर हमेशा लगा रहता है कि कहीं बिना सांसदी के ही न संसद से निलम्बन हो जाए।
ज़्यादा फ़ोटो वीडियो लगी फ़ोटो से भी लगता है फ़ेसबुक झल्ला जाता होगा। कहता होगा हमको कोई 'फ़ोटो कुली' समझा है क्या जो तुम्हारा डिजिटल कूड़ा लादे-लादे सबको दिखाते रहें।
पहले हम जब ब्लाग पर लिखते थे। उसमें पोस्ट्स का टैग करने की सुविधा होती थी। फ़ेसबुक में यह सुविधा जटिल है। किसी पोस्ट का लिंक लगाओ, फ़ेसबुक रोक देगा। कमेंट में लिंक लगाओ, लोग देख नहीं पाते।
इधर बीच पढ़ने पर ध्यान ज़्यादा है। आजकल कई किताबें एकसाथ खुली रहती हैं। कभी इसको बांचते हैं कभी उसको खोल लेते हैं। पिछले हफ़्ते से चे ग्वारा की 'मोटरसाइकिल डायरीज' पढ़ रहे हैं। सैर के रोज़मर्रा के किस्से। अक्सर बेचारे की मोटरसाइकिल पंक्चर हो जाती है। कभी टूट-फूट हो जाती है। मुझे अपनी साइकिल यात्रा याद आती है। उसके किस्से लिखते तो शायद इसी तरह रोचक होते।
चे ग्वारा ने उन लोगों का भी ज़िक्र किया है जिन्होंने उनको रास्ते में रोककर खाना खिलाया। हमारी तीन महीने की यात्रा में भी लोगों ने खूब आव-भगत की।खिलाया-पिलाया।
बीच में मैंने सोचा था कि यू-ट्यूब चैनल भी शुरू किया । लेकिन उसके लफड़े इतने कि सोच भी स्थगित कर दी।
रोज़ की मुलाक़ात के किस्से लिखने का मन होता है। जिस दिन का क़िस्सा होता है उसी दिन न लिख पाए तो ऐसा लगता है कि क़िस्सा एक्सपायर हो गया। किस्से के पाँच ग़ायब हो जाते हैं।बाद में लगता है हम अनजान 'क़िस्सा-हत्या' के अपराधी हैं।
इतना लिखने के बाद तमाम किस्से याद आ रहे हैं। हर क़िस्सा हल्ला मचा रहा है -'हमको लाँच कर दो, हमको मौक़ा दे दो, हम एक्सपायर होने वाले हैं।' लेकिन हम किसी एक की सुनेंगे तो बाक़ी सारे किस्से हमको दौड़ा लेंगे। समानता के अधिकार उल्लंघन होगा।
ऊपर युसुफ़ी साहब की आवरगी और मूँगफली की बात लिखी। हमारे साथ यह सिलसिला तो हर पोस्ट में होता है कि समझ में नहीं आता कि इसे ख़त्म कैसे करें। इसी चक्कर में पोस्ट भी लम्बी हो जाती है।
लेकिन आज समझ में आया कि जब कुछ न समझ आए तो लिख दो -' फ़िलहाल इतना ही।'
लिहाज़ा लिख रहे हैं आज के लिए फ़िलहाल वही जो ऊपर लिखा -'फ़िलहाल इतना ही।'

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