इंसान की तरक्की में सबसे अधिक योगदान उसकी किस प्रवृत्ति का रहा इसके बारे में आंकड़ें जुटाये जायें तो यायावरी अव्वल नम्बर पर आयेगी। मनुष्य शुरु से ही आदतन घुमक्कड़ रहा है। इधर से उधर घूमता रहा, प्रगति करता रहा। जीने के साधन बेहतर हुये तो ज्ञान की खोज में टहलता रहा। दुनिया के तमाम बड़े ज्ञानी कहलाये जाने वाले खलीफ़ा वस्तुत: घुमक्कड़ ही रहे- फाह्यान, ह्वेन सांग, इत्सिंग, इब्न बतूता, अलबरुनी, मार्कोपोलो, बर्नियर, टेवर्नियर सब यायावर ही थे। कोलम्बस , वास्कोडिगामा ,कैप्टन कुक भी सब मूलत: घुमक्कड़ ही तो थे। दुनिया में जो आज जो भी देश आगे हैं , उसके पीछे उनके देश के लोगों यायावरी का भी बड़ा योगदान होगा।
किसी देश, प्रदेश , जगह के बारे में कई पोथियां पढकर भी जो ज्ञान हासिल होता है उससे कहीं सटीक समझ वहां घूमने से बनती है। इसीलिये तो घुमक्कड़ी को जीवन की सबसे बड़ी जरूरत बताया गया है:
सैर कर दुनिया की गाफ़िल, जिन्दगानी फ़िर कहां,
जिन्दगानी गर रही तो नौजवानी में फ़िर कहां?
समीक्षा जी भी आदतन घुमक्कड़ हैं। जब, जहां मौका मिला निकल लीं घूमने। बचपन में उत्तराखण्ड से शुरु हुयी यात्राओं का अध्याय जो शुरु हुआ तो पत्रकारिता के दिनों की घुमक्कड़ी अबूधाबी , दुबई और फ़िर वापस अपने देश में जारी है। घुमक्कड़ी के साथ लिखा-पढी भी करती रहने से इनके किस्से दर्ज भी होते रहे। अब इन किस्सों का भी हक बनता है कि ये समीक्षा जी के निजी लेखन की दुनिया से पाठकों की दुनिया तक पहुंचें। समीक्षा जी के सहज , गैरइरादतन घुमक्कड़ी के किस्सों की दास्तान है यह यायावरी दस्तावेज –’कबूतर का कैटवॉक।’
जैसा समीक्षा जी बताया कि ऊंची-ऊंची इमारतें निहारने की बजाय उनको प्रकृति की संगति ज्यादा आकर्षित करती है। यायावरी के समय की छोटी-छोटी घटनायें, सूचनायें समीक्षाजी के जेहन में किसी जहाज के ’ब्लैक बॉक्स’ की तरह रिकार्ड होती जाती हैं जिसे बाद में वे तफ़सील से बयान करती हैं। इनके किस्सों की रेंज में कबूतर, बिल्ली, टिटिहरी, बिल्ली से लेकर अठारह लेन वाली सड़क को पार करके वॉक करते समय मिलने वाली सहेली से होते हुये ’चेंज योर हसबैंड’ के विज्ञापन भी हैं। यह अलग बात है कि अपना घुमक्कड़ जीवनसाथी इनको इतना पसंद है कि इस विज्ञापन को देखते ही खारिज कर देती हैं।
यायावरी के किस्सों को बयान करते हुये समसामयिक समाज की पड़ताल करती चलती हैं समीक्षा जी। शुरुआत शुक्रवारी यात्राओं के किस्सों से होती है। अरब देशों के शुक्रवार बाकी दुनिया के इतवार जैसे होते हैं। शुक्रवार मतलब छुट्टी का दिन। घर-परिवार के साथ छुट्टी के दिन घूमते हुये उनका तसल्ली से वर्णन मौजूद है शुक्रवारी यात्राओं के किस्सों में। इन किस्सों में आसपास की घटनाओं का बयान करते हुये उनको दुनियावी अनुभवों से भी बखूबी जोड़ती हैं समीक्षा जी। इन अनुभवों के बयान में उनकी नजर एक साथ लोकल और ग्लोबल होती है। कुछ उदाहरण देखे जायें:
- जो एक्सपर्ट होते हैं, वे अपने जाल में सब तरह की मछलियों को आसानी से फंसा लेते हैं।
- यहाँ के लोगों की गाड़ियाँ बड़ी होने का फ़ायदा ये होता है कि वे अपने साथ आधी गृहस्थी ले आते हैं। फिर वो बारबिक्यू हो या फ़ोल्डिंग साइकल। जब मन हो वैसा कर लो। कौन सा हाथों को पीड़ा देनी है।
- मरुस्थल में हरियाली पैदा करना दुश्वर काम है। पर देखने के बाद लगता है कि मनुष्य यदि चाहे तो वह कुछ भी कर सकता है, अपनी इच्छाशक्ति के दम पर। बशर्ते इच्छा और शक्ति (पैसा) का सही उपयोग हो। कम से कम यहाँ खाऊपन मतलब भ्रष्टाचार खुली आँखों से तो नहीं दिखता। अंदर की बातें कोई नहीं जानता।
- यूएई की ख़ासियत ये है कि कोई भी चौराहे देख लीजिए, आप एक नहीं, सैकड़ों फ़ोटो निकालने को मजबूर हो जाएँगे। सब अलग अलग थीम पर बने होते हैं। हरियाली की कोई कमी नहीं। वहाँ जाकर हमारा आदमी (भारतीय) मेहनत बहुत करता है। रेगिस्तान को हरा भरा बनाना, हरे-भरे कबाब बनाने जैसा आसान काम नहीं है। ईमानदारी चाहिए ऐसे कामों में। हमारे देश की ईमानदारी वहाँ ख़रीदी जाती है।
-- क्षितिज को देखना सच में रोमांच पैदा करता है। वो क्षितिज जिसका कहीं अंत ही नहीं। मतलब जब हम समुद्र की यात्रा कर रहे होते हैं, तो वो क्षितिज ही है, जो हमें अंतहीन यात्रा पर ले जाता है। जैसे ब्रम्हाण्ड की यात्रा हो। ढेरों रहस्य। और हम केवल तुच्छ प्राणी। जो केवल प्राणवायु के लिए जीते हैं।
’कबूतर का कैटवॉक’ घूमते फ़िरते हुये अपने समय और समाज की सहज पड़ताल की कोशिश है। विदेश में घूमते हुये अपने देश की परिस्थितियों से अनायास तुलना है। समीक्षा जी के घुमक्कड़ी के किस्सों की रेंज बड़ी है। इसमें कैब ड्राइवर और कामवाली की परेशानी हैं तो जैनमुनि की जीवनशैली भी। इसी में गर्मी में योग की लफ़ड़े भी बयान हो गये। ’शिक्षा का मायका’ माने जाने वाले पुणे के बनिस्बत उत्तर भारतीयों की सहज मनोवृत्ति हो या दक्षिण की महिलायें सब समीक्षा जी के राडार की रेंज में हैं। अपने से जुड़े लोगों के भी आत्मीय संस्मरण भी शामिल हैं इसमें।
अपने पहले व्यंग्य संग्रह – ’जीभ अनशन पर है’ के माध्यम से हिन्दी के व्यंग्यकारों में अपनी पहचान बनाने वाली समीक्षा जी के यायावरी किस्सों का संकलन आना सुखद है। घुमक्कड़ी की कहानियां कम ही लिखी गयी हैं हिन्दी में। इस कमी की कुछ भरपाई जरूर होगी ’कबूतर के कैटवॉक’ से। समीक्षा जी को शुभकामनायें। वे ऐसे ही घूमती रहें, लिखती रहें।
अनूप शुक्ल
शाहजहांपुर
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10222596552235977
waah
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