Tuesday, June 29, 2021

समीक्षा तैलंग के निर्देशन में कबूतरों का कैटवॉक

 

जरूरी बात कहनी हो, कोई वादा निभाना हो,
उसे आवाज देनी हो, उसे वापस बुलाना हो ,
हमेशा देर कर देता हूं मैं -मुनीर नियाजी
लिखा-पढ़ी के मामले में अपन पर मुनीर नियाजी साहब का यह शेर बखूबी लागू होता है, खासकर दोस्तों की किताबों के बारे में लिखने के मामले में | कई मित्रों की किताबों के बारे में लिखना बकाया है |
अमूमन हमारी किताबें खरीद कर पढ़ने की आदत है| लेकिन कुछ दोस्तों ने तो किताबें भी भेजी हैं , गोया अपन कोई बड़े लेखक हो गए हों| ऐसी किताबों में से अधिकतर के हाल भी वैसे ही हुए जो नामचीन लेखकों के यहां पहुंची किताबों के होते हैं - 'वे अपने पढ़े जाने के इंतजार में हैं|'
दोस्तों की किताबें पढ़ने में देरी का कारण ऐसा नहीं कि अपन बहुत व्यस्त रहते हैं या बहुत जरूरी काम में उलझे रहते हैं| समय की कमी बिल्कुल नहीं अपन के पास | पूरी 24 घंटे अलाट होते हैं रोज हमको भी| कुछ जरूरी काम निपटाने के बाद बाकी बचा समय गैर जरूरी कामों में उलझाकर निपटा देते हैं| लिखने पढ़ने की बात अक्सर टल जाती है| लगता है कि तसल्ली से लिखा जाएगा| इसके पीछे वली असी साहब के शेरों की साजिश है :
"मैं रोज मील के पत्थर शुमार (गिनती) करता था
मगर सफ़र न कभी एख़्तियार (शुरू)करता था।
तमाम काम अधूरे पड़े रहे मेरे
मैँ जिंदगी पे बहुत एतबार (भरोसा)करता था।"
जिंदगी पर बहुत भरोसा रखने के चलते तमाम काम अधूरे रह जाते हैं अपन के| कुछ किताबों पर तो लिखने के मजनून मय टाइटल दिमाग में जमा हैं| लेकिन वही मामला एतबार में अटक जाता है|
जिन किताबों के बारे में लिखना अभी तक नहीं हो पाया उनके लिए इतनी बहाने बाजी के बाद अब बात उस किताब की जिसके बारे लिखने के लिए इतनी भूमिका बांधी|
पिछले दिनों, जब देश के तमाम हिस्से लाकडाउन की गिरफ्त में थे , दोस्तों की कुछ किताबें भी आईं| इन्हीं में एक समीक्षा तैलंग Samiksha Telangकी किताब भी शामिल रही - 'कबूतर का कैटवॉक' आमतौर पर इस तरह ध्यानखैचू शीर्षक हमारी किताबों के नाम रखने वाले 'व्यंग्य पुरोहित' आलोक पुराणिक रखते हैं| समीक्षा जी की किताब का शीर्षक आकर्षक रहा| कवर पेज भी|
इस किताब के पहले समीक्षा जी का व्यंग्य संग्रह 'जीभ अनशन पर है' दो साल पहले आया, धूमधाम से आया| काफी चर्चा हुई उसकी| सम्मान वगैरह भी मिले| इस बीच उनको व्यंग्यकार के रूप में प्रतिष्ठा भी मिली| जल्दी ही समीक्षा जी का अगला व्यंग्य संग्रह भी आएगा| समीक्षा जी की दोनों किताब भावना प्रकाशन से छपी है| एक प्रतिष्ठित प्रकाशन से दो साल के अंतर में दो किताबें प्रकाशित होना रचनाकार के जलवे की कहानी कहता है |
संयोग से 'जीभ अनशन पर है' के विमोचन के मौके पर मैं भी मौजूद था| उस पर लिखने की बात कहते हुए बार-बार टालता रहा जिसकी बहाने बाजी ऊपर पहले ही की जा चुकी है| उसे दोहराना ठीक नहीं|
समीक्षा तैलंग से परिचय 'व्यंग्य की जुगलबंदी' के दिनों से हुआ| लगातार दो साल हर हफ्ते 'व्यंग्य की जुगलबंदी' के बहाने तमाम लेखकों ने लेख लिखे| कुछ लोगों ने लिखने की शुरुआत की , कुछ स्थापित लेखकों ने इसी बहाने फिर से लिखना शुरू किया| करीब 600-700 लेख तो लिखे गए होंगे| समीक्षा जी ने भी उसमें लेख लिखे| फिर उनकी किताब 'जीभ अनशन पर है' आई| इसके बाद यह 'कबूतर का कैटवॉक ' |
'कबूतर का कैटवॉक' किस्सागोई/संस्मरण घराने के लेख हैं | इसकी भूमिका लेखकों में दामोदर खड़के जी के साथ अपन भी शामिल हैं| लिहाजा कह सकते हैं कि किताब छपने से पहले ही इसके लेख पढ़ चुके थे|
किताब में शामिल लेखों का ताना-बाना आबूधाबी से हिंदुस्तान तक फैला है| आबूधाबी का शुक्रवार हिंदुस्तान के इतवार की तरह होता है -साप्ताहिक अवकाश का दिन | कई शुक्रवारी किस्से शामिल हैं किताब में| कबूतरों के साथ कौवे, तोता , गौरैया और दूसरे पक्षियों के भी जमावड़े हैं| कुछ रोचक व्यक्तिचित्र भी हैं |
127 पेज की 200 रुपये की किताब की छपने की सूचना मिलते ही हमने इसे खरीदने का इरादा बनाया तब तक समीक्षाजी की संदेश आया कि वे खुद इसे हमें भेजेंगी| भूमिका लेखक होने के कारण 200 रुपये बचे| समीक्षा जी ने मुझे किताब भेजते हुए लिखा है - 'आपकी भूमिका ,आपकी पुस्तक'|
अब जब किताब ही हमारी हो गई तो सिवाय तारीफ के क्या कहा जाए| किताब की छपाई शानदार है| प्रूफ की गलतियां भी नहीं दिखीं | फ़ोटो अलबत्ता श्वेत-श्याम होने के चलते कहीं -कहीं उतने आकर्षक नहीं दिखते जीतने रंगीन होने पर होते| लेकिन रंगीन होने पर किताब के दाम बहुत ज्यादा हो जाते |
किसी रचनाकार की किताब जब आती है तो उसको उसकी तारीफ सुनने की उत्सुकता होती है| लेखक चाहे नया हो दशकों पुराना, किताब छपने पर उसके हाल उस स्कूली बच्चे जैसे होते है जो अपनी पाठक रूपी अध्यापक से ए ग्रेड की ही अपेक्षा करता है | कुछ बुजुर्ग लेखक तो किसी कमी की तरफ ध्यान दिलाए जाने पर पाठक की समझ को ही खारिज करने पर आमादा हो जाते हैं -'तुमको पढ़ने की तमीज नहीं है'|
समीक्षा जी से अलबत्ता इस तरह का कोई खतरा नहीं है इसलिए ही किताब के बारे में सिवाय
बधाई
और तारीफ के और कोई सुर सध नहीं रहा|
अपने लेखन की शुरुआत पत्रकारिता से करने वाली समीक्षा जी व्यंग्यकार के रूप में पहचान बना चुकी हैं| जब दशकों से व्यंग्य के स्थापित लेखक आलोक पुराणिक Alok Puranik सरीखे लोग अपने को अभी भी व्यंग्य का विद्यार्थी मानते हैं तो समीक्षा जी जैसे दो साल पहले लेखन के इस अखाड़े में उतरने वाले रचनाकार को तो बहुत कुछ सीखना है, नया करना है , नई उपलब्धियां हासिल करना है|
'कबूतर का कैटवॉक' के प्रकाशन की बधाई देते हुए कामना करता हूं कि समीक्षा जी लेखन के क्षेत्र में नित नए आयाम छुए, नई सफलताएं हासिल करें| इस किताब में कबूतर कैटवाक करते हुए हिंदुस्तान पहुचें| आने वाले समय में इन कबूतरों के पंखों की फड़फड़ाहट पूरी दुनिया में पहुंचे|
नोट : किताब की भूमिका के रूप में लिखा मेरा लेख अगली पोस्ट में | लिंक यह रहा https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10222596552235977

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10222596358991146

No comments:

Post a Comment