http://web.archive.org/web/20140419215442/http://hindini.com/fursatiya/archives/182
ऐसा ही कुछ हमारे साथ भी हुआ जब हमने नये पैदा हुये खबरिया ब्लाग के स्वागत के लिये बंदनवार में एक ‘वेलकमिया पत्ता’ टांग दिया। स्वागत करके हम भूल गये। लेकिन कुछ दिन बाद जब दुबारा देखा ब्लाग तो अतुल की लंबी फटकारती टिप्पणी भी दिखी जो यह बता रही थी कि पत्नी को कुछ दिन के लिये भारत भेजने के बाद उनकी मनमाफिक बोलने की आजादी बहाल हो गयी है।
अतुल ने लिखा तो बहुत कुछ है लेकिन जिसने मुझे चौंकाया वह यह है:-
अब चूंकि इसके बारे में नारद जी को भी कुछ नहीं पता कि ये खबरिया कहाँ की पैदाइश है,किस लोक में विचरता है कौन जिले का है,नर है या मादा,कम है या ज्यादा ,वजीर है या प्यादा लिहाजा मैं फिलहाल यही मानने के लिये बाध्य हूँ कि यह खबरिया भाई कोई चिरकुट प्रजाति के जीव हैं जिनको हिंदी में टाइपिंग आती है। टीवी -सीवी भी देख देते हैं। पत्रकारों के नाम पता हैं। तथा लेने-देने में यकीन (अभी तो हम सिर्फ़ मीडिया वालो की लेंगे) रखते हैं। वैसे जानने वाले जानते हैं कि ये वाक्य संरचना छोटी लाइन वालों की है । कहीं यह वही तो नहीं!
अतुल की टिप्पणी में ही शेखचिल्लीजी का भी जिक्र है। शेखचिल्ली के बारे में जीतेंदर चौधरी ,कुवैती ने सवाल पूछा था निरंतर के पूछिये फुरसतिया से स्तंभ के अंतर्गत। हमने जवाब देने की सोची लेकिन सुधी और कठोर संपादकों ने इसे व्यक्तिगत बता कर गांगुली की तरह प्रश्नसूची से बाहर कर दिया। बहरहाल जीतू का सवाल था:-
हमने बहुत प्रयास किया कि हम बता सकें कि शेखचिल्ली की दिव्य हंसी दारुण विलाप का कारण तलाश सकें लेकिन असफल रहा। अब हारकर कुछ अटकलें लगाने के लिये बाध्य हूँ।
वैसे रोने से जी हल्का होता है,आँखें खूबसूरत होती हैं यह सब मानने के बावजूद रोना किसी का भी अच्छा नहीं माना जाता लिहाजा हम मान लेते हैं ये सिर्फ हंस रहे हैं।
शेखचिल्ली के वंशज होने के नाते ऊल-जलूल हरकतों में बुद्धिमानी का छौंक लगाकर पेश करने की कोशिश पर इनका कापी राइट है। या फिर हो सकता है कि अपनी हर बचकानी अदा को बुद्धिमानी के चश्मे से देखने की खानदानी बीमारी हो।
सफेद मूँछे और मुंदी हुई आंखों से लगता है कि इनकी आत्मा पर किसी राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष का कब्जा है जो मरते दम तक अपना शिकंजा कसे रहना चाहता है। पकी मूँछें, टूटे दांत,(दुनिया से )मुंदी आखें ,छिपे हुये पंजे बता रहे हैं कि ये खाये -खेले हुये हैं। साथ के छौने को उस गुर में पारंगत कर रहे हैं जिसमें ये अपने को माहिर मानने का भ्रम पाले हैं।
ये हंस क्यों रहे हैं यह बताना मुश्किल है क्योंकि हंसी की महिमा अपरंपार है। यह ज्ञानी और मूर्ख पर समान रूप से कृपालु होती है। यह बालक और वृद्ध को समान भाव से मारती है। व्यक्ति खुश होकर भी हंस सकता है तथा फंस कर भी। हंसे तो फंसे के साथ-साथ फंसे तो हंसे भी चलन में आना चाहिये। वैसे लोग बिना मतलब भी हंस सकते हैं । हंसी के पीछे कोई कारण तलाशना कुछ ऐसा ही है जैसे मेरी इस बस यूँ ही नुमा पोस्ट का कोई गंभीर मतलब निकालना ।
बहरहाल इतना पढ़ लेने के बाद जो थकान हो गयी उसके श्रम को भुलाने के लिये एक सत्यकथा कहता हूँ उसे ध्यान से पढ़ने का प्रयास करें:-
सकता है-कौन है बे?
संभव है शेखचिल्ली जी तथा खबरिया लोग देवरहा बाबा की तरह सिद्ध पुरुष हों जिनके लात खाने के लिये बात-बात में देश के प्रधानमंत्री तक लाइन लगा देते हों। लेकिन हम तो आम इंसान हैं। अज्ञानी हैं। हमें कुछ नहीं पता कि ये विभूतियाँ कौन हैं। लिहाजा हम अपने अज्ञानांधकार का फायदा उठाते हुये दोनों विभूतियों से पूछना चाहते हैं- हे महाराज, बतायें आप कौन हैं? अपनी नकाब उठायें हम आपके बारे में जानने के लिये व्याकुल हैं। आप कुछ बतायें वर्ना हो सकता है कि अगली किसी मुलाकात में हम पूछें -कौन है बे?
फिलहाल बस इतना ही। शेष फिर कभी…।
परदे के पीछे-कौन है बे?
By फ़ुरसतिया on August 28, 2006
शेखचिल्ली
आमतौर पर हम किसी नये ब्लाग पर टिप्पणी ‘नेकी कर ब्लाग में डाल’ वाले
मूड में करते हैं। वैसे भी हिंदी ब्लाग जगत में जैसे ही कोई भी नया चिट्ठा
दिखा उस पर स्वागत है,बधाई है,आशा है नियमित लिखने रहेंगे आदि गोलियाँ एक
ई-मेल की दूरी रखकर बरसा दी जाती हैं। यह सारा कुछ आदतन ,गैरइरादतन होता है
। कुछ -कुछ ऐसे ही जैसे कि सड़क पर मुड़ चुकने के बाद हम कभी-कभी मुड़ने
के लिये हाथ भी दे देते हैं।ऐसा ही कुछ हमारे साथ भी हुआ जब हमने नये पैदा हुये खबरिया ब्लाग के स्वागत के लिये बंदनवार में एक ‘वेलकमिया पत्ता’ टांग दिया। स्वागत करके हम भूल गये। लेकिन कुछ दिन बाद जब दुबारा देखा ब्लाग तो अतुल की लंबी फटकारती टिप्पणी भी दिखी जो यह बता रही थी कि पत्नी को कुछ दिन के लिये भारत भेजने के बाद उनकी मनमाफिक बोलने की आजादी बहाल हो गयी है।
अतुल ने लिखा तो बहुत कुछ है लेकिन जिसने मुझे चौंकाया वह यह है:-
कोफ्त तब होती है जब गुमनाम नामों से कुछ मघईये, तथाकथित पोलखोलक पत्रकार की आत्मा बनने का दावा करते ब्लागजगत पर अवतरित होते हैं और परोसना शुरू कर देते हैं मीडिया या राजनीति के चँडूखाने मे पक रही सड़ी खिचड़ी। जैसे किसी के चेहरे से उसका चरित्र पता नही चलता वैसे ही चँद पोस्टो से किसी ब्लाग का चरित्रान्वेषण करना उचित नही होगा। पर फिर भी खिन्नता होती हैं बल्कि उससे भी बढ़कर निराशा होती है जब देखता हूँ कि ब्लागिंग जैसे सँपादक के डँडे से मुक्त , गुमनाम रहने की स्वतँत्रता देने वाला और सर्वव्यापी माध्यम का दुरुपयोग होते देखते हूँ। उससे भी ज्यादा निराशा होती है जब अन्य चिठ्ठाकारो को इस सबकि तारीफ करते देकता हूँ? क्या यूनिकोड में कोई “अभी तो हम सिर्फ़ मीडिया वालो की लेंगे?” इतना लिखना सीख लें तो उसे आठ दस कमेंट मिलने चाहिये जब्कि दुर्लभ खबर लाने वाले देश दुनिया और बेबाक खुलासे करने वाले नीरज दीवान को महज चार या पाँच कमेंट।इसके पहले देबाशीष ने भी कहा:-
मेरा मानना है कि जो पत्रकार बँधु ब्लागिंग से जुड़े है उन्हे एकसाथ दोहरी सुविधायें उपलब्ध हैं, वे अपने अपने समाचार चैनलों, अखबारो के जरिये देश और समाज की नब्ज पर सीधे हाथ रखे होते हैं। साथ ही ब्लागिंग के जरिये वे वह सब कुछ परोस सकते हैं जिन्हें कारपोरेट प्रतिबद्धतायें नहीं उजागर होने देती। वे इन्टरेट के सूचना भँडार और अपने चैनलों कि असीमित पहुँच का लाभ उठाकर मुद्दो को , समाचारों को तथ्यपरक ढँग से परोस सकते हैं , या फिर अगर वे खुद को बुद्धिजीवी मानते हैं तो स्वतँत्र कालम भी लिख सकते हैं। पर इन सबकी जगह जब अपने सहयोगियो और वरिष्ठ पत्रकारों की सरेआम छीछालेदर, ब्लागिंग में करते देखता हूँ जैसी कि अभी खबरिया चैनल पर देखी या फिर खास खबर परोसने वाले शेखचिल्ली साहब तो यही लगता है कि क्या इसकी जरूरत है हिंदी ब्लागिंग को। जो आप लोग सीधे अपने सहकर्मियों के मुँह पर नही कह सकते वह ब्लागिंग में करके कौन सा तीर मार रहे हैं?
कुछ समय पहले जादूटोने ब्लाग का सशक्त विरोध करने वाले साथी बँधुओ से पूछता हूँ कि आपको मेरी राय से सरोकार हैं या फिर जब बीच चौराहे मीडिया घरानो की लुँगी खींचने वाले इन गुमनाम पत्रकारों पर अदालती कार्यवाही के नोटिस आयेगें तो क्या फिर से आप समर्थन करेंगे।
बढ़िया है! बस अपना ख्याल रखियेगा, कहीं जिस थाली में खा रहे हैं उसी में छेद करते हुये पकड़े न जायेंतबसे मैं इस बारे में सोच रहा हूँ। मुझे यह बात सही लगी कि जो लोग अपनी पहचान नहीं बता सकते वो दूसरों की पोल क्या खोलेंगे? जो खुद पर्दे में है उसे दूसरे को बेपर्दा करने का हक कैसे मिल सकता है?
अब चूंकि इसके बारे में नारद जी को भी कुछ नहीं पता कि ये खबरिया कहाँ की पैदाइश है,किस लोक में विचरता है कौन जिले का है,नर है या मादा,कम है या ज्यादा ,वजीर है या प्यादा लिहाजा मैं फिलहाल यही मानने के लिये बाध्य हूँ कि यह खबरिया भाई कोई चिरकुट प्रजाति के जीव हैं जिनको हिंदी में टाइपिंग आती है। टीवी -सीवी भी देख देते हैं। पत्रकारों के नाम पता हैं। तथा लेने-देने में यकीन (अभी तो हम सिर्फ़ मीडिया वालो की लेंगे) रखते हैं। वैसे जानने वाले जानते हैं कि ये वाक्य संरचना छोटी लाइन वालों की है । कहीं यह वही तो नहीं!
हम यही समझेंगे कि ये शादी-व्याह के अवसर पर गुब्बारे में हवा भरकर उसके अंदर घुस कर नाचनेवाला कोई जमूरा है।
फिलहाल तो हमें इंतजार है खबरिया की अगली पोल-खोल का लेकिन उसके पहले
चाहना है कि ये अपना नकाब खोल दें नहीं तो हम यही समझेंगे कि ये शादी-व्याह
के अवसर पर गुब्बारे में हवा भरकर उसके अंदर घुस कर नाचनेवाला कोई जमूरा
है। अंदर भरी हवा से कद बढ़ जाता है बच्चे खुश हो जाते हैं लेकिन हवा निकल
भी बहुत जल्दी जाती है।अतुल की टिप्पणी में ही शेखचिल्लीजी का भी जिक्र है। शेखचिल्ली के बारे में जीतेंदर चौधरी ,कुवैती ने सवाल पूछा था निरंतर के पूछिये फुरसतिया से स्तंभ के अंतर्गत। हमने जवाब देने की सोची लेकिन सुधी और कठोर संपादकों ने इसे व्यक्तिगत बता कर गांगुली की तरह प्रश्नसूची से बाहर कर दिया। बहरहाल जीतू का सवाल था:-
फुरसतिया जी, ये बताइए, कि हमारे शेखचिल्ली फोटो मे हँस रहे है या रो रहे है? जरा विस्तार से बताइएगा।शेखचिल्ली जी ने भी अपनी फोटोलगाते हुये अपने बारे में सिर्फ यह लिखा है:-
हम ये करेंगे- हम वो करेंगे” कहने वाले नेताओं से लेकर दुनिया का चिट्ठा लिखने वाले ब्लॉगर तक- हम सभी श्री शेखचिल्ली के वंशज हैं| उन्हीं की आत्मा के निर्देश पर हिंदी मे यह ब्लॉग आरंभ किया गया है।( तस्वीर में आगे हंस रहे हम हैं और पीछे आप हैं:)))
हम
ये करेंगे- हम वो करेंगे” कहने वाले नेताओं से लेकर दुनिया का चिट्ठा
लिखने वाले ब्लॉगर तक- हम सभी श्री शेखचिल्ली के वंशज हैं| उन्हीं की आत्मा
के निर्देश पर हिंदी मे यह ब्लॉग आरंभ किया गया है।( तस्वीर में आगे हंस
रहे हम हैं और पीछे आप हैं:)))
वैसे पहली मुलाकात में “हम कौन हैं?” पूछने वाला शख्स या तो राजकुमार होता है जो कहता है जिनके घर कांच के होते हैं वे दूसरों के यहाँ पत्थर नहीं फेंकते या फिर असरानी -(आधे इधर-आधे उधर बाकी मेरे पीछे)टाइप। अब चूंकि जानी कहने वाले राजकुमार तो गो ,वेंट ,गान हो गये लिहाजा हम यही मानने को मजबूर हैं कि आप अंग्रेजों के जमाने के जेलर के खानदान के मसखरे हैं।हमने बहुत प्रयास किया कि हम बता सकें कि शेखचिल्ली की दिव्य हंसी दारुण विलाप का कारण तलाश सकें लेकिन असफल रहा। अब हारकर कुछ अटकलें लगाने के लिये बाध्य हूँ।
वैसे रोने से जी हल्का होता है,आँखें खूबसूरत होती हैं यह सब मानने के बावजूद रोना किसी का भी अच्छा नहीं माना जाता लिहाजा हम मान लेते हैं ये सिर्फ हंस रहे हैं।
शेखचिल्ली के वंशज होने के नाते ऊल-जलूल हरकतों में बुद्धिमानी का छौंक लगाकर पेश करने की कोशिश पर इनका कापी राइट है। या फिर हो सकता है कि अपनी हर बचकानी अदा को बुद्धिमानी के चश्मे से देखने की खानदानी बीमारी हो।
शेखचिल्ली के वंशज होने के नाते ऊल-जलूल हरकतों में बुद्धिमानी का छौंक लगाकर पेश करने की कोशिश पर इनका कापी राइट है।
ये हंस शायद इसलिये रहे हैं कि पहले कभी हंसने का मौका नहीं मिला होगा।
अब जब दांत टूट गये हैं तो जाते-जाते हंसने का मन करता है जैसे कि उम्र का
पचासा पार करने के बाद बहुत से लोगों को लगता है -काश हम जवाँ होते या फिर हम भी अगर बच्चे होते नाम हमारा होता बबलू।सफेद मूँछे और मुंदी हुई आंखों से लगता है कि इनकी आत्मा पर किसी राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष का कब्जा है जो मरते दम तक अपना शिकंजा कसे रहना चाहता है। पकी मूँछें, टूटे दांत,(दुनिया से )मुंदी आखें ,छिपे हुये पंजे बता रहे हैं कि ये खाये -खेले हुये हैं। साथ के छौने को उस गुर में पारंगत कर रहे हैं जिसमें ये अपने को माहिर मानने का भ्रम पाले हैं।
ये हंस क्यों रहे हैं यह बताना मुश्किल है क्योंकि हंसी की महिमा अपरंपार है। यह ज्ञानी और मूर्ख पर समान रूप से कृपालु होती है। यह बालक और वृद्ध को समान भाव से मारती है। व्यक्ति खुश होकर भी हंस सकता है तथा फंस कर भी। हंसे तो फंसे के साथ-साथ फंसे तो हंसे भी चलन में आना चाहिये। वैसे लोग बिना मतलब भी हंस सकते हैं । हंसी के पीछे कोई कारण तलाशना कुछ ऐसा ही है जैसे मेरी इस बस यूँ ही नुमा पोस्ट का कोई गंभीर मतलब निकालना ।
हंसी
की महिमा अपरंपार है। यह ज्ञानी और मूर्ख पर समान रूप से कृपालु होती है।
यह बालक और वृद्ध को समान भाव से मारती है। व्यक्ति खुश होकर भी हंस सकता
है तथा फंस कर पर भी।
अक्सर ऐसा होता है कि आदमी को जब कुछ समझ में नहीं आता है तो हंसने लगता
है कुछ-कुछ वैसे ही जब किसी नौजवान को कुछ समझ में नहीं आता तो शादी कर
लेता है।बहरहाल इतना पढ़ लेने के बाद जो थकान हो गयी उसके श्रम को भुलाने के लिये एक सत्यकथा कहता हूँ उसे ध्यान से पढ़ने का प्रयास करें:-
किसी विभाग में कुछ निर्माणकार्य कराया गया। रात को उसकी सुरक्षा के लिये एक स्टाफ को तैनात किया गया। रात में विभाग के वरिष्ठतम अधिकारी का मन किया कि देखा जाये काम कैसा हुआ है। सो वे अपने मन के आधीन होकर पैर चलाते हुये निर्माण स्थल पर पहुँचे। रात का समय था। स्टाफ को अंधेरे में दिखता नहीं था सो वह किसी को आता देखकर बोला -कौन है बे? साहब ने सहमते -सरमाते हुये अपना परिचय दिया तथा स्टाफ ने हकलाते हुये बताया साहब गलती हो गयी। लेकिन साहब खुश हुये कि चौकसी चकाचक है।इस निहायत सहज घटना से विद्वान लोग अपने-अपने मतलब के मतलब निकाल सकते हैं। लेकिन आम मतलब निकाला गया वह यह था कि जिसको सबसे पहले नमस्ते करने में बडे़-बड़ों में मारा-मारी होती हो उससे अंधेरे का फायदा उठाकर उनसे सात पद नीचे का कर्मचारी बड़ी कर्तव्य परायणता से डांटते हुये पूछ
सकता है-कौन है बे?
संभव है शेखचिल्ली जी तथा खबरिया लोग देवरहा बाबा की तरह सिद्ध पुरुष हों जिनके लात खाने के लिये बात-बात में देश के प्रधानमंत्री तक लाइन लगा देते हों। लेकिन हम तो आम इंसान हैं। अज्ञानी हैं। हमें कुछ नहीं पता कि ये विभूतियाँ कौन हैं। लिहाजा हम अपने अज्ञानांधकार का फायदा उठाते हुये दोनों विभूतियों से पूछना चाहते हैं- हे महाराज, बतायें आप कौन हैं? अपनी नकाब उठायें हम आपके बारे में जानने के लिये व्याकुल हैं। आप कुछ बतायें वर्ना हो सकता है कि अगली किसी मुलाकात में हम पूछें -कौन है बे?
फिलहाल बस इतना ही। शेष फिर कभी…।
Posted in बस यूं ही | 24 Responses
खबरिया की हमे खबर नारदमुनि को है, लेकिन वो गोपनीयता की शर्तों से बन्धे है, इसलिए नही बता सकते।
बहुत गूढ़ बात कही। अच्छी लगी। मज़ेदार आलेख। बाकी मैं भी अतुल जी की बात का समर्थन करती हूँ।
वैसे अगर पहचान छिपाई तो जो लिखा जायेगा उस की विश्वसनियता कैसे होगी?
यह आपने सही कहा कि हर नये ब्लाग पर हम स्वागत की टिप्पणी कर आते हैं बिना सोचे (जब तक अतुल जी चेता न दें।)
Why are you to interfere in other people’s matters?
Who are you to tell public what is right and what is not.
If you want feelgood flavour then watch Karan Johar movies, There is nothing offensive in those blogs (Khabaria and Shekhchilli) ,we consider them as good humour.
You have written such harsh comments on them which show how polite?? you are. Mr. Shukla mend your own house.
What you have written is acerbic.
कुछ साल पहले कानपुर में दो लड़के एक लड़की को सरेआम छेड़ते थे। सारे राहगीर वही सोचते थे जो आम भारतीय सोचते हैं, या अभी आपने सोचा “अपन को कोई फर्क नहीं पड़ने का”। हुआ यह कि जब हद हो गई तो लड़की ने पुलिस में शिकयत कर दी। पुलिस ने भी सोचा कि मामूली छेड़छाड़ है,जाने दो “अपन को कोई फर्क नहीं पड़ने का”। बाद में एकदिन दिनदहाड़े उन दोनो ने लड़की के चेहरे पर तेजाब फेंक दिया, पुलिस से शिकयत करने के जुर्म में।
नीरज भाई हम सबकी प्रवृति हो गई है गलत का विरोध महज कागज रँगके करने की। वैसे ब्लागजगत खुला मँच है, सबको अपनी बात कहने का पूरा हक है, कोई जबरदस्ती नही। जैसे जादूटोने वाला अपना धँधा फैला सकता है ब्लागिंग पर, वैसे ही कोई मस्तराम का कचरा भी छाप सकता है।
पर जब तक टिप्पणी का दरवाजा खुला है, हम टिप्पणी क्यों न करें? किसी डाक्टर ने थोड़े ही कहा या फिर किसी धर्मशास्त्र में भी नही लिखा है कि नये ब्लाग पर हमेशा सोहरगान ही किया जाये। जैसे खुलामँच है लिखने का, वैसे ही टिप्पणी करने की भी आजादी है। टिप्पणी उत्साह बढ़ाने को भी होती हैं और इनसे सही रास्ता भी दिखाया जा सकता है। आपका क्या कहना है?
आपका यह लेख पढकर बेहद क्षोभ हुआ, यह मानने को यकीन नही हुआ कि यह आपने लिखा है।
मेरा मानना है कि आपका उद्देश्य मतलब रखता है, न कि आपका नाम, या पता।
कोई भी व्यक्ति जान बूझ कर गुमनामी में रहकर चिठ्ठाकारी नही करना चाहता, अगर वह ऐसा करता है तो जरूर उसकी कोई मजबूरी होगी, उसे समझने का प्रयत्न करें, और जब तक उद्देश्य ठीक है, विरोध न करें।
जब तकनीक के पुरोधा लोगों ने यह सुविधा दी है कि लोग मेरी तरह गुमनाम रहकर चिठ्ठाकारी कर सकें तो आप या और किसी को भी कोई आपत्ति नही होनी चाहिये। अगर आप लोगों को नही अच्छा लगता तो मत पढिये। जिसे अच्छा लगेगा वह पढेगा।
बहरहाल यह लेख पढकर मुझे लगता है कि मुझे हिंदी चिठ्ठाकारी से अवकाश ले लेना चाहिये।
सबसे पहली बात तो यह कि मेरा ब्लाग कोई हिंदी ब्लागिंग का मील का पत्थर या दिशानिर्देशक नहीं हैं न ही ऐसी कोई मजबूरी कि आप मेरे ब्लाग से दुखी हैं तो सबको त्याग दें। मेरे कारण आप दूसरों को कष्ट दें। वैसे यह भी बताना जरूरी समझता हूँ कि हिंदी में ब्लाग लिखकर न मैं हिंदी पर अहसान कर रहा हूँ न आप। मेरे और आपके लिखने न लिखने से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा हिंदी ब्लागिंग पर । आप जैसे हों या न हों लेकिन मुझे इस बारे में कोई भ्रम नहीं कि मेरे से कई गुना बेहतर ,सार्थक लिखने वाले लोग हैं हिंदी में जिनको अभी बस पता चलना है। मैं फिर से लिख रहा हूँ कि मुझे अपने लेख के लिये कोई अपराध बोध नहीं है। लेकिन आपको इससे क्षोभ हुआ इससे मेरा मन दुखी है। यह मानते हुये भी कि हिंदी ब्लागर,स्वामीजी तथा अन्य सभी अनाम नामों से चिट्ठा लिखने वाले साथियों के बारे में यह जानते हुये भी कि उनको मेरी पोस्ट से शायद इतना दुख न पहुँचा हो कि वे चिट्ठाकारी छोड़ने की बात करें,मैं उनके प्रति भी अफसोस प्रकट करता हूँ। आशा है कि मेरी बात को सही परिप्रेक्ष्य में लेते हुये कम से कम चिट्ठाकारी त्यागने के लिये कम से कम इस पोस्ट को कारण न बनायें। बाकी आपकी मर्जी!
जवाब के लिये धन्यवाद। आपका यह चिठ्ठा हम सभी उपनाम या छद्मनाम से लिखने वालों को संबोधित करता प्रतीत होता है।
मैने कहीं भी चिठ्ठाकारी छोडने की बात नही लिखी। मैने कहा अवकाश लेने की इच्छा हो रही है। चिठ्ठाकारी छोडना शायद मेरे बस से बाहर है अब तो, जब तक कि कोई बडी मजबूरी न आ जाये।
मै जानता हूं कि न तो मै या कोई और हिंदी में चिठ्ठाकारी कर के किसी पर कोई अहसान कर रहा है, फिर भी याद दिलाने के लिये धन्यवाद।
बाकी रहा आज तक, हां मुझे भी अच्छा चैनल लगता है, लेकिन बुराइयां सबमें होती हैं और यदि कोई उनकी बुराइयां बताकर उन्हे सुधरने के लिये कुछ बिंदु दे रहा है, तो इसमें क्या हर्ज। हां “लेंगे” वाली भाषा जरूर गलत थी, लेकिन समय समय पर कई बार इससे भी गई गुजरी भाषा पढ जाता हूं कुछ चिठ्ठों पर। मै मानता हूं चिठ्ठालेखन “स्वान्तः सुखाय” है, होना चाहिये, बहुजन हिताय हो या न हो, अगर लिखने वाला खुश है और उसे कुछ लोग पढ रहे हैं या नही पढ रहे हैं, इससे किसी को कोई फर्क नही पडना चाहिये। यह मेरा मानना है, बाकी, सारे लोग पढे लिखे समझदार हैं, जैसी सबकी मर्जी।
इस लेख के बारे मे और इस मुद्दे पर मेरी राय है की छद्म नामों का प्रयोग कर ब्लाग पत्रकारिता के नाम पर लोगों का और चैनलों पर की जा रही स्तरहीन छींटाकशी पर व्यंग्य है यह लेख. चोट बहुत करारी है. यह लेख उस घटिया मजमेबाजी पर प्रश्न उठाता है जिसमें पाठक को सस्ते लेखन में रस लेने वाला तमाशबीन समझा जा रहा है.
इन्टरनेट स्वतंत्र अभिव्यक्ति और दो तरफ़ा संवाद का माध्यम है और कोई किसी पर सेंसरशिप नही लगा सकता. कोई किसी का बडा भाई नहीं बनने चला और ये नही सिखाने चला की ब्लागिंग कैसे हो.
हुआ बस ये है की अतुल और अनूप नामक एक-दो पाठक अपने जागरूक होने का सशक्त प्रमाण देने के लिए मुखर हो उठे हैं और जब ऐसे सजग पाठक मुखर होते हैं तो बिना सोचे समझे नही होते.
किसी की “लेने” का भावार्थ समझते हैं आप? एक वेबसाईट बना कर कहा जा रहा है की हम फ़लाने की लेंगे और आप पढें मजे लें. सहृदय पाठक फ़िर भी हिंदी में लेखन होने की खुशी में स्वागत है करने लगते हैं. फ़िर होती है छींटाकशी शुरु कुछ लोग तीस पर भी कहते हैं चलो लगे रहो!
अतुल का प्रश्न है की क्यों कम इस स्तरहीनता के मौन दर्शक बनें इस प्रकार की हरकतों पर अपनी मौन स्वीकृति लगा दें? हमें क्या समझा जा रहा है भई? क्या वे यह कहने का हक नहीं रखते की खबरिया/शेखचिल्ली महोदय हम आपके लेखन की चालू शैली को पसंद नही करते और आपको दोयम दर्जे का पत्रकार भी नही मानते और आपके लेखन को मजेदार लेखन भी नही मानते. आपकी दी जा रही खबरों में पठनीय और स्तरीय कुछ नही मिला.
अतुल और अनूपजी नें उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग इस घटियागिरी पर व्यंग्य करके किया है और तीर निशाने पर लगा है. मैं देखता हूं की एकाधिक लोगों ने चीजों को सही परिपेक्ष्य में देखना शुरु किया है. इस पूरे वृत्तांत में सजग पाठक का चुप्पी तोडना लाज़मी हो गया था और ये करने का सहस करके वो मेरे और प्रिय हुए हैं. फ़िर भी जिसको इस प्रकार का लेखन पढने में मजा आ रहा है वे पढें लेकिन कम से कम उन्हें सनद रहे की पाठकों का एक तबका जरा अलग मत रखता है!
अगर ब्लाग पत्रकारिता की जा रही है और भडास निकालने के लिए ही की जा रही है तो भी भाषाई स्तरीयता का आग्रह मान कर और सामग्री के सुरुचिपूर्ण होने का मानदंड बना कर आप अपने पाठकों का सम्मान ही अर्जित करते हो – क्या होगा अगर अधिकतर पाठक नाक भौं सिकोड लें और ऐसे प्रयासों को प्रतिक्रिया देने लायक भी ना समझें? महमूद शुरु में अच्छे कामिडियन थे बाद में स्तरहीन और पकाऊ हो गए – लोग स्वस्थ्य आलोचना के अभाव में चाहे जो बेढब करने लगते हैं. मैं स्वयं उद्दंड लेखन के लिए जाना जाता हूं लेकिन “इसकी उसकी लेंगे” कहन और पाठकों की बिलौटों से तुलना की जाना तो मेरे हिसाब से भी लेखन की शालीन मर्यादाओं का उल्लंघन है और इस ये बात दूसरी ओर पहूंचाई जाना जरूरी है!
प्रिय मित्र, राहुल.
आप इस चिट्ठे को दुबारा, तिबारा, समझ में आने तक चौबारा और हो सके तो समझ में आने के बाद भी दर्जनों बार पढ़ें.
फिर अपनी राय दें.
इस चिट्ठे पर आपकी राय अंततः वही होगी जो आपका लिखा ऊपर उद्धृत किया गया है.
काश मैं अतुल जी की तरह हिम्मत जुटा पाता।
फुरसतिया जीः
इन्टरनेट तो खुली किताब है ना और ब्लॉग तो अपने मन की भडास निकालने के लिए बेहतरीन जगाह है। सबको हक है के अपने ब्लॉग पर खुल कर लिखे और खुल कर लिखने का ये मतलब नही के हर किसी पर कीचड उछाले ये अच्छी बात नही। मैं शेखचिल्ली और खबरिया के बारे मे जानना नही चाहता मगर अच्छा होता के वोह खुद अपना परिचय करवाते – खैर उन्की अपनी मर्ज़ी।
फुरसतिया जी अपकी बात भी सही है मगर मेरी राए मे आपको चाहिये था के पहले आप उन दोनों को मेल भेज कर फिर चैटिंग से बात चीत बढाते और उन्के बारे मे जानने की कोशिश करते और फिर अप खुद अपने ब्लॉग पर अपने अन्दाज़ मे उनका परिचय करवाते तो पढने वालों को बहुत मज़ा आता और अपने कारनामे पर बधाई पाते।
इस टिप्पणी मे मैं ने वही लिखा जो आपका लेख पढ कर समझ आई – बाकी अगर मेरी कोई बात आपको बुरी लगे तो मैं फुरसतिया जी से क्षमा चाहता हूं।
लेखन में शालीनता का तकाज़ा तो फ़िर भी उठता ही है , चाहे आप नाम से लिखें या बेनाम ।
इसी से सम्बन्धित मेरा लेख है ”अल्प ब्लाग जीवन के फटे में पैबँद” यहां पर http://pramendra.blogspot.com
नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य कृयते मृगै:|
विक्रमार्जितसत्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता।।
( वन के जन्तु सिंह का न तो अभिषेक करते हैं, न कोई संस्कार। (किन्तु) अपने विक्रम से अर्जित उसकी शक्ति ही उसे मृगेन्द्र बना देती है।
हो सकता है वो बच्चे हों, जोश है कुछ करने का। कुछ मौका तो दो।
लिखते हैं शहसवार मैदाने ब्लॉग में,
वो क्या खाक लिखंगे जो सिर्फ़ औरों की ‘लिया’ करते हैं।