http://web.archive.org/web/20110904090426/http://hindini.com/fursatiya/archives/178
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
मेरे पिया गये रंगून
जब मुझसे विदेश में बसे भारत वासियों के बारे में लिखने के लिये कहा गया तो अचानक बहुत पुराना गाना याद आ गया:-
मैं कभी विदेश में रहा नहीं । मैंने विदेश को हमेशा दूसरों के माध्यम से जाना लेकिन यह जानना अंधों के हाथी के बारे में जानने की तरह है। कौतूहल बना ही रहता है। कुछ-कुछ बच्चन के गीत की तरह:-
यह अलग बात है कि परदेश जाना पक्का प्रवास माना जाता है।बाकी टुटपुंजिया प्रवास। पक्के प्रवास के दुख भी पक्के होते हैं। ज्यादा महत्वपूर्ण,ज्यादा चमकदार!
मेरी समझ में जितने लोग अपने यहाँ से परदेश जाते हैं वे बेहतर जिंदगी की तलाश में जाते हैं। यह बात अलग है कि कुछ लोग अपनी जान हथेली पर रखकर ‘कबूतर’ बनकर जाते हैं -चोरी-चोरी,चुपके-चुपके। बाकी लोग शानदार तरीके से एअरपोर्ट पर फोटो खिंचवाते हुये जाते हैं।
कुछ लोग यहाँ से किसी कंपनी के माध्यम से निर्यात किये जाते हैं । वहाँ जाकर कुछ दिन कंपनी के साथ रहते हुये मामला सूँघते हैं। फिर अपने पहले आये हुये लोगों के दिये गुरुमंत्र के सहारे कंपनी को छोड़कर दूसरी कंपनियाँ ज्वाइन कर लेते हैं। ऐसे भगोड़े प्रतिभाशाली प्रवासी अपनी पहचान बहुत दिन तक छिपाते रहते हैं।
जब भी मैं घर से बाहर किसी काम से दूसरे शहर जाता हूँ अचानक घर के प्रति मेरा प्रेम बढ़ जाता है। फोन पर बच्चे की पढ़ाई,पत्नी के हालचाल,मां की तबियत सब इतना ज्यादा पूछता हूँ जितना घर में रहते हुये नहीं पूछता। यही शायद प्रवासियों के साथ होता है। वह अचानक देशभक्त हो जाता है। जिस राजनीति के बारे में कभी उसने देश में रहकर कोई बात नहीं सोची वह अचानक उसका विशेषज्ञ बन जाता है।
अपने वतन से दूरी के ये अपरिहार्य उत्पाद हैं।
मेरे घर से मेरा गाँव कुल तीस किलोमीटर है। जाने में अधिक से अधिक से एक घंटा लगता है। लेकिन मैं पिछले साल भर में नहीं गया कभी। लेकिन मेरे पास गाँव वालों को उपदेश देने के लिये पचास योजनायें हैं। अमल में लायें तो वे सुखी हो जायेंगे लेकिन मेरे पास उनको समझाने का समय नहीं है। अब हर आदमी कैफी आज़मी तो होता नहीं जो बंबई छोड़कर अपने गाँव आये तथा लकवा ग्रस्त शरीर के बावजूद अपने गाँव में बिजली,पानी,सड़क,रेलवे स्टेशन के लिये जूझता रहे।
यही हाल तमाम प्रवासियों का होता है। देश से दूर रहकर देश के बारे में सोचने से अधिक कोई भी क्या कर सकता है!
मुझे जितना समझ में आता है कि विदेश जाने वाले अधिक मध्यमदर्जे की प्रतिभा वाले,पढ़ाकू,अनुशासित तथा सुरक्षित जीवन जीने का सपना देखने वाले नवजवान होते हैं। अधिकतर अपनी खानदान के इतिहास में पहली बार विदेश जाते हैं। विदेश गमन उनके परिवार के लिये उपलब्धि होता है। अक्सर इन लोगों के माता-पिता मध्यम दर्जे आर्थिक स्थिति वाले होते हैं जिनको अपने बच्चों को बाहर भेजने की हैसियत दिखाने के लिये अपनी पासबुक में हेरा-फेरी भी करनी पड़ती है ।कुछ दिन के लिये पैसा उधार लेकर अपने खाते में रखना होता है।
इन हालात से अलग भी कुछ लोगों के हालात होते हैं लेकिन वे अपवाद उसी तरह के होंगे जिस तरह अपवाद स्वरूप यह सच है कि अभी भी तमाम सरकारी अधिकारी बेईमानी के अवसर होने पर भी ईंमानदार बने रहते हैं।घूस को आकर्षक प्रस्ताव को ठुकरा कर अपनी तनख्वाह में गुजारा करने का प्रयास करते हैं।
विदेश में खासकर पश्चिम के देशों में पैसा है,चकाचौंध है,आराम है। कुछ दिन वहाँ की दौड़-धूप में परेशान रहने के बाद वहाँ की आदत बन जाती है। बच्चे बड़े होने पर वापस आने की संभावनायें कम होती जाती हैं। बच्चों के लिये वहीं स्वदेश हो जाता है।
जितना मैं समझता हूँ विदेश में तमाम परेशानियाँ झेलनी पड़तीं हैं। ‘नौकर विहीन’ समाज में पैसा कमाने के बाद भी सारा काम खुद करना। अक्सर पहचान का संकट झेलना। जिन कामों को करना देश में हेठी समझा जाता हो वे भी करना। वहाँ के समाज से जुड़ने में भले ही समय लगता हो लेकिन अपने देश से एक बार जाकर फिर वापस आना बहुत जल्द कठिन होता जाता है।
मध्यमवर्गीय परिवारिक संस्कार वाले बच्चे इतना संकट उठाकर वापस आने की हिम्मत नहीं जुटा पाते कि नये सिरे से जिंदगी शुरू कर सकें। अब हर आदमी डा.नारायण मूर्ति तो होता नहीं।
विदेश में रहने वाले कोई आसमान से नहीं टपकते। हालात,स्वभाव के अनुसार उनके व्यवहार होते हैं। वे भी उतने ही देशभक्त होते हैं जितने यहाँ रहने वाले तथा उनके बीच भी उतने ही ‘बांगड़ू’ लोग पाये जाते हैं जितने सिरफिरे यहाँ होते हैं।आर्थिक रूप से समृद्ध होने के नाते देश में उससे जुड़े लोगों में कुछ आर्थिक अपेक्षायें भी होती होगीं जो कि सहज स्वाभाविक हैं।
कुछ प्रवासी लोग अक्सर यह कहते पाये जाते हैं कि वे देश को बहुत याद करते हैं ,बहुत प्यार करते हैं,बहुत पैसा भेजते हैं। उससे देश के हालात सुधरते हैं।
मेरा यह मानना है कि यह करके वे कोई देश पर अहसान नहीं करते। यह विकल्प हीनता में करना पड़ता है उनको। कल को कोई बेहतर उपाय होंगे पैसे बचाने ,रखने के वे उनको काम में लायेंगे। जिससे बचपन जवानी में जुड़े रहे उसको याद करना उस पर अहसान करना नहीं होता।
और बहुत कुछ है मेरे मन में लेकिन उसका कोई महत्व नहीं है।इस बारे में अनूप भार्गव ने मेरे मन की सारी बातें कह दीं।
प्रवासियों का सबसे बड़ा दुख है अपने देश से दूर रहने की टीस। घर में रहते हुये भले दीवाली न मनायें ,होली न खेंले लेकिन घर से दूर इसका अभाव खलता है। लेकिन यह मजबूरी है। जैसा अनूप भार्गव ने कहा -हमने अपनी नियति खुद चुनी होती है।
हमारे एक मित्र हैं। पिछले पांच छह सालों से लंदन में हैं। पहले करीब दस साल भारत में एच.सी.एल. में नौकरी करते रहे। बेहतर अवसर की तलाश में लंदन में हैं। परिवार भारत में हैं। पैसा मिल रहा है लेकिन उसकी कीमत क्या है? परिवार से दूर रहकर अकेले रोटी ठोकना। कम से कम दस साल अपनी अहम उमर ,जीवन का सबसे हसीन हिस्सा परिवार से दूर रहकर गुजारना बेहतर है या कुछ कम में साथ रहकर खुशी तलाशना यह चुनाव खुद को करना पड़ता है। कोई दूसरा नहीं तय कर सकता इसे। जैसा कि अनूप भार्गव ने कहा भी है :-
कभी-कभी यह सोचकर अजीब सा लगता है कि जितने भी दोस्त मेरे बाहर हैं वे अधिक से अधिक ,अगर साल में एक बार का औसत रख लें,इस जीवन में चालीस-पचास बार भारत आ पायेंगे।
न ही मैं किसी से वापस आने के लिये कहता हूँ न ही यह कि वे वहीं बस जायें लेकिन कभी कभी लगता है:-
मेरी पसंद
चौंको मत मेरे दोस्त
अब जमीन किसी का इंतजार नहीं करती।
पांच साल का रहा होऊँगा मैं,
जब मैंने चलती हुई रेलगाड़ी पर से
ज़मीन को दूर-दूर तक कई रफ्तारों में सरकते हुये देखकर
अपने जवान पिता से सवाल किया था
कि पिताजी पेड़ पीछे क्यों भाग रहे हैं?
हमारे साथ क्यों नहीं चलते?
जवाब में मैंने देखा था कि
मेरे पिताजी की आँखें चमकी थीं।
और वे मुस्करा कर बोले थे,बेटा!
पेड़ अपनी जमीन नहीं छोड़ते।
और तब मेरे बालमन में एक दूसरा सवाल उछला था
कि पेड़ ज़मीन को नहीं छोड़ते
या ज़मीन उन्हें नहीं छोड़ती?
सवाल बस सवाल बना रह गया था,
और मैं जवाब पाये बगैर
खिड़की से बाहर
तार के खंभों को पास आते और सर्र से पीछे
सरक जाते देखने में डूब गया था।
तब शायद यह पता नहीं था
कि पेड़ पीछे भले छूट जायेंगे
सवाल से पीछा नहीं छूट पायेगा।
हर नयी यात्रा में अपने को दुहरायेग।
बूढ़े होते होते मेरे पिता ने
एक बार,
मुझसे और कहा था कि
बेटा ,मैंने अपने जीवन भर
अपनी ज़मीन नहीं छोड़ी
हो सके तो तुम भी न छोड़ना।
और इस बार चमक मेरी आँखों में थी
जिसे मेरे पिता ने देखा था।
रफ्तार की उस पहली साक्षी से लेकर
इन पचास सालों के बीच की यात्राओं में
मैंने हजा़रों किलोमीटर ज़मीन अपने पैरों
के नीचे से सरकते देखी है।
हवा-पानी के रास्तों से चलते दूर,
ज़मीन का दामन थामकर दौड़ते हुए भी
अपनी यात्रा के हर पड़ाव पर नयी ज़मीन से ही पड़ा है पाला
ज़मीन जिसे अपनी कह सकें,
उसने कोई रास्ता नहीं निकाला।
कैसे कहूँ कि
विरसे में मैंने यात्राएँ ही पाया है
और पिता का वचन जब-जब मुझे याद आया है
मैंने अपनी जमीन के मोह में सहा है
वापसी यात्राओं का दर्द।
और देखा
कि अपनी बाँह पर
लिखा हुआ अपना नाम अजनबी की तरह
मुझे घूरने लगा,
अपनी ही नसों का खून
मुझे ही शक्ति से देने से इंकार करने लगा।
तब पाया
कि निर्रथक गयीं वे सारी यात्राएँ।
अनेक बार बिखरे हैं ज़मीन से जुड़े रहने के सपने
और जब भी वहाँ से लौटा हूँ,
हाथों में अपना चूरा बटोर कर लौटा हूँ!
सुनकर चौंको मत मेरे दोस्त!
अब ज़मीन किसी का इंतज़ार नहीं करती।
खुद बखुद खिसक जाने के इंतज़ार में रहती है
ज़मीन की इयत्ता अब इसी में सिमट गयी है
कि कैसे वह
पैरों के नीचे से खिसके
ज़मीन अब टिकाऊ नहीं
बिकाऊ हो गयी है!
टिकाऊ रह गयी है
ज़मीन से जुड़ने की टीस
टिकाऊ रह गयी हैं
केवल यात्राएँ…
यात्राएँ…
और यात्राएँ…!
-कन्हैयालाल नंदन
मेरे पिया गये रंगून
किया है वहाँ से टेलीफून
तुम्हारी याद सताती है।
मैं कभी विदेश में रहा नहीं । मैंने विदेश को हमेशा दूसरों के माध्यम से जाना लेकिन यह जानना अंधों के हाथी के बारे में जानने की तरह है। कौतूहल बना ही रहता है। कुछ-कुछ बच्चन के गीत की तरह:-
इस पार प्रिये तुम हो मधु है,जहाँ गया नहीं वहाँ के बारे में टिप्पणी कैसे करूँ। कैसे प्रवास का दुख बखान करूँ? काफी दिन से मैं सोच रहा हूँ कि प्रवासी क्या केवल वही लोग हैं जो विदेश चले गये। वहाँ बस गये ?मुझे तो लगता है कि प्रवास एक अनवरत प्रक्रिया है। पैदा होने से लेकर मरने तक आदमी एक जगह से दूसरी जगह ,दूसरी से तीसरे जगह भटकता रहता है। माँ के पेट से घर,घर से स्कूल,स्कूल से कालेज,कालेज से नौकरी,एक शहर से दूसरे ,दूसरे से तीसरे और देश विदेश भटकना । सब प्रवास ही तो है।
उस पार न जाने क्या होगा!
यह अलग बात है कि परदेश जाना पक्का प्रवास माना जाता है।बाकी टुटपुंजिया प्रवास। पक्के प्रवास के दुख भी पक्के होते हैं। ज्यादा महत्वपूर्ण,ज्यादा चमकदार!
मेरी समझ में जितने लोग अपने यहाँ से परदेश जाते हैं वे बेहतर जिंदगी की तलाश में जाते हैं। यह बात अलग है कि कुछ लोग अपनी जान हथेली पर रखकर ‘कबूतर’ बनकर जाते हैं -चोरी-चोरी,चुपके-चुपके। बाकी लोग शानदार तरीके से एअरपोर्ट पर फोटो खिंचवाते हुये जाते हैं।
कुछ लोग यहाँ से किसी कंपनी के माध्यम से निर्यात किये जाते हैं । वहाँ जाकर कुछ दिन कंपनी के साथ रहते हुये मामला सूँघते हैं। फिर अपने पहले आये हुये लोगों के दिये गुरुमंत्र के सहारे कंपनी को छोड़कर दूसरी कंपनियाँ ज्वाइन कर लेते हैं। ऐसे भगोड़े प्रतिभाशाली प्रवासी अपनी पहचान बहुत दिन तक छिपाते रहते हैं।
जब भी मैं घर से बाहर किसी काम से दूसरे शहर जाता हूँ अचानक घर के प्रति मेरा प्रेम बढ़ जाता है। फोन पर बच्चे की पढ़ाई,पत्नी के हालचाल,मां की तबियत सब इतना ज्यादा पूछता हूँ जितना घर में रहते हुये नहीं पूछता। यही शायद प्रवासियों के साथ होता है। वह अचानक देशभक्त हो जाता है। जिस राजनीति के बारे में कभी उसने देश में रहकर कोई बात नहीं सोची वह अचानक उसका विशेषज्ञ बन जाता है।
अपने वतन से दूरी के ये अपरिहार्य उत्पाद हैं।
मेरे घर से मेरा गाँव कुल तीस किलोमीटर है। जाने में अधिक से अधिक से एक घंटा लगता है। लेकिन मैं पिछले साल भर में नहीं गया कभी। लेकिन मेरे पास गाँव वालों को उपदेश देने के लिये पचास योजनायें हैं। अमल में लायें तो वे सुखी हो जायेंगे लेकिन मेरे पास उनको समझाने का समय नहीं है। अब हर आदमी कैफी आज़मी तो होता नहीं जो बंबई छोड़कर अपने गाँव आये तथा लकवा ग्रस्त शरीर के बावजूद अपने गाँव में बिजली,पानी,सड़क,रेलवे स्टेशन के लिये जूझता रहे।
यही हाल तमाम प्रवासियों का होता है। देश से दूर रहकर देश के बारे में सोचने से अधिक कोई भी क्या कर सकता है!
मुझे जितना समझ में आता है कि विदेश जाने वाले अधिक मध्यमदर्जे की प्रतिभा वाले,पढ़ाकू,अनुशासित तथा सुरक्षित जीवन जीने का सपना देखने वाले नवजवान होते हैं। अधिकतर अपनी खानदान के इतिहास में पहली बार विदेश जाते हैं। विदेश गमन उनके परिवार के लिये उपलब्धि होता है। अक्सर इन लोगों के माता-पिता मध्यम दर्जे आर्थिक स्थिति वाले होते हैं जिनको अपने बच्चों को बाहर भेजने की हैसियत दिखाने के लिये अपनी पासबुक में हेरा-फेरी भी करनी पड़ती है ।कुछ दिन के लिये पैसा उधार लेकर अपने खाते में रखना होता है।
इन हालात से अलग भी कुछ लोगों के हालात होते हैं लेकिन वे अपवाद उसी तरह के होंगे जिस तरह अपवाद स्वरूप यह सच है कि अभी भी तमाम सरकारी अधिकारी बेईमानी के अवसर होने पर भी ईंमानदार बने रहते हैं।घूस को आकर्षक प्रस्ताव को ठुकरा कर अपनी तनख्वाह में गुजारा करने का प्रयास करते हैं।
विदेश में खासकर पश्चिम के देशों में पैसा है,चकाचौंध है,आराम है। कुछ दिन वहाँ की दौड़-धूप में परेशान रहने के बाद वहाँ की आदत बन जाती है। बच्चे बड़े होने पर वापस आने की संभावनायें कम होती जाती हैं। बच्चों के लिये वहीं स्वदेश हो जाता है।
जितना मैं समझता हूँ विदेश में तमाम परेशानियाँ झेलनी पड़तीं हैं। ‘नौकर विहीन’ समाज में पैसा कमाने के बाद भी सारा काम खुद करना। अक्सर पहचान का संकट झेलना। जिन कामों को करना देश में हेठी समझा जाता हो वे भी करना। वहाँ के समाज से जुड़ने में भले ही समय लगता हो लेकिन अपने देश से एक बार जाकर फिर वापस आना बहुत जल्द कठिन होता जाता है।
मध्यमवर्गीय परिवारिक संस्कार वाले बच्चे इतना संकट उठाकर वापस आने की हिम्मत नहीं जुटा पाते कि नये सिरे से जिंदगी शुरू कर सकें। अब हर आदमी डा.नारायण मूर्ति तो होता नहीं।
विदेश में रहने वाले कोई आसमान से नहीं टपकते। हालात,स्वभाव के अनुसार उनके व्यवहार होते हैं। वे भी उतने ही देशभक्त होते हैं जितने यहाँ रहने वाले तथा उनके बीच भी उतने ही ‘बांगड़ू’ लोग पाये जाते हैं जितने सिरफिरे यहाँ होते हैं।आर्थिक रूप से समृद्ध होने के नाते देश में उससे जुड़े लोगों में कुछ आर्थिक अपेक्षायें भी होती होगीं जो कि सहज स्वाभाविक हैं।
कुछ प्रवासी लोग अक्सर यह कहते पाये जाते हैं कि वे देश को बहुत याद करते हैं ,बहुत प्यार करते हैं,बहुत पैसा भेजते हैं। उससे देश के हालात सुधरते हैं।
मेरा यह मानना है कि यह करके वे कोई देश पर अहसान नहीं करते। यह विकल्प हीनता में करना पड़ता है उनको। कल को कोई बेहतर उपाय होंगे पैसे बचाने ,रखने के वे उनको काम में लायेंगे। जिससे बचपन जवानी में जुड़े रहे उसको याद करना उस पर अहसान करना नहीं होता।
और बहुत कुछ है मेरे मन में लेकिन उसका कोई महत्व नहीं है।इस बारे में अनूप भार्गव ने मेरे मन की सारी बातें कह दीं।
प्रवासियों का सबसे बड़ा दुख है अपने देश से दूर रहने की टीस। घर में रहते हुये भले दीवाली न मनायें ,होली न खेंले लेकिन घर से दूर इसका अभाव खलता है। लेकिन यह मजबूरी है। जैसा अनूप भार्गव ने कहा -हमने अपनी नियति खुद चुनी होती है।
हमारे एक मित्र हैं। पिछले पांच छह सालों से लंदन में हैं। पहले करीब दस साल भारत में एच.सी.एल. में नौकरी करते रहे। बेहतर अवसर की तलाश में लंदन में हैं। परिवार भारत में हैं। पैसा मिल रहा है लेकिन उसकी कीमत क्या है? परिवार से दूर रहकर अकेले रोटी ठोकना। कम से कम दस साल अपनी अहम उमर ,जीवन का सबसे हसीन हिस्सा परिवार से दूर रहकर गुजारना बेहतर है या कुछ कम में साथ रहकर खुशी तलाशना यह चुनाव खुद को करना पड़ता है। कोई दूसरा नहीं तय कर सकता इसे। जैसा कि अनूप भार्गव ने कहा भी है :-
ज़िन्दगी में अधिकांश चीज़ें A La Carte नहीं ‘पैकेज़ डील’ की तरह मिलती हैं । विदेश में रहने का निर्णय भी कुछ इसी तरह की बात है । इस ‘पैकेज़ डील’ में कई बातें साथ साथ आती हैं , कुछ अच्छी – कुछ बुरी । अब क्यों कि उन बातों का मूल्य हम सब अलग-अलग, अपनें आप लगाते हैं इसलिये हम सब का ‘सच’ भी अलग होता है । जो मेरे लिये बेह्तर विकल्प है , वो ज़रूरी नहीं कि आप के लिये भी बेहतर हो ।
कभी-कभी यह सोचकर अजीब सा लगता है कि जितने भी दोस्त मेरे बाहर हैं वे अधिक से अधिक ,अगर साल में एक बार का औसत रख लें,इस जीवन में चालीस-पचास बार भारत आ पायेंगे।
न ही मैं किसी से वापस आने के लिये कहता हूँ न ही यह कि वे वहीं बस जायें लेकिन कभी कभी लगता है:-
ये दुनिया बड़ी तेज चलती है,प्रवासी विषय पर मैंने यह विचार मानसी का आदेश मानते हुये लिखे। यह मेरे वे विचार जैसा कि मैं सोचता हूँ।सहमत होने न होने का आपको पूरा अधिकार है।
बस जीने की खातिर मरती है।
पता नहीं कहाँ पहुँचेगी,
वहाँ पहुँचकर क्या कर लेगी।
मेरी पसंद
चौंको मत मेरे दोस्त
अब जमीन किसी का इंतजार नहीं करती।
पांच साल का रहा होऊँगा मैं,
जब मैंने चलती हुई रेलगाड़ी पर से
ज़मीन को दूर-दूर तक कई रफ्तारों में सरकते हुये देखकर
अपने जवान पिता से सवाल किया था
कि पिताजी पेड़ पीछे क्यों भाग रहे हैं?
हमारे साथ क्यों नहीं चलते?
जवाब में मैंने देखा था कि
मेरे पिताजी की आँखें चमकी थीं।
और वे मुस्करा कर बोले थे,बेटा!
पेड़ अपनी जमीन नहीं छोड़ते।
और तब मेरे बालमन में एक दूसरा सवाल उछला था
कि पेड़ ज़मीन को नहीं छोड़ते
या ज़मीन उन्हें नहीं छोड़ती?
सवाल बस सवाल बना रह गया था,
और मैं जवाब पाये बगैर
खिड़की से बाहर
तार के खंभों को पास आते और सर्र से पीछे
सरक जाते देखने में डूब गया था।
तब शायद यह पता नहीं था
कि पेड़ पीछे भले छूट जायेंगे
सवाल से पीछा नहीं छूट पायेगा।
हर नयी यात्रा में अपने को दुहरायेग।
बूढ़े होते होते मेरे पिता ने
एक बार,
मुझसे और कहा था कि
बेटा ,मैंने अपने जीवन भर
अपनी ज़मीन नहीं छोड़ी
हो सके तो तुम भी न छोड़ना।
और इस बार चमक मेरी आँखों में थी
जिसे मेरे पिता ने देखा था।
रफ्तार की उस पहली साक्षी से लेकर
इन पचास सालों के बीच की यात्राओं में
मैंने हजा़रों किलोमीटर ज़मीन अपने पैरों
के नीचे से सरकते देखी है।
हवा-पानी के रास्तों से चलते दूर,
ज़मीन का दामन थामकर दौड़ते हुए भी
अपनी यात्रा के हर पड़ाव पर नयी ज़मीन से ही पड़ा है पाला
ज़मीन जिसे अपनी कह सकें,
उसने कोई रास्ता नहीं निकाला।
कैसे कहूँ कि
विरसे में मैंने यात्राएँ ही पाया है
और पिता का वचन जब-जब मुझे याद आया है
मैंने अपनी जमीन के मोह में सहा है
वापसी यात्राओं का दर्द।
और देखा
कि अपनी बाँह पर
लिखा हुआ अपना नाम अजनबी की तरह
मुझे घूरने लगा,
अपनी ही नसों का खून
मुझे ही शक्ति से देने से इंकार करने लगा।
तब पाया
कि निर्रथक गयीं वे सारी यात्राएँ।
अनेक बार बिखरे हैं ज़मीन से जुड़े रहने के सपने
और जब भी वहाँ से लौटा हूँ,
हाथों में अपना चूरा बटोर कर लौटा हूँ!
सुनकर चौंको मत मेरे दोस्त!
अब ज़मीन किसी का इंतज़ार नहीं करती।
खुद बखुद खिसक जाने के इंतज़ार में रहती है
ज़मीन की इयत्ता अब इसी में सिमट गयी है
कि कैसे वह
पैरों के नीचे से खिसके
ज़मीन अब टिकाऊ नहीं
बिकाऊ हो गयी है!
टिकाऊ रह गयी है
ज़मीन से जुड़ने की टीस
टिकाऊ रह गयी हैं
केवल यात्राएँ…
यात्राएँ…
और यात्राएँ…!
-कन्हैयालाल नंदन
Posted in बस यूं ही | 21 Responses
अपनी मर्जी से कहाँ, इस सफर के हम हैं
रूख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं।
सैर कर दुनिया की गालिब, जिन्दगानी फिर कहाँ
जिन्दगानी गर रही तो, नौजवानी फिर कहाँ।
बहुत सही लिखा है! आगे भी ऐसे ही लिखते रहिये!
http://udantashtari.blogspot.com/2006/08/blog-post_22.html
जैसा अनूप भार्गव ने कहा -हमने अपनी नियति खुद चुनी होती है।
मैने विदेश यात्राये की है, खूब की है ! सबसे लम्बा प्रवास लगभग १ १/२ साल का रहा है। मैने भी यह महसूस किया है कि विदेश मे मिलने वाली सुविधाओ का मोह वहां से वापिस आने से रोकता है।
घर से दूर रहने की टीस, संसकृति से दूर रहने का दर्द यह सब कहने सुनने के लिये ही ठीक लगता है, डालर की चकाचौंध और सुविधायें इन सभी पर भारी पढ जाती है। क्यो अधिकतर प्रवासी वहां पहुचने के साथ हरे पत्ते के जुगाड मे लग जाते है ?
रहा पैसो का भारत भेजना, यह भारत पर कोई ऐहसान तो बिल्कुल नही है, ये सिर्फ अपने लाभ के लिये ही होता है। और ये अपने लाभ के लिये ना भी हो तो भारत सरकार द्वारा उनकी शिक्षा पर किये गये गये खर्च की भरपाई से ज्यादा कुछ नही है।
मै काफी दिनो से अमरीका(विदेश) और भारत पर लिखने से बच रहा था, अब लगता है लिखना पढेगा….
या ज़मीन उन्हें नहीं छोड़ती?
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ है। इन सवालों का जवाब में भी कई वर्षों से खोज रहा हुँ, अब तक नहीं मिला।
आप बार-बार प्रवासी जीवन की बात छेड़ न सिर्फ़ दर्जन भर टिप्पणियाँ बटोर जाते हैं, बल्कि कुछेक नए लेख भी लिखवा देते हैं. याद करें, कलकत्ता प्रवास पर गए बिहारियों को लेकर भोजपुरी लोकसाहित्य किस क़दर समृद्ध हुआ है, ख़ासकर प्यार और करुणा से भरपूर हज़ारों विरह गीत लिखे गए हैं.
आम प्रवासियों की स्थिति(आर्थिक नहीं, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से) आम स्थानिकों के मुक़ाबले बेहतर कभी नहीं कही जा सकती. ये बात क्षेत्रीय प्रवास(दरभंगा से मुंबई, या दागेस्तान से मॉस्को) और अंतरराष्ट्रीय प्रवास(लुधियाना से मैनचेस्टर, या बोस्टन से पेरिस) दोनों पर लागू होती है.
गर्व की अनुभूति होती है जब भारतीय प्रवासियों को लेकर अच्छी ख़बरें आती हैं. इसी हफ़्ते इंदिरा नूयी के पेप्सीको का प्रमुख बनाए जाने की ख़बर आई, तो आज ही भारतीय मूल के आनंद सत्यानंद के न्यूज़ीलैंड का गवर्नर जनरल बनने की ख़बर आई है.
विदेशों में भारत का नाम रोशन करने वालों को सलाम!
उसका शीर्षक है “अमेरिका सुविधायें देकर हड्डियों मे बस जाता है” वेब दुनिया पर देखी थी बरसो पहले। अब ढूढ़े नही मिलती। शायद डा. सुमन राजे ने लिखी है।
अब जब से दिमाग ने कुछ सोचना-समझना प्रारम्भ किया है मेरी सोच बदली है। आगे पढें…
मेरा ये सोचना है कि, अगर मैं जिस ज़मीं पर पैदा हुआ, पला-बढा पर उसे भूल जाऊं तो यह अहसान-फ़रमोशी होगी। मनुष्य भी किसी जगह के प्राकृतिक उत्पाद है, फल, अनाज, पानी, खनिज की तरह। मेरा अनुभव है कि उस जगह की प्रगति में योगदान आवश्यक ही नहीं वरन एक ऐसा कार्य है जो ऐकाकी/स्वार्थी जीवन की नीरसता को तोडता है और तनाव घटाता है।
भारत पैसा भेजने के बारे में: हाँ, गत एक वर्ष से मैं जो भी पैसा-धेला कमाता हूं उसका २-३% नि:स्वार्थ समाज के लिये होता है, मुख्यत: भारत के उस स्थान के लिये जहाँ मैं पला-बढा। सर्वमान्य ग्रन्धों मे और सन्त-जनों/बुद्धिजीवियों की बातों में ऐसा करना जरूरी बताया गया है।
साथ ही मेरे समय का २-३% (जो हुआ १ घण्टा हर सप्ताह) भी सामजिक कार्यों को जाता है। अमरीका में साल में २००० घण्टों का कार्य समय माना जाता है।
दूरी सिर्फ़ दिलों में होती है। ” वसुधैव कुटुम्बकम ” भूल गये? वेदों में मैंने पढा है कि शिक्षित लोगों को यात्राओं से परहेज नहीं करना चाहिये। मैं मानता हूं कि यात्रा और नई जगहों पर रहने के कारण मैंने बहुत कुछ सीखा है और अपने आप को कर्म-योगी बना पाने की दिशा में कुछ कर पाया हूँ जो मैं एक जगह पर रहकर कभी नहीं कर पाता।
तुमने कहा था
घाटियों के पार
सूरज की किरन का देश है
और मैं
रब से यह सोच रहा हूँ
कि मैं
घाटियों के
इस पार हूँ या उस पार
डा० अंजना संधीर की लिखी हुई रचना है अगर आप चाहें तो यह आपको उपलब्ध कराई जा सकती है
राकेश भाई, नेकी और पूछ पूछ, यार चिपका दो, यहाँ या फिर अपने ब्लॉग पर। अतुल के साथ साथ बाकी लोग भी पढकर खुश हो लेंगे।
कुछ और विचार हैं इस विषय में, कभी फ़ुरसत से लिखेंगे।
प्रवासी पीड़ा/दुविधा पर मेरी दो प्रिय कविताएं हैं । एक तो अंजना संधीर जी कि ” अमेरिका हड्डियों में जम जाता है” जिस के विषय में अतुल और राकेश जी नें लिखा । दूसरी कविता डा. विनोद तिवारी जी की है जो आप काव्यालय पर पढ सकते हैं :
http://manaskriti.com/kaavyaalaya/pravaasee_geet.stm
मेरे पास ये दोनों कविताएं कवियों की स्वयं की आवाज़ में हैं (MP3 format) , अगर ज्ञानी जन मुझे बता सकें कि उसे किस तरह सब के साथ बाँटा जा सकता है तो मैं खुशी के साथ वह करनें को तैय्यार हूँ ।